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जब हुई डॉ. रामदयाल मुंडा से यादगार मुलाकात (रांची डायरी : अंतिम किश्त)

डॉ. रामदयाल मुंडा के मकान के जिस हॉलनुमा कमरे में हमें बैठाया गया, वहां बहुत सारे वाद्य-यंत्र मांदड़-ढोल-नगाड़े रखे हुए थे, और कुछ दीवालों पर भी टंगे हुए थे। उस कमरे में हमारे अलावा लगभग 20-25 लोग और भी थे, वासवी किरो तथा कुछ अन्य महिलाएं भी थीं। सिर के पीछे कंधे पर पड़े हुए लंबे-लंबे वालों वाले डॉ. मुंडा ने हम सभी का स्वागत किया। पढ़ें कंवल भारती की रांची डायरी की अंतिम किश्त

[दलित साहित्यकार व समालोचक कंवल भारती ने वर्ष 2003 में झारखंड की राजधानी रांची की यात्रा की थी। उनके साथ दलित साहित्यकार मोहनदास नैमिशराय, श्योराज सिंह बेचैन और सुभाष गाताडे भी थे। इस दौरान जिस डायरी में कंवल भारती ने संस्मरणों को दर्ज किया, वह करीब 18 वर्षों तक उनकी नजरों से ओझल रहा। यह यात्रा संस्मरण इसी संस्मरण पर आधारित है। इसके तहत अपनी पहली किश्त में उन्होंने झारखंड के दलित समुदायों के बारे में जानकारी थी। वहीं दूसरी किश्त में उन्होंने तब नवगठित झारखंड की आबोहवा का भगवाकरण करने के प्रयास के संबंध बताया। तीसरी किश्त में उन्होंने झारखंड को वनांचल बनाने की भाजपा की साजिश के बारे में जानकारी दी। चौथी किश्त के केंद्र में आजादी के बाद महुआडांड़ में मैनेजर उरांव का अहिंसक आंदोलन था जो भारतीय सैनिकों के कैंपों के विरोध में था। पांचवीं किश्त में उन्होंने झारखंड में ईसाई मिशनरियों की भूमिका के बारे में बताया। छठी किश्त में उन्होंने आदिवासियों और दलितों के बीच के संबंधों पर चर्चा की। आज अंतिम किश्त में पढ़ें, डॉ. रामदयाल मुंडा से उनकी यादगार मुलाकात]

रांची में अंतिम दिन– 17 नवंबर 2003, दोपहर : 12.15 बजे

आज रांची में हमारा आखिरी दिन था। और आज का केवल एक ही प्रोग्राम था– रांची यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति डॉ. रामदयाल मुंडा[1] के आवास पर जाकर उनसे भेंट करना। डॉ. मुंडा रांची के इतिहास-पुरुष हैं और आदिवासियों के आइकॉन। उन्होंने रांची विश्वविद्यालय से मानव-विज्ञान में स्नातकोत्तर किया। उसके बाद 1963 में वह उच्च शिक्षा और शोध के लिए अमेरिका गए, जहां उन्होंने शिकागो विश्वविद्यालय से 1968 में भाषा-विज्ञान में पीएचडी किया। उसके बाद उन्होंने 1971 तक उसी विश्वविद्यालय के दक्षिण एशियाई भाषा एवं संस्कृति विभाग में अध्ययन और शोध किया। उसके बाद वह अमरीका में ही मिनिसोटा विश्वविद्यालय के दक्षिण-एशियाई अध्ययन विभाग में प्रोफेसर नियुक्त हो गए। 1982 में वह अमरीका की नौकरी छोड़कर रांची वापस आए। इस प्रकार वह 20 साल अमेरिका में रहे। उन्होंने आदिवासी समाज के अधिकारों के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ तक में आवाज उठाई।

डॉ. मुंडा ने न केवल आदिवासी समुदायों को संगठित करने का काम किया, बल्कि आदिवासी भाषाओं को भी प्रतिष्ठा दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह जमीनी-समाजकर्मी, सांस्कृतिक आंदोलनकर्मी, लेखक, भाषाविद, समाजशास्त्री, आदिवासी चिन्तक और संगीतकार थे। उन्होंने मुंडारी, नागपुरी, पंचपरगनिया, हिन्दी और अंग्रेजी में गीत-कविताओं के अलावा गद्य में भी कई किताबें लिखीं। उनकी संगीत-रचनाएं भी लोकप्रिय हुई हैं। उन्होंने झारखंड की आदिवासी लोक-कला, विशेषकर ‘पाइका नृत्य’ को वैश्विक पहचान दिलाई। उन्होंने 1987 में सोवियत संघ में आयोजित ‘भारत महोत्सव’ में ‘मुंडा पाइका नृत्य’ दल के साथ भारतीय सांस्कृतिक दल का नेतृत्व भी किया था। 1988 में उन्होंने आदिवासी कार्य दल का राष्ट्रसंघ जेनेवा में नेतृत्व किया। उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह है कि उन्होंने आदिवासियों के पारंपरिक धर्म को ‘आदि धर्म’ के रूप में खड़ा किया। ‘आदि धर्म’ नाम से ही उन्होंने एक किताब भी लिखी। उनके द्वारा लिखा गया ‘सरहुल मंत्र’ तो क्रांतिकारी है। इस मंत्र में वह स्वर्ग के परमेश्वर से लेकर धरती-माई, शेक्सपीयर, रवीन्द्रनाथ टैगोर, मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन से लेकर सिदो-कान्हु, चांद-भैरव, बिरसा मुंडा, गांधी, नेहरू, जयपाल मुंडा और सैकड़ों दिवंगत व्यक्तियों को एक साथ बुलाकर पंक्ति में बैठने का आमंत्रण देते हैं और कहते हैं– “हम तोहरे के बुलात ही, हम तोहरे से बिनती करत ही, हमरे संग तनी बैठ लेवा, हमरे संग तनी बतियाव लेवा, एक दोना हड़िया के रस, एक पतरीलेटवा भात, हमर संग पी लेवा, हमर साथे खाय लेवा।”

वर्ष 1985 में वह रांची विश्वविद्यालय के पहले आदिवासी उपकुलपति बने और 1987 में कुलपति। इसी कार्यकाल में उन्होंने रांची विश्वविद्यालय में ‘आदिवासी और क्षेत्रीय भाषा विभाग’ की स्थापना की, जो देश के किसी भी विश्वविद्यालय में पहला आदिवासी विभाग है। 1989 से 1995 तक वह भारत सरकार की झारखंड विषयक समिति के सदस्य रहे। 1990 में केन्द्रीय शिक्षा समिति के सदस्य बने। 1991 से 1998 तक वह झारखंड पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष रहे। 1996 में वह न्यूयार्क के सिराक्यूज विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर नियुक्त हुए। वहीं 1997 में वह अंतर्रराष्ट्रीय श्रम संगठन की सलाहकार समिति के सदस्य और 1998 में केन्द्रीय वित्त मंत्रालय की वित्त समिति के सदस्य बनाए गए।[2]

डॉ. रामदयाल मुंडा (23 अगस्त, 1939 – 30 सितंबर, 2011)

डॉ. रामदयाल मुंडा के मकान के जिस हॉलनुमा कमरे में हमें [17 नवंबर 2003 को] बैठाया गया, वहां बहुत सारे वाद्य-यंत्र मांदड़-ढोल-नगाड़े रखे हुए थे, और कुछ दीवालों पर भी टंगे हुए थे। उस कमरे में हमारे अलावा लगभग 20-25 लोग और भी थे, वासवी किरो तथा कुछ अन्य महिलाएं भी थीं। सिर के पीछे कंधे पर पड़े हुए लंबे-लंबे वालों वाले डॉ. मुंडा ने हम सभी का स्वागत किया, और जलपान कराया। उनके साथ हमारी ज्यादा लंबी-चौड़ी बातचीत नहीं हुई, केवल कुछ ही मिनट की बातचीत हुई। हमारी बातचीत के केंद्र में आदिवासी और दलित विषय ही मुख्य रूप से रहा। हमने अनुभव किया कि डॉ. आंबेडकर के प्रति उनकी धरणा बहुत अच्छी नहीं थी। शायद उन्होंने डॉ. आंबेडकर को पढ़ा भी नहीं था। उन्होंने कहा कि यहां दलित नाम की कैटेगरी उस अर्थ में नहीं है, जिस अर्थ में उत्तर प्रदेश आदि प्रदेशों में है। ‘यहां का दलित कभी गांव के बाहर गया ही नहीं। यहां इन्दिरा आवास में बकरी भी नहीं रहती। इसलिए, उन्होंने कहा, ‘झारखंड में इन्दिरा आवास फेल हो गए।’

उन्होंने दलित-आदिवासी संबंधों पर कहा, ‘यहां के दलितों ने सोचा कि हमें बड़े लोगों के साथ रहना चाहिए, न कि जंगल के लोगों के साथ, जो समाज से कटे हुए हैं। इसलिए हमारा जो एससी वर्ग है, वह सुविधा-भोगी है।’ उन्होंने यह भी बताया कि अभी हमारे कुछ आदिवासी लोगों को सरकार ने एससी (दलित) और बीसी (बैकवर्ड क्लास) बना दिया है। पर वे आंदोलन कर रहे हैं कि उन्हें आदिवासी ही रखा जाए। उन्होंने इसका रहस्य बताया कि ‘आदिवासी को एससी बनाने का अर्थ है पूरे क्षेत्र को ‘नान-एसटी’ (गैर-जनजाति) क्षेत्र बनाना, ताकि जमीन को हथियाया जा सके।’ उन्होंने बताया कि पूरे भारत में यदि आदिवासियों की जमीन बची है, तो झारखंड में ही बची है। असम, बोडोलैंड आदि में आदिवासी भूमिहीन हो चुके हैं। उन्होंने बताया कि सैद्धान्तिक रूप से सभी दलित हैं, पर कानूनन वही दलित हैं, जो एससी हैं। उन्होंने आगे कहा कि जो एससी यहां का है, वह पीड़ित है, पर जो बाहर से, यानी बिहार से एससी आया है, वह डोमिनेंट है।

साहित्यकार की भूमिका पर बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘केवल साहित्य लिखने और उसे बाजार में देने से काम नहीं चलेगा’ बल्कि साहित्यकार को सशरीर भी लोगों के बीच जाकर बोलना होगा।’

उन्होंने उत्तर-पूर्व के नागा-बोडोलैंड के भील, नागा आदिवासियों के बारे में बताया कि वहां जो बौद्धिक वर्ग है, उसमें आईएएस और आईपीएस हैं। उनमें अपनी भाषा-संस्कृति के लिए छटपटाहट नहीं है। वे अंग्रेजी-ओरियन्टल हो गए हैं। उन्हें अंग्रेजी लिखना-बोलना-पढ़ना अच्छा लगता है। लेकिन झारखंड के आदिवासी अपनी भाषा, संस्कृति और अस्मिता के प्रति बहुत सजग रहते हैं।

 

[1] (जन्म 23 अगस्त, 1939 – मृत्यु 30 सितंबर, 2011)

[2] हालांकि हमारी रांची यात्रा के करीब चार साल बाद 2007 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी का सर्वोच्च सम्मान मिला। 2010 में वह राज्यसभा में सांसद बनाए गए और उसी वर्ष उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। कहा जाता है कि तत्कालीन भारत सरकार ने उन्हें बहुत उपेक्षा के बाद यह सम्मान दिया था। उस समय वह कैंसर से पीड़ित थे। इसलिए वह केवल एक वर्ष सांसद रहे, और 2011 में उनकी मृत्यु हो गई।

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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