विश्लेषण
मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाता है। समाज द्वारा मीडिया को दी गई इस उपाधि का खास महत्व है। लेकिन मीडिया, फिर चाहे वह भारतीय हो या गैर भारतीय, लोकतंत्र का चौथा खंभा तभी कहला सकता है जब वह लोकतांत्रिक, विविधता पूर्ण और सामाजिक रूप् से संतुलित हो। यदि ऐसा नहीं होता है तो मीडिया पर सवाल उठते हैं और उसकी साख कम होती है। यदि भारतीय मीडिया के संदर्भ में बात करें तो सवाल और वजनदार होते जाते हैं। वजह यह कि भारतीय मीडिया, खासकर हिंदी मीडिया, किसी राजतंत्र के पहरुए की तरह काम करने वाले ब्राह्मण वर्ग द्वारा संचालित है।
भारतीय मीडिया में समाज के अलग-अलग जाति-समुदायों की कितनी और कैसी भागीदारी है, मीडिया में किस तरह के सवाल कौन लोग उठाते हैं आदि से संबंधित एक सर्वेक्षण ऑक्सफेम इंडिया और न्यूजलांड्री वेब पोर्टल के जरिए सामने आया है। इस सर्वेक्षण में स्पष्ट रूप् से कहा गया है कि भारतीय मीडिया का चरित्र भारत के बहुसंख्यक दलित-बहुजनों के अनुकूल नहीं है।
मसलन, सर्वेक्षण रपट में बताया गया कि समाचारपत्रों, टीवी न्यूज़ चैनलों, न्यूज़ वेबसाइटों और पत्रिकाओं में न्यूजरूम का नेतृत्व करने वाले 121 व्यक्तियों – मुख्य संपादकों, प्रबंध संपादकों, कार्यकारी संपादकों, ब्यूरो प्रमुखों व इनपुट/आउटपुट संपादकों – में से 106 ऊंची जातियों से थे। इनमें एक भी एससी या एसटी नहीं था। एक जानकारी यह भी कि न्यूज़ चैनलों ने अपने प्रमुख बहस कार्याक्रमों में से 70 प्रतिशत में जिन पैनलिस्टों को आमंत्रित किया, उनमें से बहुसंख्यक ऊँची जातियों के थे। वहीं अंग्रेजी अख़बारों में प्रकाशित लेखों में से 5 प्रतिशत से अधिक दलितों और आदिवासियों द्वारा लिखित नहीं थे। हिंदी और अंग्रेजी समाचार-पत्रों में जाति से जुड़े मुद्दों पर लिखने वालों में से आधे से अधिक ऊँची जातियों से थे।
उपरोक्त सर्वेक्षण की रपट भी तस्दीक करती है कि भारतीय मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ नहीं कहा जाना चाहिए क्योंकि इसमें दलित–बहुजनों की भूमिका नगण्य है। भारतीय मीडिया के न्यूज़ रूम में बैठे लाेगों के लिए पत्रकारिता का मतलब दलित–बहुजनों की आवाज को दबाना, महिलाओं का मजाक उड़ाना, वंचित तबकों के नेताओं को बेइज्जत करना, गंडे–ताबीज, राशियां, धनवर्षा यंत्रों, सेक्स ताकत की दवाई, चमत्कारों का प्रचार करना होता है।
यह भी पढ़ें – भारतीय मीडिया : कौन सुनाता है हमारी कहानी?
यही कारण है आम लोग तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया को गोदी मीडिया, बिकाऊ मीडिया, मनुवादी मीडिया जैसे नामों से संबोधित करने लगे हैं। इसके बरक्स, आम जनता का मीडिया, जिसे बहुजन मीडिया कहते हैं, अपनी पहचान बनाती जा रही है। यह मीडिया प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में लगातार अपनी पकड़ बना रहा है। संसाधनों की कमी के बावजूद यह मीडिया ब्राह्मणों के वर्चस्व वाले मीडिया से सीधी टक्कर ले रहा है। अब प्रश्न उठता है कि बहुजन मीडिया को मजबूत बनाए जाने आवश्यकता क्यों है?
1.मुख्यधारा की मीडिया बहुजनों की बात नहीं करती
यह तो स्पष्ट है कि मुख्यधारा का मीडिया बहुजनों की बात, उनके नायकों की बात, नहीं करता। एक उदाहरण यह कि हर वर्ष 14 अक्टूबर को दीक्षाभूमि, नागपुर, 14 अप्रैल को महू तथा 6 दिसंबर को चैत्य भूमि दादर, मुंबई में लाखों लोगों के जुटने का ब्राह्मण वर्ग के मीडिया के लिए कोई महत्व नहीं है। उसके लिए तो केवल सौ डेढ़ सौ लोगों के शस्त्र पूजन कार्यक्रम महत्वपूर्ण होते हैं। इसी तरह बहुजनों के साथ होने वाले अत्याचारों के समाचार को तवज्जो नहीं दी जाती।
2. मुख्यधारा की मीडिया का पक्षपाती रवैया
प्राय: यह देखा जाता है कि मुख्यधारा का मीडिया समाचार प्रसारण में पक्षपात करता है। यदि अपराधी सवर्ण होते हैं, तो उनकी पहचान छिपा दी जाती है। उनके लिए केवल ‘दबंग’ शब्द का उपयोग किया जाता है। वहीं यदि आरोपी दलित-बहुजन समाज से आता हो तो उसकी जाति सहित सारी पहचान उजागर कर दी जाती है। मानो अपराधी वह नहीं, उसकी पूरी जाति है। वर्ष 2019 में हिंदी दैनिक हिन्दुस्तान द्वारा प्रकाशित एक खबर को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। इस खबर का शीर्षक है– “बूचन गिरोह का शूटर कुख्यात विनोद यादव धराया”। वहीं एक खबर जो गत 2 जून की है। इसका शीर्षक है– “जानलेवा हमला करने वाला दबंग गिरफ्तार”।
3. खबर नहीं, प्रोपगेंडा
पिछले वर्ष की ही बात है जब तबलीगी जमात के बारे में खबर फैलाई गई कि वह कोरोना बम है। कोरोना फैला रहे हैं। वही कुंभ मेले पर प्रश्न नहीं उठाये गए। इसी प्रकार सुशांत सिंह की आत्महत्या से लेकर हाथरस कांड तक में सच को छिपा कर झूठ फैलाया गया।
4. नायकवाद को बढ़ावा
मुख्यधारा की मीडिया पत्रकारिता की बजाय किसी को नायक किसी को खलनायक बनाने में लगा रहता है। इसलिए महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी के मुद्दे को छोड़कर पाकिस्तान, दक्षिण कोरिया, इजरायल पर समय खर्च करता है। इस बात को अन्ना हजारे, बाबा रामदेव, सुशांत आत्महत्या आदि प्रसंगों से समझा जा सकता है। यह नायकवाद का पक्षधर होने के कारण हमेशा नायक पूजा में लगा रहता है और प्रश्न भी सत्ता पक्ष के बजाय विपक्ष से पूछता है।
5. गैरजरूरी समाचार की भूख पैदा करनेवाली मीडिया
यह मीडिया ऐसे समाचार लगातार प्रकाशित कर गैरजरूरी समाचार की भूख पैदा करती है, जिसका कोई जनसरोकार नहीं होता। उदाहरण के तौर पर श्रीदेवी की मौत, सैफ अली खान व करीना कपून खान का बेटा तैमूर, फिल्म अभिनेता सुशांत आत्महत्या मामला आदि पर महीनों न्यूज़ चलाया गया। जाहिर तौर पर इसका मकसद था जरूरी खबरों को दरकिनार कर देना और गैरजरूरी खबरों की भूख पैदा करना।

ब्राह्मण वर्ग के मीडिया से इतर बहुजन मीडिया अनके समिदय की पीड़ा, शोषण और तरक्की के अनुभव को समाज के सामने लाता है ताकि वह पीड़ितों की आवाज बन सके और उनके राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक विकास में सहायक बन सके।
चूंकि भारत के बहुसंख्यक समाज की आवाज बनने की कोशिश कभी भी मुख्यधारा की मीडिया ने नहीं की है इसलिए जो खाली जगह है, उसे भरने के लिए बहुजन मीडिया काम कर रहा है। वहीं मुख्यधारा के मीडिया के पक्षपातपूर्ण रवैये से उसकी साख पर सवाल उठाए जा रहे हैं। बहुजन मीडिया संस्थाएं उसका जवाब हैं। चूंकि बहुजन मीडिया के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है, इसलिए वह व्यवस्था के सच को सामने लाती है।
बहुजन मीडिया का प्रमुख उद्देश्य यह है कि वह अंधविश्वास मुक्त समाज बनाने के लिए प्रयास करे, विज्ञान सम्मत कार्यक्रम तैयार करें और अंधविश्वास का पर्दाफाश करें। मुख्यधारा के मीडिया ने इससे हमेशा गुरेज किया है। एक उदाहरण कोरोना की दूसरी लहर के कारण देश में सामने आए हालात है। यदि मुख्यधारा के मीडिया ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से और जनसरोकारों को प्रमुखता दी होती तो कोरोना के दूसरी लहर को लेकर देश में हालात दूसरे होते और सरकार भी स्थिति को नजरअंदाज नहीं करती। तब होता यह कि सरकार पिछले वर्ष ही स्वास्थ्य संरचनाओं का विकास करती, अस्पतालों में बिस्तरों की व्यवस्था करती, ऑक्सीजन का प्रबंध करती, वैक्सीन लगवाने की दिशा में काम करती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यह स्थिति तब है जबकि संविधान में इस बात का उल्लेख किया गया है कि अंधविश्वास मुक्त समाज का निर्माण करने में देश अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाए। आज भारत के सभी वर्गों में परंपरा के नाम पर, संस्कृति के नाम पर, धर्म के नाम पर, अंधविश्वास समाया हुआ है। इस कारण हमारा देश पिछड़ा हुआ है। अंधविश्वास से मुक्ति के लिए मुख्यधारा का मीडिया कोई काम नहीं करता है क्योंकि वह पूंजीवादियों के साथ खड़ा है। इसीलिए बहुजन मीडिया की जिम्मेदारी बन जाती है कि वह अंधविश्वास मुक्त समाज निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करें।
बहरहाल, उपरोक्त वे परिस्थितियां हैं, जो तेजी से बदल रहे भारत में बहुजनों की मीडिया की आवश्यकता को सामने लाती हैं। इस दिशा में पहल किए जाने की आवश्यकता है। दलित-बहुजन समाज के सक्षम लोग जो विज्ञापन दे सकते हैं, मुख्यधारा के मीडिया के बजाय बहुजन मीडिया संस्थानों को विज्ञापन दें। अधिक से अधिक लेखन करें और प्रसार करें। वहीं यह मुख्यधारा की मीडिया संस्थानों के लिए चेतावनी भी है कि वह भारत की विविधता का सम्मान करे और बहुजनों को उपेक्षित न करे। यदि उसने अपने रवैये में बदलाव नहीं किया तो निश्चित तौर पर उसकी साख में गुणोत्तर कमी आएगी।
(संपादन : नवल/अनिल/अमरीश)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in
फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें
मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया