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ओबीसी को ‘ओबीसी’ कहें, ‘शूद्र’ नहीं!

वर्ष 1980 में बीपी मंडल के नेतृत्व में दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग की रपट राष्ट्र को समर्पित करने और 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा मंडल आयोग की अनुशंसाओं को लागू किए जाने के बाद से देश के सभी पिछड़े वर्ग के लोग खुद को ओबीसी मानते हैं और लिखते हैं, ना कि ‘शुद्र’। बता रहे हैं विनोद कुमार

पिछड़ा वर्ग’ पिछड़ा क्यों है? भारत की आधी से अधिक आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले इन समुदायों के लिए प्रयुक्त ‘पिछड़ा वर्ग’ और ‘ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग)’ शब्द इनकी वर्तमान स्थिति के बारे में तो हमें बताते हैं, परंतु यह नहीं बताते कि वे इस स्थिति में कैसे पहुंचे। लेकिन ‘शूद्र’ शब्द शायद इसकी अभिव्यक्त करता है। इस शब्द को ब्राह्मणवादी ग्रंथों के रचयिताओं ने इसलिए गढ़ा ताकि इन उद्यमी लोगों को उनकी औकात बताई जा सके। शूद्र शब्द में इन वर्गों, उनकी जीवनशैली, उनके उद्यम और उनकी शिल्पकला के प्रति इस शब्द को गढ़ने वालों का तिरस्कार भाव समाहित है और यह शब्द इन वर्गों के दमन और शोषण को वैधता प्रदान करता है। यह तब जबकि उद्यम और शिल्प ही किसी समाज या देश को आगे ले जा सकते हैं। लेकिन क्या वे उसी शब्द को अपनी पहचान बनाना चाहेंगे जो उनके शोषकों ने दिया है ताकि वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुलाम बने रहें? क्या वे नहीं चाहेंगे कि जैसे पूर्व अछूतों ने अपने लिए दलित शब्द का चयन किया, उनके लिए भी वैसा ही एक शब्द हो? हम इस विमर्श में भागीदारी के लिए आपको आमंत्रित करते हैं। कृपया अपने लेख editor@forwardpress.in पर प्रेषित करें। इस विमर्श की शुरुआत कांचा इलैया शेपर्ड ने ‘खुद को शूद्र मानें ओबीसी और गैर-ओबीसी पिछड़े’ शीर्षक लेख से की। आज पढ़ें, युवा मंडल विचारक विनोद कुमार का यह आलेख      

ब्राह्मणों द्वारा शोषण व उत्पीड़न का प्रतीक है शूद्र शब्द

  • विनोद कुमार

यह ऐतिहासिक चेतना की बात है कि इस देश के प्राचीन बौद्ध साहित्य में यहां के मूल मनुष्यों को ‘श्रवण’ और ‘बहुजन’ कहा गया है। प्रो. राजेंद्र प्रसाद सिंह कहते हैं कि बहुजन शब्द का एक धार्मिक और राजनीतिक पक्ष भी है। धार्मिक पक्ष यह है कि इसे बौद्ध धम्म के प्रवर्तक सुकिती ने दिया है। संपूर्ण बौद्ध साहित्य, जैसे – विनय पिटक, अभिधम्म पिटक, सुत्त पिटक, मज्झिम निकाय, अंगुत्तर निकाय, वंश साहित्य, जैन साहित्य, नाथ साहित्य, आजीवक साहित्य, चार्वाक साहित्य आदि में यहां के मूल मनुष्यों को श्रवण आदि कहा गया है, लेकिन शुद्र-अतिशूद्र कहीं नहीं कहा गया है। आर्य-वर्णवादी-मनुवादी साहित्य में वर्णाश्रमी सामाजिक संरचना के निर्मण के समय यहां के मूल मनुष्यों को ‘शूद्र’ कहा गया। इस वर्णवादी साहित्य में शूद्रों को दो भाग में विभाजित किया गया – एक सछूत शूद्र तथा दूसरे अछूत– चांडाल शूद्र। अब यह मनन करने की बात है कि किन कारणों से गुलाम बनाने वाला ब्राह्मणवादी साहित्य में हमें अपमानित कहते हुए, गाली देते हुए ‘शूद्र’ कहा गया और सामाजिक व्यवस्था में सबसे निचले पायदानपर रखा गया? वेद और मनुस्मृति तो शुद्र का विधान तक निर्धारित करती हैं, जिसमें परिधान विहीनता, अशिक्षा, अज्ञानता, संपत्ति आदि से सदा के लिए दूर रखना केंद्रीय तत्त्व हैं ऐसे में क्या आधुनिक समय में समतामूलक चेतना निर्माण के बाद भी किसी दूसरी नस्ल द्वारा थोपी गई ऐसी अपमानजनक ‘शूद्र’ अवधारणा को हमें स्वीकार करना चाहिए?

पेरियार ई.वी. रामास्वामी ने अपनी पत्रिका ‘कुड़ी अरासु’ में सन् 1925 में ‘जाति का उन्मूलन’ शीर्षक निबंध में ‘शुद्र’ का मतलब ‘वेश्या की संतान बताया हैं और महाशूद्र का मतलब– महावेश्या की संतान। पेरियार ललई सिंह यादव अपनी पुस्तक ‘आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश’ (1968) में ‘हरिजन’ का मतलब ‘रखैल की संतान’ लिखते हैं, जो कि इतिहास बोध की दृष्टि से हममें हीनता बोध को स्थापित करता है। वास्तव में ओबीसी को ‘शूद्र’ कहना और दलित को ‘हरिजन’ कहना मनुवादी साहित्य की चिंतनधारा द्वारा यहां के मूल मनुष्यों को गाली देना है।

प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक भारत के श्रवण संस्कृति के चिंतकों और विचारकों में अग्रणी मक्खलि गोसाल, अजित केशकंबली, बुद्ध, चार्वाक, रैदास, कबीर, धन्ना भगत, धर्मदास, दादू दयाल, पतिराम, बुल्ला साहब, पलटू साहब से लेकर आधुनिक काल में जोतीराव फुले, पेरियार, छत्रपति शाहूजी महाराज, चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु, फणीश्वरनाथ रेणु, पेरियार ललई सिंह यादव, रामस्वरूप वर्मा, महराज सिंह भारती, जगदेव प्रसाद, बीपी मंडल, कयूम अंसारी, अली अनवर, राजेंद्र यादव, और राजेंद्र प्रसाद सिंह आदि तक किसी ने भी ओबीसी को ‘शुद्र’ इस लहजे में कभी नहीं कहा कि इसे गौरवान्वित करनेवाला शब्द स्वीकार किया जाय। भले ही अपने साहित्य और चिंतन में कहीं-कहीं लोगों को समझाने के लिए शूद्र शब्द का प्रयोग अवश्य किया गया है। महान विचारकों ने अपनी मौलिक शब्दावली गढ़ी। बुद्ध ने श्रवण/बहुजन की अवधारणा देते हुए ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ का नारा दिया तो कबीर ने स्वर्ग की अवधारणा को अस्वीकारते हुए अपने ‘अमरदेसवा’ की कल्पना की। पेरियार ने ‘द्रविड़’ कहा तो पेरियार ललई सिंह यादव ने ‘आदिनिवासी’ कहा। चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु ने आधुनिक समय में ‘बहुजन’ शब्द को एकता के लिए नवजागरण किया तो रामस्वरूप वर्मा ने ‘अर्जक’ कहा। 

1980 में तत्कालीन राष्ट्रपति श्री ज्ञानी जैल सिंह को रिपोर्ट सौंपते बी. पी. मंडल

अब ओबीसी शब्द की ऐतिहासिकता पर विचार किया जाय। क्रिस्टोफ जैफरलोट लिखते हैं कि पिछड़ों को सबसे पहले मद्रास प्रेसीडेंसी में 1870 में बैकवर्ड क्लासेज में शामिल किया गया। इसमें अछूत भी शामिल थे। परंतु 1925 बैकवर्ड क्लासेज से गैर अछूतों को अलग कर एक पृथक वर्ग बना दिया गया। वहीं 13 दिसंबर, 1946 को भारतीय संविधान सभा के उद्घाटन संबोधन में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अन्य पिछड़ा वर्ग की बात कही। हालांकि उनका प्रयास जातियों को वर्ग के रूप में प्रस्तुत करना था। संविधान सभा ने अनुच्छेद 340 में एक यह प्रावधान किया कि “सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े” लोगों की पहचान के लिए राष्ट्रपति एक आयोग का गठन करने के अधिकारी होंगे ताकि उनकी स्थिति में सुधार हो। इसके आलोक में 1953 में पिछड़ा वर्ग आयोग बनाया गया, जिसके अध्यक्ष काका कालेलकर रहे। परंतु उनकी अनुशंसाएं तब ठंडे बस्ते में डाल दी गयीं। तदुपरांत 1977 में तत्कालीन मोरारजी देसाई सरकार ने दूसरी बार पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया, जिसके अध्यक्ष बी.पी. मंडल बनाए गए। इस प्रकार हम देखते हैं कि ओबीसी लोकतांत्रिक तरीके से स्वीकार किया गया शब्द है।

यह भी पढ़ें – शूद्र शब्द दलित-पिछड़ी जातियों का नहीं है

वर्ष 1950 में भारतीय संविधान के लागू होने, वर्ष 1980 में बीपी मंडल के नेतृत्व में दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग की रपट राष्ट्र को समर्पित करने और 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा मंडल आयोग की अनुशंसाओं को लागू किए जाने के बाद से देश के सभी पिछड़े वर्ग के लोग खुद को ओबीसी मानते हैं और लिखते हैं, ना कि ‘शुद्र’। इस ओबीसी शब्द से ही वह लोकतांत्रिक, संवैधानिक राष्ट्र का सभ्य नागरिक होता है। इसके मनोवैज्ञानिक प्रभाव को देखें तो ओबीसी वर्गीय सोच का शब्द है। इससे अखिल भारतीय स्तर पर ओबीसी वर्गीय चेतना का निर्माण होगा। त्रिपुरा से गुजरात तक और कश्मीर से तमिलनाडु तक आधुनिक राष्ट्रिय ओबीसी वर्गीय चेतना का निर्मण हो रहा है। उनमें वर्गीय आधार पर जुड़ाव की संभावना ज्यादा लगती है।

अगर वर्तमान के संदर्भ में बात की जाय तो वंचित तबके से फुले पहले चिंतक हैं, जिन्होंने शुद्र और अतिशुद्र की अवधारणा को उजागर किया। जिन हिन्दू धर्मग्रंथों – वेद, पुराण, स्मृति, मनुस्मृति आदि यह शूद्र अवधारणा प्रतिस्थापित है, उसे संबोधित करते हुए “गुलामगिरी” नामक प्रसिद्ध कृति लिखी। इनका ‘शुद्र’ शब्द का प्रयोग करना केवल इतिहास में हुए शोषण को उजागर करना और अतीत में हमें दी गई यातना और अवमानना को प्रस्तुत करना था। फुले की पूरी गुलामगीरी कृति में कहीं भी यह भावना नहीं है कि भारत के मूल मनुष्यों को शूद्र शब्द से संबोधित किया जाय और वे अपने आपको शूद्र मानें।

आधुनिक भारत में संविधान की स्थापना के बाद लोगों को शूद्र बोलना और वर्णाश्रमी मानसिकता से शूद्रवत व्यवहार करवाना संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है। 

डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह ने ‘ओबीसी साहित्य’ की नींव डाली। मोटे तौर पर उनका कहना यह है कि अगर कोई लड़ाई जीती जानी है तो उसे दुश्मन के खरीदे हथियार से नही जीती जा सकती है। हां! उसने अपने हथियार का किस तरह प्रयोग किए थे? इसे अवश्य याद रखा जाना चाहिए।

शूद्र के संबंध में कुछ विशेष विधान हिंदू धर्म शास्त्रों में लिखें हैं। जैसे मनुस्मृति में मनु ने लिखा कि शुद्र शिक्षा नही ग्रहण कर सकता है, संपत्ति नहीं रख सकता है, उसका जन्म ब्राह्मण की सेवा करने के लिए हुआ है आदि आदि। संवैधानिक समय में इन वर्णवादी-मनुवादी विधानों को ओबीसी वर्ग ने पूर्णतः नकार दिया है। वह अब अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा रहा है। उन्हें उच्च शिक्षा दिला रहा है। उन्हें आचार्य (प्रोफेसर) बना रहा है, जो वेदवादी वर्ण विधानों में पूर्णत: निषिद्ध है। वह संपत्ति भी रखता है और मालिक बनने की दिशा में अग्रसर है। हजारों करोड़ रुपए का व्यापार खड़ा कर रहा है, जो कि आधुनिक संवैधानिक मानव मूल्य ज़े सम्भव हुआ है। यह आने वाले समाज में भी सबके अधिकार की रक्षा के लिए जरूरी है। जब ओबीसी वर्ग हिंदू धर्म ग्रंथो में लिखे नियमो को तोड़कर मानवतावादी अधिकारों को हासिल कर रहा है तो फिर उस शूद्र पद को अपनाने की क्या जरूरत है?

बुद्ध का श्रवण/बहुजन, फुले के श्रमशील किसान, पेरियार का द्रविड़, पेरियार ललई सिंह यादव का आदिनिवासी, रामस्वरूप वर्मा का अर्जक और जगदेव प्रसाद का ‘कमेरा’ सब मिलकर भौतिक रूप से और विश्व विचारो से ओतप्रोत होकर बी. पी. मंडल की अनुशंसा लागू होने के बाद ‘ओबीसी वर्ग’ बना। आखिर हमारे संविधान निर्माताओं ने भी अधिकारों के लिए ओबीसी शब्द को चुना।

ओबीसी शब्द यदि अधिकार पाने के दृष्टिकोण से देखें तो अन्य पिछड़ा वर्ग है, लेकिन आगे हम इसकी व्याख्या ओबीसी अर्थात् ‘ओरिजिन ऑफ़ ब्रिलियंट क्लासेज’ (ब्रिलियंट वर्ग की उत्पत्ति) भी संबोधित कर सकते हैं।

एक कल्पना करें कि ओबीसी वर्ग के सारे बच्चों ने खुद को ‘शूद्र’ कहना शुरू कर दिया। यदि कल को इस देश हिंदू राष्ट्र बनाने के क्रम में वर्ण व्यवस्था लागू हो जाए तो ओबीसी वर्ग के लोग जो खुद को ‘शुद्र’ मानेंगे तो वर्ण-व्यवस्था को सहर्ष स्वीकार कर लेंगे और मनुस्मृति के अनुसार बनाए गए ‘शुद्र गुलामी’ से ही संतुष्ट हो जाएंगे। और जब व्यक्ति शुद्र स्वीकार कर लेगा, मनु के विधान को स्वीकार कर लेगा तो वह भारत के संविधान के खिलाफ चला जाएगा जो कि राष्ट्र और लोकतंत्र विरोधी व्यवहार होगा। यह एक तरह से देशद्रोह होगा। अतः ओबीसी को ‘शुद्र’ कहना संविधान, लोकतंत्र और राष्ट्र के लिए कितना खतरनाक साबित हो सकता है, इस बात का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। 

एक दिलचस्प बात यह कि हिंदुत्ववादी नेता साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और हिंदुत्ववादी प्रवचनकर्ता पूरी के शंकराचार्य निश्चलानन्द महाराज अपने प्रत्येक प्रवचन में ओबीसी को कहते हैं कि ये शूद्र हैं। इन्हें वर्ण-व्यवस्था में विधान के अनुसार जीवन जीना चाहिए। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर अपने भाषण में कहती हैं कि “ओबीसी के लोग शूद्र हैं। मैं जब ये बात कहती हूँ तो ओबीसी के लोगों को बुरा लग जाती है।” इनके जैसे अनेक हिन्दू आचार्यों के ओबीसी को शूद्र कहने के पीछे जो भावना सन्निहित है, वह यह कि वर्ण व्यवस्था में शूद्र का काम केवल सेवा करना है ना कि अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा और आरक्षण से इस देश का प्रशासक और लोकतंत्र से इस देश का प्रधानमंत्री बनना है। ये उसे सेवक/गुलाम के रूप में देखना चाहते हैं। इसलिए ओबीसी को शूद्र पहचान का वर्णाश्रमी जामा पहनाना चाहते हैं।

ओबीसी को शूद्र पहचान देना ओबीसी के लिए भविष्य में कितना खतरनाक सिद्ध होगा, इसका अनुमान इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि प्रो. कांचा तो शूद्र शब्द केवल लिखते हैं, लेकिन कुछ ओबीसी (देवेन्द्र यादव, मुम्बई) और दलित ( एस.के. बैरवा, मुम्बई) से ‘ओबीसी’ को ‘शूद्र’ पहचान दिलाने के लिए ‘भारतीय शूद्र संघ’ नाम से संगठन बनाकर ओबीसी वर्ग को शूद्र के रूप में प्रशिक्षित कर रहे हैं। दिलचस्प है कि बैरवा जो खुद दलित हैं, लेकिन वे दलितों को महाशूद्र या चांडाल बनाने के रूप में न संबोधित कर रहे हैं और ना ही प्रशिक्षित कर रहे हैं। सिर्फ ओबीसी को शूद्र पहचान दिलाने के लिए प्रशिक्षण दे रहे हैं। ये लोग मुम्बई और पूर्वी भारत में विधिवत कैडर कैम्प चला रहे हैं। 

वास्तविकता यह है कि ये लोग ओबीसी को वहीं लेकर जा रहे हैं जहां ओबीसी को आरएसएस लेकर जाना चाहता है। अब ओबीसी बुद्धिजीवी सोचें कि साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, पूरी के शंकराचार्य, आरएसएस, कांचा इलैया, देवेंद्र यादव और बैरवा के उद्देश्य में कोई अंतर है? एकदम नहीं! आज जो लोग भी ओबीसी को ‘शुद्र’ कह रहे हैं, वे वर्ण व्यवस्था के मुंह में ओबीसी को ले जाने के लिए तैयार कर रहे हैं। इस प्रकार ये लोग हिंदुत्ववादियों के लिए एजेंट की भूमिका निभा रहे हैं।

बुद्ध ने जिस बहुजन शब्द का प्रवर्तन किया, उस बहुजन में ओबीसी, एससी, एसटी व अल्पसंख्यक सभी आते हैं। बहुजन पद समतामूलक समाज निर्माण की एक पूर्ण छतरी है। हमें इसी लक्ष्य को प्राप्त करना है। किन्तु ऐतिहासिक शोषण की भिन्नता और अधिकारों की प्राप्ति के लिए ओबीसी, एससी, एसटी अस्मिता की पहचान तब तक प्रासंगिक है जब तक कि हमारा अलग-अलग वर्गीय अस्मिता के साथ पहचान और प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हो जाता है। वैसे भी, वर्गीय विभाजन से दुनिया में किसी को कोई आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए। डॉ. बी.पी. मंडल भी अपनी रपट में लिखते हैं– “वर्ग विहीन समाज में भी अंततः एक वर्ग का निर्माण हो ही जाता है।”

आगे बहुजन या मूलनिवासी दोनो में कोई एक ओबीसी, एससी और एसटी के लिए एक बड़ी छतरी बन सकती है। जहां बहुजन एक सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक अवधारणा का बोध कराता है तो वहीं मूलनिवासी शब्द हमारी ऐतिहासिकता का बोध कराता है।

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह कहते हैं– “ओबीसी की वैचारिकी की बात करें तो उसमें हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध धम्म आदि संप्रदाय के लोग आते हैं। इस तरह ओबीसी अवधारणा की स्वीकृति सभी धर्मो के पिछड़े वर्गो में समान रूप से है।”

अतः अब अनुसूचित जाति के लोग भी दलित कहलवाना धीरे-धीरे नापसंद कर रहें हैं। और भारतीय न्यायालय भी दलित शब्द को असंवैधानिक घोषित कर चुका हैं। ऐसे में अनुसूचित जाति के लोग दलित की ही तरह स्वयं को हरिजन या चमार कहलवाने से मुक्ति प्राप्त कर रहे हैं और स्वयं को अब अनुसूचित जाति, बहुजन कहलवाना स्वीकार कर रहें हैं। वैसे ही शूद्र रूपी गाली को ओबीसी वर्ग के लोग सचेत होकर नकार रहे हैं। और ओबीसी को ओबीसी कहा जाना संवैधानिक रूप से पूर्णतः सही भी है। ऐसी स्थिति में ओबीसी को ‘शुद्र’ कहना ठीक उसी तरह से है, जैसे अनुसूचित जाति को ‘हरिजन’ कहना। अतः ओबीसी को ओबीसी ही कहें। जिससे ओबीसी राष्ट्र और नागरिक समाज के समक्ष गरिमापूर्ण जीवन जी सके तथा राष्ट्र निर्मण में नैतिक बल के साथ अपना पूर्ण योगदान कर सके।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विनोद कुमार

विनोद कुमार मूलतः मंडलवादी बुद्धिजीवी/चिंतक हैं और ओबीसी साहित्य एवं संस्कृति पर सतत् लेखन कर रहे हैं।

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