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मुंह में ‘आंबेडकर’, हाथ में खंजर

इंटरव्यू ही ब्राह्मणों का वह घातक अस्त्र है, जिससे वे दलित-ओबीसी और आदिवासियों की गर्दनें काटते हैं। किसने बनाया है इंटरव्यू का यह न्याय-विरोधी अस्त्र? क्या दलितों ने? क्या ओबीसी के नेताओं ने? क्या आदिवासियों ने? उत्तर है नहीं। इस न्याय-विरोधी अस्त्र के निर्माता बद्री नारायण जैसे ब्राह्मण हैं। बता रहे हैं कंवल भारती

ब्राह्मण वर्ग सामाजिक न्याय के दुश्मन क्यों?

बद्री नारायण तिवारी ने यह कहकर कि वह जाति में विश्वास नहीं करते हैं, अपने नाम के आगे से तिवारी शब्द हटा दिया। लोग जाति हटा देते हैं, परन्तु जातिवाद नहीं हटाते। ऐसे लोग यह समझते हैं कि जाति खतरनाक है, बल्कि सच यह है कि खतरनाक जाति नहीं, जातिवाद है। बद्री नारायण, तिवारी हटाकर भी ब्राह्मण बने रहे। ब्राह्मण होने के सारे लाभ लेते रहे। मैंने उनके ब्राह्मणवाद को 1997 में प्रकाशित उनकी किताब ‘संस्कृति का गद्य’ को पढ़कर पहचान लिया था। इसमें उनका एक लेख है– ‘भारतीय राष्ट्रवाद की संकटावस्था’। उसमें वह लिखते हैं कि भारतीय राष्ट्रवाद का शरीर देशज अंत:दृष्टि से निर्मित किया जाए। फिर आगे यह भी लिखते हैं कि देशज अंत:दृष्टि से उन्हें गलत न समझा जाए, उसे हिंदुत्व से भिन्न माना जाए। पर उन्होंने यह नहीं बताया कि हिंदुत्व से भिन्न क्या है? क्या भारत के राष्ट्रवाद का संबंध भारत के मुसलमानों और ईसाईयों से कुछ भी नहीं है? इसी किताब में एक और लेख ‘चमार जाति की चित्ति और संस्कृति का अपूर्ण गद्य’ है। हालांकि यह पूरा लेख ही तथ्यात्मक नहीं है, पर उस पर चर्चा यहाँ नहीं, यहाँ जिक्र दलित साहित्य पर उनकी सोच पर करूंगा। वह भी इसलिए कि आगे के वर्षों में उन्होंने दलित साहित्य के पैरोकार के रूप में अपनी छवि गढ़ने की कोशिश की। इस लेख में वह लिखते हैं कि दलित साहित्य ने निम्न वर्गों को “वाणी तो दी, किन्तु वह वाणी सार्थक संवाद के लिए नहीं, बल्कि गाली-गलौंज के लिए उपयोग की गई”। यह समझ उन्होंने लता मुरुगकर की किताब ‘दलित पैंथर मूवमेंट इन महाराष्ट्र : ए सोशियोलाजिकल अप्रेज्ल’ के आधार पर बनाई। इसी लेख में उन्होंने यह भी लिखा कि दलित लेखक दूरगामी दृष्टि से लैस नहीं हैं।

इसी तरह एक अन्य लेख ‘सामाजिक घटनाओं के पाठ का कृदंत’ में उन्होंने जाति के औचित्य को स्वीकार करते हुए सामाजिक न्याय का भी उपहास किया। वह लिखते हैं–

“अब इसे वादक की गलती कहा जाए या वाद्य की, लेकिन सामाजिक न्याय की सारंगी से इधर जो सुर निकले हैं, वे बेसुरे ही हैं। उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय की शक्तियों में इधर जो घमासान मचा है, वह क्या कोई राग भैरवी है? वस्तुत: भारतीय समाज में पहले जातियों की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक भूमिका थी। सब एक समग्र के अंश थे, सब अपनी-अपनी भूमिका के साथ यज्ञ के अंश थे। कोई विखंडन, कोई बनाम, कोई टकराव शायद नहीं था। बाद में भारतीय समाज में जातियों की भूमिका बदली। जातियों की धार्मिक एवं सांस्कृतिक भूमिका क्षीण होती गई और वह पहचान के आभास में – रूप में – तब्दील होती गई। फिर पहचान की तलाश के रूप में; फिर पहचान की प्रलयंकारी उन्माद के रूप में।” (पृष्ठ 39)

आरएसएस के हिंदुत्ववादियों की तरह ही बद्री नारायण भी जातियों के हिन्दू समाज को बार-बार भारतीय समाज बता रहे हैं, और कह रहे हैं कि सब एक समग्र के अंश थे, सब अपनी-अपनी भूमिका के साथ यज्ञ के अंश थे। कोई विखंडन, कोई बनाम, कोई टकराव उनमें नहीं था। पर वह उन कठोर कानूनों का जिक्र नहीं कर रहे हैं, जिनसे विखंडन, बनाम और टकराव को कुचला जाता था। उन्होंने उस व्यवस्था का कोई उल्लेख नहीं किया, जिसने शूद्रों को केवल गुलामों की भूमिका में रक्खा था। उन्होंने मनुस्मृति के उन पन्नों पर भी प्रकाश नहीं डाला, जिनमें शूद्रों का विद्रोह दर्ज है। किन्तु जब शूद्रों ने आधुनिक शिक्षा और विज्ञान के प्रकाश में आकर अपनी गुलामों की भूमिका को तिलांजली देकर अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाई, तो बद्री नारायण के लिए वह पहचान का आंदोलन और प्रलयंकारी उन्माद बन गया। 

प्रो. बद्री नारायण, निदेशक, जीबी पंत समाज विज्ञान संस्थान, प्रयागराज

यह है बद्री नारायण के भीतर का ब्राह्मण, जो शूद्रों (दलित-ओबीसी) की सामाजिक न्याय की मुहिम को जातियों की धार्मिक-सांस्कृतिक भूमिका का क्षरण बता रहा था। उन्होंने आगे इसी लेख में उन्होंने यह भी कहा कि सामाजिक न्याय की भाषा गैर-जनतांत्रिक है– “मुलायम सिंह का हल्ला बोल और लालू प्रसाद यादव के सम्पूर्ण राजनीतिक संवाद की भाषा का अगर अध्ययन किया जाए, तो उसमें हिटलरी एवं फासीवादी स्वर साफ़ सुनाई देता है। सामाजिक न्याय से उभरी शक्तियों की भाषा गैर-जनतांत्रिक एवं हिंसक है।” (पृष्ठ 40)

अपनी बात की पुष्टि में बद्री नारायण लिखते हैं– “दलितों के साहब कांशीराम का एक हाल का वक्तव्य मैं उद्धृत करना चाहता हूँ– कांशीराम ने पैतालीस मिनट तक मायावती से बात की, और निर्देश दिया, पश्चिमी उत्तर प्रदेश से पांच हजार गूजरों को लाइसेंसी, गैर-लाइसेंसी किसी भी तरह से अस्त्र दो एवं उन्हें लखनऊ की सड़कों पर उन्मादी-उत्तेजक नारे लगाने के लिए कहो।” (पृष्ठ वही)

इसे पढ़कर कोई भी बता सकता है कि यह कांशीराम का वक्तव्य नहीं हो सकता। यह अखबार की रिपोर्टिंग है, जिसे बद्री नारायण ने इलाहाबाद के 6 जून, 1995 के ‘लीडर’ से लिया है। उन दिनों के हिंदी अखबार कांशीराम के प्रति इसी तरह की रिपोर्टिंग कर रहे थे।

बद्री नारायण सामाजिक न्याय के अंतर्गत ओबीसी को मिलने वाली भागीदारी को जातिवाद के रूप में देख रहे थे। उनका यह कथन देखिए– “सामाजिक न्याय से जुड़ी जहां जो जाति शक्ति में है, वह अपनी और अपने से ही जुड़ी जातियों के अभिजात्य को अवसर दे रही है। बिहार में विभिन्न अकादमियों एवं सत्ता संस्थानों में यादवों का बाहुल्य इसका उदाहरण है। उत्तर प्रदेश में भी यह संघटना अविष्कृत की जा सकती है।” उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी, इसलिए उन्हें लग रहा था कि यहां भी विभिन्न अकादमियों एवं सत्ता संस्थानों में दलितों की भरमार हो जायेगी। बद्री नारायण की दृष्टि में देश की विभिन्न अकादमियों एवं सत्ता-संस्थानों में ब्राह्मणों का बाहुल्य जातिवाद नहीं था, बल्कि दलित-ओबीसी की नियुक्तियों में उन्हें जातिवाद नजर आता था।

इसके बाद बद्री नारायण ने गिरगिट की तरह रंग बदला। उन्होंने देखा कि दलित साहित्य स्थापित हो गया है, पूरे देश में दलित इतिहास, साहित्य और संस्कृति पर काम हो रहा है, और अमरीका की फोर्ड फाउंडेशन ने इस काम के लिए तिजोरी का मुँह खोल दिया है, तो बद्री नारायण ने भी एक अवसरवादी की तरह बहती गंगा में हाथ ही नहीं धोए, वरन् पूरी डुबकी ही लगा ली। उन्होंने ‘गोबिंद वल्लभ पन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान’ में, जहां कि वह पहले प्रोफेसर रहे और वर्तमान में निदेशक हैं, दलित शोध केन्द्र खोलकर लाखों रुपए का फंड फोर्ड फाउंडेशन से प्राप्त कर लिया, और फिर शुरू हुई दलित साहित्य, निर्गुण संतों और ‘अपना लेखक अपना गाँव’ जैसे कार्यक्रमों की ऐसी श्रृंखला, जिसने बद्री नारायण को रातों-रात दलित बुद्धिजीवियों का प्रशंसक बना दिया। इस दौरान बद्री नारायण ने कुछ अच्छे काम किए। उनमें एक है मनोहर पब्लिशर्स से 2004 में अंग्रेजी में आई उनकी किताब ‘मल्टीपिल मार्जिनालिटीज’। इस पुस्तक में अस्मितावादी हिंदी दलित साहित्य का संकलन, संपादन और अंग्रेजी अनुवाद किया गया है। इसमें बद्री नारायण के सहयोगी ए. आर. मिश्र हैं। इसमें अनुवाद करके जो साहित्य संकलित किया गया है, उसमें उमेश कुमार की किताब ‘भारतीय अचम्भा’ का दूसरा भाग, डॉ. गयाप्रसाद प्रशांत की ‘मूल वंश कथा’, चंद्रिकाप्रसाद जिज्ञासु की ‘श्री 108 स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’, भवानी शंकर विशारद की ‘वीरांगना झलकारीबाई’, पेरियार ललई सिंह और राम अवतार पाल के दो नाटक ‘शम्बूक वध’ और ‘अंगुलिमाल’, कंवल भारती की ‘डॉ. आंबेडकर की कविताएँ’, रमेश चन्द्र बौद्ध के गीत ‘जय जय भीम महान’ एवं आर. के. चौधरी की ‘पासी साम्राज्य’ शामिल है। निस्संदेह हिंदी दलित साहित्य को अंग्रेजी में लाने का यह एक महत्वपूर्ण कार्य किया गया था। इसके आरम्भ में बद्री नारायण ने एक लम्बा परिचय (इंट्रोडक्शन) लिखा है, जिसमें उन्होंने निर्गुण दलित कवियों से लेकर आधुनिक दलित कवि हीरा डोम, अछूतानन्द, दलित इतिहास, पत्रकारिता, दलित नवजागरण, लोकप्रिय और अस्मितावादी पुस्तकों पर विचार किया है।

यह भी पढ़ें : बद्री नारायण पर भड़के बहुजन बुद्धिजीवी, द्रोणाचार्यों के राज को खत्म करने का आह्वान

इसके बाद उन्होंने गोबिंद वल्लभ पन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान, झूंसी, इलाहाबाद में निर्गुणवाद, दलित साहित्य, इतिहास और संस्कृति पर सेमिनारों का आयोजन आरम्भ किया, जिसमें देश के सभी भागों से विशेषज्ञ विद्वानों के व्याख्यान कराए गए। इस मद में उन्होंने लाखों रुपए व्यय किए। यही नहीं, उन्होंने ‘अपना लेखक अपना गांव’ श्रृंखला में दलित लेखक राजकुमार, माता प्रसाद, गुरुप्रसाद मदन, के. नाथ और ए. आर. अकेला के व्यक्तित्व तथा कृतित्व पर क्रमशः लखनऊ, जौनपुर, इलाहाबाद, कानपुर एवं अलीगढ़ में कार्यक्रम कराए। इनमें वक्ता के रूप में शामिल होने वाले विद्वानों में नामवर सिंह, संजीव, वंदना राग, प्रेमकुमार मणि, श्योराजसिंह बेचैन, मोहनदास नैमिशराय आदि थे। कुछ में वक्ता के रूप में मैं भी शामिल रहा था। यही नहीं, उन्होंने अपने दलित शोध केन्द्र में दलित साहित्य का भी एक प्रशंसनीय संग्रह स्थापित किया था। इस बीच उन्होंने कांशीराम पर भी एक किताब लिखी, जिसका हिंदी अनुवाद डॉ. सिद्धार्थ ने किया। इस सबसे बद्री नारायण की छवि प्रगतिशील दलित-हितैषी के रूप में बन गई, जिसके बारे में एक सवाल मैं भी अक्सर दलित लेखकों के बीच उठाने लगा था कि इस तरह का कार्य कोई दलित लेखक या प्रोफेसर क्यों नहीं कर रहा है? क्या कारण है कि इस कार्य को बद्री नारायण ने किया? अक्सर इस तरह की चर्चा मैं इलाहाबाद में गुरु प्रसाद मदन के साथ करता था। उनके पास भी पुरानी किताबों का समृद्ध खजाना था। एक योजना भी बनी कि मदन जी इस कार्य को इलाहाबाद में शुरू करें, और लोगों से सहयोग के लिए अपील करें। लेकिन बाद में मालूम हुआ कि यह सारा खेल विदेशी पैसे का है, जो दलित, आदिवासी, गरीबी, भुखमरी, शोषण आदि के विरूद्ध काम करने के लिए फोर्ड फाउंडेशन द्वारा एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) को दिया जाता है। यह भी पता चला कि भारत में हजारों की संख्या में अपर कास्ट के इस तरह के फर्जी एनजीओ चल रहे हैं, जो दलितों, आदिवासियों और गरीबों के लिए काम कर रहे हैं।

बद्री नारायण का असली चेहरा दलित शोध केन्द्र की गतिविधियों में नहीं था, बल्कि उनका असली चेहरा वही है, जो उन्होंने जी.बी. पन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान में सहायक प्रोफेसरों के पदों पर ब्राह्मणों को भरके और दलित-ओबीसी की उपेक्षा करके दिखाया है। हर अपर कास्ट का यही असली चेहरा है। वह चाहता ही नहीं कि शूद्र वर्ग उसकी बराबरी करे। वे चर्चा में दलित-हितैषी बनने की लगातार कोशिश करेंगे, पर व्यवहार में नहीं।

देश में तिवारी और दूबे जैसे असंख्य लोग हैं, जो दलितों पर लिखते हैं, पर इसका यह अर्थ नहीं है कि वे दलितों का उत्थान भी वास्तव में चाहते हैं। यह चरम अवसरवादी वर्ग है, जो वही बेचता है, जो बिकता है। किन्तु अपनी मानसिकता में यह वर्ग दलित-विरोधी और ब्राह्मणवादी ही बना रहता है। यह वर्ग दलित-आदिवासियों के मोर्चों को कब्जाने का काम करता है। इससे दलित-आदिवासियों की स्थिति नहीं सुधरती, पर इन लोगों की सुधर जाती है। दरअसल, ब्राह्मण वर्ग की नजर में दलित-आदिवासी उनके लिए सिर्फ शोध का विषय हैं, उन पर प्रोजेक्ट बनाओ, सबमिट करो और फल प्राप्त करो। वे ब्राह्मणों पर, या अन्य द्विज जाति पर शोध के लिए प्रोजेक्ट नहीं बनाएंगे, क्योंकि वह बिकेगा नहीं, बिकेगा दलित-आदिवासी ही। अगर दलित-आदिवासी समुदायों की गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी समाप्त हो जायेगी, वे द्विजों के बराबर के स्तर के बन जायेंगे, तो वे उनके शोध के प्रोजेक्ट के लिए बेकार हो जायेंगे। इसलिए उच्च स्तर पर दलित-ओबीसी और आदिवासियों को अनपढ़ और बेरोजगार बनाए रखने की हर क्षेत्र में हर तरह की साजिशें रची जाती हैं। उन स्थानों पर बद्री जैसे लोग फिर साजिशों को ही अंजाम देते हैं। आदिवासियों पर लिखने वाली महाश्वेता देवी धन-संपन्न हो जाती हैं, पर आदिवासी जैसे पहले थे, वैसे ही बने रहते हैं।

क्या किसी को लगता है कि ब्राह्मण या अपर कास्ट का व्यक्ति न्यायकारी होता है? अगर किसी को लगता है, तो लगे, पर न्याय शब्द उसकी संस्कृति के कोश में नहीं है। नौकरियों में भर्ती के लिए इंटरव्यू की क्या जरूरत है? इंटरव्यू ही ब्राह्मणों का वह घातक अस्त्र है, जिससे वे दलित-ओबीसी और आदिवासियों की गर्दनें काटते हैं। किसने बनाया है इंटरव्यू का यह न्याय-विरोधी अस्त्र? क्या दलितों ने? क्या ओबीसी के नेताओं ने? क्या आदिवासियों ने? उत्तर है नहीं। इस न्याय-विरोधी अस्त्र के निर्माता बद्री नारायण जैसे ब्राह्मण हैं। इसी अस्त्र से जेएनयू के ब्राह्मण प्रोफेसरों ने पीएचडी के एडमिशन में दलित-ओबीसी और आदिवासी छात्रों को एक-दो नम्बर देकर काट (रिजेक्ट) दिया। सामाजिक न्याय के विरोधी ब्राह्मणों से, और वह भी इस ब्राह्मण राष्ट्र में, यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह इंटरव्यू के अस्त्र से बहुजनों की गर्दनें काटना बंद करेंगे।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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