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‘झारखंड के हिस्से में अब भी क्यों है कोख में अमीरी और गोद में गरीबी?’

झारखंड बनने के बाद भी ये कारपोरेट जगत, पूंजीवादी ताकतें, और कुलीन वर्ग के लोग आज भी आदिवासियों को लूट रहे हैं। आदिवासी महिला सब्जी लेकर बाजार में आती हैं तो उसकी टोकड़ी ये पहले ही उतार लेते हैं और उसे थोड़े से पैसे दे दिया करते हैं। फिर उसे ऊंची कीमत पर खुद बेचते हैं। तो झारखंड में अभी भी किनाराम और बेचाराम का बोलबाला है। पढ़ें, वासवी किड़ो के साक्षात्कार का पहला भाग

[झारखंड महिला आयोग की पूर्व सदस्य वासवी किड़ो सुपरिचित आदिवासी साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं। इसके अलावा वह पत्रकार के रूप में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ व ‘जनसत्ता’ आदि से संबद्ध रही हैं। इन्होंने झारखंड में अनेक आंदोलनों में हिस्सा लिया और कइयों का नेतृत्व भी किया है। ज्योति पासवान ने उनसे यह विस्तृत बातचीत की है। पढ़ें, इस बातचीत का पहला अंश]

कृपया अपने बारे में विस्तार से बतायें कि आपका जन्म कब, कहां और किस परिवेश में हुआ? आदिवासी साहित्य व समाज को लेकर आपने कबसे काम करना प्रारंभ किया?

आदिवासी साहित्य निश्चित तौर पर साहित्य जगत के लिए बड़ी हलचल पैदा करने वाला एक महत्वपूर्ण अध्याय रहा है। शुरुआत में डॉ. रामदयाल मुंडा, रमणिका गुप्ता, महाश्वेता देवी और भी बहुत से लोग थे, जिनमें मैं भी एक थी। उस समय भी काफी लोग थे, जब साहित्य अकादमी में 2 जून 2002 में आदिवासी समस्याओं को लेकर पहला कार्यक्रम हुआ था, जिसका संचालन मैंने किया था और इसके तुरंत बाद ही दिल्ली में हमलोगों ने रामदयाल मुंडा के नेतृत्व में ऑल इंडिया ट्राइबल लिटरेरी फोरम का गठन किया। रमणिका जी का काफी सहयोग प्राप्त हुआ क्योंकि वह दिल्ली में ही रहती थीं और उनका आवास एक कार्यालय की तरह ही कार्य करता था। आदिवासी साहित्य को समृद्ध करने में इनलोगों ने काफी सहयोग दिया। उसके पहले पूरे भारत में या कह कि पूरी दुनिया में आदिवासी साहित्य का नामोनिशान नहीं था, ना ही उसकी कोई चर्चा थी और ना ही उसका कोई विमर्श था। अभी देखिये, 2002 से 2022 तक लगभग बीस साल हुआ। हमलोगों ने 2018 में ऑल इंडिया ट्राइबल लिटरेरी फोरम गठन की पंद्रहवीं वर्षगांठ मनाया था। इस साल भी 30 जून और 1 जुलाई को हम एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन करने जा रहे हैं। यूनेस्को ने 2022 से 2032 के दशक को ‘अंतरराष्ट्रीय आदिवासी भाषा दशक’ की घोषणा की गई है, उसे मनाने की घोषणा के लिए हम इस कार्यक्रम का आयोजन कर रहे हैं। इस कार्यक्रम में आदिवासी साहित्य के विविध पहलुओं पर भी चर्चा की जाएगी, क्योंकि अगर यूनेस्को ने अगर 2022 से 2032 के दशक को ‘अंतरराष्ट्रीय आदिवासी भाषा दशक’ के रुप में घोषित किया है तो आदिवासी लेखकों, कवियों, बुद्धिजीवियों, उपन्यासकारों का यह दायित्व बनता है कि नये-नये कार्यक्रम का आयोजन कर भाषा-दशक को यादगार व सृजनपरक बनाएं। फिलहाल तो मैं इस कार्यक्रम की तैयारी में ही मैं लगी हुई हूं।

पूरा आर्टिकल यहां पढें : ‘झारखंड के हिस्से में अब भी क्यों है कोख में अमीरी और गोद में गरीबी?’संविधान के नागरिक राष्ट्र से दिक्कत क्या है?

लेखक के बारे में

ज्योति पासवान

दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम.ए. ज्योति पासवान काज़ी नज़रुल विश्वविद्यालय, आसनसोल, पश्चिम बंगाल में पीएचडी शोधार्थी हैं

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