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एक अनोखे शादी समारोह में

बिहार के अति पिछड़ा वर्ग से आने वाले खुश्बू और डॉ. दिनेश पाल ने अपनी शादी के लिए निमंत्रण कार्ड को 56 पृष्ठों की पुस्तिका “झब्बा” के रूप में प्रकाशित कराया। भोजपुरी में झब्बा का मतलब होता है चाबियों का गुच्छा। इस पुस्तिका में फुले, आंबेडकर, जगदेव प्रसाद, रामस्वरूप वर्मा, भगत सिंह व रामस्वरूप वर्मा की रचनाएं शामिल हैं। अरुण नारायण बता रहे हैं इस खास बौद्धिक विवाह के बारे में

तुम चुरा लाये एक ही रात में
एक स्त्री की तमाम रातें
उसके निधन के बाद की भी रातें।

(अलोक धन्वा, ‘भागी हुई लड़कियां’ कविता से)

विवाह संस्था के पितृसत्तावादी शिकंजे पर जितनी निर्मम चोट कवि आलोक धन्वा ने इन पंक्तियों में की है, शायद ही किसी दूसरे हिंदी कवि ने की हो। आमतौर पर साहित्य और कला में जो सदिच्छाएं अभिव्यक्त होती हैं– वे शाश्वत मानी जाती हैं, लेकिन विचारणीय सवाल यह है कि क्या वे कामनाएं महज कामनाएं ही रहती हैं या समाज पर भी उसका कोई प्रभाव परिलक्षित होता है? हमारा हिंदी समाज साहित्य के इस प्रभाव को लेकर कितना गंभीर है, इन पर कितने शोध होते हैं, इसकी जानकारी मुझे नहीं है। इतना जरूर जानता हूं कि समाज के एक हिस्से में इन चीजों का गहरा प्रभाव रहा है और वह उसे अपने व्यावहारिक जीवन में भी उसी शिद्दत से अंगीकार करने की दिलेरी भी दिखाता रहा है।

बौद्धिक विवाह समारोह

अभी हाल ही मुझे पटना में एक शादी समारोह में शामिल होने का मौका मिला। कई मामलों में वह अलग, आदर्शपूर्ण और अनोखा था। न दहेज, न बाजे-गाजे, न पुरोहिती कर्मकांड, न शुभ दिन का कोई मुहुर्त। यह समारोह बिहार की राजधानी पटना के गोला रोड स्थित रंजन पथ के ली गार्डेनिया उत्सव हाॅल में बीते 3 अप्रैल, 2021 को आहूत किया गया था। जब पहुंचा तो मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही रंग-बिरंगी रोशनियों से सजा हाॅल एक अलग ही आभा से मंडित था। हाॅल परिसर में मूल निवासी संघ की ओर से किताबों का एक स्टाॅल लगाया गया था, जहां युवतियां उत्साह के साथ महिला अधिकारों से जुड़ी किताबें ले रही थीं। उसमें आंबेडकर, फुले और बहुजन वैचारिकी से संबद्ध पुस्तकें थीं। उससे उपर बढ़ा तो सुरुचिपूर्ण व्यंजनों का इंतजाम दिखा। बीच-बीच में गोलाकार मेजों के इर्द-गिर्द समूह में लोग बैठै थे। बेयरा लोगों के खाने-पीने का ध्यान रख रहे थे। उसके नीचे के बड़े से हाॅल में मूलनिवासी संघ के शंकर पासवान के नेतृत्व में शादी के विशेष अवसरों से जुड़े गीत गाये जा रहे थे और लोग सूप, काॅफी और ठंढे पेयों का रसास्वादन करते हुए गीत-गवनई का आनंद ले रहे थे। कार्यक्रम की कमान प्रदेश मूल निवासी सांस्कृतिक मंच के अध्यक्ष दिलीप यादव के हाथ में थी। 

वर डॉ. दिनेश पाल और वधू खुश्बू कुमारी को उपहार के रूप में पुस्तक देते अतिथि

इसी बीच वर पक्ष का आगमन हुआ। फिर वधू पक्ष का भी। एक-एक कर वर पक्ष के परिजनों का स्वागत बधू पक्ष की ओर से किया गया। फिर वर पक्ष को आशीष देने का रस्म हुआ। कन्या पक्ष की महिलाओं के द्वारा वर का निरीक्षण किया गया। उनकी गलसेधी की रस्म की गई। वधू पक्ष की मां गलसेधी के माध्यम से यह भरोसा दिलाती दिखीं कि इस लड़के को पुत्र के समान समझेंगी। दोनों परिवार के लोग एक-दूसरे से मिले। फिर वरणमाल का अवसर आया। पहले लड़की द्वारा शपथ लिया गया फिर लड़का ने लिया और अंततः संयुक्त रूप से दोनों द्वारा शपथ लिया गया। दोनों पक्षों का आशीर्वाद वर वधू को देने की औपचारिकता पूरी हुई। फिर आया कन्या निरीक्षण का समय और अंत में सिंदूर दान की रस्म। 

हिंदू पुरोहित जहां इन मौकों पर हर रस्म में संस्कृत का उच्चारण कर वर-वधू को एक-दूसरे से जोड़ने में भूमिका निभाते हैं, वहां हमने यहां यह देखा कि दिलीप यादव हर रस्म में इस बौद्धिक विवाह पद्धति में बहुजनों के नायक महापुरुष से जुड़े तथ्यों को स्मारित कराते हुए सहज, सरल भाषा में वर-वधू को विवाह सूत्र में बांधने में अपनी भूमिका निभाते दिखे।

इस शादी समारोह के अहम किरदार रहे डाॅ. दिलीप कुमार की मानें तो ‘‘ब्राह्मणवादी संस्कारों के विकल्प के रूप में यह बौद्धिक विवाह पद्धति आज बहुजन समाज में विकसित करने की जरूरत है। अभी तो यह आगाज है। आने वाले दिनों में इसकी लोकप्रियता बढ़ेगी क्योंकि यह पद्धति आबादी के बड़े तबके को कम संसाधनों में इस तरह के समारोह संपन्न करने में मदद करती है। इसमें हम बिना लगन और ब्राह्मण कर्मकांडों से मुक्त रस्म करते हैं। इससे खास समय में बढ़ी हुई दर पर सामान लेने की आपाधापी से राहत रहती है।”

एक स्वप्नदर्शी युवा तरुण की दिलेरी का साक्ष्य

यह शादी एक ऐसे युवा की संकल्प शक्ति का परिणाम है, जो बिहार के जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा के नंदलाल सिंह महाविद्यालय, जैतपुर में हिंदी के अध्यापक हैं। डाॅ. दिनेश पाल उनका नाम है। उन्होंने बिहार के कैमूर जिले के पाल जाति समूह के एक अति साधारण किसान परिवार में 5 जून, 1990 को जन्म लिया। आरंभिक शिक्षा अपने आसपास के विद्यालय से पाई और स्नातक से एम.ए. पी.एच.डी तक की शिक्षा काशी विश्वविद्यालय, वाराणसी से पाई। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, दिल्ली से नेट-जेआरफ किया और कुछ वर्ष पहले ही छपरा विश्वविद्यालय में हिंदी शिक्षक के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। 

दिनेश ने अपने घर में अपने बड़े भाई की असमय शादी देखी थी और यह भी कि कैसे घर-परिवार में ही उनकी मेधा संकुचित हो गई। परिजनों ने इनकी भी शादी के लिए कम कोशिशें नहीं कीं, लेकिन इन्होंने अपने बड़े भाई की मदद से पिता के पारंपरिक अभिभावकत्व का बेजा इस्तेमाल नहीं होने दिया। जब वे प्राध्यापक हुए तो उनकी कोशिश रही कि अंतरजातीय विवाह करें। जाति से बाहर जीवन साथी का चयन करें। इसके लिए समाज में कई स्तरों पर कोशिशें भी की गईं, लेकिन नतीजा शून्य निकला। किसी ने जाति से बाहर निकलकर यह साहस नहीं किया कि उच्च शिक्षा के उच्च पायदान पर खड़े इस युवा लेखक, प्राध्यापक को अपना दामाद चुन सकें। अंततः उनके अपने ही समाज में शादी में रिश्ते की बात चली। वहां भी कई तरह की उपजातियां थीं। फिर दहेज न लेने को उनके गुण की जगह अवगुण के रूप में चिन्हित किया जा रहा था। वे जिस पाल समाज से आते हैं, वहां भी ढेंगर और धनगर की श्रेष्ठता और कनिष्कता का प्रश्न आड़े आया। अंततः मुंगेर की लड़की खुशबू उनके जीवन साथी के रूप में चुनी गईं। दोनों समान गोत्र के हैं, लेकिन हुआ कि शादी किया कैसे जाए। पाल समाज बहुत संगठित, शिक्षा के प्रति प्रतिबद्ध और अपने मध्यवर्ग में आपसी समन्वय के लिए प्रतिबद्धता कौम रही है। 

शादी के निमंत्रण कार्ड को एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया गया। 56 पृष्ठ की इस पुस्तिका को ‘झब्बा’ शीर्षक दिया गया

अशुभ की किलेबंदी में सेंध

उन्होेंने शादी की तिथि को ऐसे समय में निर्धारित किया, जिसे हिन्दू पुरोहित अशुभ मानते हैं। हमारा समाज विवाह के लिए पुुरोहितों के जितने शुभ नियामक मानता है, दिनेश ने उन सब का निषेध किया। इसकी शुरुआत कार्ड से ही की। अपने विवाह कार्ड में हिंदू मिथकों में गणेश से इसकी शुरुआत करनेवाले प्रतीकों से परहेज किया। हिंदू परिवारों में इन अवसरों पर काले रंग के कपड़े, किसी कार्ड में उस रंग के उपयोग को अशुभ माना जाता है। दिनेश ने अपने कार्ड में काले रंग का उपयोग किया और उन मिथकीय प्रतीकों और शब्दाबडंबर का निषेध किया। उन्होंने गणेश की फोटो की जगह वर और कन्या पक्ष के माता-पिता के साथ ही खुद की सगाई की तस्वीर छापी और 56 पेज की एक पुस्तिका ‘झब्बा’ भी। यही उनका निमंत्रण कार्ड था जिसके आवरण पर शादी की सूचना और पीछे वाले कवर पर उनकी पारिवारिक तस्वीरें थीं।

उन्होंने रमाशंकर यादव विद्रोही की कविता से इसकी शुरुआत की और रैदास तक की कविता को अपने आमंत्रण का उपजीव्य बनाया है। किसी ने शायद ही कल्पना की हो कि मंडल आंदोलन से पैदा हुई नयी पीढ़ी सांस्कृतिक स्तर पर ब्राह्मणवाद से इस तरह से भी मुठभेड़ कर सकेगी। यह चलन आनेवाले कल के उज्जवल भविष्य ऐसा चलन साबित होगा जो पिछड़ी-अति पिछड़ी जातियों के सांस्कृतिक उन्नयन का मार्ग प्रशस्त करेगा। आजतक इस वर्ग समूह के मध्यवर्ग ने ज्ञान हासिल करने के बाद जो धार्मिक बाह्याडम्बर में अपनी ऊर्जा झोंकी है, उसके लिए दिनेश का यह काम आंखें खोलनेवाली है।  

कार्ड में विचार दर्शन की गहराई

हिंदू परिवारों में आमतौर शादी-विवाह के मौकों पर जो आमंत्रण कार्ड छपते रहे हैं, उनमें शादी की तिथियां और शादी संपन्न होनेवाले दोनों परिवारों के पत्ते छपे होते हैं। उसमें गणेश की कलात्मक फोटो होती है और संस्कृत में श्लोक। वह कार्ड एक दो या ज्यादा हुआ तो तीन-चार पेज। इससे ज्यादा का नहीं होता। दिनेश के विवाह के निमंत्रण कार्ड में दूर-दूर तक इसकी कोई छाया नहीं है। वह 56 पृष्ठों की पुस्तिका के रूप में है। किताब के आवरण में निमंत्रण कार्ड है, जिसमें किसी तरह की मिथकीय बात नही है और ना ही गणेश है। उन्होंने भोजपुरी में लिखा है– ‘राहुर से हम मनुहार करत बानी कि राउर आपन परिवार संगे हमर दुआर पर जरूर आईं आउर आपन प्यार-आर्शीबाद से हमनी सब के गदगद करीं।’

इसके बाद वर कन्या की तस्वीर के साथ शादी और तिलक की सूचना है। अबतक की शादियों में हम यह देखते थे कि जिस पक्ष के लोग अपना कार्ड छपवाते थे उसमें उनका पक्ष ज्यादा हाईलाईट होता था। लेकिन यहां लड़की को ज्यादा प्रमुखता से दर्शाया गया है। यह स्त्री विरोधी समाज के लिए सुखद खबर है कि आनेवाली पीढ़ी किस प्रमुखता के साथ उन्हें तवज्जो दे रही है। कार्ड के पीछे वाले कवर पर छह तस्वीरें दी गई हैं। सबसे उपर दिनेश पाल की माता रामरती देवी और पिता मराछु पाल की तस्वीर है। बीच में खुशबू और उनकी खुद की रिंग सेरेमनी की तस्वीर है। और नीचे में खुशबू की मां सरिता देवी और पिता सीताराम पाल की तस्वीर है। लेखक ने यह कहते हुए प्रकारांतर से यह संदेश दिया है कि ईश्वर और धार्मिक प्रतीक महज छलावे हैं, पुनर्जन्म नाम की कोई चीज होती नहीं, जो कुछ भी है सब यहीं है और हमारे अपने लोग हैं जिन्होंने हमें पाल पोसकर बड़ा किया हमारी बदहाली के लिए आधुनिक लोकतंत्र में संघर्ष को बुलंद किया जिसकी बदौलत आज हम यहां हैं। 

दिनेश ने 56 पेज की इस पुस्तिका को ‘झब्बा’ के नाम से प्रस्तुत किया है, जिसमें तीन पृष्ठ का उनका खुद का लिखा एक संपादकीय है। फिर रमाशंकर यादव विद्रोही की कविता ‘मैं किसान हूं’, कबीर, सावित्रीबाई फुले, रैदास की कविताएं, जोतीराव फुले की ‘गुलामगिरी’, ई.वी.रामासामी पेरियार का आलेख ‘पति-पत्नी नहीं, बनें एक-दूसरे के साथी’, डाॅ. भीमराव आंबेडकर का आलेख ‘जाति और श्रम विभाजन’, भगत सिंह का आलेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’, सिमोन द बोउआर की रचना ‘विवाहिता’, जगदेव प्रसाद का आलेख ‘सर्वहारा’, रामस्वरूप वर्मा का आलेख ‘धरती को जो जोते बोये, वह धरती का राजा होए’ और कांचा आईलैया का आलोख ‘मांस और दूध के अर्थशास्त्री’ के विचार हैं। ये वे शख्सियतें हैं जिन्होंने हिन्दुस्तान और दुनिया के असमानता में गर्क समाज को बराबरीपूर्ण समाज बनाने के लिए संघर्षशील रही हैं। इस कार्ड के माध्यम से दिनेश ने अपने समाज को शिक्षित करने के एक जरूरी कार्यभार को भी पूरा किया है। इसका जितना भी स्वागत किया जाए वह कम ही होगा। अंत में वर-वधू का एक संक्षिप्त बायोडाटा भी है। 

इस तरह की शादियां ज्यादा से ज्यादा प्रचलन में आनी चाहिए ताकि हमारे घर परिवार में हर मौकों पर धार्मिक कर्मकांडों की ब्राह्मणवादी रूढ़ियों की जो एक बर्बर परंपरा है उससे मुक्ति मिल सके। 

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

अरुण नारायण

हिंदी आलोचक अरुण नारायण ने बिहार की आधुनिक पत्रकारिता पर शोध किया है। इनकी प्रकाशित कृतियों में 'नेपथ्य के नायक' (संपादन, प्रकाशक प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची) है।

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