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ब्राह्मणवाद का आधार और बल सामंतवाद तथा पूंजीवाद है : जिज्ञासु

चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु ने लिखा कि कम्युनिस्टों का संगठन जनतांत्रिक समता का सिर्फ ढिंढोरा पीटता है, लेकिन वे यह नहीं समझ पाते कि भारत एक धर्म प्रधान देश है। यहां का पूंजीवाद कोरा पूंजीवाद नहीं है, वरन् धर्म की ओढ़नी ओढ़े हुए है। स्मरण कर रहे हैं कंवल भारती

चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु (1885- 12 जनवरी, 1974) पर विशेष

फ्रांसीसी दार्शनिक फ्रांज फेनन (20 जुलाई, 1925 – 6 दिसंबर, 1961) ने पूंजीवाद के बारे में लिखा है, कि देश-निष्कासन, नरसंहार, बेगारी और दासता उसकी सत्ता स्थापित करने की खास पद्धतियां हैं। भारत में ब्राह्मणवाद के बारे में भी यही सच है। ब्राह्मणों ने भी इन्हीं पद्धतियों से भारत में अपनी सत्ता स्थापित की है। भारत में ब्राह्मणवादी सत्ता का जनक और व्यस्थापक मनु था, जिसने केवल भारत के लोगों का वर्ण विभाजन ही नहीं किया, बल्कि उनकी बस्तियों, उनके रहन-सहन और उनके पेशों तक का विभाजन किया था। उसने राजसत्ता को अस्पृश्यों और शूद्रों की अलग बस्तियां कायम करने के निर्देश दिए थे, और उन्हें दासता में जकड़कर रखने के लिए कठोर दमनात्मक कानून बनाए थे। भारत में दलित-पिछड़ी जातियां सदियों से इसी संहिता के अन्तर्गत आज तक शोषण और उत्पीड़न तथा अलगाव झेल रही हैं। 

चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु ने ब्राह्मणों के इन दमनात्मक कानूनों का वर्णन अपनी पुस्तक ‘लोकशाही बनाम ब्राह्मणशाही’ में किया है। उन्होंने लिखा कि ये विधान इतने कठोर, निर्दय और शत्रुतापूर्ण हैं कि ऐसे विधान कोई भी अपने ही भाइयों के विरुद्ध नहीं बना सकता। इससे तो यही प्रतीत होता है कि ये नस्लीय भिन्नता के कारण किसी शत्रु जाति के विरुद्ध उसे हमेशा-हमेशा के लिए अपना गुलाम और अपंग बनाए रखने के लिए ही रचे गए थे। यथा–

“मनुस्मृति के अनुसार, यदि शूद्र किसी ब्राह्मण को गाली दे, तो उसे प्राण दंड देना चाहिए। धन कमाने की शक्ति होने पर भी शूद्र को धन कमाने नहीं देना चाहिए, क्योंकि शूद्र धनवान होकर ब्राह्मणों को बाधा पहुंचायेगा। यदि शूद्र ऊंची जाति के कर्म करके धन कमा ले, तो राजा उसका सब धन छीनकर फौरन देश से निकाल दे। ब्राह्मणों को आदेश है कि वे निर्भय होकर शूद्र का सब धन छीन लें, क्योंकि शूद्रों का अपना कुछ नहीं है, उसका धन उसके मालिक ब्राह्मण का ही है। शूद्र को स्वयंभु ने दासता के लिए ही पैदा किया है। दासकर्म ही उसका स्वाभाविक कर्म है। शूद्र की सेवाभक्ति और उसका कुटुम्ब कितने में जीवित रह सकता है, यह देखकर मजदूरी नियत करे और मजदूरी में उसे जूठन, फटे-पुराने कपड़े, अन्न की पछौड़न और पुराना बर्तन देना चाहिए। यदि शूद्र द्विजातियों को लगने वाली बुरी बातें कहे, तो उसकी जीभ काट डाली जाए; यदि द्रोह से द्विजातियों के नाम और जाति का उच्चारण करे, तो उसके मुंह में दस अंगुल की जलती हुई कील ठोक दी जाए; यदि अहंकार से धर्मोपदेश करे, तो उसके कान और मुंह में गरम तेल डलवा दिया जाए; यदि उच्च जातियों के साथ एक आसन पर बैठने का साहस करे, तो राजा उसकी कमर दागकर उसे देश से निकाल दे, अथवा उसके चूतड़ कटवा दे। शूद्र को मार डालने में उतना ही पाप है, जितना कि बिल्ली, नेवला, चिड़िया, मेढक, कुत्ता, गधा, उल्लू और कौवा के मारने में होता है।” 

इन काले कानूनों के आधार पर जिज्ञासु इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि शूद्रों के साथ ब्राह्मणों की कोई खास शत्रुता थी। इन कानूनों के कारण ही शूद्र सदा पददलित रहे और कभी उठने न पाए तथा द्विज समाज के कड़ी मेहनत वाले सारे गंदे और नीच काम, खेती, शिल्पकारी और सेवा-टहल सब बिना कौड़ी-पैसा खर्च किए होते रहे। जिज्ञासु ने लिखा कि यही कारण है कि आजादी के बाद लोकतांत्रिक भारत में भी ब्राह्मणों का वर्चस्व है, और दलित-पिछड़ी जातियों की सामाजिक स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। वे लिखते हैं– “लोकशाही का तकाजा था कि देश में वर्णभेद, जातिभेद, सम्प्रदायभेद, भाषाभेद और प्रान्तीयता भेद समाप्त होकर एक राष्ट्रीयता और एक जातीयता स्थापित होती और भारतीय राष्ट्र का संवैधानिक आधार समता, स्वतन्त्रता, भ्रातृत्व और विशुद्ध न्यायशीलता होता। किन्तु यहां की ब्राह्मणशाही समाज-नीति और धर्म-नीति सामाजिक समतावाद के नितांत विरुद्ध है, इसलिए प्रत्येक विचारवान के मस्तिष्क में यह प्रश्न उठ रहा है कि भारत में लोकशाही है या ब्राह्मणशाही?”  

चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु (1885- 12 जनवरी, 1974)

जिज्ञासु ने लिखा कि लोकतंत्र में भी देश का सारा धन, धरती, व्यापार ब्राह्मणों के ही हाथों में है और ब्राह्मण ही देश और समाज के वास्तविक संचालक हैं। उन्होंने भारत की नस्लवादी द्विजातियों की बस्तियों का भी उसी तरह वर्णन किया है, जिस तरह उन्होंने अछूत बस्तियों का आंखो-देखा (उपर्युक्त) हाल लिखा था। इस वर्णन की तुलना भी फ्रांज फैनन द्वारा किए गए फ्रांसीसियों की बस्तियों के वर्णन से की जा सकती है। जिज्ञासु ने वर्णन किया है–

“जहां ये (द्विजातीय हिंदू) रहते हैं, इनकी बस्तियां साफ, बाजारें साफ, चौड़ी डामर व सीमेंट की सड़कें, टाइल जड़ीं गलियां, चौरस्ते, बड़े-बड़े आलीशान मकान, कोठियां, बंगले और चमचमाते देव-मन्दिर हैं। जिन मकानों में लाला, बाबू, पंडित, सेठ, महाजन आदि सभ्य या अर्द्धसभ्य मानव निवास करते हैं, वे भांति-भांति के डिजाइनों से निर्मित, सुन्दर-सुखकर और कीमती फर्नीचर से सजे हुए हैं, बिजली के पंखे चल रहे हैं, रात में विद्युत-प्रकाश से मकान जगमगा उठता है। मुलाकात के कमरे, श्रृंगार के कमरे, शयन के कमरे, अध्ययन के कमरे, महिला-निवास, भोजनागार, स्नानागार, रसोई-घर, अतिथि-निवास सब अलग-अलग। फ्लश की टट्टियां, शावर और फव्वारे। रहने वाले गोरे-चिट्टे, स्वस्थ सुन्दर, सुकोमल, और चिकने शरीर वाले भांति-भांति के सुंदर वस्त्राभूषणों से शोभायमान हैं, और कलाइयों पर रिस्ट वाच चमक रही है। रेडियो बज रहा है, अगरबत्तियां सुलग रही हैं। सवेरा होते ही मीठा मुरब्बा सलोना नाश्ता, गरम चाय या खुशबूदार लस्सी, दोपहर को सबरस भोजन, ताजे फल, रात में पूड़ी, खस्ता, खीर, मलाई, रबड़ी का बजालू और गरम दूध। प्रायः सभी प्रकार का सुख, भोग-विलास और ऐश्वर्य-प्रभुता इन्हें प्राप्त है। ये लोग शारीरिक श्रम के गंदे नीच कठोर काम नहीं करते, केवल मस्तिष्क, वाणी और उंगलियां चलाकर ही सब कुछ अर्जन कर लेते हैं।” 

कुछ क्रांतिकारी समाजवादियों ने विश्वास व्यक्त किया था कि तीस करोड़ स्वाभिमानी भारतीयों से यह आशा करना व्यर्थ है कि वे अपने शोषण करने वालों के प्रहारों, भूख, गरीबी, अपमान और दीनता को प्रसन्नतापूर्वक सहन कर लेंगे। वे भारत में सर्वहारा के द्वारा एक बड़ी क्रांति का सपना देख रहे थे। लेकिन ऐसी कोई क्रांति अब तक नहीं हुई, और शोषकों के प्रहारों, भूख, गरीबी, अपमान और दीनता को प्रसन्नतापूर्वक सहन करने वाले शोषितों की संख्या और भी बढ़ गई। डॉ. आंबेडकर ने भी भारतीय शासकों को चेतावनी दी थी कि अगर सामाजिक और आर्थिक असमानता को दूर नहीं किया गया, तो उससे पीड़ित लोग राजनीतिक लोकतंत्र के मन्दिर को ध्वस्त कर देंगे। लेकिन सामाजिक और आर्थिक असमानता से पीड़ित लोगों ने ऐसी कोई क्रांति अभी तक नहीं की।

इसका कारण है, ब्राह्मणवाद की तीव्र प्रतिक्रांति, जिसने किसी भी क्रांति को उभरने ही नहीं दिया। इस प्रतिक्रांति का आधार है अशिक्षा और गरीबी को कायम रखना और हिंदू धर्म की मूल शिक्षा-भाग्यवाद तथा कर्मवाद को बहुजनों में स्थापित करना। डॉ. आंबेडकर इसे हिंदुओं का साम्राज्यवाद कहते थे – एक देश द्वारा दूसरे देश पर शासन करने के अर्थ में नहीं, बल्कि एक समाज द्वारा दूसरे समाजों पर शासन करने के रूप में। इसने लोगों में ब्राह्मणों के प्रति निष्ठा और सेवा का इतना प्रबल भाव भर दिया है कि उसके कारण हिंदू जातियां अपने आर्थिक विकास तक को महत्व नहीं देती हैं। 

ब्राह्मणों ने अभाव-ग्रस्त बहुजनों में यह धारणा आम कर दी है कि वे अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल भोगने के लिए नीच जातियों में पैदा हुए हैं। यदि वे ब्राह्मणों की निश्छल भाव से सेवा करते रहेंगे, तो अगले जन्म में उनका उद्धार हो सकेगा। जिज्ञासु ने इस धारणा का खंडन किया, और कहा कि कर्मवाद तथा ईश्वरीय दंड एक मिथ्या कल्पना है। उन्होंने बहुजनों को जीवन संघर्ष में हारे हुए प्राणी कहा, जिन्हें ईश्वर ने नहीं, बल्कि मनुष्य (अर्थात ब्राह्मणों) ने अपनी क्रूरता से नीच बनाया है। 

जिज्ञासु का मत है कि आधुनिक समाजवादी दृष्टि से ब्राह्मणवाद का आधार और बल सामंतवाद और पूंजीवाद है। राज्य-शक्ति अथवा सामंतशाही के बल से ब्राह्मणवाद खूब फूला-फला। ब्राह्मण सारे समाज के विधाता बन गए। किन्तु जब सामंतशाही नष्ट हुई, तो ब्राह्मणवाद पूंजीपति वैश्यों की गोद में खेलने लगा। इस तरह उन्होंने ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद दोनों के विरुद्ध बहुजनों को जागरूक किया। उन्होंने कहा कि बहुजनों की समस्याएं तभी हल होंगी, जब शासन-सत्ता बहुजन समाज के हाथों में आयेगी। 

इस प्रकार, जिज्ञासु बहुजन राजनीति का भी मार्ग प्रशस्त कर रहे थे। वे डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित भारतीय रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक थे और उसे कांग्रेस के मुकाबले आम जनता की पार्टी बनाना चाहते थे। 30 नवम्बर 1956 को डॉ. आंबेडकर ने शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन को भंग कर भारतीय रिपब्लिकन पार्टी की स्थापना की थी। किन्तु अगले ही महीने की छह तारीख को उनकी आकस्मिक मृत्यु हो जाने के कारण वे उसे अपने जीवन में साकार नहीं कर पाए थे, हालांकि वे उसका संविधान और उद्देश्य बनाकर रख गए थे। जिज्ञासु ने कांग्रेस सहित अन्य पार्टियों, जैसे, हिंदू महासभा, जनसंघ (भारतीय जनता पार्टी इसी का नया अवतार है), रामराज्य परिषद, जिसके अध्यक्ष शंकराचार्य करपात्री थे, आदि के बारे में कितना सही लिखा था कि उनका उद्देश्य ब्राह्मण-प्रधान हिंदू राज स्थापित करना है, जो लोकतंत्र से दूर सांप्रदायिक संगठन हैं।  

इसी पुस्तक में उन्होंने कम्युनिस्टों के संबंध में भी अपने विचार प्रकट किए हैं। उन्होंने लिखा कि कम्युनिस्टों का संगठन जनतांत्रिक समता का सिर्फ ढिंढोरा पीटता है, लेकिन वे यह नहीं समझ पाते कि भारत एक धर्म प्रधान देश है। यहां का पूंजीवाद कोरा पूंजीवाद नहीं है, वरन धर्म की ओढ़नी ओढ़े हुए है। यहां वर्गवाद की अपेक्षा वर्णवाद और जातिवाद प्रबल है। अतः यहां सामाजिक क्रांति किए बिना आर्थिक समानता नहीं लाई जा सकती। उन्होंने मार्क्सवादियों से पश्चिमी देशों की मार्क्सवादी विचारधारा से ऊपर उठकर स्वदेशी समाज की गहराई में घुसकर भारतीय मौलिक समाजवाद की विचारधारा की दिशा में सोचने की भी अपील की थी।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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