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तिलक का राष्ट्रवाद (अंतिम किस्त)

तिलक ने 1895 में पूना अधिवेशन में धमकी दी कि अगर कांग्रेस के पंडाल में समाज-सुधार कांफ्रेंस हुई, तो पंडाल में आग लगा दी जाएगी। यह वही तिलक थे, जिनका नारा ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ था। बता रहे हैं कंवल भारती

पहली किस्त के आगे

अंग्रेज सरकार ने यह जानने के लिए कि भारत में शिक्षा व्यवस्था कैसी होनी चाहिए, उसका संचालन और नियंत्रण सरकार के हाथों में रहना चाहिए, या जनता के हाथों में, और शिक्षा धर्मनिरपेक्ष होनी चाहिए या धार्मिक, आदि सवालों को लेकर 1882 में सर विलियम विल्सन हंटर की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया, जिसने भारत के प्रमुख गणमान्य नागरिकों, शिक्षविदों, राजनीतिज्ञों और विचारकों से साक्षात्कार लेकर अपनी रपट वायसराय को पेश की थी। यह हंटर आयोग वायसराय लॉर्ड रिपन द्वारा नियुक्त एक ऐतिहासिक आयोग था, जिसका उद्देश्य 1854 के वुड्स डिस्पैच के गैर कार्यान्वयन की शिकायतों को देखना था।

महाराष्ट्र के समाज-सुधारकों की मांग थी कि देश के प्रत्येक गांव में स्कूल स्थापित होना चाहिए, और उनमें धार्मिक शिक्षा के साथ धर्मनिरपेक्ष शिक्षा दी जानी चाहिए, जबकि राष्ट्रवादी धर्मनिरपेक्ष शिक्षा के विरोधी थे, वे धार्मिक शिक्षा के समर्थक थे। हालांकि सनातनी ब्राह्मणों ने स्कूलों में अछूतों के प्रवेश का विरोध नहीं किया, परंतु उनकी आपत्ति अछूत बच्चों के शारीरिक संपर्क में आकर अशुद्ध होने के संबंध में थी, क्योंकि वे अपने शास्त्रों में निर्धारित शुद्धता के नियमों का पालन करते थे। इसी आधार पर राष्ट्रवादी भी स्कूलों में अछूत बच्चों के प्रवेश के समर्थक नहीं थे।[1]

पंडिता रमाबाई सरस्वती, जो स्त्री-शिक्षा की समर्थक और विधवाओं के लिए स्कूल और आश्रम चलाती थीं, ने हंटर आयोग से कहा कि भारत में मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को देखते हुए देश को महिला डाक्टरों की सख्त जरूरत है, इसलिए उन्होंने महिलाओं के लिए मेडिकल शिक्षा की आवश्यकता पर जोर दिया। दादाभाई नौरोजी ने संपूर्ण आबादी के लिए निशुल्क शिक्षा की मांग की। रानाडे के प्रार्थना समाज ने प्रस्ताव रखा कि अगर शिक्षा के क्षेत्र से राज्य को हटा दिया गया, तो संपूर्ण धार्मिक, नैतिक और सामाजिक सुधार का सर्वनाश हो जाएगा। जोतीराव फुले ने भी अपने साक्ष्य में स्कूल-कालेजों के प्रबंधन से सरकार के हटने का विरोध किया।[2] उन्होंने निम्न वर्गों की शिक्षा का प्रश्न उठाया और कहा कि सरकार ने इन वर्गों के शैक्षिक हितों की उपेक्षा की है। उन्होंने कहा कि देश का उत्थान तब तक नहीं हो सकता जब तक कि लाखों शूद्रों व अतिशूद्रों को उच्च शिक्षा देकर ऊपर नहीं उठाया जाएगा। उन्होंने बारह वर्ष की उमर तक प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने की मांग की।[3] फुले का कहना था कि किसी भी तरह से शिक्षा के प्रबंधन और संचालन से सरकार का हटना शिक्षा के विस्तार के लिए हानिकारक हो सकता है।[4]

किंतु तिलक की गवाही सबसे पृथक थी। उन्होंने अछूत बच्चों की शिक्षा का विरोध करते हुए यह तर्क दिया कि महारों की शिक्षा की मांग महारों ने नहीं की है, बल्कि यह आंदोलन कुछ भावुक अंग्रेज अधिकारियों ने सवर्ण हिंदुओं को परेशान करने के लिए चलाया है। तिलक ने तर्क दिया कि सरकार द्वारा अछूतों की शिक्षा का समर्थन करना “महारानी की घोषणा”[5] के विपरीत है। उन्होंने 18 जनवरी, 1885 के अपने ‘महारट्ट’ पत्र में ‘भारत में शिक्षा’ लेख में लिखा कि शिक्षकों की भर्ती का संपूर्ण अधिकार नगरपालिकाओं को सौंपा जाना चाहिए, क्योंकि वे ही अपने क्षेत्र को अच्छी तरह जानते हैं, उन्हें पता होता है कि कितने स्कूल हैं और उनमें क्या पढ़ाया जाना है।’ इस पर परिमाला राव ने सही टिप्पणी की है कि चूंकि स्थानीय निकायों पर अभिजात भू-स्वामियों का नियंत्रण था, और वे करदाता थे, जिन्हें वोट का अधिकार प्राप्त था, इसलिए वे आसानी से अछूतों के बच्चों को प्रवेश देने पर रोक लगा सकते थे।[6]

परिमाला राव के अनुसार तिलक ने तीन तरह से ब्रिटिश सरकार की शिक्षा व्यवस्था की आलोचना की – एक, उन्होंने सरकार के नियंत्रण वाली शैक्षिक संस्थाओं का यह कहकर विरोध किया कि इससे वित्तीय बोझ बढ़ेगा; दूसरे, उन्होंने यह कहा कि औपनिवेशिक शिक्षा से स्थानीय भाषाओं के अध्ययन का नुकसान होगा; और तीसरे, उनकी आलोचना का बिंदु यह था कि औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली के तहत चलने वाले स्कूल-कालेजों में नैतिक अनुशासन नहीं रहेगा। उनका कहना था कि जिस तरह ब्राह्मण अपने स्कूलों में वेदशास्त्र पढ़ाते हैं, वे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाए जाते।[7]

तिलक ऐसी किसी भी शिक्षा के समर्थन में नहीं थे, जो वर्णव्यवस्था को स्वीकार नहीं करती थी। पेशवा राज के पतन के बाद जाति-व्यवस्था में जो शिथिलता आई थी, वह उसे कठोर करना चाहते थे। उन्होंने 10 मई, 1891 के ‘महारट्ट’ पत्र में लिखा, “सुधारवादी नेता कहते हैं कि जाति की संस्था ने देश का बहुत नुकसान किया है, पर हिंदू राष्ट्र का मानना है कि अगर जाति-व्यवस्था नहीं होती, तो हिंदू राष्ट्र का अस्तित्व समाप्त हो जाता।” तिलक ने सुधारकों की कटु आलोचना करते हुए लिखा कि उन्होंने जाति की शक्ति को उन शासकों के हाथों में समर्पित कर दिया है, जो जाति को मार कर राष्ट्र को निष्प्राण कर देंगे।[8]

यही नहीं, तिलक ने वर्णव्यवस्था को आर्यों का एक धर्मनिरपेक्ष सामाजिक संगठन मानते हुए उसकी तुलना मध्यकालीन यूरोप के ट्रेड गिल्ड (व्यापार संघ) से की और कहा कि प्राचीन काल में वर्णव्यवस्था की भूमिका व्यापार संघ की ही थी। इस आधार पर उन्होंने जाति की आवश्यकता पर जोर देते हुए तर्क दिया कि औद्यौगिक दृष्टिकोण से जाति की व्यवस्था बहुत उपयोगी है, इसमें आज जो तिरस्कार की भावना दिखती है, वह मूल रूप में नहीं थी, पर उसे हिंदू नेताओं के माध्यम से सहनशीलता और परस्पर सुलह से दूर किया जा सकता है। तिलक जाति की धारणा पर इतने दृढ़ थे कि उन्होंने जाति-व्यवस्था को सख्ती से लागू करने के लिए अदालतों को निर्देश देने की मांग भी सरकार से कर डाली थी।[9]

तिलक ने हिंदुत्व का उन्माद उभारने के लिए प्रतीकों का भी सहारा लिया। उन्होंने शिवाजी, गणेश और गीता के आधार पर जो विचारधारा फैलाई, उसके मूल में हिंदू-मुस्लिम संघर्ष को तेज करना था, किंतु रानाडे और जोतीराव फुले आदि सुधारकों और शाहूजी महाराज के प्रयासों से तिलक अपने प्रयोजन में सफल नहीं हो सके। तिलक ने शिवाजी उत्सव का आयोजन किया और उन्हें गौ-ब्राह्मणों के रक्षक और मुसलमानों के शत्रु के रूप में स्थापित किया, किन्तु फुले ने 1869 में ‘छत्रपति शिवाजी राजा भौसले का पंवाड़ा’ लिखकर शिवाजी को मनुष्य मात्र का हितैषी और जनता का राजा घोषित कर दिया।[10] गैर-ब्राह्मणों के प्रमुख पत्र ‘दीन बंधु’ ने भी तिलक द्वारा शिवाजी के प्रतीक का उपयोग किए जाने का विरोध किया। रानाडे ने भी शिवाजी की उस छवि का खंडन किया, जिसे तिलक ‘मुस्लिम-शत्रु’ के रूप में गढ़ रहे थे और जोर-शोर से प्रचारित कर रहे थे। उधर, कोल्हापुर के महाराजा शाहूजी गैर-ब्राह्मणों के उभार को समर्थन दे रहे थे, जिसने तिलक के शिवाजी-उत्सव को विफल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वर्ष 1894 में जब वह राजगद्दी पर बैठे, तो उन्होंने बड़ी संख्या में गैर-ब्राह्मणों को प्रशासनिक पदों पर भर्ती किया, जिससे तिलक इतने बौखलाए हुए थे कि उन्होंने शाहूजी का भी विरोध किया और ब्रिटिश सरकार पर भी आरोप लगाया कि वह गैर-ब्राह्मणों का उत्साह बढ़ाकर जातीय द्वेष पैदा कर रही है।[11]

बाल गंगाधर तिलक की पेंटिंग

तिलक का राष्ट्रवाद रेडिकल नहीं था, अर्थात वह किसी भी सुधार का समर्थक नहीं थे। स्त्रियों के प्रति उनका दृष्टिकोण वही था, जो मनु का था। वह हिंदू लड़कियों की अवयस्क अवस्था में ही उनके विवाह के पक्षधर थे। स्त्री-शिक्षा के प्रति भी उनका मत सुधारवादियों के विरोध में था। वर्ष 1884 में जब पंडिता रमाबाई ने पूना में लड़कियों के लिए हाईस्कूल खोलने के लिए सरकार का सहयोग मांगा, तो रानाडे और भंडारकर आदि अनेक सुधारकों ने उन्हें अपना समर्थन दिया, और सरकार से मांग की कि वह स्त्री-शिक्षा में रमाबाई की सहायता करे। किंतु तिलक, जो आरंभ से ही स्त्री-शिक्षा के विरोध में थे, ने लड़कियों के लिए हाईस्कूल का समर्थन नहीं किया। उन्होंने रमाबाई के निर्णय के एक माह के भीतर ही इस स्कूल को रोकने के लिए भारी अभियान चलाया। उन्होंने तर्क दिया कि लड़कियों को अंग्रेजी शिक्षा देने का मतलब स्त्री-जीवन के प्राकृतिक स्वरूप में दखल देना है। उन्होंने 31 अगस्त, 1884 के ‘महारट्ट’ में लिखा, “क्या आप गंभीरता से आशा करते हैं और क्या आप वाकई इस बात के लिए उत्सुक हैं कि हमारी महिलाएं आनेवाली सदियों तक मूल साहित्य से हटकर कुछ भी करेंगीं?” तिलक का तर्क था कि स्त्रियों का दिमाग ऐसा नहीं है कि वे कुछ नया कर सकें।[12]

उसी समय एक पारसी समाज-सुधारक बी. एम. मलबारी की बाल विवाह और बलात वैधव्य पर दो अलग-अलग टिप्पणियां प्रकाशित हुईं। मलबारी ने बाल विवाह पर प्रहार करते हुए कहा कि हिंदू शास्त्र बाल विवाह और आजीवन वैधव्य का समर्थन नहीं करते। इसे रोकने के लिए, उन्होंने सरकार से लड़कियों के विवाह की आयु बढ़ाने तथा विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार देने के लिए कानून बनाने की मांग की। उनका सुझाव था कि अगर कोई हिंदू लड़की अपना पति या मंगेतर को खो देती है, तो उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध आजीवन विधवा बनाकर नहीं रखा जाना चाहिए। मलबारी के सुझावों पर सुधारवादियों और राष्ट्र्वादियों के बीच वैचारिक बहस शुरू हो गई। जोतीराव फुले का सुझाव था कि विवाह के लिए लड़के की आयु उन्नीस वर्ष और लड़की की ग्यारह वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए, जबकि मलबारी ने क्रमश: अठ्ठारह और सोलह वर्ष की आयु का सुझाव दिया था। फुले ने भी मलबारी की टिप्पणियों के उत्तर में दो अलग-अलग टिप्पणियां लिखीं, जो ‘दीन बंधु’ में प्रकाशित हुईं। फुले ने अपने सुझाव में यह भी कहा कि कम उमर में लड़कियों का विवाह करने वाले माता-पिताओं पर जुर्माना डालना चाहिए और उस धन का उपयोग हिंदुओं के निम्न वर्ग की शिक्षा पर किया जाना चाहिए। फुले का सुझाव यह भी था कि निम्न वर्गों की शिक्षा ब्राह्मण शिक्षकों के माध्यम से नहीं होनी चाहिए, क्योंकि ब्राह्मण शिक्षक अपने धार्मिक विचारों को भी छात्रों के दिमागों में डाल देते हैं। मलबारी के विधवा विवाह के समर्थन में फुले ने तर्क दिया कि जब विधुर का पुनर्विवाह हो सकता है, तो विधवा का क्यों नहीं होना चाहिए?[13]

लेकिन तिलक ने अपने विरोध में कहा कि बी. एम. मलबारी पारसी हैं, और हिंदू समाज में सुधार की मंशा रखनेवाले किसी भी व्यक्ति को हिंदू समाज की पेचीदगियों को समझने के लिए उसका हिंदू होना जरूरी है। लेकिन तिलक ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि सारे सुधारवादी हिंदू ही थे, और अधिकांश ब्राह्मण भी, जो मलबारी के सुझावों का समर्थन कर रहे थे। तिलक ने कहा कि जहां तक लड़कों और लड़कियों के लिए विवाह योग्य आयु क्रमश: अठारह और सोलह वर्ष करने की बात है, तो यह केवल जातीय पंचायतों की सहमति से होनी चाहिए, न कि एक विदेशी सरकार के जबरन कानून से।[14]

परिमाला राव लिखती हैं कि “सहवास सहमति वय के खिलाफ अपने धर्म-युद्ध में राष्ट्रवादी सुधारक सनातनी ब्राह्मणों का समर्थन प्राप्त करने में समर्थ थे, परंतु स्त्री-शिक्षा के संबंध में वे उनका समर्थन प्राप्त नहीं कर पाए थे, क्योंकि सनातनियों के लिए शिक्षा आर्थिक लाभ का साधन थी, जिससे उनकी पुत्रियां स्कूल शिक्षिका बनकर परिवार की आय में वृद्धि करती थीं। पता नहीं, कितनी सदियों से हिंदू समाज में विवाह उपरांत लड़की के साथ सहवास की आयु दस साल चल रही थी। इस आयु में अनगिनत अवयस्क बच्चियों की अपने पतियों द्वारा सहवास करने पर मौतें होती रहती थीं, और पुरुष दूसरा विवाह कर लेते थे। किंतु हिंदुओं को अपनी लड़कियों की मौतों का कोई अफ़सोस नहीं होता था, जिनके आंकड़े डरावने थे, और हिंदू समाज की वीभत्स तस्वीर प्रस्तुत करते थे। किंतु 1889 में फूलमनी नाम की दस साल की एक बंगाली बच्ची की मौत ने लोगों की चेतना को हिला दिया, जिसके साथ उसके 35 वर्षीय पति हरी मैती ने बलपूर्वक संभोग किया था। हालांकि उस पर बलात्कार का अभियोग चलाया गया था, और उसे एक साल की जेल भी हुई थी। पर इस घटना के बाद पूरे देश में सहवास सहमति की आयु पर बहस छिड़ गई। इस घटना ने औपनिवेशिक सरकार को सहवास सहमति बिल लाने के लिए बाध्य कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप 9 जनवरी, 1891 को कलकत्ता में भारत के गवर्नर जनरल और वायसराय लार्ड लांसडाउन की विधान परिषद में विधिमंत्री सर एंड्रयू स्कोबल ने ‘सहवास वय बिल, 1891’ प्रस्तुत किया, जिसमें लड़की की आयु को दस से बढ़ाकर बारह साल करने का प्रावधान किया गया। रूढ़िवादी नेताओं ने बिल का विरोध किया, जिनमें तिलक भी थे। तिलक ने कहा, “हम यह कतई नहीं चाहेंगे कि सरकार हमारे सामाजिक रीति-रिवाजों और जीवन जीने के तरीकों को कानून बनाकर नियंत्रित करे, भले ही वह काम कितना ही फायदेमंद क्यों न हो।” उन्होंने 15 मार्च, 1891 के ‘महारट्ट’ में अपने संपादकीय लेख में लिखा–

“ब्राह्मण बिल को कभी मान्यता नहीं देंगे, क्योंकि यह उनके लिए एक प्रतिबंधात्मक उपाय होगा। ब्राह्मण स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे हैं, और अपनी स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाले किसी उपाय को स्वीकार नहीं करेंगे।”[15]

किंतु तिलक और अन्य रूढ़िवादी नेताओं के विरोध के बावजूद यह बिल 19 मार्च, 1891 को पास हुआ और कानून बना। लेकिन, सच यह है कि हिंदुओं के जीवन पर इस कानून का कोई प्रभाव नहीं हुआ, वह उसी तरह चलता रहा, जिस तरह चल रहा था।

तिलक का राष्ट्रवाद स्त्री-जीवन के उत्थान के पक्ष में नहीं था। जब बंगाल में रबीन्द्रनाथ टैगोर की बहन स्वर्णकुमारी देवी ने ‘सखी समिति’ बनाकर उसके माध्यम से कलकत्ता की स्त्रियों को अंग्रेजी-शिक्षा देना शुरू किया, तो यह तिलक को सहन नहीं हुआ। यह संस्था कलकत्ता में विधवा स्त्रियों को शिक्षित करके उन्हें शिक्षिका के रूप में प्रशिक्षित करती थी। तिलक ने इसकी तीखी आलोचना की और घोषणा की कि स्त्रियों के लिए अंग्रेजी और पश्चिमी विज्ञान की शिक्षा देना हमारे धार्मिक मूल्यों को नष्ट करना है।[16]

तिलक इस कदर स्त्री-उत्थान के विरुद्ध थे कि होम-रूल आंदोलन के दौरान भी वह लगातार स्त्री-शिक्षा पर प्रहार करते रहे थे। पूना के एक समाज-सुधारक दोंधो केशव कर्वे ने, जिनका संपूर्ण जीवन विधवाओं की मुक्ति के कार्य को समर्पित था, बंबई में भारतीय समाज-सम्मेलन का आयोजन किया और भारत में महिला-विश्वविद्यालय कायम करने का प्रस्ताव रखा, जिसके लिए उन्होंने लोगों से आर्थिक सहयोग की अपील की। यह स्त्री-शिक्षा की दृष्टि से एक बड़ा और क्रांतिकारी कार्य था, परंतु तिलक ने न केवल कर्वे के विधवा-मुक्ति कार्य का विरोध किया, बल्कि विश्वविद्यालय की योजना की भी निंदा की। उन्होंने 9 जनवरी 1916 के ‘महारट्ट’ में लिखा–

“हम प्रकृति और सामाजिक प्रथा को मानते हैं, हमने सामाजिक ढांचे में स्त्री को एक खास स्थान और कार्य सौंपा है। आने वाली पीढ़ियों तक घर ही स्त्रियों का मुख्य केंद्र और क्षेत्र रहेगा। वहां वे जो सर्वश्रेष्ठ काम करेंगीं, उसी से उनका नैतिक और सामाजिक स्तर ऊंचा उठेगा। घर ही उसके लिए विशाल नाट्यशाला है, जहां उसे सभी के लिए अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करना है। इससे हटकर भारत में कोई स्त्री-शिक्षा नहीं होनी चाहिए।”[17]

तिलक ने एक और लेख 20 फ़रवरी, 1916 को ‘इंडियन विमन्स यूनिवर्सिटी’ नाम से लिखा, जिसमें उन्होंने कहा कि हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि एक औसत हिंदू लड़की एक बहू भी होती है, जिसे अपने पति के परिवार के लोगों के प्रति विशेष कर्तव्य निभाने होते हैं। इस विशेष संबंध की दृष्टि से हिंदू लड़की को एक अच्छी बहु, एक अच्छी पत्नी और एक अच्छी मां के रूप में शिक्षित किया जाना चाहिए। इसलिए उसकी शिक्षा हमारे पुराण आदि पारंपरिक धार्मिक साहित्य को पढ़ाकर की जानी चाहिए, जिसमें घर की देखभाल, बच्चों की देखभाल, खाना बनाना, और सीना-पिरोना आदि सिखाया जाना चाहिए।

किंतु तिलक के विरोध के बावजूद महिला विश्वविद्यालय की स्थापना का कार्य नहीं रुका, और जुलाई, 1916 में यह विश्वविद्यालय अस्तित्व में आ गया।[18]

वर्ष 1916 से लेकर वर्ष 1918 के बीच भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के रूप में होम रूल आंदोलन की शुरुआत हुई। इसके नेता बालगंगाधर तिलक और एनी बेसेंट थे। होम रूल शब्द उन्होंने आयरलैंड के होम रूल आंदोलन से लिया था। होम रूल आंदोलन की मांग ब्रिटिश सरकार से स्व-शासन अर्थात डोमिनियन स्टेटस की थी। हालांकि कांग्रेस पार्टी उनसे सहमत नहीं थी, पर उसने उन्हें अलग से आंदोलन चलाने की अनुमति दे दी थी। इसके बाद तिलक ने बेलगाम में अप्रैल 1916 में होम रूल लीग की स्थापना की। इसके चार महीने बाद एनी बेसेंट ने मद्रास में सितंबर, 1916 में होम रूल लीग कायम की। इस तरह दो होम रूल लीग अस्तित्व में आए। दोनों ने अपने-अपने क्षेत्र में काम शुरू किया। तिलक ने महाराष्ट्र, कर्नाटक, बरार और मध्य प्रांत में काम किया। लेकिन तिलक और बेसेंट दोनों के ही होम रूल लीग आंदोलन को गैर-ब्राह्मणों का समर्थन नहीं मिला। इसलिए ये आंदोलन लंबे समय तक नहीं चल सके। असल में गैर-ब्राह्मणों ने होम रूल को उच्च जातियों के स्व-शासन के रूप में देखा। मद्रास में भी गैर-ब्राह्मण संगठन ‘साउथ इंडियन लिबरल फेडरेशन’ ने होम रूल लीग की मांग का इस आधार पर विरोध किया कि यदि दमन करने वालों को ही स्व-शासन का अधिकार मिल गया, तो दलित वर्गों के लिए न्याय का मार्ग कभी नहीं खुलेगा।[19] लेकिन कांग्रेस के नेताओं ने इस मुद्दे पर गैर-ब्राह्मणों का विरोध किया। कानपुर के गांधीवादी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ में अब्राह्मणों का विरोध करते हुए लिखा, “कालीकट के कुछ मनचले अब्राह्मणों ने नगर भर में स्वराज्य के विरोध में बड़े-बड़े इश्तहार चिपका दिए थे और मिसेज बेसेंट के नाम खुली चिट्ठी बांटी। इस चिट्ठी में देवी बेसेंट नीच जातियों की शत्रु ठहराई गई थीं।”[20] एनी बेसेंट के बारे में डॉ. आंबेडकर का विचार था कि वह अपने कई कार्यों के कारण इतिहासकारों की स्मृति में रहेंगी; जैसे उन्होंने थियोसोफिकल सोसाइटी की स्थापना की, एक ब्राह्मण रजिस्ट्रार के पुत्र कृष्णमूर्ति को भावी मसीहा के रूप में ऊंचा उठाया, और होम रूल लीग की नींव डाली, लेकिन “मैं नहीं जानता कि कभी उन्होंने दलितों के साथ सहानुभूति रखी हो।”[21]

परिमाला राव के अनुसार तिलक ने मई 1916 में बेलगाम और अहमदनगर के अपने भाषणों में जाति का खुला पक्ष नहीं लिया था, क्योंकि वहां गैर-ब्राह्मण आंदोलन मजबूत था। लेकिन उसके छह महीने बाद जब वह कानपुर गए, तो उन्होंने जाति का खुला समर्थन किया, क्योंकि वहां गैर-ब्राह्मण आंदोलन कमजोर था। हालांकि कानपुर में ‘अखिल भारतीय कुर्मी क्षत्रिय परिषद’ सक्रिय थी, जिसके तेरहवें सम्मेलन में 1919 में शाहूजी महाराज का भाषण हुआ था।[22] कानपुर में तिलक ने अपने भाषण में ब्राह्मणों-ठाकुरों को उद्वेलित करते हुए कहा–

“मेरा मानना है कि चातुर्वर्ण संपूर्ण समाज को जीवन के अनेक विभागों में विभाजित करता है, लेकिन उनमें से हरेक विभाग में आप हारे हुए हैं। मैं इस सत्य को जानता हूं कि आप क्षत्रिय होने का दावा करते हैं, आप ब्राह्मण होने का दावा करते हैं, लेकिन उस राजनीति और उन योग्यताओं पर कुछ नहीं बोलते, जिनका दावा आज शूद्र कर रहे हैं।”[23]

परिमाला राव लिखती हैं कि तिलक ब्रिटिश राज का खात्मा और स्व-शासन इसलिए चाहते थे, क्योंकि वह उसमें चातुर्वर्ण व्यवस्था का पतन देख रहे थे। होम रूल के पीछे उनका एकमात्र उद्देश्य इसी चातुर्वर्ण व्यवस्था को कायम करना था। उन्होंने 7 जनवरी 1917 को ‘महारट्ट’ पत्र में अपने लेख ‘ब्राहमंस नाट ब्राहमंस’ में स्पष्ट शब्दों में कहा–

‘आज के ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं हैं, क्षत्रिय क्षत्रिय नहीं हैं, वैश्य वैश्य नहीं हैं। असली शूद्र वह है, जो मूर्ख मजदूर से भी अयोग्य है। राष्ट्रीय परिवार में उसका भी स्थान है, लेकिन वैश्य का स्थान उससे थोड़ा ऊपर है। ब्राह्मण का स्थान सबसे ऊंचा है, जबकि क्षत्रिय का स्थान उसके बाद आता है। आज हमें राष्ट्र को सतत समृद्ध रखने के लिए विद्वानों (ब्राह्मणों), निडर बहादुरों (क्षत्रियों), तीक्ष्ण बुद्धि के उद्यमियों (वैश्यों) और कठोर श्रम करने वाले मजदूरों (शूद्रों) की जरूरत है। ये चार वर्णों के सच्चे प्रतिनिधियों के अलग-अलग विशिष्ट गुण हैं, जिनसे मिलकर एक आदर्श चातुर्वर्ण समाज का निर्माण होता है। जाति-व्यवस्था का भविष्य जो भी हो, पर यदि इन चारों जातियों के सदस्य अपने-अपने उत्कृष्ट गुणों का विकास करते हैं, जो उनके पुरखों की खुशहाल परंपरा है, तो यह राष्ट्र के लिए बहुत अच्छा होगा।”[24]

तिलक ने यह श्रम-विभाजन जाति के आधार पर किया, गुण के आधार पर नहीं। उनका कहना था कि एक ब्राह्मण केवल विद्वान ही हो सकता है, मजदूर नहीं, और एक शूद्र हमेशा मजदूर ही रहेगा। राष्ट्रवादियों ने तिलक के इस विचार को वर्णाश्रम धर्म का पवित्रतम सिद्धांत कहा और दरभंगा के महाराजा ने, “जिनकी थैलियां उस समय वर्णाश्रम धर्म की रक्षा के कार्य के लिए खुली हुईं थी,”[25] तिलक के वर्णाश्रम विचारों का स्वागत किया। 1917 में तिलक ने घोषणा की कि जो भी होम रूल का समर्थक नहीं है, वह न हिंदू है और ना ही हिंदू धर्म को समझता है। उसी वर्ष तिलक ने बंबई में बड़ौदा के महाराज की अध्यक्षता में आयोजित अखिल भारतीय दलित वर्ग मिशन सम्मेलन में भाग लिया, जहां उन्होंने अपने भाषण में कहा कि हिंदुओं का कोई भी धर्मशास्त्र किसी भी व्यक्ति को अछूत नहीं मानता है। लेकिन सम्मेलन में उपस्थित अन्य अब्राह्मण वक्ताओं ने तिलक के मत का खंडन ही नहीं किया, बल्कि उसके प्रमाण भी दिए। इस सम्मेलन में दलित वर्ग मिशन के वक्ताओं द्वारा होम रूल अर्थात स्वराज की मांग का भी विरोध किया गया और संयोग से उसी कालावधि में गैर-ब्राह्मणों का एक प्रतिनिधि-मंडल पृथक निर्वाचन की मांग पर सरकार से बातचीत करने के लिए इंग्लैंड गया।[26]

डॉ. आंबेडकर ने लिखा है, “तिलक यह कभी नहीं भूलते थे कि वह एक ब्राह्मण हैं और शासक वर्ग से संबंध रखते हैं। जब गैर-ब्राह्मण और पिछड़े वर्ग के नेताओं ने विधायिका में पृथक प्रतिनिधित्व के लिए आंदोलन चलाया, तो तिलक ने 1918 में शोलापुर की एक जनसभा में कहा कि उनकी समझ में यह नहीं आता कि ये तेली, तम्बोली, धोबी आदि गैर-ब्राह्मण और पिछड़े वर्गों के लोग विधायिका में जाकर क्या करेंगे? उनकी राय में इन लोगों का काम कानूनों का पालन करना है, कानून बनाने की आकांक्षा पालना नहीं।”[27]

इस तरह गैर-ब्राह्मणों के विरोध के कारण तिलक के होम रूल लीग आंदोलन की हवा निकल गई, और तीन साल बाद, 1918 में ही खत्म हो गया। इसके दो मुख्य कारण और भी थे। पहला, तिलक को 1918 के सितंबर माह में एक मुकदमे के सिलसिले में इंग्लैंड जाना पड़ा था, जहां से वह 1919 में वापस आए। इस दौरान होम रूल आंदोलन हाशिए पर चला गया था। दूसरा बड़ा करण यह था कि कांग्रेस में एक चतुर गैर-ब्राह्मण राजनीतिज्ञ गांधी का प्रवेश हो गया था, जिसने अपने शब्द-जाल से ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण सबको सम्मोहित कर कांग्रेस से जोड़ दिया था। गांधी ने वर्णाश्रम धर्म का विरोध नहीं किया, बल्कि यह कहा कि वर्णाश्रम धर्म का जाति से कोई संबंध नहीं है। उन्होंने किसानों के दुखों पर बात की, बाल-विवाह, अस्पृश्यता और स्त्री-शिक्षा आदि सभी मुद्दों पर बात की, उन्होंने तिलक और गोखले दोनों के महत्व को स्वीकार किया। उन्होंने सबको संतुष्ट करने वाली भाषा से सफलतापूर्वक सुधारकों को भी अपने पक्ष में कर लिया और राष्ट्रवादियों को भी। गांधी ने स्वयं को एक ऐसे चतुर नेता के रूप में प्रदर्शित किया, जो एक साथ ब्राह्मण कट्टरपंथियों का भी प्रतिनिधित्व कर सकता था, सुधारवादियों का भी, स्त्रियों का भी, किसानों का भी, विद्यार्थियों का भी और दलित वर्गों का भी। लेकिन वस्तुस्थिति यह थी कि गांधी सिर्फ तिलक जैसे ब्राह्मणवादी-राष्ट्रवादी तत्वों के ही प्रतिनिधि थे। कोई भी नेता दो विपरीत विचार वाले वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, यह बात आंबेडकर के सिवा, गैर-ब्राह्मण नेताओं ने समझने की कोशिश नहीं की।

लेकिन इसकी पृष्ठभूमि को जानना जरूरी है। डॉ. आंबेडकर के अनुसार जब 1885 में बंबई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ, तो यह तय हुआ था कि कांग्रेस का राष्ट्रीय आंदोलन केवल राजनीतिक ही नहीं, बल्कि हिंदू समाज को पुनर्जीवित करने के लिए सामाजिक और आर्थिक समस्याओं पर भी विचार करेगा। लिहाजा कांग्रेस के पहले बंबई अधिवेशन में महादेव गोविंद रानाडे आदि नेताओं ने समाज-सुधार पर चर्चा की। किंतु 1886 के दूसरे कलकत्ता अधिवेशन में समाज-सुधार पर कोई चर्चा नहीं हुई। हालांकि कांग्रेस के नेताओं के बीच समाज-सुधार पर चर्चा चलती रही, जिसमें यह तय हुआ कि समाज-सुधार के लिए अलग से भारतीय राष्ट्रीय सामाजिक कांफ्रेंस नाम से संस्था होनी चाहिए। दिसंबर, 1887 में इस संस्था का जन्म मद्रास में हुआ, और भूतपूर्व राजा सर टी. माधव राव उसके अध्यक्ष बने। वर्ष 1895 तक कांग्रेस में समाज-सुधार बनाम रानजीति-सुधार नाम की दो धाराएं अस्तित्व में आ गई थीं, और कांग्रेस के एक ही पंडाल में दोनों के सम्मेलन हो रहे थे। लेकिन इसी दौरान समाज-सुधार-विरोधी तत्व भी कांग्रेस में सक्रिय हो रहे थे, जिनका नेतृत्व तिलक कर रहे थे। तिलक ने 1895 में पूना अधिवेशन में धमकी दी कि अगर कांग्रेस के पंडाल में समाज-सुधार कांफ्रेंस हुई, तो पंडाल में आग लगा दी जाएगी। यह वही तिलक थे, जिनका नारा “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है” था।

डॉ. आंबेडकर ने सवाल उठाया कि जब स्थिति यह थी, तो फिर ऐसा क्या हुआ कि कांग्रेस को 1917 में यह प्रस्ताव पास करना पड़ा कि “कांग्रेस दलितों पर थोपी गईं निर्योग्यताओं को दूर करना अपना आवश्यक दायित्व समझती है”, जबकि इससे पहले कांग्रेस ने ऐसा प्रस्ताव पास नहीं किया था? आंबेडकर के अनुसार वस्तुस्थिति यह थी कि नवंबर 1917 में बंबई में दलित वर्गों की दो अलग-अलग सभाओं में विधायिका में दलितों के लिए अलग प्रतिनिधित्व की मांग की गई थी। इनमें एक सभा 11 नवंबर 1917 को हुई थी, जिसकी अध्यक्षता श्रीनारायण चंदावरकर ने की थी, और उसी हफ्ते या उसके बाद दूसरी सभा गैर-ब्राह्मण पार्टी के नेता नामदेव बागड़े की अध्यक्षता में हुई थी। इन दोनों नेताओं ने पृथक अधिकार के लिए अपना आंदोलन तेज कर दिया था। तिलक ने इसी मांग से बौखला कर शोलापुर की सभा में दलितों के प्रतिनिधित्व को नकारा था, जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। आंबेडकर लिखते हैं कि इसके मूल में 20 अगस्त, 1917 को भारत के तत्कालीन राज्य-सचिव मांटेग्यु द्वारा हाउस ऑफ कामंस में की गई यह घोषणा निहित थी कि “ब्रिटिश साम्राज्य के अभिन्न अंग के रूप में भारत में एक प्रगतिशील उत्तरदायी सरकार बनाने के विचार से सभी सांप्रदायिक वर्गों की सहमति से धीरे-धीरे स्व-शासी संस्थाओं का गठन किया जाएगा।” दलित वर्ग इसी घोषणा को ध्यान में रखकर बनने वाली स्वशासी सरकार में पृथक प्रतिनिधित्व की मांग कर रहे थे, और इसी मांग के दबाव में कांग्रेस ने दलितों की ओर पहली बार ध्यान दिया था, और दलितों के पक्ष में प्रस्ताव पास किया था।[28]

वर्ष 1919 में भारतीय राजनीति में गांधी का प्रवेश हुआ, और 1922 तक कांग्रेस पार्टी पूरी तरह गांधी के नियंत्रण में आ गई। आंबेडकर के अनुसार, गांधी ने कभी किसी विरोध पर ध्यान नहीं दिया। वह विरोध चाहे सनातनी हिंदुओं का हो, और चाहे दलितों का। वह सारे विरोधों को नजरंदाज़ करते हुए अपने लक्ष्य की ओर ही अग्रसर रहे।[29]

तिलक के इंग्लैंड से वापस आने के बाद पूना नगरपालिका ने पूना के नागरिकों की ओर से उनका अभिनंदन करने का निश्चय किया, किंतु, परिमाला राव के अनुसार, अनेक लोगों ने इसका विरोध यह कहकर किया कि यह अभिनंदन तिलक के समर्थकों की ओर से किया जाना चाहिए, पूना के नागरिकों की ओर से नहीं। पूना के नागरिकों में सर्वाधिक संख्या तिलक के ब्राह्मणवादी विचारधारा को न मानने वाले मुसलमानों, दलितों और गैर-ब्राह्मणों की थी। तिलक को इस विरोध से गहरा सदमा पहुंचा और उन्हें यह अहसास हो गया कि उन्होंने वह सब कुछ खो दिया, जो होम-रूल आंदोलन के दौरान प्राप्त किया था। यह पहली बार था, जब तिलक पूरी तरह अलग-थलग पड़ गए थे। तिलक ने गैर-ब्राह्मणों का समर्थन पाने के लिए अनेक प्रयास किए, उन्होंने जाति-व्यवस्था के उन्मूलन का भी समर्थन किया, और यहां तक कहा कि वह अकेले जाति का विनाश नहीं कर सकते, स्वयं बुद्ध भी इस प्रयास में सफल नहीं हुए थे, इसलिए हम जाति की खूंटी पर अपनी स्वराज की समस्या को टांग नहीं सकते। लेकिन तिलक की इस अपील का गैर-ब्राह्मणों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा[30], क्योंकि तिलक की छवि सुधार-विरोधी थी, जो उन्हें लोकतांत्रिक नहीं बनाती थी।

समाप्त

(lसंपादन : नवल/अनिल)

[1] परिमाला वी. राव, उपरोक्त, पृष्ठ 140-141

[2]वही, पृष्ठ 141

[3] धनंजय कीर, उपरोक्त, पृष्ठ 172-173

[4] फुले के सम्पूर्ण साक्ष्य के लिए देखिए, महात्मा जोतिबा फुले रचनावली, खंड एक, संपादक : एल. जी. मेश्राम ‘विमलकीर्ति’, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 1996, पृष्ठ 273-285

[5] 1857 के ग़दर के बाद ब्रिटेन की राजशाही द्वारा भारत की सरकार अधिग्रहण करने के अवसर पर महारानी विक्टोरिया ने 1, नवम्बर 1858 को निम्लिखित घोषणा की थी—

हम आश्वासन देते हैं कि अपनी किसी भी प्रजा पर अपने विश्वासों को थोपने के अधिकार और इच्छा को अस्वीकार करते हैं। हम घोषणा करते हैं कि हमारी यही इच्छा और खुशी होगी कि किसी भी तरह से न किसी का पक्ष लिया जायगा, न किसी को सताया जायगा, न परेशान किया जायगा, बल्कि सभी सुख से रहेंगे और सभी की कानून द्वारा बिना भेदभाव के सुरक्षा की जायगी, और हम उन अधिकारियों को भी, जो हमारे अधीनस्थ हैं, सख्ती से बता देना चाहते हैं कि वे हमारी प्रजा के किसी भी धार्मिक विश्वास या पूजा की किसी भी पद्धति में हस्तक्षेप करने से और हमारी भारी नाराजगी के दण्ड से बचेंगे।

[6] परमिला राव, उपरोक्त, पृष्ठ 143

[7] वही, पृष्ठ 152-153

[8] वही, पृष्ठ 156-157

[9] वही, पृष्ठ 157-158

[10] महात्मा जोतिबा फूले रचनावली, खंड 1, पृष्ठ 51-86

[11] परिमाला वी. राव, उपरोक्त, पृष्ठ 159-167

[12] वही, पृष्ठ 102-105

[13] महात्मा जोतिबा फुले रचनावली, उपरोक्त, खंड 2, पृष्ठ 11-15

[14] परिमाला वी. राव, उपरोक्त, पृष्ठ 106-107

[15] वही, पृष्ठ 127

[16] वही, पृष्ठ 117

[17] वही, पृष्ठ 262

[18] वही, पृष्ठ 263-264

[19] वही

[20] देखिए 7 1917 के प्रताप, कानपुर में प्रकाशित लेख, ‘स्वराज्य के अब्राह्मण विरोधी’

[21] डॉ. बाबासाहब आंबेडकर : राइटिंग्स एंड स्पीचेज, खंड 9, पृष्ठ 3

[22] शाहूजी महाराज के ऐतिहासिक भाषण, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2020, पृष्ठ 78

[23] परिमाला वी. राव, उपरोक्त, पृष्ठ 267

[24] वही, पृष्ठ 267-268

[25] देखिए गणेश शंकर विद्यार्थी का लेख, ‘हिंदुओं की कूपमंडूकता’, प्रताप, कानपुर, 20 अप्रैल 1925

[26] परिमाला वी. राव, उपरोक्त, पृष्ठ 272-273

[27] Dr. Babasaheb Ambedkar : Writing and Speeches, Vol. 9, Page 209

[28] वही, पृष्ठ 11-18

[29] वही, पृष्ठ 114

[30] परिमाला वी. राव, उपरोक्त, पृष्ठ 275-277


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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