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झारखंड में दलित और आदिवासियों के संबंध (रांची डायरी : भाग – 6)

आदिवासी कवि रेमिस कण्डूलना के मुताबिक, यह नहीं देखता कि ईसाई मिशनरियों ने आदिवासियों को शिक्षित बनाने में कितना योगदान किया है। ये ईसाई जरूर बन गए हैं, पर उन्होंने अपनी आदिवासी परम्परा को नहीं छोड़ा है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यहां दलितों और आदिवासियों के बीच एकता रही है। जब आदिवासी नाचते हैं, तो दलित ढोलक बजाते हैं

[दलित साहित्यकार व समालोचक कंवल भारती ने वर्ष 2003 में झारखंड की राजधानी रांची की यात्रा की थी। उनके साथ दलित साहित्यकार मोहनदास नैमिशराय, श्योराज सिंह बेचैन और सुभाष गाताडे भी थे। अपनी पहली किश्त में उन्होंने झारखंड के दलित समुदायों के बारे में जानकारी थी। वहीं दूसरी किश्त में उन्होंने तब नवगठित झारखंड की आबोहवा का भगवाकरण करने के प्रयास के संबंध बताया। तीसरी किश्त में उन्होंने झारखंड को वनांचल बनाने की भाजपा की साजिश के बारे में जानकारी दी। चौथी किश्त के केंद्र में आजादी के बाद महुआडांड़ में मैनेजर उरांव का अहिंसक आंदोलन था जो भारतीय सैनिकों के कैंपों के विरोध में था। पांचवीं किश्त में उन्होंने झारखंड में ईसाई मिशनरियों की भूमिका के बारे में बताया। आज पढ़ें, उनके संस्मरण की छठी किश्त]

16 नवम्बर 2003, 8 बजे रात, मुकुन्द नायक के आवास पर

‘उपर चुटिया’ की नामक बस्ती रांची की दलित बस्ती है। इसी दलित बस्ती में दलित लोकगायक मुकुन्द नायक रहते हैं। हम सब रात में 8 बजे यहॉं पहुंचे। बिजली नहीं थी। गली में अंधेरा पसरा था और जगह-जगह कुत्ते बैठे हुए थे। अंधेरे में ही वासवी जी के पीछे चलते हुए हम मुकुन्द जी के निवास पर पहुंचे। किन्तु वह घर पर नहीं मिले। घर में उपस्थित सदस्यों ने हमारे बैठने की व्यवस्था की। कुछ और लोग भी आ गए। वासवी ने ही बातचीत को आगे बढ़ाया। मालूम हुआ कि मुकुन्द नायक के पुत्र नन्दलाल नायक म्यूजिक डायरेक्टर हैं। लेकिन वह यहां नहीं रहते, अमरीका में रहते हैं। यहॉं हमारी भेंट जगदीश लहरी से हुई, जो जमशेदपुर से आए थे। वह कवि थे और आकाशवाणी से कविता पाठ करते थे। वह बी.ए. तक पढ़े हैं और घासी जाति से हैं। मुकुन्द नायक भी घासी समुदाय से आते हैं। उन्होंने बताया कि घासी जाति शुरू से ही संगीत-प्रेमी जाति रही है। इसी जाति ने यहां संगीत की रक्षा की है। उन्होंने बताया कि वाद्य यंत्र बनाने का काम घासी समुदाय के लोग ही करते हैं। इनके बनाए वाद्य यंत्रों– ढोलक, नगाड़ा, तुणीर के बिना कोई संगीत पूरा नहीं होता। लेकिन हाय री वर्णव्यवस्था! संगीत के इन रक्षकों को सम्मान नहीं मिलता।

मुकुन्द नायक सांदरी अर्थात नागपुरी भाषा में गाते-बजाते हैं। नागपुरी भाषा में परम्परा से जो लोकगीत गाए जाते थे, उनमें रामायण आदि की हिदू कहानियां होती थीं, जो दलितों के हित की नहीं थीं। मुकुन्द नायक ने इस धारा को बदला और उन्होंने अपने ही लोकगीतों की रचना की, जिनमें जनजागरण था। मुझे स्मरण नहीं हो रहा है कि मुकुन्द नायक आ गए थे, या नहीं। डायरी में मैंने किसी व्यक्ति को बालों की बड़ी-बड़ी लटों वाले के रूप में लिखा है। शायद वह मुकुन्द नायक ही हों। उन्होंने बताया कि 1930 में घासी जाति को हरिजन (दलित, अनुसूचित जाति) में शामिल किया गया था। उससे पहले घासी समुदाय आदिवासी ही था। उन्होंने कहा, ‘मेरा सारे दलित-आदिवासी राजनेताओं और लेखकों से यह प्रश्न है कि झारखंड का नवनिर्माण कैसे हो?’ इसके बाद उन्होंने अपना एक लोकगीत सुनाया, जो यह था–

जागो जवान नागपुरे देहू तनिक ध्यान।

तामा लोहा सोना चॉंदी ले गए देखो मोटा बॉंधी।

खनिने रतन धनपरक के दो कान।

खेत बारी हमार चास करै दोसर।

बेकार बैठल गॉंवा के किसान।

काटी काटी वने झार मजा मारे जमींदार।

नन्दू लाल नायक ने भी अपनी दो कविताएं सुनाई, जो ये थीं–

हड़िया मत पियो

सड़े चावल से बनी हड़िया महकती है,

शरीर छीन [क्षीण] करती है, मस्तक कमजोर करती है,

पढ़ो-लिखो, अंधविश्वास से दूर रहो।

——

उलगुलाल खतम नहीं होगा,

यह तीर धनुष सौंपे जा रहा हूँ,

संकट आए तो इसका

इस्तेमाल करना।

झारखंड के दलित लोकगायक मुकुन्द नायक

17 नवंबर, 2003, समय रात 9:30 बजे, आदिवासी लड़कियों का शोषण

17 नवंबर को दिन का कोई कार्यक्रम दर्ज नहीं है। सम्भवतः न रहा हो। लेकिन यह दर्ज है कि रात में साढ़े नौ बजे हमने सेंट जेवियर कालेज के हाल में आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लिया था। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता विधायक देवकुमार धान ने की थी। यहां कुछ आदिवासी कार्यकर्ताओं और छात्रों से हमारी भेंट हुई। इनमें एक थे प्रभाकर, जो झारखंड मुक्ति मोर्चा पार्टी से जुड़े हुए थे। वह कृषि में एमएससी. थे और समाजशास्त्र में पीएचडी कर रहे थे। पृथक झारखंड राज्य आन्दोलन में उन्होंने प्रभावी भूमिका निभाई थी। उस समय वह एक ‘पात्रा’ नामक गैर-सरकारी संगठन चला रहे थे, जिसके माध्यम से वह महिला-पलायन पर काम कर रहे थे। ‘प्रभात खबर’ में उनके विश्लेषण प्रकाशित होते थे। उन्होंने गुमला जिले के लगभग 45 गांवों का अध्ययन किया, जिसके आधार पर उन्होंने बताया कि आदिवासी लड़कियों का महानगरों में आया और घरेलू नौकरानी के रूप में बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है। इस पूरे इलाके के बारे में, उन्होंने कहा, यह पलायन पिछले दस सालों से चल रहा है। उन्होंने यह भी बताया कि ऐसी पलायित लड़कियां दिल्ली में 70 हजार हैं, मुंबई में 20 हजार हैं, जो नौकरानी के रूप में काम कर रही हैं। इसी तरह वे कोलकाता ले जाई जा रही हैं। उन्होंने बताया कि ये 15 से 25 वर्ष की लड़कियां होती हैं। उन्होंने कहा कि इनमें बहुत सी ऐसी भी लड़कियॉं हैं, जो बीच में ही स्कूल छोड़कर जाने को तैयार हो जाती हैं। यह पूछने पर कि इस पलायन का कारण क्या है, उन्होंने बताया कि इसके दो कारण हैं– (1) गरीबी, रोजगार के साधनों का न होना, और (2) सरकार की कोई वैकल्पिक योजना नहीं, जो रोजगार के स्रोत पैदा करे। उन्होंने बताया कि ये लड़कियां जहां जाती हैं, वहां उनको देखने वाला कोई नहीं है, न दिल्ली-मुंबई की सरकार देखती है और ना ही कोई संगठन देखता है कि इनके साथ क्या हो रहा है? उन्होंने कहा कि पिछले कुछ सालों में कुछ संगठन यहां रांची में सक्रिय हुए हैं। उनके द्वारा की गई जांच में पता चला है कि शारीरिक शोषण के अलावा काम और मजदूरी को लेकर भी उनका शोषण और उत्पीड़न भी हो रहा है। उन्होंने बताया कि यह व्यापार दलालों के द्वारा किया जा रहा है। वे 20-25 हजार रुपए अग्रिम ले लेते हैं। उन्होंने आगे बताया, ‘हमने ऐसी 20 संस्थाओं को चिन्हित किया है, जो दलाली करती हैं। इन्होंने संस्था रजिस्टर्ड करा ली हैं और वेतन पर स्टाफ रख लिया है। हम पुलिस से मिले, कोई रिस्पांस नहीं। राज्य के स्तर पर भी कोई कार्यवाही नहीं हुई। हम गृहमंत्री [केंद्रीय गृहमंत्री] से मिले। उन्होंने राज्य सरकार को निर्देश दिया। इसका असर यह हुआ कि कुछ दिन पूर्व कुछ दलाल पकड़े गए। सुमित्रा चौहान को अप्रैल में गिरफ्तार किया गया। तीन महीने पहले वह सात लड़कियों को लेकर जा रही थी।’ उन्होंने इससे जुड़ा ‘एड्स’ का मामला भी उठाया। उन्होंने कहा कि यह स्वाभाविक है कि इन लड़कियों के साथ व्यभिचार होता है, और एड्स फैल सकता है। उन्होंने बताया कि एड्स प्रभावित चार लड़कियों को चिन्हित भी किया गया है।

भाजपा का सांप्रदायिक बनाम कारपोरेट खेल

इसी आयोजन में वरिष्ठ पत्रकार फैसल अनुराग ने संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघन का मामला उठाया। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि भाजपा ने वनांचल की योजना से आदिवासी-अस्मिता को तोड़ा। भाजपा ने सारे पूर्वोत्तर का केंद्र झारखंड को बनाया है। उन्होंने बताया कि झारखंड बनते ही 28 दिसंबर, 2002 को ईद के दिन सुबह 9 बजे ईदगाह से लौटते हुए मुसलमानों पर गोलियां चलीं, जिनमें चार मुसलमान मारे गए। प्रदेश में तनाव बढ़ाने के लिए कुछ हिंदू भी मार दिए गए।

यह भी पढ़ें : आदिवासी और ईसाई नवजागरण (रांची डायरी : भाग – 5)

उन्होंने बताया कि भाजपा सरकार जनता को सांप्रदायिकता में उलझाकर, उसकी आड़ में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खदानें बेचने का काम करती है। वह सारी खदानें अपनी चहेती कंपनियों को सौंपना चाहती है। उन्होंने कहा कि उसने सोने की दो खदानें लीज पर दे भी दी हैं। उन्होंने बताया कि यहां ‘दैनिक जागरण’ अखबार आ गया है, जिसकी नीति भगवा संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना है। उन्होंने कहा कि झारखंड में जब मुख्यमंत्री शपथ ले रहे थे, तो बनिया, मारवाड़ी, पुलिस और सेना माजूद थी, जनता नहीं थी। वह घरों में थी।

उन्होंने बताया कि कोयला खानों की लड़ाई अनपढ़ लोग लड़ रहे हैं। उनका जिक्र मीडिया में नहीं होता। मीडिया में मेधा पाटकर का जिक्र होता है, जो अंग्रेजी जानती हैं। नर्मदा की लड़ाई मेधा पाटकर के माध्यम से मीडिया में आती है।

उन्होंने कहा कि बिरसा मुंडा शायद अकेला था, जिसने इतनी प्रखरता से 1890 के दशक में साम्राज्यवाद के खिलाफ विचार रखा था। वह विचार था– ‘ये जो तीर हम चला रहे हैं, गोरी चमड़ी वाले पर चला रहे हैं, ईसाइयों पर नहीं।’ उन्होंने शंका जाहिर की कि आने वाले दिनों में भाजपा और संघ-परिवार (आरएसएस और उसके संगठन) यहां भयानक दंगा कराने की कोशिश कर सकते हैं।

ईसाई बन कर उन्नति की है

नौजवान आदिवासी कवि जेवियर कुजूर ने अपने वक्तव्य में कहा कि पूंजीवाद का विकास यहॉं पिछले कुछ सालों से हो रहा है। उसका विरोध भी यहां सबसे ज्यादा तीव्र है। शायद भारत के किसी भी कोने से ज्यादा। उन्होंने कहा कि आदिवासियों की जमीन पर पूंजीपतियों की निगाह है। आज आदिवासियों के पास जमीन नहीं है। इसलिए वे बन्दूक पकड़ रहे हैं, पकड़ने को कुछ तो होना चाहिए। उन्होंने कहा कि वर्तमान झारखंड सरकार की नीति आदिवासियों की बची-खुची जमीन को भी छीनने की है।

सामूहिक गीत गाते व नृत्य के करते झारखंड के दलित व आदिवासी

उन्होंने कहा कि भाजपा के लोग ईसाई मिशनरियों पर प्रहार करते हैं, उन्हें हमारा शत्रु बताते हैं, परन्तु सच यह है कि ईसाई धर्म के साथ मिलकर आदिवासी समाज को शिक्षा ही नहीं, ताकत और दृष्टि भी मिली है। ईसाई धर्म के प्रभाव से लोगों ने हड़िया पीनी बन्द की है, पढ़ाई शुरू की है, पहनावा बदला है, रहन-सहन बदला है, वह जागरूक हुआ है।

एक अन्य आदिवासी कवि रेमिस कण्डूलना ने ईसाइयत के सवाल को आगे बढ़ाते हुए कहा कि ईसाई मिशनरियों और आदिवासियों के बीच खाई पैदा करने का काम संघ परिवार कर रहा है। पर वह यह नहीं देखता कि ईसाई मिशनरियों ने आदिवासियों को शिक्षित बनाने में कितना योगदान किया है। उन्होंने बताया कि भरमी मुंडा की चर्चा नहीं हुई है। ये ईसाई जरूर बन गए हैं, पर उन्होंने अपनी आदिवासी परम्परा को नहीं छोड़ा है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यहां दलितों और आदिवासियों के बीच एकता रही है। जब आदिवासी नाचते हैं, तो दलित ढोलक बजाते हैं।

संघ परिवार ने आदिवासी औरतों में हिंदू संस्कार फैलाए

उदित राज के नेतृत्व वाले अखिल भारतीय अनुसूचित जाति-जनजाति परिसंघ से जुड़े मधुसूदन ने बताया कि दलित-आदिवासी में सुर-ताल का संबंध है। ‘अल्पसंख्यकों से भी हमारा संबंध काफी अच्छा है। लेकिन पिछले 5-6 सालों से दरार आई है। पृथक झारखंड राज्य बनने के बाद ही यह तय हो गया था कि भाजपा को दरार पैदा करनी है। इसके लिए संघ परिवार ने बाकायदा योजना बनाकर काम शुरू किया है। सबसे पहले आदिवासी और दलित महिलाओं में हिंदू संस्कार फैलाने की प्रक्रिया आरंभ हुई। यहीं से यह भावना भी पैदा हुई कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान?’ उन्होंने बताया कि यहॉं से दलितों को हाशिए पर लाने का काम शुरू हुआ। आदिवासियों के बहुसंख्या में होने के कारण और उनके पास वन-सम्पदा होने के कारण सरकार ने उनके हित में नीतियां बनाईं। इससे उनको बहुत लाभ हुआ, परन्तु दलितों को कुछ प्राप्त नहीं हुआ। उन्होंने बताया कि आदिवासी समाज के पास गर्व करने के लिए काफी कुछ है। गर्व करने के लिए दलितों के पास भी काफी कुछ है, पर दलितों ने उसको कभी गंभीरता से नहीं लिया। उन्होंने कहा कि आज स्थिति यह है कि आरएसएस की यह सरकार शत-प्रतिशत दलित-विरोधी है। मधुसूदन ने यह भी साफ किया कि ‘आंबेडकर जयंती के कार्यक्रमों में आदिवासी समाज शामिल नहीं होता, जबकि उन्हें निमंत्रण दिया जाता है। संविधान को जो महत्व दलित देते हैं, आदिवासी नहीं देते।’

(क्रमश: जारी …)

(संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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