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दलित कहानियां और जातिवाद के बीहड़ इलाके (संदर्भ : कैलाश वानखेड़े)

कैलाश वानखेड़े अपनी कहानियों में यथार्थ को समग्रता में प्रस्तुत करते हैं। यह समग्रता उन्हें सिसकते जन तक पहुंचाती है। दलित जीवन के शोषण के इलाकों की जिस तरह शिनाख्त करते हैं, उससे शोषणकारी तंत्र की सारी तरकीबें अपने आप उघड़ जाती है। बता रहे हैं युवा समालोचक सुरेश कुमार

इसमें कोई दो राय नहीं है कि जाति व्यवस्था की संरचना ने कुलीनों को सिंहासन उपलब्ध करवाया और बहुसंख्यक दलित-बहुजनों को हाशिये पर ले जाने में अहम भूमिका निभाई। इसकी अभिव्यक्ति साहित्य में अलग-अलग रूपों में हुई है। मसलन, दलित साहित्य बताता है कि इक्कीसवीं सदी में आधुनिक चेतना से लैस होने पर भी सवर्ण समाज, जाति के जामे को पहनना-ओढ़ना छोड़ नही सका है। दलित साहित्यकारों के पास जितने बौद्धिक औजार थे उनका उपयोग उन्होंने जाति व्यवस्था के भयंकर उत्पातों को सामने लाने के लिए किया है। हालांकि नई कहानी आंदोलन से जाति का प्रश्न काफी हद तक नदारद रहा है। उसमें मध्यमवर्गीय समाज की आकांक्षाओं, इच्छाओं और संत्रास की अभिव्यक्ति को तरजीह दी गई है। जाति व्यवस्था के खिलाफ गोलबंदी का तेजी से उभार दलित साहित्य की देन है आ। इस आलेख श्रृंखला में दलित साहित्य के मील के पत्थर कहे जानेवाले लेखकों की उन कहानियों को केंद्र में रखा गया है, जो सामाजिक भेदभाव और जातिवादी मानसिकता की पड़ताल करती हैं। अब तक आपने ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, श्यौराज सिंह बेचैन और सूरजपाल चौहान की कहानियों का विश्लेषण पढ़ा। प्रस्तुत है इस आलेख श्रृंखला के तहत युवा समालोचक सुरेश कुमार द्वारा दलित कहानीकार कैलाश वानखेड़े की कहानियों का पुनर्पाठ

कैलाश वानखेड़े : मारक विमर्श के कहानीकार 

  • सुरेश कुमार

हिंदी साहित्य में जातिवादी हथकंडों और उसकी विभीषिकाओं के विरुद्ध सबसे मारक कहानियां दलित लेखकों के द्वारा लिखी गयी हैं। दलित लेखकों और उनके पूर्वजों ने जातिवादी विभीषिकाओं को सदियों से झेला, उससे पीड़ित और त्रस्त रहे। उनके पूर्वजों की चीखें और उनकी खुद की मुक्ति की चाह जातिवादियों के विरुद्ध गोलबंदी और बगावती तेवर की ओर उन्हें ले गई। देखा जाय तो हिंदी कहानी के समकाल में ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, श्यौराज सिंह बेचैन, सूरजपाल चौहान आदि कहानीकारों ने फार्मूलाबद्ध और आदर्शवाद के सांचे की लीक से हटकर जातिवादी मूल्यों और रूढ़ियों के विरुद्ध दलित संघर्ष की यथार्थपरक कहानियां बड़ी पारदर्शी भाषा में लिखी हैं। दलित पृष्ठभूमि से आए कथाकारों ने अपने अनुभव और भोगे हुए यथार्थ को उपकरण बनाकर हिंदी कहानी यात्रा को नई दिशा प्रदान की है। इस कड़ी में अस्मितावादी विमर्शों की कहानियां लिखने वालों में कैलाश वानखेड़े का नाम बेहद चर्चित है। इस कथा लेखक के ‘सत्यापन’(2013) और ‘सुलगन’ (2019) शीर्षक से दो बड़े मारक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इन संग्रह की कहानियों में दलित और आदिवासी विमर्श खासतौर पर आकार लेता है।

इस कथा लेखक की कहानियों में जो दलित और आदिवासी विमर्श है, वह चेतना और इतिहास बोध की ज़मीन पर विकसित होता है। बतौर कथा लेखक कैलाश वानखेड़े अपनी कहानियों की कथा समाग्री इतिहास बोध और सामाजिक-आत्मपरक अनुभवों के माध्यम से जुटाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में जो कहानी आकार लेती है, वह ‘अपनी कहानी’ से मुक्त होकर पूरे दलित पृष्ठभूमि की समूहिक कथा का आख्यान प्रस्तुत करती है। 

कैलाश वानखेड़े की रचनाओं में नई सदी में जाति-व्यवस्था के बदलते स्वरूप और दलित जीवन की गतिविधियों का बारीकी अंकन हम देख सकते हैं। दलित मन की अछूती अनुभूतियां और संवेदनाओं का जैसा चित्रण है, वह लाजवाब और चमत्कृत कर देने वाला है। ‘सत्यापित’ कहानी में ‘मैं’ की जो अनुभूतियां और अनुभव है, वह भारतीय समाज के जातिवादी मुखौटों का रेशा-रेशा उघाड़ने में सक्षम हैं। उसका विद्रोह और प्रतिरोध उस तंत्र के विरुद्ध है, जो उसके वजूद और पहचान को अपनी कसौटी के मानक पर सत्यापित करता रहा हैं। ‘मैं’ सवाल उठाता है कि जो दलितों को नहीं जानता, नहीं पहचानता, वही हमें सत्यापित करता है, उसी न जानने वाले दस्तखत से हमें जाना जाता है। कभी-कभी लगता है कि ये कौन हैं, कहां से आए हैं, जिनके पेन से तय होती है हमारी पहचान? ‘सत्यापन’ के भाऊ साहब को केंद्र में लाने के बजाय जिस तरह से हाशिया पर ढ़केल जा रहा है, वह लोकतंत्रवादी व्यवस्था के सर्वसमावेशी मूल्यों पर ऐसे मारक सवाल छोड़ देता है, जिसके जवाब तलाशने की दरकार है। इंगले भाऊ के असितत्व को अब भी महारवाड़ा के नाम से सत्यापित किया जाता है।

कैलाश वानखेड़े

देखा जाय तो मानवीय संवेदनशीलता, भोगा हुआ यथार्थ, सामाजिक बोध और जातिमूलक यातनायें दलित कहानी की केन्द्रीय विषय वस्तु हैं। कैलाश वानखेड़े ‘तुम लोग’ कहानी में जातिवादी गतिविधियों की उस विभीषिका से परिचय कराते हैं, जो वेष बदलकर शब्दों से दलित को मनुकाल में धकेलने पर आमादा है। जाति श्रेष्ठता के अहम में तिवारी से लेकर सब्जीवाला वाला तक शब्दों के ऐसे तीर चलता है, जिससे दलित का सर्वस्व छलनी हो जाता है। कहानी का नायक बताता है कि दुकानदार कहता है, तुम लोग … सब्जीवाला वाला कहता है तुम लोग … तिवारी कहता है तुम लोग … तुम लोग … तुम लोग। बोलते वक्त क्या रहता है इनके दिमाग के भीतर? चेहरा, कपड़ा, जूते-चप्पल … जेब … कालोनी … घर क्या रहती है दिमाग में इनकी जाति? भाषा केवल हमारी अनुभूतियों को व्यक्त करने का औज़ार नहीं है, बल्कि भाषा से ही व्यक्ति की समाज में हैसियत भी तय होती है। यह कहानी उस उच्च कुलीन समाज को अपने निशाने पर लेती जो दलित बड़ी हिकारत नज़र से देखते हैं और दलितों के लिए सम्मानसूचक भाषा का इस्तेमाल नहीं करते हैं। उच्च कुलीन की मानसिकताएं और मान्यताएं आज भी सामंती युग की है, जिनका असर उनकी भाषा में भी दिखाई देता है। वे अपने सामंतीपन को संतुष्ट करने के लिए उनकी भाषा दलित पृष्ठभूमि के प्रति असम्मान सूचक हो जाती है। इस घासलेटी संस्कृति के दौर में केवल मनुष्य का नैतिकता का ही पतन ही नहीं हुआ, बल्कि उसकी संवेदनाएं, उसकी गरिमा और भाषा भी लड़खड़ा गयी है। इस कहानी के नायक के मुताबिक बहुत कुछ गिर चुका है, बहुत कुछ गिर रहा है तो भी खामोश है सब।

कैलाश वानखेड़े के पास जाति-व्यवस्था की विद्रूपता को बेनकाब करने वाले कई मारक कहानियां हैं, जो सवर्ण पृष्ठभूमि के लोगों की जातिवादी मानसिकता को नए संदर्भों और विविध कोणों से सामने रखती हैं। भारत में उच्च श्रेणी की मानसिकता रखने वालों अफ़सरों ने सरकारी दफ़्दरों से लेकर संस्थाओं तक को जातिवादी सड़ांध से अछूता नहीं छोड़ा है। मसलन ‘घंटी’ कहानी इस ओर इशारा करती है कि उच्च श्रेणी के लोगों ने कैसे सरकारी दफ़्दरों को जातिवादी अड्डों में तब्दील कर दिया है। जातिवादी मूल्यों के समर्थक दफ़्दरों के भीतर दलित कर्मचारियों को बड़ी हिकारत भरी नज़र से देखते हैं। सवर्ण पृष्ठभूमि के लोग जातिवाद के संक्रामण से इस कदर संकुचित हो गए हैं कि वे दलित को जातिवादी दृष्टि के दायरे से बाहर नहीं देख पाते हैं। ‘घंटी’ कहानी का अफसर मिश्रा दलित चपरासी काका चौहान को सिर्फ दलित होने की वजह से जैसे प्रताड़ित करता है, वह उच्च कुलीन समाज के सामंती मुखौटा को उघाड़ कर रख देता है। यहां तक कि जातिवादी ठसक में मिश्रा काका चौहान के बीमार पड़ने पर उनका अवकाश प्रार्थना पत्र भी स्वीकार नहीं करता है। इस कहानी का जितना खूबसूरत शिल्प है, उतना ही मारक प्रतिरोध भी है। कहानी के भीतर जो प्रतिरोध है, वह चेतना के स्तर पर सामने आता है। काका के कदम मिश्रा जी के कक्ष की ओर पहुंचे। घंटी लगातार बजती रही। मिश्रा बजाते रहे घंटी और चिल्लाते रहे। कर्कश घंटी के बीच मिश्रा जी के गाल पर पड़े चांटे से स्वर निकल रहे थे।

कैलाश वानखेड़े अपनी कहानियों में यथार्थ को समग्रता में प्रस्तुत करते हैं। यह समग्रता उन्हें सिसकते जन तक पहुँचाती है। दलित जीवन के शोषण के इलाकों की जिस तरह शिनाख्त करते हैं, उससे शोषणकारी तंत्र की सारी तरकीबे अपने आप उघड़ जाती है। देश और सामाजिक परिवेश को जिस तरह से कैलाश वानखेड़े का कथा मन महसूस और आत्मसात करता, वह बहुत गहरा और विरल है। उनकी कहानियों के भीतर जो दलित विमर्श आकार लेता है, वह उतावलापन से नहीं बल्कि स्वाभाविकता से भरा है। इस विमर्श के निशाने पर सामाजिक भेदभाव, जातिवादी गतिविधियां और शोषणकारी तंत्र हैं। कैलाश वानखेड़े अनुभव के लिए इतिहास की ओर भी झांक कर देखते है। दलित संघर्ष और दुश्वारियों का चित्रण करते समय कहानियों के कथानक में जोतीराव फुले और डॉ. आंबेडकर के जीवन संघर्ष की याद को बराबर ताज़ा कराते चलते हैं। दलित महापुरुषों का जीवन दर्शन कैलाश वानखेड़े की कहानियों में प्रतिरोध और प्रेरणा के रूप में प्रकट होता है। 

कैलाश वानखेड़े ‘गोलमेज़’ कहानी में इस प्रक्रिया का निर्वाहन बड़ी शिद्दत से करते है। यह कहानी वर्तमान परिवेश की विद्रूपताओं से शुरू होकर ‘पूना पैक्ट’ समझौते तक ले जाती है। इधर, सवर्ण पृष्ठभूमि के लोगों के भीतर खास किस्म का अभिजात्यपन पनपा रहा है, वह दलित समाज के प्रति बड़ी हिक़ारत पैदा करता है। कुलीन समाज को आभिजात्यपन की ठसक में कालोनी के आस-पास दलित समाज के बच्चों का आना बड़ा नागवार लगता है। ‘गोलमेज़’ कहानी की कथा में तीन-चार बच्चे मोहन माहेश्वरी के घर के सामने लगे पेड़ से आम तोड़ रहे है। मोहन माहेश्वरी बच्चों को धमकाता और पुलिस बुलाने की बात करता है। मोहन माहेश्वरी बच्चों से कहता है कि ये गली तुम्हारी है? ये मोहल्ला तुम्हारा है? आए कैसे इधर? पहले बच्चे ने जवाब में कहा कि ये आसमान तुम्हारा है? ये हवा तुम्हारी है? भूतालिया जैसी बात कर रहे हो गोल-गोल? यह जवाब नहीं, बल्कि बच्चों का मारक प्रतिरोध है। एक ऐसा प्रतिरोध जो माहेश्वरी जैसे कुलीनों के आभिजात्य को ठंडा करने के लिए काफी है। माहेश्वरी जब बच्चों को धमका रहा था तो उसकी बात को एक लड़की जो अपने मालिक का कुत्ता टहलाने के लिए आई थी, वो ध्यान से सुन रही थी। लडकी ने हस्तक्षेप करते हुये जवाब में कहा कि बाबू जी ये आम का पेड़ आपने नहीं लगाया है। लड़की कि बात सुनकर माहेश्वरी तिलमिला गया। जब उसे जवाब नहीं सुझा तो वह कहने लगा कि तुझे काम से निकलवा दूंगा। लड़की ने जवाब में कहा कि दम हो तो निकलवा देना। डराना-वराना मत। यह पूना नहीं है कि बोलोगे कि मर रहा … मर रहा हूं। बोलकर समझौता करवा लोगे। ये जेल नहीं है, गली है गली … वह भी खुली हुई। यह प्रतिरोध और चेतना की संस्कृति लड़की में शिक्षा के द्वारा पल्लवित हो रही है। यह कहानी इस विमर्श को दिशा देती है कि दलित समाज की युवा पीढ़ी इतिहास बोध से सबक लेकर उच्च श्रेणी की मानसिकता के विरोध प्रतिरोध का बीज पनप रहा है।

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सवर्ण पृष्ठभूमि के लोग जिस तरह दलितों पर शोषण और अत्याचार करते है, वह ह्रदयविदारक और स्तब्ध कर देने वाला है। कैलाश वानखेड़े की कई कहानियों में दलितों के दोहन और सवर्ण प्रताड़ना के दमनकारी चेहरे को सामने रखने का प्रयास हुआ है। यह कथाकार दलित अत्याचार की तह तक पहुंच कर उसका सतर्क विरोध और प्रतिरोध अपनी कहानियों में करता है। ‘कितने बुश और कित्ते मनु’ कहानी में दलित दोहन और अत्याचार को बड़ी शिद्दत से उठाया गया है। इस कहानी की कथा सरकारी दफ़्दर में दलित पात्र कमल के दोहन से शुरू होकर खैरलांजी में दलित लड़की के साथ हुई सवर्ण क्रूरता पर ख़त्म होती होती है। कमल दलित समाज का होनहार लड़का है। उसे कंप्यूटर में अच्छी ख़ासी महारत भी हासिल है। उसे अनुकंपा पर चपरासी की नौकरी मिली है। वह पुरानी फाइलों से आंकड़े जुटाकर पूरा डेटा कंप्यूटरीकृत कर देता है। उसके काम का सारा श्रेय बीडीओ साहब ले जाते हैं। वह प्रतिरोध स्वरूप बीडीओ साहब की सभा छोड़कर दयालु की चाय की दुकान पर चला आता है। वहां कमल दैनिक अख़बार में किसी पाठक का संपादक के नाम लिखे गए पत्र में खैरलांजी की घटना को पड़कर स्तब्ध रह जाता है। वह विचलित होकर सोचने लगता है कि क्या कसूर था प्रियंका का? उसका बदन, उसका दिमाग, उसकी हिम्मत … उसका आर्मी में जाने का सपना ….। बराबरी करने का इरादा … लड़की होना … उसका दलित होना। दायलु ने उससे कहा कि तेरा गुनाह क्या है जो तुझे हरदीन जलील किया जाता है? क्या अपराध किया तूने? यह सुनकर कमल अपने साथ हो रहे अपमान का प्रतिरोध करने के लिए ऑफिस की ओर चल पड़ता है। यह कहानी मनुवाद की पूरी परंपरा को एक झटके में खोल कर रख देती है। आधुनिक परिवेश और माहौल वाले समाज में मनुवादी काफ़िले अब भी दलितों को सबक सिखाने के दफ़्दरों और गली की हर मोड़ पर खड़े हैं। उन्हें दलितों की योग्यता और प्रगति शूल की तरह चुभती है, जिससे आहत होकर सवर्ण पृष्ठभूमि के लोग दलितों को बार-बार मनुकाल वाली व्यवस्था की याद दिलाते रहते हैं।

इसी तरह, ‘जस्ट डांस’ कैलाश वानखेड़े की चर्चित कहानियों में से एक है। उनकी यह कहानी ‘हंस’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी पर उन्हें ‘राजेंद्र यादव’ हंस कथा-सम्मान (2017) दिया गया था। यह कहानी देश की वर्तमान अवस्था से लेकर आदिवासी समाज की तब्दीलियों के नाजुक रेशों को बड़ी गहनता से प्रस्तुत करती है। इस कहानी का कथानक जातिवादी और बाज़ारवादी संस्कृति के उस बीहड़ इलाकों तक ले जाती है जहां भ्रष्टाचार के आंदोलन से लेकर मीडिया तक में स्वांग से भरा केवल रियलिटी शो हो रहा है, जिसमें मानवीय अनुभूतियों और वास्तविकता को बड़े ही सलीके से दरकिनार कर दिया गया है। पूंजीवाद की अभिजात्य गलियों में सवर्णवाद बड़ी मजबूती से उभरा है, जिसने हाशियाकृत समाज को तमाम संसधनों और अवसरों से वंचित करने का काम किया है। सवर्ण पृष्ठभूमि के लोग अपने जातिवादी वातावरण से बाहर निकलकर समाज में हो रही तब्दीलियों को न तो महसूस करते हैं और ना ही दलित जीवन की दुश्वारियों से परिचित होना चाहते हैं। सवर्णवादियों की नज़र में आजादी के बाद भारत माता, आतंकवाद, भ्रष्टाचार और आरक्षण में जकड़ी हुई है। दलितों का प्रतिनिधित्व उनकी नज़र में सबसे बड़ी समस्या है। मज़े की बात यह कि सवर्ण समाज के लोग आरक्षण से मुक्त करने की बात तो करते हैं, लेकिन जातिमुक्त भारत की कल्पना उनके जहन और व्यवहार शैली में आकार लेती दिखाई नहीं देती है। इस कहानी के नायक आकाश भूरिया देश की वर्तमान अवस्था को लेकर इतने गंभीर सामाजिक सवाल हमारे जहन पर अंकित कर देता है, जो सिर्फ हमें बेचैन ही नहीं करते हैं, बल्कि जवाब तलाशने की जद्दोजहद करने के लिए विवश भी कर देता है। जाति-जनगणना करने आए अध्यापक ने बिना आकाश से पूछे ही उसकी जाति और भाषा हिंदू धर्म के कॉलम में लिख दी। जब आकाश ने कहा कि धर्म के कालम में ‘आदिवासी’ धर्म अंकित करों तो अध्यापक कहता है कि ‘आदिवासी’ कोई धर्म होता है? आकाश को लगता है कि यह अध्यापक भी ‘जस्ट डांस’ का प्रतिभागी है, जिसे वास्तविकता से कुछ ख़ास लगाव नहीं है, उसे बस शाबासी ही चाहिए। आधुनिक समाज में जातिवादी बहुत महीन रेशे के तौर पर भेदभाव करती दिखाई देती हैं। इस कहानी का एरिया मैनेजर जातिवादी मूल्यों की एक ऐसी महीन रस्सी है जो दलितों और आदिवासी समाज को बड़ी सतर्कता के साथ भेदभाव में लपेटती है। वह आकाश के सामने बड़ा प्रगतिशील बनता है, लेकिन असल में वह ज़िंदगी में आकाश को एसटी और आदिवासी ही समझता है। इस कहानी के आखिरी हिस्से में प्रगतिशीलता का स्वांग करने वाले व्यक्तियों के मुखौटे बेनकाब करती है। इस कहानी का सधा हुआ शिल्प और कथ्य उसे अस्मितावादी विमर्श की एक सर्वश्रेष्ठ कहानी के में तब्दील कर देता है।

कैलाश वानखेड़े दलित यथार्थ का चित्रण करते समय एक मंझे और सधे कथाकार की तरह कहानियों को संस्मरण बनने से बड़ी खूबसूरती से बचा लेते हैं। कहने का अर्थ यह है कि उनके यहां कहानी अपने मूलस्वरूप में ही विकसित होती है और उसके तत्व पर कोई असर नहीं पड़ता है। इसका अर्थ यह नहीं है की कैलाश वानखेड़े अपनी कहानियों को नया स्वरूप और मोड़ नहीं देते हैं, उनकी कहानियों के पात्रों के जो अनुभव हैं, उनमे दोहरावपन नहीं है। प्रत्येक कहानी में नये अनुभव और नयी चेतना-दृष्टि के साथ संवाद करते नज़र आते हैं। कैलाश वानखेड़े एक कथाकार के तौर अपने पात्रों के साथ सहानुभूति प्रकट नहीं करते है। उनके पात्र अपने दमखम और अनुभूति के सहारे विषम परिस्थितियों से खुद टकराते और प्रतिरोध करते हैं। वे उच्च श्रेणीवाली मानसिकता पर प्रश्नवाचक की भंगिमा में नज़र आते हैं। जातिवादी ताकतों को ललकारते और वर्चस्वशाली मानसिकता के विरुद्ध जूझते और संघर्ष करते हैं। उन्हें अवरोध और ख़तरों का भान भी है। वे भारतीय लोकतंत्र में हाशियाकृत समाज की उपस्थिति और दावेदारी को सुनिश्चित करना चाहते है। इतिहास की क्रूरताओं को गहराई में जाकर परखते और दलित उत्पीड़न को सामने लाकर खड़ा कर देते हैं। कैलाश वानखेड़े की कहानियों के दलित नायक अपनी अनुभूतियों और अनुभव से समय के क्षण को बड़ी गहरी में जाकर दर्ज करते हैं। उनके कहानियों के भीतर जो विमर्श और चेतना उभरती है, वह बनावटीपन की गंध से मुक्त है। कहानियों की समर्थ भाषा और शिल्प की ताज़गी उन्हें श्रेष्ठ कथाकर की श्रेणी में ले जाकर खड़ा करती है। कैलाश वानखेड़े अपनी कहानियों में दलित जीवन की दुश्वारीयों और उनकी संवेदनात्मक अनुभीतियों का चित्रण जिस शिद्दत से करते हैं, वह उन्हें हिन्दी कहानी के समकाल में अस्मितावादी विमर्श का प्रतिनिधि कथाकार बनाती है। 

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

सुरेश कुमार

युवा आलोचक सुरेश कुमार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद इन दिनों नवजागरण कालीन साहित्य पर स्वतंत्र शोध कार्य कर रहे हैं। इनके अनेक आलेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हैं।

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