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दलित कहानी और विचारधारा (संदर्भ : श्यौराज सिंह बेचैन की कहानियां – अंतिम भाग)

दलित कहानीकार श्यौराज सिंह बेचैन की कहानियों में 1990 के दशक का समय मुखरित रूप में सामने आता है। अपने पुनर्पाठ में कंवल भारती ने बेचैन की कहानियों में इसी कालखंड के दौरान की राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं को विश्लेषित किया है। पढ़ें, इस आलेख श्रृंखला की यह अंतिम कड़ी

गतांक से आगे 

अब कुछ चर्चा श्यौराज सिंह बेचैन की आरंभिक कहानियों पर करते हैं, जो उनके पहले कहानी-संग्रह ‘भरोसे की बहन’ में संकलित हैं। यह संकलन 2010 में आया था। अपनी जिस कहानी ‘भरोसे की बहन’ को उन्होंने संकलन का नाम दिया है, उसके केन्द्र में बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती की लखनऊ में होने वाली धिक्कार-रैली है। यह कहानी ‘कथादेश ’ के जून 2004 के अंक में प्रकाशित हुई थी। कहानी में मायावती को छायावती, कांशीराम को त्यागीराम, मुलायम सिंह को कायम सिंह, विनय कटियार को लठियार और लालकृष्ण आडवाणी को आगपानी का नाम दिया गया है। यह एक गरीब कार्यकर्ता रामभरोसे की मायावती में आस्था और उससे मोह-भंग की कहानी है। अगर हम दलित समाज में राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं के इतिहास पर नजर डालें, तो उनमें अधिकतर लोग आर्थिक रूप से गरीब और कमजोर ही रहे हैं, और अधिकांश तो ऐसे भी रहे हैं, जिन्हें दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं होती थी। आज का परिवर्तनशील दलित समाज उन्हीं गरीब कार्यकर्ताओं का ऋणी है, जिन्होंने हर तरह के दुख झेलकर समाज को जगाने का काम किया। वे हमारी उपेक्षा के नहीं, आदर के पात्र होने चाहिए। रामभरोसे की पत्नी रामकली घर की बदहाली का हवाला देकर उसे समझाती है कि पहले घर की परेशानियों पर ध्यान दो, पर उसकी समझ में कुछ नहीं आता है। यद्यपि यह बहुत साधारण कहानी है, कोई उतार-चढ़ाव इसमें नहीं है, बस भरोसे द्वारा पांच सौ लोगों को रैली में ले जाने, रैली-स्थल देखने और वापसी में स्टेशन पर भारी भीड़ से भगदड़ की फोटोग्राफी ही इसमें की गई है, परन्तु रैली के माध्यम से दलितों के जिन दुख-दर्दों को इसमें उठाया गया है, वह इसे दलित राजनीति की एक विशिष्ट कहानी बनाता है। 

रामकली रामभरोसे को यथार्थ का ज्ञान कराते हुए कहती है, “खूब देखि लई सबकी नेतागिरी। साठ साल तें ये ही डिरामा चलि रयौ है, के अबकी न्याय मिलेगौ, के अबकी बराबरी मिलेगी, सब पढ़ेंगे, सब बढ़ेंगे, सब सफेद झूठ। अब जे अनोखी भैनजी आई हैं, जो सीधे सिंहासन देवे की बात करें हैं, का वे जानती हैं के हमारे घर में लत्ता धोवन कूं साबुन नांय है? …राजीव गांधी के समय में 12-15 साल पहले जो दो-चार बालक गॉंव से बाहर नौकरी में चले गए, तब से अब तक और किन्हें का मिलौ?” इस पर भरोसे कहता है, “तुम औरत जात का जानो, सत्ता की चाबी से कैसे सब ताले खुले हैं? भैनजी के हाथ में चाबी है। सब क्षेत्रों में भागीदारी होने वाली है।” 

कहानीकार ने रामकली के जरिए यह बताना चाहा है कि सत्ता में भागीदारी तो ठीक है, पर दलितों की फिलहाल की समस्या गरीबी से मुक्ति की है, जो रोजगार के बिना सम्भव नहीं है। गरीबों की इच्छाएं बहुत छोटी होती हैं, जिनके लिए सत्ता की चाभी जैसे भारी-भरकम शब्द मायने नहीं रखते।

लेकिन लेखक ने यहां रामकली के मुँह से राजीव गॉंधी की तारीफ तो करवा दी, पर उस खेल को उजागर नहीं किया, जो दलितों के साथ साठ साल से कॉंग्रेस खेल रही थी। दलितों की मौजूदा गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी के लिए कॉंग्रेस सरकार की ही वे योजनाएं जिम्मेदार हैं, जो उन्हें आजादी के बाद से निरन्तर लाभार्थी बनाकर शासित वर्ग में रखने के लिए बनाईं जाती रही थीं। और ये योजनाएं कॉंग्रेस के सवर्ण वर्ग ने बनाई थीं, जिसके हाथ में सत्ता की चाबी थी। कॉंग्रेस के शासक वर्ग ने दलितों के जीवन में दुखों का कितना बड़ा पहाड़ खड़ा कर दिया था, इसका अनुमान उन अर्जियों से लगाया जा सकता है, जो रैली में जाने वाले लोगों ने अपने-अपने इलाकों के दुख-दर्दों को लिखकर बहनजी को देने के लिए तैयार की थीं। बहनजी से क्या-क्या कहना है, सब भरोसे ने याद कर लिया था। शिक्षा की समस्या भरोसे के लिए सबसे अहम थी। उसने तय कर लिया था कि वह बहनजी को बतायेगा कि अगर बाबासाहेब का नारा शिक्षित बनो को अमल में लाना है, तो वे लुटेरों के लूट-खसोट के प्राइवेट स्कूलों को बन्द करें और बहुजन समाज के लिए स्कूल खोलें। एक अर्जी रानी बुआ की भी उसके पास है, जिसे एमए करने के बाद भी नौकरी नहीं मिल रही है। परसी का बेटा भी एमए करके सफाई का काम कर रहा है। एक अर्जी दलित प्रधान की शिकायत की भी है, जिसमें लिखा है कि उसे बस्ता नहीं मिल रहा है। बस्ता छह महीने ठाकुर भानुप्रताप के घर रहता है और छह महीने नवाब शराफत खॉं की हवेली में। जब कोई प्रस्ताव पास कराना होता है, तो अंगूठा लगवाने के लिए उसे बुला लिया जाता हैं। तमाम लोगों की अलग-अलग समस्याएं हैं। भरोसे सभी को भरोसा दिलाता है कि भैनजी पर भरोसा करो, ऐसा कौन सा काम है, जो वह नहीं कर सकतीं। अन्ततः वह और उसके द्वारा जुटाए गए सारे लोग अर्जियों का पुलिन्दा, और बहुत सारे फोटो-बैनर लेकर, जिसके बनवाने में भी उस पर लाला लखपत का तीन हजार का कर्जा हो जाता है, रैली में शामिल होने के लिए लखनऊ पहुँचते हैं। 

रैली-स्थल पर जब वे पहुंचे, तो रामभरोसे और दूसरे लोगों ने मन में जो सोचकर रखा था, वह सब हवा हो जाता है। वे पंडाल की भव्यता देखकर सोचने लगते हैं कि कितना पैसा इस पर बरबाद किया गया है। मंच को देखकर भी उनका मोह भंग हो जाता है, जिस पर बीच में आगपानी (लालकृष्ण अडवाणी) बैठे हुए थे और बहनजी उनका तथा अयोध्या के महानायक लठियार (विनय कटियार) का स्वागत कर रही थीं। बहन जी ने रैली में ऐसा कुछ भी नहीं कहा, जो भरोसे और उसके साथ गए लोगों में उनके सुन्दर भविष्य के लिए उनमें भरोसा पैदा करता। 

भरोसे ने सोचा था कि वह बहनजी से मिलेगा, उन्हें अर्जियां देगा और अपनी समस्याएं बतायेगा, पर ऐसा कुछ नहीं होता है। सभी लोग रैली से निराश लौटकर घर वापस जाने के लिए स्टेशन पर आ जाते हैं। पर, यहॉं की अव्यवस्था देखकर और यह जानकर कि बहनजी ने उनके लिए कोई स्पेशल ट्रेन नहीं चलवाई है, जैसाकि बताया गया था, वे और भी निराश हो जाते हैं। जो भी ट्रेन आती, वे सभी भरी हुई होतीं। वे सब उन्हीं भरी हुई ट्रेनों में किसी तरह चढ़ते हैं। जो नहीं चढ़ सके, वे ट्रेन की छतों पर जाकर बैठ जाते हैं, जिन्हें हाईटेंशन विद्युत लाइन उठाकर नीचे फेंक देती है। उनमें कई मर जाते हैं, और बहुत सारे घायल हो जाते हैं। प्लेटफार्म नम्बर बदलने की वजह से भी भगदड़ मचती है, और उस वजह से भी अनेक लोग चोटिल हो जाते हैं। बहनजी को देने वाली अर्जियों का भारी गट्ठर पड़ा ही रह जाता है। भरोसे भी घर पहुँचने की बजाए अस्पताल पहुंच जाता है। कहानी इस वाक्य पर समाप्त होती है– “सातवें दिन भरोसे अस्पताल में अन्तिम सांसें गिन रहा था, बहनजी अस्पताल का दौरा करने जा रहीं थीं और उधर उसकी बीवी रामकली रेडियो से कान लगाए लखनऊ से प्रादेशिक समाचार सुन रही थी।”

श्यौराज सिंह बेचैन, दलित साहित्यकार

‘भरोसे की बहन’ कहानी जब छपी थी, तो उसे कॉंग्रेस के समर्थन में लिखी कहानी कहा गया था। इस आरोप में एक आंशिक सच्चाई तो है, परन्तु वास्तव में यह गरीबों को सब्जबाग दिखाने वाले किसी भी दल के गरीब कार्यकर्ताओं के जीवन-यथार्थ की कहानी है, जो अपने नेता की जमीनी सच्चाई को नहीं जानते।

श्यौराज सिंह बेचैन की एक और शुरूआती कहानी, 1999 में प्रकाशित ‘रावण’ है। इस कहानी में गॉंव की रामलीला में राम-लक्ष्मण का अभिनय करने वाले सवर्ण पात्र चमार जाति के मूलसिंह को रावण का अभिनय नहीं करने देते हैं, और उसे मंच पर ही मार-मारकर अधमरा कर देते हैं। देश को आजादी मिली, लेकिन दलितों के लिए न शहर बदले और न गॉंव। आजादी के बाद गॉंव के सवर्ण दलितों पर अत्याचार करने में और भी ज्यादा आजाद हो गए। भारत के जिन गॉंवों को हिंदू कवियों ने स्वर्ग की संज्ञा दी है, और हिंदू इतिहासकारों ने भारत का गणराज्य बताया है, वे दलितों के लिए किसी नरक से कम नहीं है। डॉ. आंबेडकर ने सवर्णों के इन स्वर्ग-समान गॉंवों की तुलना यहूदियों के लिए बनाए गए यातना-शिविर ‘घेटो’ से की है। इन गॉंवों में ऊँची जातियों का जातीय अभिमान नीची जातियों के लिए हमेशा दमनकारी रहा है। गॉंवों में दलितों की योग्यता, कला, विद्या कोई मायने नहीं रखती, मायने रखती है उनकी जाति और चुनावों में उनका वोट। यह कहानी इस सच्चाई को पूरी शिद्दत से उजागर करती है। दिल्ली की रामलीलाओं में जिस मूलसिंह की अभिनय-कला की सराहना की जाती है, वह कला उसके अपने ही गॉंव में अछूत होकर अपमानित हो जाती है और उसी की वजह से उसे हमेशा के लिए गॉंव छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है। वह चलते वक्त अपने बाप से कहता है– “बापू तुमउ चलो, यहॉं नफरत-छूतछात के अलावा कौन सी हमारी जागीर बची है गाम में? हाड़-मांस धुन के यहॉं पेट भरत हैं, सो जहॉं रहेंगे, वहीं भर लेंगे।” उस वक्त बाप गॉंव का मोह नहीं छोड़ पाता है। बेटा अपनी पत्नी को लेकर गॉंव छोड़कर दिल्ली आ जाता है। कुछ समय बाद जब बेटा बाप की खैर-खबर लेने गॉंव जाता है, और स्टेशन से उतरता है, तो क्या देखता है कि उसके मॉं-बाप गॉंव छोड़कर शहर जाने के लिए पहले से ही स्टेशन पर खड़े हुए हैं। गॉंव में प्रगतिशील होने का दिखावा करने वाला गॉंधीवादी सवर्ण मूलसिंह के मॉं-बाप को राजी करके उनकी बची-खुची जमीन अपने नाम करवा लेता है। जमीन चली जाने के बाद अब उनके लिए गॉंव में रहने के लिए कुछ नहीं बचता है।

श्यौराज सिंह बेचैन की एक छोटी सी कहानी ‘शीतल के सपने’ को लीजिए, जो उनकी 2007 की रचना है। यह कहानी साधारण है, पर विशिष्ट है, क्योंकि यह भारतीय लोकतन्त्र और उसके शासक वर्ग की शासन-प्रणाली को नंगा करती है। यह एक ऐसी लड़की की कहानी है, जो केवल दलित जातियों में ही पैदा हो सकती है या फिर गरीब पिछड़ी जाति में। ठीक वैसे ही जैसे शिवमूर्ति की कहानी ‘केशर कस्तूरी’ की नायिका थी। 

श्यौराज सिंह बेचैन की कहानी ‘शीतल के सपने’ बताती है कि देश को स्वतन्त्र हुए एक तिहाई सदी गुजर चुकी है, पर दलितों के हिस्से में अभी भी स्वतन्त्रता नहीं आई है। उनकी पहचान अभी भी एक स्वतन्त्र नागरिक के रूप में नहीं, बल्कि अछूत प्राणी के रूप में है। इस कहानी को पढ़ते हुए तीन प्रश्न दिमाग में उभरते हैं। एक यह कि दलित जातियों में स्वाभिमान और विद्रोह क्यों पैदा नहीं हुआ? दो, दलितों के प्रति मानसिकता क्यों नहीं बदली? और तीन, सवर्णों के मुकाबले दलितों का विकास क्यों नहीं हुआ? शीतल का दो साल पहले स्कूल जाना छूट जाता है। उसके “पिता एक चमड़ा-मजदूर थे, जो भगवती ठेकेदार के लिए मुर्दा मवेशियों की खालें और लबारे उठाने के काम किया करते थे। उन्हें क्षमता से अधिक काम करने की बीमारी थी और गरीबी में उनका इलाज केवल भगवान-भरोसे था। सो चालीस-पैंतालीस के होते-होते वे भगवान को प्यारे हो गए।” ध्यान दें, भगवान को प्यारा ठेकेदार नहीं हुआ, मजदूर हुआ। मजदूर क्षमता से ज्यादा काम करता है, ताकि ज्यादा पैसा मिलें और घर ठीक से चले। लेकिन न घर ठीक से चला और न शीतल की पढ़ाई हो सकी। वह खुद भी भरी जवानी में मर जाता है। मजदूर ऐसी दयनीय स्थिति में क्यों रहता है? ठेकेदार और चमड़ा बेचने वाला व्यापारी कभी ऐसे अभावों से क्यों नहीं गुजरता, मजदूर ही क्यों गुजरता है? यह बड़ा महत्वपूर्ण सवाल है, जिसका जवाब लोकतन्त्र को देना होगा। अगर लोकतन्त्र में शासक वर्ग दलित-मजदूरों को अशिक्षित और गरीब बनाने की योजनाएं नहीं बनाता, तो क्या उत्पादन के लिए कच्चा माल तैयार करने वाला मजदूर-शिल्पी गरीबी और तिरस्कार में जीता? लोकतन्त्र में दलित सिर्फ गरीब ही नहीं है, तिरस्कृत भी है। जीने के लिए स्वाभिमान भी वह बेच खाता है। सरकार की योजना में वह लाभार्थी है, पर क्या वास्तव में उसे लाभ मिलता है? गरीबों के लिए सरकार इन्दिरा आवास योजना में बीस हजार रुपए स्वीकृत करती है, पर लाभार्थी को पॉंच ही हजार मिलते हैं, दस हजार गॉंव का प्रधान खाता है और पॉंच हजार स्वीकृत करने वाला बाबू। फिर कौन हुआ लाभार्थी? इस पर भी प्रधान का दलित के प्रति अमानवीय व्यवहार! यह तिरस्कार नहीं है तो क्या है? जब शीतल की दादी कलावती अपने बेटे अशोक को लेकर प्रधान से सरकारी सहायता मॉंगने के लिए प्रार्थना करने जाती है, और कहती है, “चौधरी साब, पॉंच हजार और दिलाए देउ तो घर की छत पड़ जाए,” तो प्रधान उसका तिरस्कार करते हुए कहता है, “का चाहत है चमरिया? अरी अब तो तेरी माया को राज है। अब हमारे आगे काहे हाथ फैलाति है? अब तो तेरो बेटा कोट पहने हमारे सामने ठाड़ौ है। अब कोई नंगे उघारे थोड़े ही हो तुम?” प्रधान को दलित के बेटे का कोट पहनना अखर जाता है। कलावती सफाई देती है, “चौधरी साब, यह कोट नओ नांय है। तुम कहोगे तो जाउ उतरवा दुंगी। कोट के संग-संग कमीच हू उतरवाइ दुंगी। पर प्रधान जी हमारी सहायता मत रोको।” गरीब दलित जिन्दा रहने के लिए स्वाभिमान भी बेच देता है। इतना विवश उसे किसने किया है, जो वह चन्द रुपए की सहायता के लिए नंगा होने को तैयार हो जाता है? क्या इसके लिए लोकतन्त्र का सवर्ण शासक वर्ग जिम्मेदार नहीं है? क्या दलितों को नीच समझने वाली मनुवादी मानसिकता जिम्मेदार नहीं है? सवाल यह नहीं है कि प्रधान किस जाति का है, भले ही वह स्वयं शूद्र वर्ण में आता है, बल्कि सवाल यह है कि एक दलित को तिरस्कृत करने का इतना दुस्साहस उसमें कहॉं सें आता है? जो लोध प्रधान ब्राह्मण और ठाकुर के आगे हाथ जोड़कर खड़ा रहता है, वह दलित स्त्री को न सिर्फ चमारी कहकर तिरस्कृत करता है, बल्कि मुख्यमंत्री मायावती के लिए भी उसमें कोई इज्जत नहीं है। क्या यह सवाल जहन में नहीं उभरता कि लोकतन्त्र नए समाज का निर्माण क्यों नहीं कर सका? और इससे भी बड़ा सवाल यह है कि इतने तिरस्कार के बाद भी दलितों में विद्रोह क्यों पैदा नहीं हुआ? क्यों यह भाव कलावती में पैदा नहीं हुआ कि वह लोध प्रधान का सिर फोड़ दे? डॉ. आंबेडकर ने लिखा है कि ऐसा नहीं है कि दलित बगावत नहीं कर सकते, वे कर सकते थे, लेकिन इसलिए नहीं कर सके, क्योंकि वे आत्मनिर्भर नहीं थे, पराश्रित थे। उनकी रोजी-रोटी सवर्णों पर निर्भर हुआ करती थी। गॉंवों में सवर्णों के पास ‘बहिष्कार’ नाम का एक ऐसा अस्त्र है, जो दलितों को विद्रोह करने से रोकता है। अगर एक भी दलित विद्रोह करता है, तो सवर्णों द्वारा गॉंव के सारे दलितों का बहिष्कार कर दिया जाता है। उन्हें खेतों में काम देना बन्द कर दिया जाता है, यहॉं तक कि गॉंव का बनिया उन्हें नमक तक बेचने से इन्कार कर देता है। आजादी के बाद आजाद हुए सवर्णों ने और भी आजादी से दलितों के विरुद्ध बहिष्कार के इस अस्त्र का प्रयोग किया। इसने उन्हें आत्मनिर्भर नहीं होने दिया।

शीतल की आगे की कहानी और भी दुखदायी है। उसकी दादी उसे आगे पढ़ाने और उसके सपनों को पूरा करने के लिए दिल्ली में किसी मास्टर चाचा के घर छोड़ आती है। “यहॉं रहेगी, तो दो वक्त सब्जी से खाना खाएगी, साबुन से नहाएगी और गर्मियों में पंखे की हवा में बैठेगी।” इस मास्टर के साथ शीतल का क्या रिश्ता है, यह कहानी में नहीं बताया गया है। कोई रिश्ता जरूर रहा होगा, वरन कोई यूं ही किसी के घर अपनी बेटी नहीं छोड़ता है। लेकिन मास्टर की पत्नी नहीं चाहती कि शीतल उनके यहॉं रहकर पढ़े। दो महीने बाद ही उसे वापस उसकी दादी के साथ गॉंव भेज दिया जाता है। और इस तरह शीतल के सपने सपने ही रह जाते हैं। दादी बस के नीचे आकर भगवान को प्यारी हो जाती है और शीतल की यही नियति बन जाती है– जमींदारों के खेतों में काम करना और उनके घरों का गोबर-कूड़ा उठाना। 

इस कहानी में कुछ असंगतियॉं हैं, जो अखरती हैं। जैसे, मास्टर दम्पति शीतल की पढ़ाई की चिन्ता में इस तरह गुफ्तुगू करते हैं, “कौन पढ़ाएगा? कहॉं से शुरू करेगी? और यहॉं चल रहे कम्पटीशन में हर बच्चे को मार्क्सवादी बनाए जाने का जो अभियान चल रहा है, उसमें किसी भी शीतल को कोई जगह नहीं।” पहली बात, दिल्ली में ऐसा कौन सा जूनियर या माध्यमिक स्कूल है, जो बच्चों को मार्क्सवादी बनाने की शर्त पर दाखिला देता है? दूसरी बात, शीतल मार्क्सवाद के लिए उपयुक्त क्यों नहीं है? वह सबसे उपयुक्त है। लेखक मार्क्सवाद पर अतार्किक टिप्पणी किए बगैर भी यह कहानी लिख सकता था, जबकि वहॉं इसका कोई सम्बन्ध बनता भी नहीं है। 

मैं इस आलोचना का अन्त बेचैन जी की लम्बी कहानी ‘हमशक्ल’ से करूंगा। इस कहानी पर बहुत कम चर्चा हुई है, जबकि मेरी नजर में यह उनकी सबसे अच्छी कहानी है, जिसकी कथावस्तु गॉंव-कस्बे की राजनीति को लेकर तैयार हुई है। यह कहानी हमें राजनीति के उन गलियारों में ले जाती है, जिनमें दलितों को सलीब पर टॉंगने की साजिशें रची जाती हैं। यह उन साजिशों पर से झूठ का पर्दा उठाती है। कहानी में दो मुख्य पात्र हैं, प्रेम राय और कर्म दास। प्रेम राय सवर्ण है और कर्मदास उनका दलित गुलाम। संयोग से प्रेमराय और कर्मदास दोनों की पत्नियॉं एक ही समय दो लड़कियों को जन्म देती हैं और संयोग से दोनों लड़कियों की शक्लें एक-दूसरे से इतनी मिलती-जुलती हैं कि हमशक्ल लगती हैं। प्रेमराय की बेटी का नाम सवली और कर्मदास की बेटी का नाम भूरी है। सवली की शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से होती है, और फिर उच्च शिक्षा के लिए वह विदेश चली जाती है। इसके विपरीत, भूरी सरकारी स्कूलों में पढ़ती है। पढ़ने में होशियार है, नृत्य में भी उसकी रुचि है और कालेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी भाग लेती है। लेकिन एक दिन कालेज से लौटते समय भूरी रहस्यमय ढंग से गायब हो जाती है।

आजादी से पूर्व जो आशंका डॉ. आंबेडकर ने व्यक्त की थी कि आजादी अगर स्वराजवादियों के हाथों में आई, तो वे ब्राह्मणवादी सत्ता कायम करेंगे, और सामन्तवाद को जिन्दा रखेंगे, जिसमें खूनी शोषक दलित-गरीबों पर राज करेंगे, सच साबित हुई। प्रेम राय उसी सामन्तवाद का अवशेष है, जिसे आजादी के बाद ब्राह्मण शासक वर्ग ने जीवित रखा। उसका एक संक्षिप्त चित्रण लेखक ने इस तरह खींचा है : “आजादी मिलने के बाद भी भूमि, भवन, और संस्थाओं को राज्य द्वारा हस्तगत नहीं किया गया था। समाज-सत्ता में व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते राज्य का कोई भी बाध्यकारी लोकतान्त्रिक कानून इन पर कारगर नहीं होता था। यदि पूछा जाए कि स्वतन्त्रता और समानता की व्यवस्था अमल में आने पर भी राय परिवार में इतनी सम्पन्नता कहॉं से और कैसे बरस पड़ी, तो इसके राज और रास्ते कई थे। मसलन अछूत और पिछड़ी जातियों से छीनी जाकर ठग ली गई जमीनों को जब भूमिहीनों में बॉंट देने का जमींदारी उन्मूलन कानून आया, तो इन्होंने सौ-सौ एकड़ जमीनें कुत्ते, बिल्लियों, भैंसों, बैलों और दूर के नाते-रिश्तेदारों के तोते, गिलहरियों और काल्पनिक देवी-देवताओं के नाम कर दीं। ब्रिटिश लोग समझते थे कि ये सब इंसानों के नाम हैं। इस कारण सरकारीकरण करने के बजाए जमीनें माफियाओं ने तथाकथित पात्रों के नाम दीं, और फिर कब्जा कर लिया दबंगों ने। वे ही परिवार, आजादी के बाद सरकारी क्षेत्र की अपेक्षा अधिक पावरफुल हुए। कालान्तर में वे खुद सरकार का हिस्सा बन गए। प्रदेश की बड़ी-बड़ी संस्थाएं निजी क्षेत्र में लेकर इन्होंने एक स्वयंसेवी संगठन बनाया, जो सरकार के समानान्तर चल रहा था। विदेशी पूंजी और विदेशी शिक्षा के दम पर देशी दलित को दला जा रहा था। राय उनके मुखिया थे।”

राय का बेटा प्रकेश नेता बन गया है, और प्रकेश की पत्नी माधवी नारीवादी बनी हुई है। यद्यपि वे कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े हैं, पर वास्तविकता यह है कि वे कामरेड का मुखौटा लगाए हुए हैं। राय की हवेली से ही गॉंव की राजनीति तय होती है। राय के महल में राजनीतिक मीटिंग चल रही है, जिसका मकसद प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सत्ता पर काबिज होने की रणनीति तैयार करना है। इस मीटिंग में प्रकेश की पत्नी माधवी कर्मदास की बेटी भूरी के गायब होने का मुद्दा उठा देती है। यह विचार का विषय है कि अक्सर दलित हित का मुद्दा राजनीति में सबसे ज्यादा वही वर्ग उठाता है, जो उन पर सबसे ज्यादा अत्याचार करता है। इसका मकसद समाज को बदलना या न्याय स्थापित करना नहीं होता, बल्कि दलितों के प्रति सहानुभूति प्रकट करके उनके वोट प्राप्त करना होता है। माधवी भी भूरी का मुद्दा उठाकर चुनावों में दलितों का रुख अपनी ओर करना चाहती है। कर्मदास अपनी बेटी को ढूंढ़ निकालने के लिए राय साहब के पैरों में ही सिर रखकर गिड़गिड़ाता है। उसके लिए थाना-कचहरी सब राय साहब ही हैं। माधवी द्वारा भूरी का मुद्दा उठाने से कस्बे की राजनीति में नया मोड़ तो आ जाता है, पर जब प्रकेश उसे भूरी के मुद्दे से पीछे हटने के लिए समझाता है, तो वह मान जाती है, और आत्मालाप भी करती है कि “बेकार मेरे मन में एक नीच जाति की लड़की का सवाल आया। कहीं भाग गई होगी। छोटी जातियों में किरदार और खुद्दारी जैसी चीज होती ही कहॉं है?” प्रकेश मुद्दे को भटकाने के लिए कस्बे में हिंदू-मुस्लिम दंगा करवा देता है। कहानी में एक महत्वपूर्ण पात्र कामरेड मदन चमार का है, जो विचारों से क्रान्तिकारी है, पर है प्रकेश के ही दल में। वह जब भी पार्टी-मीटिंग में भूरी की गुमशुदगी या दलित-उत्पीड़न के सवाल उठाता है, तो प्रकेश उसे बुरी तरह झिड़क देता है। वह कहता है, “हर चीज का एक समय होता है। क्रान्ति की लाइन यह है कि अपने दिमाग में केवल अपनी जाति की चिन्ता बसाकर मत रखो। यह सच्चा कामरेड होने के लक्षण नहीं हैं। मामूली से मामूली कामरेड को भी विश्व-दृष्टि से संपन्न होना चाहिए। अगर हमें जाति का दर्द बेचैन रखता है, तो मान लीजिए कि हमारे राजनीतिक प्रशिक्षण में कहीं कमी रह गई है।” अवश्य ही कामरेड मदन चमार के रूप में स्वयं लेखक उपस्थित हैं, जिन्होंने काफी समय कामरेड के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी में काम किया है। वहॉं उन्हें जो अनुभव हुआ, वह मदन के रूप में हमें देखने को मिलता है। यह काल्पनिक अनुभव नहीं है, वरन यही वह रणनीति है, जिसके द्वारा सवर्ण कम्युनिस्ट वर्ग के नाम पर जाति को अक्षुण्ण रखते हैं। लेकिन मदन ढीला-ढाला ढुलमुल कामरेड नहीं है। वह परेशान है कि क्यों बार-बार कम्युनिस्ट नेता घुमा फिरा कर साम्प्रदायिकता पर ही आ जाते हैं? वह जानता था कि हिंदू-मुस्लिम समस्या इन नेताओं की ही सृजित की हुई समस्या है। जब जीप में चुनाव-प्रचार के लिए जाते समय उसे बोलने का मौका मिलता है, तो वह खुलकर बोलता है– “क्या मुसलमान दलितों को अछूत कहते हैं? नहीं, तो यही मुद्दा तुम्हारी प्राथमिकता क्यों है? क्यों आधे हिंदू वामपंथी बनकर मुसलमानों की हिमायत करते दिखते हैं और क्यों आधे हिंदू दक्षिणपंथी बनकर हिन्दुओं के हितों के गीत गाते हैं? और दोनों ही दलितों के प्रश्न पर कन्नी काट जाते हैं? क्यों रातों-रात भंगी और खटीक सर्वश्रेष्ठ हिंदू घोषित कर मुसलमानों से लड़ा दिए जाते हैं? माजरा क्या है? सत्तर साल की आजादी में जितनी दलितों की हत्याएं गैर-दलितों ने की हैं, उसका दसवॉं हिस्सा लोग भी विश्व-युद्ध में नहीं मरे। जितने दलितों के साथ बलात्कार सवर्णों ने किए, उतने मुगलराज और अॅंग्रेजीराज दोनों को मिलाकर नहीं हुए, क्यों? पिछले पॉंच महीनों में सैकड़ों गॉंवों के हजारों दलितों के घर गैर-दलितों ने जला दिए। क्या ये गैर-दलित अॅंग्रेज हैं? मुगल हैं? ये दलितों के हत्यारे क्यों हैं? क्यों इन्होंने दलित लड़कियों के साथ बलात्कार किए? यह सब मुद्दा क्यों नहीं बनाया?”

इसका जवाब कामरेड स्वयंहित शर्मा देता है– “हॉं, नहीं बनाया मुद्दा, क्योंकि हमने दलितों को हिंदू-व्यवस्था में शामिल कर रखा है।” और मुखिया प्रकेश राय कहता है– “तो तुम चाहते हो, सारी दुनिया का कम्युनिस्ट आन्दोलन हिन्दुस्तान के भंगी-चमारों के उत्थान में आकर लग जाए? गोया वह तुम्हारे जैसे संकुचित दृष्टिकोण वाले लोगों का, गली-मुहल्ले के स्तर का, कोई टटपुंजिया संगठन है? क्या तुम आंबेडकर की तरह चन्द जातियों का नेता समझते हो मार्क्सवादियों को?”

कम्युनिस्टों के दिमाग में दलितों के प्रश्न को लेकर कितना विकार भरा हुआ है, इसे यह कहानी खोलकर बताती है। वास्तव में यही वह ब्राह्मणवाद है, जिससे भारत का कम्युनिस्ट आन्दोलन ग्रस्त है। गॉंवों में दलित-अस्मिता के साथ किस तरह घिनौना खिलवाड़ किया जाता है, और चुनावों के समय किस कदर साजिशें रची जाती हैं, इसका पर्दाफाश यह कहानी बखूबी करती है। एक दिन बदलू मेहतर कर्मदास को बताता है कि उसने बाबासाहेब के जन्मदिवस पर उसकी बेटी को प्रकेश राय की हवेली में जाते हुए देखा था, पर उसे आते हुए नहीं देखा था। उसी वक्त कर्मदास की ऑंखें खुलती हैं और वह राय परिवार की सेवा-वफादारी की अपनी मूर्खता पर पछताने लगता है। पर वह अब भी कुछ नहीं कर सकता था, क्योंकि कमजोर था।

कहानी में एक विचारोत्तेजक बहस माधवी और उसके ससुर प्रेमसिंह राय के बीच चलती है। प्रेम राय कहते हैं, “कर्मदास को अपनी बेटी को चार-पॉंच दर्जे से ज्यादा पढ़ाना नहीं चाहिए था, और बारह साल की होने से पहले उसकी शादी कर देनी चाहिए थी। पर उसने उसे बारहवें तक पढ़ा दिया। नीची कौम और ऊँची पढ़ाई, कोई तुक है?” माधवी ने पूछा, “ये लोग ऐसा दुस्साहस क्यों करते हैं?” प्रेम राय जवाब देते हैं, “आंबेडकरी विद्वानों के सुधारवादी विचार सुन-सुनकर इनका हौसला बढ़ गया है। ये अछूत दिमाग के कमजोर नहीं होते। मनु ने इनकी बौद्धिक क्षमता से डरकर ही इनके पढ़ने-लिखने पर प्रतिबन्ध लगाया था। अगर एकलव्य में प्रतिभा अर्जुन से कम होती, तो क्या द्रोणाचार्य को फ़िक्र होती?” माधवी प्रश्न करती है, “पर इससे हमारा राष्ट्र तो कमजोर ही हुआ ना?” प्रेम राय यह सुनकर गम्भीर हो जाते हैं। सवर्णों ने कभी इस तरह सोचा ही नहीं कि दलितों को कमजोर करने से राष्ट्र भी कमजोर होता है। माधवी अपने ससुर प्रेम राय से एक और असुविधाजनक प्रश्न करती है, “भूरी की शक्ल अपनी सवली से इतनी मिलती-जुलती क्यों है? और इन दोनों की शक्लें कर्मदास से क्यों नहीं मिलतीं?’ प्रेम राय इस प्रश्न का उत्तर इस मिथक से समझाने का प्रयत्न करते हैं कि “गर्भवती स्त्री के सपने में कोई परछाईं आ जाए, तो उसकी छाप पड़ जाती है।” पर कहानीकार ने प्रेम राय को पीछे के खयालों में ले जाकर बता दिया कि कर्मदास की पत्नी के साथ प्रेम राय ने सहवास किया था, और खुद प्रेम राय की पत्नी ने कर्मदास को अपने पास सुलाया था।

कहानी में एक दिलचस्प मोड़ उस वक्त आता है, जब मतदान के ऐन वक्त हिंदू सुधार पार्टी भूरी को बरामद कर लेती है, और दलित वोटों को अपने पक्ष में कर लेती है। वह जब जुलूस के रूप में भूरी को प्रकेश राय की हवेली की तरफ से लेकर गुजरता है, तो प्रकेश उसे पहचान लेता है कि “हॉं, यह तो भूरी ही है।” वह याद करता है कि उसी ने तो अपने साथियों के साथ भूरी को बाग से पकड़ा था, और उसके मुँह में कपड़ा ठूंसकर सभी ने उसके साथ बारी-बारी से कुकर्म करके उसे इतना तड़पाया था कि उसके सामने ही उसने दम तोड़ा था। उसे बाग में ही गहरा गाड़ दिया गया था। फिर यह भूरी कहॉं से आ गई? प्रकेश ने स्वयंहित शर्मा से पूछा, “तुम यह बताओ, उसे कहॉं से लाए थे?” तब शर्मा बताता है, “तुम्हारी हवेली ही से तो उठाया था उसे और कर्मदास के साथ ही तो आई थी वह।” इधर कर्मदास भी अपनी बेटी को पहचान लेता है। अब प्रकेश के पास पछताताप के सिवा कुछ नहीं बचता है, क्योंकि जिसे उसने कुकर्म करके मारा था, वह भूरी नहीं, उसी की सगी बहन सवली थी।

यह कहानी जहॉं सवर्णों की सामन्तवादी बनाम मार्क्सवादी राजनीति का खुलासा करती है, वहीं दलितों के प्रति उनकी अलोकतान्त्रिक सोच का भी पर्दाफाश करती है। दलित साहित्य में ‘हमशक्ल’ पहली कहानी है, जो आजादी के बाद की शासक वर्ग की राजनीतिक विचारधरा की बखिया उधेड़ती है। इसमें सन्देह नहीं कि श्यौराजसिंह बेचैन ने अपनी कहानियों में सामाजिक न्याय और सामाजिक परिवर्तन के विचार को एक मिशन के रूप में लिया है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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