अगले महीने केरल में चुनाव होने जा रहे हैं।सभी जानते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने केरल की राजनीति में अपने कदम ज़माने के लिए सघन प्रयास किए हैं। केरल में मुसलमानों के खिलाफ वातावरण बनाने वाला हर वक्तव्य संघ परिवार की ताकत को बढ़ाता है। इस साल की शुरुआत में साईरो–मलाबार कैथोलिक चर्च की धर्मसभा (धर्मप्रांत के पादरियों की समिति) ने एक बयान जारी कर ‘लव जिहाद’ और नाइजीरिया में कट्टरपंथी इस्लामवादियों द्वारा ईसाईयों की हत्या की निंदा की। संघ और भाजपा ने हाल में ऑर्थोडॉक्स और जेकोबाईट चर्चो के बीच एक पुराने सम्पति विवाद को सुलझाने में काफी रूचि दिखलाई। उन्होंने एक हजार साल पुराने एक ऑर्थोडॉक्स चर्च को राष्ट्रीय राजमार्ग के चौड़ीकरण के लिए गिराए जाने से भी बचाया। चर्च के अलावा, संघ और भाजपा इजवा समुदाय में घुसपैठ करने का प्रयास भी कर रहे हैं। इजवा वही समुदाय है जिसमें नारायण गुरु का जन्म हुआ था। यह केरल का सबसे बड़ा हिंदू समुदाय है और लंबे समय से ब्राह्मणवाद के कट्टर विरोधी के रूप में जाना जाता रहा है।
प्रो. जी.मोहन गोपाल देश के शीर्ष विधिवेत्ताओं में से एक हैं और बेंगलुरु स्थित नेशनल लॉ स्कूल ऑफ़ इंडिया यूनिवर्सिटी के कुलपति रह चुके हैं। केरल के समाज और उसकी राजनीति पर उनकी गहरी पकड़ है। उनके गृह राज्य में हाल के कुछ वर्षों में हुए सामाजिक–राजनैतिक परिवर्तनों का उनका विश्लेषण प्रो. गोपाल ने फारवर्ड प्रेस के साथ एक साक्षात्कार में साझा किया।
आरएसएस लंबे समय से केरल के बहुपंथिक, पारंपरिक चर्च को रिझाने का प्रयास करता रहा है। परंतु अब ऐसा लगता है कि चर्च को भी संघ से कोई परहेज़ नहीं रहा। इस बारे में आपका क्या कहना है?
सीधी और सच्ची बात यह है कि संघ, केरल के ईसाईयों में अपनी पैठ बनाकर वहां के मुसलमानों को अलग-थलग करना चाहता है। सन् 1979 से – मतलब करीब 42 सालों से – यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) के ज़रिए मुस्लिम लीग का नायरों और सीरियन ईसाईयों[1] से निकट जुड़ाव रहा है। इन 42 वर्षों में से 21 में इन समुदायों का राज्य पर शासन रहा है। यूडीएफ की सरकारों ने इन समुदायों को राज्य की मदद से समृद्ध बनने का भरपूर मौका दिया।
सन् 1990 के दशक से देश के राजनैतिक फलक पर संघ/भाजपा का उदय शुरू हुआ, जिसकी अंतिम परिणति थी 2014 में उनका केंद्र में सत्ता में आना। इस अवधि में नायर मतदाताओं के एक बड़े तबके ने यूडीएफ से किनारा कर राष्ट्रीय स्तर पर उदयीमान संघ/भाजपा का दामन थाम लिया। सन् 1970 के चुनाव, जो यूडीएफ के गठन के पूर्व राज्य का अंतिम ‘सामान्य’ चुनाव था, में संघ परिवार को 0.6 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे। वहीं सन् 2016 के विधानसभा चुनाव में उसे 10.55 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। यह मुख्यतः नायरों की बदौलत ही हो सका, जो राज्य की आबादी का 12 प्रतिशत हैं। केरल में संघ और भाजपा का अर्थ है नायर। केरल में वे ही भगवा ध्वजधारियों के खेवैया हैं। राज्य में अगर भाजपा अपने कदम जमा पा रही है तो इसका अर्थ यह है कि नायर समुदाय ने यूडीएफ को त्याग दिया है और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि नायर मुसलमानों के खिलाफ हो गए हैं।
यूडीएफ में अब मुसलमानों का साथ देने वाला एक ही समुदाय बचा है और वह है ईसाई समुदाय। हिंदुत्ववादियों अर्थात नायरों को लग रहा है कि यह चुनाव मुसलमानों को पूरी तरह अलग-थलग करने का एक सुनहरा मौका है। ईसाई धर्म के पास एक वैश्विक शक्ति है। इतिहास गवाह है कि केरल की पुरानी सामंती अर्थव्यवस्था में जमींदार बतौर नायरों और ईसाईयों ने दमनकारी जाति व्यवस्था को बनाए रखने में खासी भूमिका निभायी। अब ऐसा लग रहा है – और यह संभव भी है – कि नायरों के वर्चस्व वाले आरएसएस और सीरियन चर्च में एक समझौता हो गया है। और वह यह कि जहां तक संभव हो, चर्च आरएसएस की निंदा करने से बचे और संघ के एजेंडा के अनुरूप इस्लाम को आतंकवाद फैलाने और महिलाओं के प्रति दुराग्रह रखने का दोषी ठहरा कर उस पर हमले करे। हाल में केरल के (सायरो-मलाबार कैथोलिक) चर्च ने एक वक्तव्य जारी कर कहा कि ‘लव जिहाद’ सचमुच हो रहा है। चर्च ने नाइजीरिया में ईसाईयों पर हुए क्रूर हमले को इस्लाम से जोड़ा। इस वक्तव्य को संघ और चर्च की बढ़ती नजदीकियों के संदर्भ में देखा-समझा जाना चाहिए।

मुसलमान केरल की धरती के पुराने निवासी हैं। वे राज्य की कुल आबादी का 27 प्रतिशत हैं औ राज्य का सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय हैं। वे केरल की बहुवर्णी संस्कृति का अभिन्न और मुख्य भाग हैं। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि मुसलमान न तो अलग-थलग हों, न वे यह महसूस करें कि उन्हें अलग-थलग कर दिया गया है और ना ही उन्हें ऐसा लगे कि उन्हें अलग-थलग करने के प्रयास हो रहे हैं। हमें उन्हें ‘दूसरा’ नहीं बनने देना है। यह न केवल गलत होगा वरन् राज्य की सामाजिक एकता के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बन जाएगा।
बहरहाल, यह सब तो केरल में काफी समय से हो रहा है। ‘लव जिहाद’ का मुद्दा देश में सबसे पहले केरल में ही उभरा था। इसके समानांतर, संघ और भाजपा नारायण गुरु को अपना बता कर इजवा समुदाय को अपने शिविर में लाने का प्रयास भी कर रहे थे। क्या नारायण गुरु पर कब्ज़ा करने और ईसाई समुदाय को आकर्षित करने के प्रयास एक दोहरी रणनीति का हिस्सा थे? या फिर एक रणनीति के असफल हो जाने के बाद दूसरी रणनीति अपनाई गई?
दरअसल, हिंदुत्ववादियों की रणनीति दोहरी नहीं बल्कि तिहरी है। वे मुसलमानों के खिलाफ अभियान चला रहे हैं, इजवाओं को रिझा रहे हैं और नारायण गुरु पर कब्ज़ा कर रहे हैं। ये तीनों काम एक साथ, समानांतर रूप से किए जा रहे हैं। वे अलग-अलग लग सकते हैं परन्तु वे एक-दूसरे से संबद्ध हैं।
संघ अनार्य और अवर्ण समुदायों पर डोरे डाल रहा है। उसका उद्देश्य इन समुदायों को आर्य, सवर्ण सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा बनाकर एकसार, संस्कृत-आधारित, ब्राह्मणवादी हिन्दू समुदाय का निर्माण करना है। जैसा कि गोलवलकर का कहना था – “एक देश, एक राष्ट्र, एक विधायिका, एक कार्यपालिका”।
इजवाओं को जोड़ने के पीछे चुनावी गणित भी है। इजवा केरल का सबसे बड़ा हिन्दू समुदाय है (आबादी का करीब 22 प्रतिशत)। भाजपा नायरों में जितनी घुसपैठ कर सकती थी, वह कर चुकी है। नायर कुल आबादी का 11.9 प्रतिशत हैं और सन् 2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 12 प्रतिशत और 2019 के लोकसभा चुनाव में 13 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे। साफ़ है कि नायरों के सहारे और आगे बढ़ने की गुंजाइश अब है नहीं। भाजपा को यदि चुनाव में और ज्यादा वोट पाने हैं तो उसे इजवा समुदाय को अपने साथ लेना ही होगा। इजवा मुख्यतः लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) के साथ हैं। अगर वे भाजपा के साथ जुड़ जाते हैं तो इससे पार्टी एक तीर से दो निशाने साध सकेगी – उसका आधार मज़बूत होगा और एलडीएफ का खोखला।
जहां तक नारायण गुरु का प्रश्न है, वे उन पर कब्ज़ा नहीं कर रहे हैं। वे उनका एक गढ़ा हुआ, नकली रूप प्रचारित कर रहे हैं। वे उनके संदेश को विकृत कर रहे हैं। वे उनकी नए सिरे से पैकेजिंग कर उन्हें ब्राह्मणवादी परम्परा का संत सिद्ध करने पर आमादा है। वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि नारायण गुरु का संदेश ब्राह्मणवाद के लिए अत्यंत हानिकारक है। नारायण गुरु सवर्ण परंपरा और आंदोलन के प्रत्येक बिंदु से असहमत थे। वे तो हिंदू धर्म को धर्म ही नहीं मानते थे। वे सभी धर्मों को एक नज़र से देखते थे और उन्हें किसी भी व्यक्ति के किसी भी धर्म को अपनाने से कोई आपत्ति नहीं थी। वे आर्य-अनार्य, सवर्ण-अवर्ण-चातुर्वर्ण जैसे खांचों में यकीन ही नहीं रखते थे। वे संपूर्ण मानव समुदाय को एक मानते थे। वे सामाजिक ऊंच-नीच का पुरजोर खिलाफत करते थे। वे हर व्यक्ति के अपने निर्णय स्वयं लेने के अधिकार के हामी थे। वे स्वतंत्रता और समानता में यकीन रखते थे। वे ब्राह्मण पुरोहितवाद को ख़ारिज करते थे। वे देश के एकमात्र ऐसे समाज सुधारक थे, जिन्होंने हिंदू धर्म के संस्कारों, पूजा पद्धति और कर्मकांडों में इस तरह के सुधार किये, उनका इस ढंग से प्रजातांत्रिकरण किया जिससे इस धर्म को ब्राह्मणवाद से मुक्त किया जा सके। उन्होंने जिस ढंग से पारंपरिक ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म पर प्रश्न उठाये और जिस ढंग से केरल के समाज को प्रगतिशील और प्रजातांत्रिक बनाया, उसकी कोई सानी नहीं है।
‘लव जिहाद’ का हौव्वा खड़ा करने से मुसलमानों को ‘दूसरा’ बनाना आसान हो जाता है। इससे भारत को युद्धरत कबीलों के देश में बदलना संभव हो सकता है। इससे इस्लाम और मुसलमानों के प्रति भय और संशय का भाव उत्पन्न किया जा सकता है। हिन्दुओं और मुसलमानों को आपस में भिड़ा देने से जातिगत दमन के खिलाफ संघर्ष नेपथ्य में चला जाएगा। सच तो यह है कि सवर्ण आंदोलन, राष्ट्रवाद का चोला ओढ़ कर बांटो और राज करो की पुरातन ब्राह्मणवादी चाल चल रहा है।
हिन्दुत्ववादी एक साथ तीन रणनीतियों पर अमल कर रहे हैं और तीनों का लक्ष्य आरएसएस के असली एजेंडा को लागू करना है। संघ की परियोजना यह है कि ब्राह्मणों की संस्कृति, विचारों, आस्थाओं, मान्यताओं, निष्ठाओं और पूजा पद्धति को हम सभी भारतीयों पर लाद दिया जाए, विशेषकर उन पर जो हिंदू हैं।

संघ हमारे जीवन के हर पक्ष पर नियंत्रण करना चाहता है – हम क्या सोचें, कैसे सोचें, किस भाषा में सोचें, किस भाषा में बोलें, कितने बजे बिस्तर पर जाएं, कितने बजे सो कर उठें, उठने और सोने बीच क्या करें, क्या खाएं, क्या पिएं, क्या पहनें, सांस कैसे लें, हमारे मूल्य क्या हों, हम क्या ज्ञान प्राप्त करें, हमारे सबसे अंतरंग रिश्ते कैसे हों, हमारे समाज का संगठन कैसा हो और हमारी राजनीति और अर्थव्यवस्था कैसी हो। वे हमारी विविधवर्णी संस्कृति का नामोनिशान मिटा देना चाहते हैं। वे हमें रोबोट बना देना चाहते हैं। वे हम प्राकृत लोगों को ‘संस्कृत’ (अर्थात ब्राह्मणवादी) बना देना चाहते हैं। अब तक मानव इतिहास का साबका कभी इससे विस्तृत, इससे व्यापक, इससे सर्वव्यापी सांस्कृतिक साम्राज्यवाद से नहीं पड़ा है। जिस स्तर पर यह परियोजना चलायी जा रही हैं – आख़िरकार हमारी आबादी एक अरब से कहीं अधिक है – उसके आगे आईएसआईएस की दुनिया के इस्लामीकरण की परियोजना बौनी है। इसके मुकाबले ऑस्ट्रेलिया के मूलनिवासियों का कत्लेआम और अमेरिका में अप्रवासियों द्वारा वहां के आदिवासियों पर किये गए अत्याचार कहीं नहीं ठहरते। ‘रिटेन सवर्ण सुप्रीमेसी’(आरएसएस) अर्थात सवर्णों का प्रभुत्व बनाए रखो, उनका लक्ष्य है।
केरल में चर्च की समस्या क्या है? क्या वह नासमझ है? या क्या उसके पास इतना कुछ है कि उसे खो देने के डर से वह भयभीत है?
केरल के सीरियन चर्च के मूर्ख या अज्ञानी होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं है। वह बहुत सोच-समझ कर और गुणा-भाग कर अपना काम कर रहा है।
सन् 2019 में भाजपा की राष्ट्रीय स्तर पर विजय और कांग्रेस की सत्ता में वापसी की संभावना क्षीण होते जाने से भाजपा की सरकार अत्यंत आक्रामक हो गई है। वह येन-केन प्रकारेण संघ का एजेंडा लागू करने के लिए कटिबद्ध है। जहां ज़रुरत हो, वहां उसे राज्य की शक्ति का इस्तेमाल करने और उसकी राह में आने वालों को जेल में डालने से भी कोई परहेज़ नहीं है। मुझे ऐसा लगता है कि ऐसे हालात में ईसाई समुदाय का एक तबका, विशेषकर वे जो ज़िम्मेदार पदों पर है, पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर पालने के लिए अनिच्छुक हैं। वे केंद्र सरकार को नाराज़ नहीं करना चाहते। उनके व्यापार-व्यवसाय हैं और वे नहीं चाहते कि केंद्रीय जांच एजेंसियों को उनके पीछे छोड़ दिया जाए। चर्च के पास भी भारी संपत्ति है और फिर चर्च को ईसाईयों के व्यावसायिक हितों की रक्षा भी तो करनी है।
जैसा कि मैंने पहले बताया, सीरियन ईसाईयों और नायरों के श्रेष्ठी वर्ग की लंबे समय से सांठगांठ रही है। कई मामलों में उनके हित समान हैं। सदियों तक वे राजाओं और नम्बूदरी ब्राह्मणों के हितों के पहरेदार रहे और उन्होंने केरल में जातिगत दमन और गुलामी की प्रथा को बनाए रखने में महती भूमिका अदा की । नायर-सीरियन चर्च का दकियानूसी गठबंधन यूडीएफ की नींव है। केरल में आरएसएस का नेतृत्व नायरों के हाथों में है और वे अपने पुराने दोस्तों – सीरियन ईसाईयों – को भाजपा/एनडीए से जोड़ने के लिए रास्ते तलाश रहे हैं। यह इस तथ्य के बावजूद कि राष्ट्रीय स्तर पर हिंदू-हिंदुत्ववादी आंदोलन का रुख ईसाईयों के एकदम खिलाफ है।
यह भी हो सकता है कि ईसाईयों का एक हिस्सा यह सोचता हो कि वैश्विक स्तर पर इस्लाम और पश्चिम के ईसाई राष्ट्रों के बीच टकराव के चलते उन्हें मुसलमानों की खिलाफत करनी चाहिए। परंतु, वे यह भूल रहे हैं कि वैश्विक स्थिति की तुलना केरल से करना बेमानी होगा। केरल में युगों से इस्लाम और ईसाई धर्म का शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व रहा है – तब से जब न तो ईसाई धर्म और ना ही इस्लाम पश्चिम पहुंचा था। इस पुरानी दोस्ती को निभाना ज़रूरी है। छोटे-मोटे फायदों के लिए केरल के ईसाईयों को इस्लामोफोबिया को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए।
ईसाई समुदाय के जो नेता हिंदुत्व की शक्तियों के साथ हाथ मिला रहे हैं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदुत्व के लिए इस्लाम जितना बड़ा दुश्मन है, उतना ही बड़ा दुश्मन ईसाई धर्म भी है। अगर आप सावरकर की व्हाट इज़ हिंदुत्व या गोलवलकर की बंच ऑफ़ थॉट्स – जो संघ और हिन्दू महासभा की बाइबिल हैं – पढ़ें तो आपको यह साफ़ समझ में आ जाएगा कि हिंदुत्व आंदोलन केवल मुस्लिम विरोधी नहीं है। वह ईसाई विरोधी भी है। हिंदुत्व जानता है कि अगर देश के ओबीसी और एससी/एसटी हिन्दू धर्म को त्याग कर किसी अन्य धर्म का वरण करेंगे तो वह धर्म ईसाईयत होगा, इस्लाम नहीं। ईसाई दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे धनी धर्म है। पृथ्वी के लगभग 2.3 अरब निवासी (दुनिया की आबादी का एक-तिहाई) ईसाई हैं और दुनिया के 195 देशों में से 120 में ईसाईयों का बहुमत है। और इन देशों में दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र शामिल हैं। इसके विपरीत, केवल 50 देशों की बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम है।
जो सीरियन ईसाई हिन्दुत्ववादी ताकतों से आंखें लड़ा रहे हैं और इस्लामोफोबिया के जाल में फंस रहे हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि भारत में अल्पसंख्यक केवल तभी तक सुरक्षित हैं जब तक देश में समावेशी धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र है और जब तक यहां का शासन उस संविधान के प्रावधानों से संचालित है जो उन्हें अपने धर्म में आस्था रखने, उसका आचरण करने और उसका प्रचार करने का समान अधिकार देता है। हिन्दू राष्ट्र में न तो वे स्वतंत्र होंगे और ना ही समान।
पर शायद बहुत देर हो चुकी है। पासे फेंके जा चुके हैं। नायर और सीरियन ईसाई समुदायों के प्रमुख नेता विघटनकारी, मुस्लिम-विरोधी सांप्रदायिकता को गले लगा चुके हैं। ऐसे में, केरल के मुसलमानों के सामने एक ही विकल्प है। उन्हें सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों (एसईबीसी), दलितों और आदिवासियों के साथ मिल कर एक नया प्रगतिशील, सामाजिक न्यायवादी गठजोड़ बनाना होगा। उन्हें एक साथ मिल कर धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील केरल के निर्माण के अभियान में भिड़ जाना होगा – एक ऐसे केरल के जो धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, समानता, स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय का पक्षधर हो।
इजवा और मुसलमान कुल मिलाकर केरल की आधी आबादी हैं। एससी, एसटी और गैर-इजवा ओबीसी का कुल आबादी में प्रतिशत 22 है। इसका अर्थ यह है कि अगर मुसलमान, इजवा, गैर-इजवा ओबीसी, एससी और एसटी मिल जाएं तो वे राज्य की आबादी का 70 प्रतिशत से अधिक होंगे। वे सभी वर्ण व्यवस्था के चलते सामाजिक अन्याय का शिकार रहे हैं और आज भी हैं। केरल के भविष्य की रक्षा के लिए यह ज़रूरी है कि ये पांच समूह, जो अलग-अलग जातियों और धर्मों से हैं, केरल के लिए एक साझा एजेंडा बनाएं जो धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील और सामाजिक न्याय पर आधारित हो।
नायर और सीरियन ईसाई समुदायों के प्रगतिशील सदस्यों के पास भी मौका है कि वे केरल के हित में इस प्रगतिशील और सामाजिक न्यायवादी गठजोड़ के साथ हो लें। इससे वे सब लोग अकेले पड़ जाएंगे जो इस्लामोफोबिया या जाति के आधार पर समाज को विभाजित करना चाहते हैं। हम यह नहीं भूल सकते कि नायर और ईसाई समुदायों ने केरल के प्रगतिशील आंदोलनों की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है और इससे उनके निर्धन तबके को आशातीत लाभ हुआ है। उन्हें उस प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष एजेंडा के प्रति वफ़ादार रहना चाहिए।
सामाजिक न्याय के पैरोकार इस प्रगतिशील गठबंधन को किस राजनैतिक दल, किस झंडे के तले जाना चाहिए? इस समय सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों का सबसे बड़ा प्रतिनिधि एलडीएफ है। परन्तु क्या वह सामाजिक न्याय के पक्षधर इस तरह के प्रगतिशील गठबंधन को अपना हमराह बना सकेगा? एलडीएफ के नेतृत्व में सामाजिक पहचान पर आधारित इस तरह के गठबंधन के निर्माण की राह में विचारधारात्मक बाधाएं भी हैं। वाम दलों के लिए मुस्लिम समुदाय का विश्वास जीतना एक बड़ी चुनौती होगी क्योंकि वामपंथी विचारधारा और मुस्लिम समुदाय की धार्मिक और सामाजिक परंपराओं में एक प्रकार की बेमेलता है।
यह सोचना कि कांग्रेस केरल की 70 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले इस नए मुस्लिम-ओबीसी-दलित-आदिवासी गठबंधन को अपनी पार्टी में जगह दे सकेगी, यथार्थ से मुंह मोड़ना होगा। कांग्रेस की केरल इकाई पर दक्षिणपंथी, प्रतिगामी ताकतों और निहित स्वार्थी व्यापारिक हितों ने बलात कब्ज़ा कर लिया है। आज़ाद ख्याल और मज़बूत ओबीसी, दलित और आदिवासी नेताओं को पार्टी में हाशिए पर धकेल दिया गया है। नतीजे में केरल में कांग्रेस पूर्व सामंतों की एसईबीसी विरोधी पार्टी बन कर रह गई है। इसके अलावा, कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट भी है। नायर उसे छोड़ कर एनडीए के साथ चले गए हैं। ईसाई एनडीए के साथ मधुर संबंध स्थापित करने को आतुर हैं और उनका एक तबका भी कांग्रेस को अलविदा कहने को उद्दत है। अब कांग्रेस केवल एक एनडीए-विरोधी पार्टी है जिसके पास केवल मुस्लिम लीग के वोट हैं।
इसलिए आज केरल को एक नए राजनैतिक आंदोलन की ज़रुरत है जो सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों, दलितों और आदिवासियों (इनमें विभिन्न जातियों और धर्मों के सदस्य शामिल हैं) के हितों का प्रतिनिधित्व करता हो। अगर ऐसा गठजोड़ बनता है तो मुसलमान उससे जुड़ सकते हैं या उसके साथ गठबंधन कर सकते हैं और इस तरह केरल की बहुवादी संस्कृति, उसकी सामाजिक एकता और सांप्रदायिक सौहार्द की रक्षा कर सकते हैं। अगर ऐसा हो जाता है तो केरल के चुनाव में एक ओर होगा यह प्रगतिशील, सामाजिक न्यायवादी गठबंधन और दूसरी ओर दक्षिणपंथी एनडीए।
वाम दलों के पास अपने स्वरुप को बदलने का अवसर है। वामपंथियों ने केरल को प्रगतिशीलता के पथ पर अग्रसर करने में महत्वपूर्ण और सकारात्मक भूमिका निभायी है और अब भी निभा रहे हैं। केरल में ज़मीनी स्तर पर प्रजातंत्र को जिंदा रखने के लिए श्रमजीवियों के आंदोलन और ट्रेड यूनियनें ज़रूरी हैं। और ये तभी मज़बूत रह सकेंगीं जब वामपंथ मज़बूत होगा। हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि वामपंथी अपने-आप में इस तरह के बदलाव लाएंगे जिससे वे इस नए प्रगतिशील, सामाजिक न्यायवादी गठबंधन से जुड़ सकें। हम यह आशा भी कर सकते हैं कि कांग्रेस भी अपने आप को बदलेगी और दक्षिणपंथी ताकतों के चंगुल से स्वयं को मुक्त करे अपने मूल एजेंडा – अर्थात संवैधानिक समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता – पर वापस लौटेगी।
इस समय आवश्यकता है नए राजनैतिक गठबन्धनों की। नई सोच की। नए नेतृत्व की जो कि प्रगतिशील और समतावादी हो और जो सामाजिक मोर्चे पर केरल की अनूठी उपलब्धियों को बचाए रख सके। इन्हीं उपलब्धियों ने केरल को पूरे देश के सामने एक उदाहरण, एक आदर्श बनाया है। हमें पूरी हिम्मत और ताकत से सामाजिक विघटन और टकराव के उस कैंसर से लड़ना है जो दक्षिणपंथी ताकतें फैला रहीं हैं। आईये हम केरल को शांति और सद्भाव से भरपूर एक सुरक्षित राज्य बनाएं।
[1] सीरियन ईसाई केरल के सदियों पुराने पारंपरिक चर्च के सदस्य हैं। ऐसा कहा जाता है कि उनके पूर्वज ऊंची जातियों के हिन्दू थे, जो अपना धर्म बदलकर ईसाई बने थे।
(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)
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