आदिवासी निशाने पर हैं। भारत में सबसे ज्यादा अर्द्धसैनिक बल आदिवासी बहुल इलाके में तैनात हैं। सवाल यह है कि ऐसा क्यों किया गया है? क्या अर्द्धसैनिक बलों के जवान आदिवासियों की सुरक्षा के लिए तैनात किए गए हैं? यदि हां तो उन्हें खतरा किससे है? कौन है जो आदिवासियों को मार डालना चाहता है?
कहने की आवश्यकता नहीं है कि आदिवासी इलाकों में जमीन के नीचे प्रचुर मात्रा में खनिज है, जिसके बूते आज हुकूमत ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी का सपना संजो रही है। प्रकृति प्रदत्त इसी खजाने पर देशी-विदेशी कारपोरेट कंपनियों की नज़र है। ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं, जिनसे यह साबित हुआ है कि ये कार्पोरेट कंपनियां हुक्मरानों से भी ज्यादा ताकतवर हैं।
एक उदाहरण यह कि कारपोरेट जगत के दबाव पर पश्चिम के हुक्मरानों ने पहले मुसलमानों को आतंकवादी साबित किया फिर इस्लाम का डर फैलाकर मनोवैज्ञानिक समर्थन हासिल किया और फिर मुस्लिम बहुल इलाकों में सेनायें उतार दीं और वर्षों तक अपनी मनमानी शर्तें लाद कर कच्चे तेल और खनिज का दोहन करते रहे।
भारत में आज सरकारें बहाना बना रही हैं कि आदिवासी इलाकों में भारी पैमाने में सिपाहियों तैनाती वहां शांतिलाने के उद्देश्य से की जा रही है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत के आदिवासी इलाके हमेशा से ही राज्य के निशाने पर रहे हैं। तब भी जब नक्सलवाद या माओवाद का दूर-दूर तक नामो-निशान नहीं था।
मसलन, उड़ीसा के नियमगिरि में जहां वेदान्ता के लिए पूरे पहाड़ को अर्द्धसैनिक बलों ने वर्षों तक कब्जे में रखा था और उस गांव में रहने वाले हरेक आदिवासी पर हत्या का मुकदमा थोप दिया था। उनकी मंशा थी कि किसी भी आदिवासी को किसी तरह की कानूनी मदद नहीं मिल सके।
इसी तरह बंगाल के लालगढ़ में सरकार ने जिंदल स्टील्स के लिए एक स्पेशल इकोनोमिक ज़ोन यानी सेज़ घोषित किया था और वहां अर्द्धसैनिक बलों की तैनाती कर दी। फिर जैसा कि आम तौर पर होता है कि अर्द्धसैनिक बल के जवानों और स्थानीय निवासियों के बीच टकराव होता है, वहां भीटकराव शुरू हुआ। आदिवासियों ने आंदोलन का रास्ता अखितयार किया तो उन्हें जेलों में डाला जाने लगा। अंत में आदिवासियों ने कहा कि हमें सरकार से कुछ नहीं चाहिए। बस वह हमारे सम्मान की रक्षा करे। आदिवाासियों ने पुलिस संत्रास विरोधी समिति का गठन किया। चक्रधर महतो उसके अध्यक्ष बनाए गए थे। सरकार ने उस समिति को ही माओवादी संगठन कहा और चक्रधर महतो को माओवादी घोषित करके जेल में डाल दिया। इसके बाद लालगढ़ में भारी पैमाने पर जनता का दमन किया गया।
उड़ीसा का कलिंग नगर भी एक उदाहरण है। जब टाटा स्टील प्लांट के लिए आदिवासियों ने अपनी खेती की ज़मीन देने से मना किया तो पुलिस ने गोली चलाकर तेरह आदिवासियों की हत्या कर दी, जिनके हाथ के पंजे आज भी दफ़न होने का इंतज़ार कर रहे हैं। पुलिस ने उनके हाथ इसलिए काट लिए थे ताकि यह जांच ना हो सके कि आदिवासियों ने गोली चलाई थी या नहीं, क्योंकि पंजों की फोरेंसिक जांच से यह पता चल जाता।

बस्तर गोमपाड़ गांव में हुए 16 आदिवासियों की सामूहिक हत्या का मामला आज भी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। इसमें भी कब्र खोद कर पुलिस ने उनके पंजे काट लिए थे, जिसके संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस को वहां से दूर रहने आदेश दिया था।
उपरोक्त उदाहरण तो बानगी मात्र हैं। मूल बात यह है कि आदिवासी निशाने पर हैं। उनका मानवाधिकार खतरे में है।
यह एक आयामी नहीं है। सांस्कृतिक और सामाजिक हमले भी खूब किए जा रहे हैं। मसलन, आदिवासी युवाओं को बताया जा रहा है कि उनकी अत्यंत पिछड़ी हुई जीवनशैली है। खान-पान बेकार है। आदिवासियों के पहनावे और भाषा को तुच्छ बताया जाता है। फिर उन्हें विकास की तस्वीर दिखायी जाती है और दावा किया जाता है कि यही असली विकास है और मानवोचित सुख-सुविधाएं हैं।
आदिवासी इलाकों में आरएसएस और इनके अनुषांगिक संगठन घुसपैठ कर रहे हैं और आदिवासियों की संस्कृति के ऊपर अपनी ब्राह्मणी संस्कृति थोप रहे हैं। यहां तक कि खान-पान और शादी-विवाह के तौर-तरीकों में भी ब्राह्मणवादी हस्तक्षेप बढ़ा है।
लेकिन सच तो यह है कि चाहे वह खान-पान का सवाल हो या फिर जीवनशैली के मामले में आदिवासी कहीं से पिछड़े नहीं हैं। मसलन, छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में सालों भर जंगल में हरी भाजियां/सब्जियां मिलती थीं। इससे वहां की महिलाओं और बच्चों को कुपोषण से बचाव होता था। अब हालात बदल दिए गए हैं। सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी के मुताबिक, बस्तर में हरी भाजी को कुसीर बोलते हैं। कुछेक सब्जियों के नाम देखिए– कोड्डेल कुसीर (कचनार) आले कुसीर (पीपल), एट कुसीर (चौरेटा), मल्लोड़ कुसीर, गारा कुसीर (महुआ के फूल समाप्त होने के बाद उसकी गुल्ली के हरे छिलके की सब्ज़ी), जीर्रा कुसीर (खट्टा भाजी), पिट्टी कुसीर, टोंडा कुसीर, बाज कुसीर, कौठ कुसीर, पण्डे कुसीर, कड़कौंडा कुसीर, तिरका कुसीर, पेस्सील कुसीर, अवाल कुसीर, दोबे कुसीर, कोरवोड कुसीर, जीला पुन्गार, तुप्पे काया।
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इनके अलावा बस्तर में बहुत तरह के मशरूम, जिसे छाती और फुटू भी कहते हैं, पाए जाते हैं। इनमें से बहुत सारे खाए जाते हैं तो कुछ नहीं भी खाए जाते हैं। मसलन, कुछ मशरूम हैं– पुत कूक (दीमक की बांबी में होने वाला), मुन्नुर कूक (मैदान में होता है), गुट्टा कूक (पेड़ के सड़े तने में होता है) आदि। वहीं कुछ पेड़ों के तने को भी खाया जाता है। वहीं कुछ पेड़ों में पैदा होने वाले मशरूम को नहीं खाया जाता। जैसे भेलुआ के तने में होने वाले मशरूम को नहीं खाया जाता। दरअसल, यह भेलुआ काजू की प्रजाति का पेड़ है, जिसका तेल लग जाने से त्वचा जल जाती है। एक अनुमान के मुताबिक़ सोनी सोरी के चेहरे पर यही तेल लगाकर उनके चेहरे को जलाया गया था। कुछ अन्य मशरूम हैं– आड्प कूक (गोबर में पैदा होता है और इसे नहीं खाया जाता), पिच्छिल कूक (धान के पुआल में पैदा होता है), अल्ला कूक (नहीं खाते), नेंड कूक (यह मुख्यतः जामुन के पेड़ के आस पास होता है, इसका रंग जामुनी होता है और मोटा होता है तथा बहुत स्वादिष्ट होता है), उरपाल कूक (मिट्टी के रंग का होता है), कुमतुड़े (नहीं खाया जाता है), ईद कूक (बांस के सड़े पौधे में होता है), और साल बोडा (यह साल के पेड़ के नीचे होता है और बहुत महंगा बिकता है) आदि।
इसके अलावा अनेक जंगली फल परम्परागत रूप से आदिवासी समाज के लोग खाते हैं। वहीं कुछ फलों को सूखाकर भी रखा जाता है। मसलन, आंबा काया (कच्चा आम) खटाई के लिए , आम्बा पंडी यानी पक्के आम।, तुमरी पंडी यानी तेंदू के पत्ते बीड़ी बनाने के लिए सरकारी खरीदी होती है। इसकी कीमत को लेकर आदिवासी इलाकों में संघर्ष होता है। जब यह बड़े पेड़ हो जाते हैं तो इसके फल खाए जाते हैं। इसका फल चीकू प्रजाति का फल होता है। कोसुम पंडी यानी कुसुम का पेड़ सालों भर हरा-भरा रहता है। जब इस पर नए पत्ते आते है तो पूरा पेड़ लाल हो जाता है। इस पर ही लाह का कीड़ा लाह बनाता है, जिसके कंगन और सील बनाने के काम आता है। इसका फल लीची की प्रजाति का होता है। रेका पंडी, जिसे हम चिरौंजी कहते हैं, खाने में फालसे जैसा लगता है। इसके बीज की गिरी चिरौंजी बनती है। पहले बाहरी व्यापारी इसे नमक के बदले आदिवासियों से खरीदते थे और उनका शोषण करते थे।
ऐसे ही हुर्रे पंडी, यह कांटेदार बेल में गर्मी के मौसम में लगता है। इसे काँटा कुली भी कहते हैं। चिचन चोंडी, ईडो पंडी, भेलुआ के अलावा पाउर पेडेक एक तरह का बेल है, जिसे सियाडी भी कहते हैं। इसके पत्ते खाने के सामान को लपेट कर रखने के काम आते हैं । इसके बेल की छाल से रस्सी बनती है, जिसका इस्तेमाल बहुत सारे कामों में होता है। मकान बनाने से लेकर खाट बनाने तक में इसकी रस्सी का इस्तेमाल होता है। मैंने खुद इसकी रस्सी से बनी खाट का खूब उपयोग किया है। अन्य फलों में करका काया (हर्रा), कारका (कदम), नेंडी काया (जामुन), टाहका काया (बहेड़ा), गोट्ट काया (जंगली बहेड़ा), रेंगा पंडी (बेर), इंद पंडी (खजूर), कोप्पे (पपीता), केडा (देसी केले), बेलोस (अमरुद) और माडो पंडी (बेल) शामिल हैं।
इसके अलावा आदिवासियों में पारम्परिक रूप से बहुत सारे शराब बनाने और पीने की भी परंपरा रही है।
मसलन, चावल के आटे से लांदा , महुआ से सूराम, ईरु कल, खजूर से इंदुम कल, गुड़ से गुड़ा कल और ताड़ के पेड़ से गोरगा।
इसके अलावा यहाँ बहुत तरह के कंद भी होते हैं जो ज़मीन के नीचे होते हैं। कन्द को यहां माटी कहते हैं। कुछेक कंदों के नाम हैं– कैमुल माटी, नान्गेल माटी, कोडो माटी, रासा माटी, कृष माटी, बुडू माटी, मुंज माटी, गुड्डे माटी आदि।
दरअसल, चुनौती यह है कि आदिवासी समाज अपने खान-पान की विविधता को कैसे बचाएगा? अपने बच्चों तक इस ज्ञान और परम्परा को कैसे पहुंचाएगा? ताकि आने वाली पीढियां इस धरोहर को बचाने के लिए अपने जंगल संसाधन को बचाने की कोशिशों का हिस्सा बन सकें।
(संपादन : नवल/अनिल)