“सत्य का प्रकाश उन लोगों की आंखों को कष्ट पहुंचाता है, जो अंधेरों में रहने के आदी हो चुके हैं। जिस प्रकार उल्लू के घोंसले में प्रकाश की एक किरण पड़ते ही वे चिचियाने लगते हैं।” – दिदरो
डॉ. सिद्धार्थ और डॉ. अलख निरंजन द्वारा संयुक्त रूप से संपादित पुस्तक ‘आंबेडकर की नज़र में गांधी और गांधीवाद’ पुस्तक पढ़ते हुए मुझे बार-बार दिदरो का यह कथन याद आता है। संपादकद्वय ने गांधी और आंबेडकर के विचारों का गहन अध्ययन किया है, इसलिए यह पुस्तक बहुत महत्वपूर्ण बन जाती है। गांधी स्वाधीनता आंदोलन के ‘एकमात्र नायक’ बनकर उभरे थे। वे भले ही महात्मा कहलाना पसंद करते थे, लेकिन उनकी कार्यशैली तानाशाह के जैसी थी। गांधी के जटिल व्यक्तित्व को समझने के लिए हमें उस ज़मीन की भी पड़ताल करनी होगी, जिस पर वो नायक के रूप में प्रतिष्ठित हो गए थे। इसका अध्ययन करके ही हम तथाकथित गांधीवाद की सच्चाई को समझ सकते हैं।
इस पुस्तक के एक संपादक अलख निरंजन ने इस पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश ज़रूर की है। मार्क्स ने करीब-करीब दो सौ वर्षों पहले ही न्यूयार्क के ‘डेली ट्रव्यून’ में छपे अपने भारत संबंधी लेखों में इस ज़मीन की गहन पड़ताल की थी।, विशेष रूप से प्राचीन भारतीय ग्राम्य समाजों की। उनके मुताबिक यहां खेती की ज़मीन सामुदायिक होती थी। उसकी खरीद-फ़रोख्त नहीं हो सकती थी। किसान फसल उगाते थे और राजा को उसकी मालगुजारी देते थे। पूरा समाज जातियों में बंटा था। श्रमिक वर्ग, जिसमें दस्तकार, कारीगर आदि थे। वे गाँव की ज़रूरतों के लिए सामान बनाते थे और बदले में उन्हें अनाज मिलता था। एक समाज और था जिन्हें अछूत कहा जाता था। जबकि ब्राह्मण सबसे ऊंचे स्थान पर थे। वे अपनी इच्छानुसार जातियों को नीचे-ऊंचे पायदानों पर डालते रहते थे। इन अछूत जातियों की स्थिति मिस्र और यूनान के गुलामों से भी बदतर थी। पश्चिम में लोग तो गुलामी से मुक्त होकर स्वतंत्र नागरिक का जीवन जी सकते थे, परन्तु भारत में शूद्र और अछूत केवल मौत के बाद ही इससे मुक्ति पा सकते थे। इसके अलावा ये ग्राम्य समाज भयानक अंधविश्वासों, जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, प्रेतबाधा जैसी रूढ़ियों के भयानक अंधकार में डूबे हुए थे। यहां इंसान तो नारकीय जीवन जीता था, परंतु गाय और बंदर की पूजा की जाती थी। इस अंधकार में ये समाज सदियों तक डूबे रहे। इन्हें राजनीति में कोई रुचि नहीं थी। दिल्ली में तख्त और ताज बदलते रहे, लेकिन इन ग्राम्य समाजों का ढांचा बिलकुल नहीं बदला। हमें कुछ हद तक अंग्रेजों के प्रति शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने इसमें कुछ हद तक हस्तक्षेप किया।
मोहनदास करमचंद गांधी के ‘महात्मा’ बनने की परिघटना को इसी संबंध में देखा और समझा जा सकता है। दक्षिणी अफ्रीका से लौटकर गांधी ने सारे देश का भ्रमण किया और वे समझ गए कि केवल महात्मा का चोला पहनकर ही वे भारतीयों के नेता बन सकते हैं। भारत के अंधविश्वास और पिछड़ेपन का दोहन करते हुए उन्होंने महात्मा की छवि धारण कर ली तथा देखते ही देखते पूरे देश के एकमात्र नायक बन गए। उनके कथित ‘चमत्कारों’ की चर्चा गांव-गांव में होने लगी। वास्तव में गांधी के व्यक्तित्व का यह दोहरापन संपूर्ण भारतीय समाज के दोहरेपन को प्रतिबिंबित करता है।
पुस्तक में संपादक अलख निरंजन ने इस पर विस्तार से प्रकाश डाला है। मसलन, गांधी की एकमात्र पुस्तक ‘हिंद स्वराज’, जिसे उनके प्रशंसक ‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ के समकक्ष मानते हैं, में वे अपने आर्थिक दर्शन का बहुत विस्तार से वर्णन करते हैं। वास्तव में यह पुस्तक गांधी को समझने की कुंजी है। वे इस पुस्तक में न केवल पश्चिमी सभ्यता की भर्त्सना करते हैं, बल्कि उनके अविष्कारों जैसे– भाप का इंजन, कृषि उपकरण, रेल, हवाईजहाज और आधुनिक चिकित्सा पद्धति को शैतानी उत्पाद कहते थे। यद्यपि अपने विचारों को फैलाने के लिए इन सबका उपयोग वे खुद करते थे। वे उस सरल ग्राम जीवन की ओर लौटने की बात करते थे, जिसे आंबेडकर ने दलितों के लिए नर्क बतलाया था। गांधी के विचार रूसो की तरह अनैतिहासिक, यूटोपिया और प्रतिक्रियावादी थे। इसके ठीक विपरीत डॉ. आंबेडकर 1936 में ‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’ के घोषणा पत्र में खेती की प्रगति के लिए बैंकों-किसानों की कोऑपरेटिव सोसायटी और मार्केटिंग सोसायटी की स्थापना करने की बात करते हैं। कारखानों में काम करने वाले मज़दूरों की बेहतरी के लिए काम करने की बात करते हैं। लेकिन गांधी अपने आर्थिक दर्शन में पूंजीपतियों के हृदय परिवर्तन तथा ट्रस्टीशिप कानून लाने की बात करते हैं। वे पूंजीपतियों को मज़दूरों का अभिभावक बनाने और उनकी सम्पत्ति का ट्रस्ट बनाने की बात करते हैं, जिसके मालिक पूंजीपति ही होंगे। उनके ये विचार गैरवैज्ञानिक थे। इसके ठीक विपरीत आप आंबेडकर के विचारों को देख सकते हैं। गांधी पूंजीपतियों के हृदय परिवर्तन की बात करते हुए वर्ग संघर्ष की नहीं, वर्ग सहयोग की बात करते हैं। अहमदाबाद में मजदूरों के एक सम्मेलन में वे फैक्ट्री मज़दूरों के राजनीति में आने को ख़तरनाक बतलाते हैं।

इस पुस्तक में इन सब बातों पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। करीब सात अध्यायों में बंटी फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक के दोनों सम्पादकों ने गांधी और आंबेडकर के राजनैतिज्ञ विचारों को संकलित करके उनका तुलनात्मक अध्ययन भी पेश किया है। विशेष रूप से दलितों के लिए अलग मताधिकार देने की बात तथा पूना पैक्ट के मसले पर।
ब्रिटिश सरकार ने गोलमेज सम्मेलनों के बाद 17 अगस्त, 1932 को यह घोषित किया कि भारतीय ईसाइयों, एंग्लो इंडियन, मुस्लिम तथा आदिवासी समुदायों के साथ ही अछूत हिंदुओं को भी पृथक निर्वाचन मंडल का अधिकार दिया। इसके साथ ही जमींदार, मज़दूरों और व्यापारियों को भी यह अधिकार दिया गया था। लेकिन गांधी ने केवल अछूतों को मिले पृथक निर्वाचन मंडल के अधिकार को छीनने के लिए आमरण अनशन प्रारंभ कर दिया। तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमरे मैकडोनाल्ड ने उन्हें ऐसा न करने को कहा, पर वे न माने। 19 सितम्बर, 1932 को आंबेडकर ने ‘कम्युनल अवार्ड’ पर अपना पक्ष रखने हुए बयान जारी किया, जिसमें उन्होंने कम्युनल अवार्ड में अछूतों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल के विरोध में गांधी द्वारा जान की बाज़ी लगाने को औचित्यविहीन करार दिया तथा गांधी के जीवन और अछूतों के अधिकारों में से एक चुनने के लिए उन्हें (आंबेडकर) को बाध्य न करने का अनुरोध किया था। लेकिन गांधी नहीं माने। (आंबेडकर की नजर में गांधी और गांधीवाद, पृष्ठ 103-104)
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“ब्रिटिश सरकार ने स्वेच्छा से या जनमत के दबाव में आकर अछूत समाज को स्वतंत्र मतदान का जो अधिकार दिया है, उसका गांधी ने सख्त विरोध किया है। उन्होंने प्रतिज्ञा की है, कि ब्रिटिश सरकार घोषित रूप से इसे वापस नहीं लेती है, तो मैं आमरण अनशन करके अपनी जान कुर्बान कर दूंगा। उनकी यह प्रतिज्ञा सुनकर मुझे बेहद आश्चर्य हुआ, गांधी द्वारा किए गए आत्महत्या के संकल्प से उन्होंने मुझे विरोधी और मुश्किल की स्थिति में डाल दिया है। इससे हमारे ऊपर कितनी बड़ी जिम्मेदारी है, इस बात की कल्पना कोई आसानी से कर सकता है।” (वही, पृष्ठ 105)
आंबेकर ने यद्यपि गांधी के इस निर्दयी मानवतावाद का घोर विरोध किया, परंतु उनके ऊपर पड़ रहे दबावों तथा ‘एक महात्मा’ की मौत के लिए जिम्मेदार हो जाने का आरोप लग जाने की शंकाओं के कारण भारी मन से कम्युनल अवार्ड मानना पड़ा। वास्तव में उनका यह फैसला दलितों के हितों पर एक गहरे कुठाराघात की तरह था। लेकिन इतिहास में इस तरह के दौर आते रहते हैं जब आगे की विजय के लिए कुछ कदम पीछे खींचने पड़ते हैं।
आंबेडकर ने अपने ढेरों लेखों और वक्तव्यों में गांधी को महात्मा मानने से इंकार कर दिया। परंतु उनकी छवि बार-बार तर्क, बुद्धि और ज्ञान को पराजित करती थी, क्योंकि यह मामला श्रद्धा में बदल जाता है, जहां पर ज्ञान और स्वविवेक नहीं चलता था। गांधी ने दलितों को हरिजन का नाम दिया था तथा शूद्रों के खिलाफ़ हो रहे अन्यायों को सुधारने के लिए उनका कथित मानवतावादी दृष्टिकोण एक पूंजीवादी मानवतावादी दृष्टिकोण मात्र था। उनका हिंदू वर्णवादी व्यवस्था पर गहरा विश्वास था। वे मानते थे कि जातियां अन्य लोगों के पेशों को सीख तो सकती हैं, लेकिन उसे अपने जीवन यापन के लिए उपयोग में नहीं ला सकतीं।
इस पुस्तक के अंतिम अध्याय में डॉ. आंबेडकर गांधी के बारे में बीबीसी रेडियो को दिए गए एक साक्षात्कार में स्पष्ट रूप से गांधी को महात्मा मानने से इंकार करते हैं तथा एक सवाल के जवाब में कहते हैं कि गांधी पूरी तरह से रूढ़िवादी हिंदु थे। एक तो वह पूरी तरह से कभी सुधारक नहीं रहे। उनमें किसी तरह की गतिशीलता नहीं रही और अश्पृश्यता के बारे में उनकी बातें केवल अछूतों को कांग्रेस में शामिल करने के लिए की गई थीं। दूसरे वे चाहते थे कि अछूत उनके स्वराज आंदोलन का विरोध न करें। “इससे अलग मुझे नहीं लगता कि वास्तव में उनके पास अछूतों का उत्थान करने का करने का कोई मकसद था। वे संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के ‘गैरिसन’ की तरह नहीं थे, जिन्होंने नीग्रो लोगों के लिए संघर्ष किया था।” (वही, पृष्ठ 155)
गांधी के व्यक्तित्व की जटिलता और विविधता के कारण उनको समझना बहुत कठिन हो जाता है। वे उस भारतीय अमानवीय व्यवस्था के उत्पाद थे, जो उन जैसा समाज सुधारक ही दे सकती थी। उन्होंने पश्चिमी सभ्यता का तीखा विरोध किया, परंतु वे भारतीय सभ्यता में निहित अमानवीयता और बर्बरता को देखकर भी उसके प्रति अंजान बने रहे। अपने मूल्य-मान्यताओं में घोर प्रतिक्रियावादी होने के बावजूद अगर वे आज भी भारतीयों के दिल में ‘एक महान संत’ के रूप में राज कर रहे हैं तथा आइंस्टीन जैसा दार्शनिक वैज्ञानिक भी उनको लेकर भ्रम में पड़ जाता है तब हमें इस परिघटना पर जरूर विचार करना चाहिए। पुस्तक में इसको समझने का पूरा प्रयास किया गया है तथा संपादकों को कुछ हद तक इसमें सफलता भी मिली है।
मुझे लगता है कि आज भारत के एक वैकल्पिक इतिहास लेखन की जरूरत है, जिसमें दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक सभी शामिल हों। हावर्ड जिन की पुस्तक ‘द पिपुल्स हिस्ट्री ऑफ अमेरिका’, जिसमें अमेरिका के संदर्भ में ऐतिहासिक तथ्यों का जनपक्षीय तरीके से विश्लेषण किया गया है, की तरह यह पुस्तक इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकती है।
समीक्षित पुस्तक : आंबेडकर की नजर में गांधी और गांधीवाद
संपादन : डॉ. सिद्धार्थ व डॉ. अलख निरंजन
प्रकाशक : फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली
मूल्य : 200 रुपए (अजिल्द)/ 400 रुपए (सजिल्द)
(संपादन : नवल/अनिल)
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