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दलित कविता में क्रांति-प्रतिक्रांति का दौर (संदर्भ : बिहारी लाल हरित – तीसरी कड़ी का दूसरा भाग)

उत्तर भारत में दलित कविता के क्षेत्र में शून्यता की स्थिति तब भी नहीं थी, जब डॉ. आंबेडकर का आंदोलन चल रहा था। उस दौर में और आजादी के बाद अनेक दलित कवि हुए, जिन्होंने कविताएं लिखीं। प्रस्तुत है कंवल भारती की विशेष आलेख श्रृंखला ‘हिंदी दलित कविता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य’ की तीसरी कड़ी का दूसरा भाग

हिंदी दलित कविता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यतीसरी कड़ी का दूसरा भाग

पिछली कड़ी के आगे

1949 के बाद कवि बिहारी लाल हरित की कुछ और रचनाएं प्रकाशित हुईं, जिनमें ‘गुरु दक्षिणा’ नाटक, ‘ख्याल-देवो उपासना’, ‘रविदास भक्त की झांकी’, ‘चीन का मुकाबला’, ‘नौबत सिंह का धर्म बिगुल’, ‘पन्ना का बलिदान’, ‘जोरू की हुकूमत’, ‘महात्मा गांधी की याद’, ‘देवासुर संग्राम’, ‘भीमायण’ और ‘जगजीवन ज्योति’ आदि पुस्तकें मुख्य हैं। इनमें ‘भीमायण’ और ‘जगजीवन ज्योति’ क्रमशः डॉ. आंबेडकर और जगजीवन राम की जीवनियां हैं। विचार की दृष्टि से इनमें 1950 की रचना ‘श्री रविदास भक्त की जीवन झांकी’ उल्लेखनीय है। इसमें संत रैदास की चमत्कारपूर्ण काल्पनिक कहानियों को कविता का आधार बनाया गया है। कवि उन्हें ‘रविदास भक्त’ कहता है, जो एक भ्रामक संज्ञा है। इसीलिये कवि ने कर्मफल को माना, जिसका रैदास ने खंडन किया था–

शुभ श्रेष्ठ कर्म रविदास भगत ने कीना।
यह बात जगत व्यख्यात परम पद लीना।।[1]

ब्राह्मणों ने लिखा है कि गंगा ने स्वयं प्रगट होकर रविदास भक्त को कंगन दिया। रविदास के पत्थर के सालिगराम तैरने लगे, जबकि दूसरे लोगों के काठ के बनवाये हुए डूब गये। कवि की दृष्टि में यह रविदास की भक्ति का चमत्कार था। यथा–

गंगा ने कंगन काढ़ हाथ से दीना।
जन्मजात को चूर-चूर तब कीना।।
श्री रविदास का सत्य जाचने आए।
इस गंगघाट पर सालिगराम तिराए।।
श्री रविदास जे पत्थर के बनवाए।
दूज लकड़ी के बनवाय अति हर्षाए।।
डालत ही न उठे धरा को सर के।
क्यों गये काठ के डूब तिरे पत्थर के।।[2]

एक ओर कवि के धार्मिक मन पर कर्मवाद और अवतारवाद का गहरा संस्कार था, तो दूसरी ओर कांग्रेस की वैचारिकी उनकी सामाजिक चेतना बन चुकी थी। इसी समय डॉ. आंबेडकर एक बार फिर उनकी स्मृति में आए। लेकिन इस बदलाव में भी उनके लिये शंबूक ‘हरिजन’ था और गुरु रविदास ने डॉ. आंबेडकर के रूप में अवतार ले लिया था। यथा–

रावन को मारा यहि भार था क्या।
शंबूक हरिजन पै प्रहार था क्या।।[3]
जिस समय वीर ने रण में शस्त्र उठाए।
गुरु रविदास अब भीमराव बन आए।।[4]

कवि दलित परंपरा और समस्याओं के प्रति भावुक तो था, पर उसकी सोच हिंदुत्व के दायरे को नहीं तोड़ पा रही थी। कवि के विश्वास वही थे, जो जनता में जड़ जमाये हुए थे। उन्हीं विश्वासों के साथ वह जनता में रविदास की प्रतिष्ठा कर रहा था–

चीर गात को दिया न देर लगायी।
तब सात जनेऊ काड़ दिये दिखलायी।।[5]

यह रविदास को ब्राह्मण सिद्ध करने की अतार्किक ही नहीं, हास्यास्पद कहानी भी है। कवि की समझ में इतनी सी बात नहीं आई कि शरीर को चीरने से आदमी की मृत्यु होती है, उसमें से जनेऊ नहीं निकलता। इस कविता से उन्होंने लोगों में यह अंधविश्वास भरा कि देखो, रविदास कैसे भक्त थे कि शरीर चीर कर जनेऊ निकाल दिया।

यह हीनता-बोध था, जिस पर कवि ने उच्चता-बोध की मिथ्या कहानियों का पर्दा डाला था। एक ऐसा ही पर्दा कवि ने चंद्रगुप्त मौर्य की प्रशंसा करते हुए डाला–

पाई थी भाई हमने भी कभी शाहनशाही। टेक
शाहनशाही पाई ज्यूं हमने तुमको आज बता दें हम।
तेइस सौ गये वर्ष बीत जब का कुछ हाल सुना दें हम।
मगध देश के महा पदम हुए यह तुमको समझा दें हम।
इनके पुत्र चंद्रगुप्त का किस्सा खोल सुना दें हम।
पाटलीपुत्र नगर जिसे सब अब पटना बतलाते हैं।
सुनो खुलासा हाल खोलकर उसका सभी सुनाते हैं।
चौंसठ फाटक बने शहर के पुखता सड़क बनाई।
पाई थी भाई हमने भी कभी शाहनशाही।।[6]

आगे, कवि चंद्रगुप्त को अपने पाले में करते हुए कहता है–

जो न होता चंद्रगुप्त कहां होता हिन्दुस्तान कहो।
देवनागरी कहां होती, कहां होते वेद-पुरान कहो।
अड़सठ तीर्थ कहां होते और यज्ञ हवन तप दान कहो।
मन्दिर ठाकुर द्वारे कहां और काशी का स्थान कहो।
तिलक जनेऊ कहां होते और चोटी का निशान कहो।
बंशीराम उस दिन को भूलकर मत इनको हैवान कहो।
यह दलित अछूत हरिजन ना, उन वीरों की संतान कहो।
अपनों को अपना करके जै अखंड हिन्दुस्तान कहो।
गोर्धन बिहारी लिखें करारी, साफ कहें समझाई।
पाई थी भाई हमने भी कभी शाहनशाही।।[7]

अगर तीर्थ, यज्ञ, हवन, वेद-पुरान और तिलक-जनेऊ का अस्तित्व चंद्रगुप्त के कारण है, तो इस ब्राह्मणवाद से दलित अस्मिता और मुक्ति का संबंध कैसे बनता है? कवि ऐसी कविताओं से ब्राह्मणों को प्रभावित करना चाहता है और वह भी इस सच्चाई के साथ कि उनकी सारी धर्म-संस्कृति दलितों के कारण है। पर यह सिर्फ फंतासी ही है।

आगे कवि बिहारीलाल हरित की कविता में एक और परिवर्तन आता है। वह जनवादी हो जाते हैं। यथा–

अब तो उठ करके आँखें खोलो,
रहेगा गफलत खुवाब कब तक।
लुटा के असमत जहाँ में अपनी,
फिरोगे खाना-खराब कब तक।
धर्म आड़ में शिकार खेलें,
जाल बनाया फसाना हमको।
खुदाई खाते में जातियों का,
छुपा रहेगा हिसाब कब तक।
हद तो आखिर हर शै की होती,
क्या जुल्म की हद कोई नहीं है।
दरबारे हक में मुजालिमों का,
तलब न होगा जवाब कब तक।[8]

निस्संदेह, यह कविता शोषित वर्ग के पक्ष में है और शोषक वर्ग के विरुद्ध। ‘श्री रविदास भक्त की जीवन झांकी’ पुस्तक में सिर्फ यही एक कविता है, जिसमें कवि फंतासी से बाहर यथार्थ की जमीन पर आया है।

बिहारीलाल हरित द्वारा रचित ‘श्री रविदास भक्त की झांकी’ तथा ‘अछूतों का पैगंबर’ का मुख पृष्ठ

‘चीन का मुकाबला’ हरित जी की देश-प्रेम में डूबी हुई वीर रस की कविता पुस्तक है। इसका मूल्य भी उन्होंने ‘देश-प्रेम’ रखा था, जिसका अर्थ निशुल्क वितरण माना जाता है। यह पुस्तक कब छपी थी, इसका कोई उल्लेख आवरण पृष्ठ पर नहीं है। उस दौर के दलित कवियों में यह बड़ी कमी थी कि वे पुस्तक को छपवाते समय उस पर सन्-तारीख डालने का ख्याल नहीं रखते थे। दरअसल, प्रकाशक उनकी पुस्तकों को छापते नहीं थे, सो उन्हें खुद ही अपने पैसे से छपवाना पड़ती थी। वे कवि थे, पर प्रकाशक नहीं थे, इसलिये प्रकाशन की औपचारिकताओं की जानकारी कम रखते थे। अतः यहां अनुमान लगाया जा सकता है कि कवि की यह रचना 1962 या उसके बाद की हो सकती है, जब चीन ने भारत पर हमला किया था।

पुस्तक के आरंभ में ‘चीन का मुकाबला’ शीर्षक से तीन शेर दिये गये हैं। यथा–

गिद्ध की भी वीरता है बीच में रामायण के।
रीछ बंदर भी लड़े हैं मेरे हिन्दुस्तान के।।
मर्द हो या औरत हो गनी हो या गदा हो।
प्यारा वही, हर हाल वतन पै जो फिदा हो।।
गौरव गुमान देश का बच्चों की शान पर।
इस देश के बच्चे सदा खेले हैं जान पर।।[9]

यहां कवि मुख्यधारा से जुड़ा है, जो हिंदुओं की है। उसने इस धारा के तहत उसने अपनी कविता को राष्ट्रवादी बनाने की कोशिश की है। वह राष्ट्र के अभिमान को जगाता है–

जाग रे जवान जाग, राष्ट्र के जवान जाग।
समय की पुकार है, तू नाहर के समान जाग।।
तेग तू उठाने उठ, जौहर तू दिखाने उठ।
शांति में तू पला, अशांति को मिटाने उठ।।
स्वदेश के विचार सुन स्वदेश की पुकार सुन।
अड़े खड़े हैं द्वार पै उस चीन के विचार सुन।।[10]

यह एक लंबी कविता है, जिसमें जवाहर लाल नेहरू, जगजीवन राम, राधाकृष्णन, जाकिर हुसैन और लाल बहादुर शास्त्री जैसे कांग्रेसी नेताओं का गुणगान किया गया है।[11] अवश्य ही यह कवि के कांग्रेस-प्रेम को दर्शाता है। कवि भारत की महिमा का बखान करते हुए चीन को ललकारता है–

नापाक लेकर के इरादे पाक भूमि में क्यों आए।
सिंह की यहां मांद है तुम गीदड़ों किसने बहकाए।।
चाऊ-माऊ बोलते तुम मनुष्यता से गिर पड़े हो।
कौन हो तुम मेरी सुंदर वाटिका में क्यों बड़े हो।।
जगत का यह गुरु है और शांति का सार है ये।
बर्फ मत समझो दबी हुई आग का अंबा है ये।।
मृत्यु बनेगी फूटकर ज्वालामुखी पर क्यों चढ़े हो।
कौन हो तुम … ।।[12]

चीन से युद्ध घमासान था, भारत की सेना के मुकाबले चीन के पास अधिक सैन्य बल और ज्यादा सशक्त हथियार थे, अतः भारत की कई चौकियों पर चीन ने कब्जा कर लिया था। चीन बढ़ता ही जा रहा था। भारतीय सेना और जनता निराशा में डूब रही थी। ऐसी स्थिति में हमारे दलित कवि बिहारी लाल हरित ने जवानों का खूब जोश बढ़ाया। यथा–

पवन हमेशा चलती है तूफान सदा ना चलता है।
यह माना कि तूफानी दौरे में भी सब कुछ हलता है।।
इसलिये नये तूफानों से हमको घबराना ना चाहिए।
चंद चौकियां हट जाने से ही डर जाना ना चाहिए।।
श्री रामचंद्र की कटक सैन भी कई बार संहार हुई।
किंतु दुनिया जाने इसको अंत में रावण की हार हुई।।
चार दिनों की चमक चांदनी आखिर में अंधियारी है।
सत्यमेव जयते भारत में अंतिम विजय हमारी है।[13]

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लेकिन चीन की लड़ाई में भारत की विजय नहीं हुई। भारत को पीछे हटना पड़ा और भारत के जितने भू-भाग पर चीन ने कब्जा कर लिया था, वह आज भी उसी के नियंत्रण में है। चीन से हम क्यों हारे? ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा असफल क्यों हुआ? अफसोस, कि इन सवालों पर हमें कवि के विचार नहीं मिलते।

हरित जी कोरे भावुक कवि नहीं थे, वरन् धर्म-दर्शन में भी उनका दखल था। उनकी दार्शनिक कविताएं हमें ‘ख्याल जीवन दर्पण’ में मिलती है। इस संग्रह के भी रचना समय का पता नहीं चलता। पर, हरित जी की पुस्तक-सूची के विज्ञापन में इस संग्रह का क्रम तीसरा है। मालूम होता है, इसकी रचना ‘चीन का मुकाबला’ काव्य से काफी पहले हो गई थी, क्योंकि सूची में इसका सोलहवां क्रम है। सूची में पहले क्रम पर ‘महात्मा गांधी की याद’ है और दूसरे क्रम पर ‘हिंद के सितारे’ है। इसमें ‘जाटव भजनावली’ (1938) और ‘अछूतों का पैगंबर’ (1946) का नाम नहीं है। इससे हम समझ सकते हैं कि यह सूची इन किताबों के बाद की है। इसमें ‘हिंद के सितारे’, जो दूसरे क्रम पर है, 1949 की रचना है, तब ‘ख्याल जीवन दर्पण’ अवश्य ही 1950 या इसके बाद में रचित होनी चाहिए।

‘ख्याल जीवन दर्पण’ में बीस कविताएं संकलित हैं, जिनमें दो को छोड़कर, सभी ‘ख्याल’ छंद में हैं। पहला ख्याल ‘देवो उपासना’ है–

हों शुद्ध आत्मा अभय ज्ञान गुण भर दो।
सब देव दया दृष्टि कर ऐसा वर दो।।

यहां कवि ‘आत्मा’ और ‘देव’ में विश्वास रखते हुए भी समता की गुहार लगाता है और जात-पांत को भ्रम मानकर उसे अतीत की वस्तु बना देने का वरदान मांगता है–

मैं तू का दावा होय दूर तम सारा।
सब जात पात का भ्रम चूर हो यह न्यारा।।
रिपु-मित नहीं दुष्ट होय कोई हमारा।
सम दृष्टा दृष्टि गोचर हो जब सारा।।
न्यारा न कोई राग-द्वेष सब हर दो।।[14]

सुना जाता है कि किसी समय भटियारी लोगों की सराय हुआ करती थीं। थके-हारे व्यापारी मुसाफिर उन सरायों में रात बिताते थे और भटियारी उन्हें लूट लेते थे। कवि ने इसी की उपमा लेकर शरीर को ‘सराय’ और मन को ‘भटियारा’ बनाया है। मन रंग-रूप, धन के प्रलोभनों में शरीर को भटकाता है और बड़े-बड़े तपधारी ऋषी-मुनि तक भटक जाते हैं। यथा–

तन है सराय भटियारा इसमें मन है।
तृष्णा भटियारी बनी हुई हरफन है।।
वह लूट मार प्रहार करें अति भारी।
ऋषि-मुनी यशी गुणी ठगे तपधारी।।
प्रलोभन रूपी रूप रंग और धन है।।
यहां बसें भले पर कान दबाकर रहते।
रहते सराय में नहीं किसी की कहते।।
कहते हैं उनसे जो सतगुर की लहते।
लहते जो गुरु मुख नहीं उन्हें यह दहते।।
कहते हैं बिहारी लाल कोई गुरु जन हैं।
तृष्णा भटियारी बनी हुई हरफन है।।[15]

यह ‘ख्याल’ कबीर के ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ पद का स्मरण कराता है, जिसमें सुर, नर, ऋषि, मुनि शीलों की चदरिया को ओढ़कर मैली कर देते हैं और सद्गुरु उसे जतन से ओढ़कर ज्यों की त्यों धर देते हैं। यह आजीवक दर्शन है, जो इस ‘ख्याल’ में बोल रहा है। यद्यपि कवि इससे भिज्ञ नहीं है। पर, कबीर व रैदास की मौखिक परंपरा से यह धारा उस तक पहुंच चुकी थी। उसने ‘तृष्णा’ में चरित्रहीन नारी का अक्स ऐसे ही नहीं देख लिया था–

ना टिके सबर से घर में कलहारी तू।
सब ठगे दिखाकर रूप चपल नारी तू।।[16]

कबीर का आजीवक-दर्शन जीव और ब्रह्म को दो नहीं मानता, यथा, ‘नाम अनाम रहत है नित ही दूजा तत्व न होई’ और ‘अरे भाई दोइ कहा सो मोहि बताओ, बिचिही भरम का भेद लगावौ।’ और भी– ‘कहै कबीर तरक दोइ साधै, ताकी मति है मोटी।’[17]

बिहारी लाल हरित का कवि भी अपने एक ‘ख्याल’ में यही मत प्रकट करता है। यथा–

जीव ब्रह्म के बीच भ्रम परदा है।
क्या नजर पड़े जब दर्पण पै गरदा है।।
अध्यास हुई दुरमत जब हट जावेगा।
सम दृष्टि दृष्टा बोध तू तब पावेगा।।
जब हटे भ्रम तब नूर नजर आवेगा।
फिर बिहारी लाल नहीं जीव तू कहलावेगा।।
पावेगा केवल ब्रह्म नहीं करदा है।
क्या नजर पड़े जब दर्पण पै गरदा है।।[18]

एक अन्य ‘ख्याल’ में कवि ने मनुष्य को बनजारे की संज्ञा दी है, जो सौदा बेचने को आया हुआ है। उसने जिस साहूकार से पूंजी ली, उसका सूद भी नहीं पहुंचाया। यहां ‘साहूकार’ ईश्वर है और ‘सूद’ ‘सतकर्म’ है। कवि कहता है कि यदि मनुष्य ने अब भी नेक कमाई नहीं की, तो अंत में उसे पछताना ही पड़ेगा। यथा–

तू बनजारा सौदा भरने को यहां पर आया।
किन्तु अब तक नहीं माल कोई भर पाया।।
जिस साहूकार के यहां से तू धन लाया।
उसका तूने नहीं अब तक सूद चुकाया।।
उस साहूकार को देनी होगी हुंडी।
आते ही सम्मन होने लग जाये ढुंडी।।
वह पुलिस कड़ी समझे ना गुण्डा गुंडा।
सब पता उसे चाहे देले ताला कुंडी।।
अब भी भरले कुछ माल, समय जाता है।
यह समय गया फिर हाथ नहीं आता है।।
यहां लुटे बहुत कोई बचने नहीं पाता है।
कहै बिहारी लाल आखिर को पछताता है।।
आता ना समय फिर हाथ अंत को रोया।
करी कमाई खूब मूल भी खोया।।[19]

कवि के इस ‘ख्याल’ पर कबीर के इस पद की छाया देखी जा सकती है–

मन रे कागद कीर पराया।
कहा भयौ व्यौपार तुम्हारै, कल तर बढ़ै सवाया।।
बड़े बौहरे सांठो दीन्हौ, कल तर काढ्यो खोटै।
चार लाख अरु असी ठीक रे जनम लिष्यो सब चोटै।।
अब की बेर न कागद कीरयौ, तौ धर्म राई सूं तूटै।
पूंजी बितड़ि बंदि ले दैंहै, तब कहै कौन के छूटै।।
गुरुदेव ग्यांनी भयौ लगनिया, सुमिरन दीन्हौ होरा।
बड़ी निसरना नाँव रामम की, चढ़ि गयौ कीर कबीरा।।[20]

दर्शन की धारा में कवि काफी हद तक आजीवक परंपरा का है। यह परंपरा गृहस्थों की है, गृहत्यागी संन्यासियों और योगियों की नहीं है। कबीर कहते हैं–

बागों में ना जा, तेरी काया में गुलनार
घर में जोग भोग घर में ही घर तज बन नहिं जावै,
घर में जुक्त मुक्त घर ही में, जो गुरु अलख लगावै।[21]

इसी आधार पर, कबीर ने नंगे नागा साधुओं, मूंड मुड़ाकर कानों में मंजूषा पहनने वाले, देह पर भस्म लपेटे, जटा बढ़ाये योगियों की आलोचना की है।[22]

कुछ ऐसा ही विचार हम बिहारी लाल हरित के ‘ख्याल सच्ची खोज’ में भी देखते हैं। यथा–

तेरे नाम पर लाखों ही नरमुंड मुंडाए फिरते हैं।
जटा रखाए फिरते हैं, कपड़े रंगवाए फिरते हैं।।
त्याग दिया घर बाहर कुटुम्ब परिवार से नाता तोड़ा है।
सुख-सम्पत्ति को छोड़ चले संतान से नाता तोड़ा है।।
पीतांबर कुछ श्वेतांबर बनकर के सब कुछ छोड़ा है।
चले खोजने नगर-नगर नयी डगर का नया मरोड़ा है।।
कर मंडल गुलशफा हाथ में खप्पर ढाए फिरते हैं।
तेरे नाम पर लाखों ही नर मूँड़ मुड़ाए फिरते हैं।।[23]

हिंदू समाज में ऐसे लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है, जो कमाकर खाने के बजाए, भीख माँग कर खाने के लिये घर-परिवार त्याग कर साधु बन जाते हैं। पर, कवि ने इसका एक बड़ा कारण बेकारी अर्थात बेरोजगारी को भी माना है। ऐसे बेकार लोगों को कवि पशुओं में शुमार करता है। यथा–

सब कहें निकम्मा कोई करे ना यारी।
दुनिया में लोगों बुरा रोग बेकारी।।
बेकार मनुष्य का मान नहीं होता है।
बिन अर्थ के विकसित ध्यान नहीं होता है।।
बिन ध्यान के नर इन्सान नहीं होता है।
बिन मान के बुद्धिमान नहीं होता है।।
बिन ज्ञान के होती पशुओं में सुम्मारी।
दुनिया में लोगों बुरा रोग बेकारी।।[24]

कवि की दृष्टि में बेकारी का एक ही उपचार है, श्रम। कवि ने श्रम के महत्व को स्थापित करते हुए कहा–

श्रम सादगी सत्य वचन से सुख सम्पत्ति पाता इन्सान।
कारण तीन पतन के होते, अय्याशी आलस अभिमान।।
मनुष्य मजूरी की कहावत है, जो करता सो पाता है।
श्रम मनुष्य का उद्यम करना यह निष्फल नहीं जाता है।।
कर्म कहा प्रधान जगत में, कर्मों का गुण गाता है।
बिना श्रम भक्ति नहीं होती कष्टों को सह जाता है।।
श्रम कर्म के बिना योग में न किसी ने पाया पद निर्वान।
श्रम सादगी सत्य वचन से सुख सम्पत्ति पाता इंसान।।[25]

कवि निर्गुणवादी दर्शन का हो गया है, और कबीर की तरह ईश्वर को अपने ही भीतर देखता है, न काशी में, न काबा में, न मंदिर में और न मस्जिद में। यथा–

काबे में नहीं, काशी में नहीं, भूखे नंगों की याद में है।
मंदिर में नहीं, मस्जिद में नहीं, इक खुदा तेरे इतकाद में है।।

कवि की दृष्टि में पूजा, नमाज, तीर्थ, मेले, यज्ञ, वेद, पुराण, कुरान, तौरत-जब्बूर किसी में भी परमात्मा नहीं है–

गंगा में नहीं, यमुना में नहीं, न गया, गोमती मेले में है।
सजदे में नहीं, दरगाह में नहीं, न पांचों वक्त के झमेले में है।।
वेदों में ना उनकी रिचाओं में है ना उपनीषद पुरानों के रेले में है।
यज्ञों में ना, वैदिक बलि में मिले यजुमान गुरु में ना चेले में है।।
तौरेत जब्बूर कुरान में नहीं ना कुरबानी न कलमा सइयाद में है।।[26]

कवि की इन पंक्तियों में कबीर के इस पद का ही विस्तार दिखायी देता है—

मोकों कहां ढूढ़े बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में।।
ना तो कौने क्रिया-कर्म में, नहीं योग बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, सब स्वांसों की स्वांस में।।[27]

बिहारी लाल हरित ने अपने इस ‘ख्याल’ में कबीर दर्शन को इतनी बेबाकी से प्रस्तुत किया है कि उनका यही एक अकेला ‘ख्याल’ उनको अपने दौर के तमाम दलित कवियों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और अद्वितीय बना देता है। जब वे श्वेताम्बर, पीताम्बर, हीनयान-महायान, और बुद्धधर्म को भी खारिज करते हैं, तो इसमें क्या संदेह रह जाता है कि वे अंत में आजीवकों के श्रमण परंपरा में चले गए थे। यथा–

श्वेताम्बर में न पीताम्बर में ना,
चौबिस तीर्थ औतारों में है।
महायान के दोनों ही यानों में कहां,
बुद्ध बुद्धी के शुद्ध विचारों में है।।
बुतों में ना बुतखानों में है,
ना घंटा संख चिकारों में है।
काम क्रोध मद लोभ में ना,
नहीं भ्रम भूत अहंकारों में है।।[28]

आजीवक चेतना का यह मूल तत्त्व कवि को दलित-बहुजन संतों की वाणी से मिला है, न वेद और न बाइबिल-कुरान से, यहां तक कि ‘गुरुग्रंथ’ से भी नहीं–

विश्वास में सच्चे यकीं में मुक़ी, दुनियावी झमेलों से न्यारा रहा।
न्यारा है लेकिन रमेति रमा अल्लाहे अलख वही प्यारा रहा।
वेदों का कहे बाइबिल का, कोई गुरुग्रंथ, कुरां का सहारा रहा।
सन्तों में ही कुंजी विचारों की है भावों से भरा जग सारा रहा।।[29]

यहां कवि सारे दलित-बहुजन समाज के संतों के पथ पर चलने का आह्वान करता है। वह ‘होली’ को प्रतीक बनाकर कहता है कि अब तक जो हुआ, सो हुआ, पर अब संतों के रंग में ही होली होनी चाहिए। हिंदुओं के अश्लील और यौनाचार की होली का खंडन करते हुए कवि ने कहा–

जो होली सो होली ऐ मन अब तो ऐसी होली कर।
प्रेम अबीर उड़ा संतों में, सत संगत की रोली कर।।
खेला था अशलील खेल नित, मतवालों की टोली कर।
प्रेम अबीर उड़ा संतों में, सत संगत की रोली कर।।[30]

नैतिक और सदाचार का जीवन कवि के धर्म का मूल आधार है, यही उसकी मूल शक्ति भी है। कबीर भी कहते हैं कि मनुष्य जन्म दुबारा नहीं मिलता। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह अन्य योनियों में पैदा होता है। इसका अर्थ यह है कि मनुष्य का यही अंतिम जीवन है, उसे पुनः संसार में नहीं आना है। इसलिये कवि की चिंता यह है कि मनुष्य अपने दुर्लभ जन्म को दुराचारों में नष्ट क्यों कर रहा है? यथा–

मिला मनुष्य जन्म मुश्किल से मत खोवे तू।
तप कर विषयों में विष को मत बोवे तू।।[31]
मद्य चढ़ा हुआ है तन मन धन यौवन का।
माना कि मालिक बना हुआ तू मन का।।
वैसे तो फणिहर दीख रहा हरफन का।
कुछ नहीं भरोसा है मूर्ख इस तन का।।
मन का राजा मतवाले मत होवे तू।
तप कर विषयों में विष को मत बोवे तू।।[32]

आश्चर्य होता है कि आजीवक धर्म-दर्शन का इतना विचारवान कवि राजनीति के मैदान में गांधीवादी और ‘हिंदूवादी’ कैसे हो गया? यथा–

ये दो बेकदरे करे मुसीबत भरे हरिजन खादी।
इन दोनों के उद्धार हेतु हुए गांधी।।
ले सत-अहिंसा की ढाल धर्म की पाल कमर कस बांधी।
फिर चली देश में क्रान्तिकार की आंधी।।[33]

वर्ष 1974 में कवि की 62वीं वर्षगांठ के अवसर पर ‘दिल्ली प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन’, शाहदरा मंडल के द्वारा हरित जी का अभिनंदन किया गया था। इस अवसर पर, सम्मेलन ने एक ‘जनकवि श्री बिहारी लाल हरित अभिनंदन स्मारिका’ प्रकाशित की थी, जिसके प्रधान संपादक भरतराम भट्ट शास्त्री थे तथा संपादक कैलाश चन्द्र शर्मा एवं सतीश चन्द्र कमलाकर थे। ‘स्मारिका’ में ‘जनकवि श्री बिहारी लाल हरित का जीवन-परिचय’ शीर्षक से जो संपादकीय लेख लिखा गया है, उस के अनुसार हरित जी संतमत के अनुयायी थे। किंतु समाज-सुधार उनकी कविता का मूलाधार था।[34]

दरअसल संतमत और समाज-सुधार दो अलग-अलग चीजें हैं। समाज-सुधार के लिये संतमत का अनुयायी होना जरूरी नहीं है, पर संतमत के अनुयायी के लिये समाज का सुधार जरूरी है। बिहारी लाल हरित कबीर आदि संतों के विचारों का अनुसरण करते थे। इसलिये उनकी पहली प्राथमिकता मानव-मानव के बीच समानता और भ्रातृत्व को स्थापित करने की थी। इसलिये बिहारी लाल हरित का कवि मनुष्यों में मौजूद जाति-भेद का कटु आलोचक है। वह कहता है–

नाम पूछ काम पूछ हुनर करामात पूछ।
सम्यक पथगामी बन, चरित्र की बात पूछ।।
बहुधा है परिवार और मनुष्य योनि एक है।
हरित होकर मिलन कर, मत आदमी की जात पूछ।।[35]

कवि इस बात से बेहद चिंतित है कि आजादी मिलने के बाद भी छुआछूत क्यों है? वह अनेकता में एकता चाहता है और इसके लिये हिंदुओं को इस्लाम से सीख लेने की शिक्षा देता है। यथा–

आजाद है परतंत्रता की बेड़ियों को काट सब।
देश का कलंक जीवित, आज भी ये छूत क्यों?
सीख, उस इस्लाम के विधान से ही सीख हिंदू।
अनेकता में एकता का प्रेम है प्रतीक सिंधू।।
जाति पर छुआछूत, घृणा का न अंक बिंदू।
यह विचार बाड़ में भी नींव यह मजबूत क्यों है?[36]

जो लोग वर्ण-व्यवस्था और जातिभेद को हिंदू समाज की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था बताने का दावा करते हैं, उनको कवि फटकारता हुआ कहता है–

करके खुदी को दूर खुद मजबूत बन के देख।
दो चार दिन के वास्ते अछूत बनके देख।
सिर पर जरा रख टोकरा मैले का टपकता।
गंदगी में गढ़ जरा, सपूत बनके देख।
दो चार दिन के वास्ते अछूत बनके देख।।[37]

ये पंक्तियां उन लोगों के लिये नसीहत हैं, जो वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ एक शब्द भी सुनना नहीं चाहते। जनकवि बिहारी लाल हरित ने इस कविता के माध्यम से दलित साहित्य के विरोधियों को आईना दिखा दिया है। कवि यहां अपनी इस स्थापना में पूरी तरह सफल हुआ है कि दलितों की पीड़ा उस साहित्य में कैसे स्थान पा सकती है, जिसका रचनाकार दलित नहीं है? वह एक दलित की पीड़ा को कैसे अनुभव कर सकता है, जो वर्ण-व्यवस्था में ऊंचे पायदान पर बैठा है? हरित जी की जन-चेतना में दलित चेतना का उभार निस्संदेह उनके आत्म-संघर्ष को रेखांकित करता है।

(आलेख समाप्त)

संदर्भ :
[1] ‘श्री रविदास भक्त की जीवन झाँकी’, बिहारी लाल हरित, शाहदरा, सूबा, देहली, संस्करण सन् उल्लेख नहीं, पृष्ठ 3
[2] वही, पृष्ठ 3-4
[3] वही, पृष्ठ 5
[4] वही, पृष्ठ 6
[5] वही, पृष्ठ 4
[6] वही, पृष्ठ 10
[7] वही, पृष्ठ 11-12
[8] वही, पृष्ठ 14-15
[9] ‘चीन का मुकाबला’, लेखक तथा प्रकाशक- गोरधनदास बिहारी लाल हरित, शाहदरा, दिल्ली-32, पृष्ठ 2
[10] वही, पृष्ठ 5
[11] वही, पृष्ठ 6
[12] वही, पृष्ठ 10-11
[13] वही, पृष्ठ 14-15
[14] ‘ख्याल जीवन दर्पण’, बिहारी लाल हरित, तेलीवाड़ा, शाहदरा, दिल्ली, पृष्ठ 3
[15] वही, पृष्ठ 6
[16] वही
[17] कृपया कबीर के ये पद देखें–
(क) साधो यह मुरदों का गाँव
(ख) अरे भाई दोइ कहाँ सो मोहि बतायौ
(ग) प्यारे राँम मनहिं मनां
-’कबीर ग्रंथावली’, सं. श्याम सुन्दर दास, पृष्ठ 82
[18] ‘ख्याल जीवन दर्पण’, पृष्ठ 8-9
[19] वही, पृष्ठ 12-13
[20] ‘कबीर ग्रंथावली’, पृष्ठ 94
[21] ‘समग्र कबीर’ (प्रथम खंड), संपादक- डॉ. युगेश्वर, पृष्ठ 769
[22] ‘कबीर ग्रंथावली’, पृष्ठ 99, ये पद देखिए–

  1. का नाँगे का बाँधे चाँम, जो नहीं चीन्हसि आतम राँम।
  2. हरि बिन भरमि बिगूते गंदा।
  3. चलौ बिचारी रहौं सँभारी कहता रँज पुकारी।

[23] ‘ख्याल जीवन दर्पण’, पृष्ठ 13-14
[24] ‘ख्याल जीवन दर्पण’, पृष्ठ 13-14
[25] वही, पृष्ठ 20 , यहां प्रसंगवश यह बताना आवश्यक प्रतीत होता है कि 1980-81 में, जब मैं दिल्ली में मोतिया खान के बुद्ध विहार में रहता था, तो कवि राजपाल सिंह राज के साथ कई बार मुझे बिहारी लाल हरित जी से भेंट करने का अवसर मिला था। उनसे घंटों बातें होती थीं और अनेक विषयों पर। ऐसी ही एक भेंट में, मुझे हरित जी ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात बतायी थी। एक बार जगजीवन राम जी ने उनसे कहा था कि यदि हम भारत के मूलनिवासी थे, तो हमारा कोई मूल धर्म भी होना चाहिए और उसे आर्यों के धर्म से पुराना होना चाहिए। वे वैदिक और श्रमण दोनों धर्मों को आर्य धर्म मानते थे। इस प्रकार, जगजीवन राम का मत था कि मूलनिवासियों का धर्म न वैदिक धर्म था और न श्रमण धर्म। हरित जी ने बताया कि बाबू जी के अनुसार आर्य धर्म ज्ञान प्रधान था, जबकि मूलनिवासियों का धर्म कर्म प्रधान था।
[26] ‘ख्याल जीवन दर्पण’, पृष्ठ 24
[27] ‘कबीर’, हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ 179
[28] ‘ख्याल जीवन-दर्पण’, पृष्ठ 25
[29] वही
[30] वही, पृष्ठ 26
[31] वही, पृष्ठ 27
[32] वही, पृष्ठ 28
[33] वही, पृष्ठ 18
[34] ‘जनकवि श्री बिहारी लाल हरित अभिनन्दन समारोह-स्मारिका’, सम्पादक कैलाशचन्द्र शर्मा एवं सतीशचन्द्र ‘कमलाकर’, दिल्ली प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन, शाहदरा-मंडल, दिल्ली, 23 दिसम्बर 1974, पृष्ठ 4
[35] ‘हिन्दी काव्य में दलित काव्यधारा’, माताप्रसाद, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, संस्करण प्रथम- 1993, पृष्ठ 103
[36] वही, पृष्ठ 104-105
[37] वही, पृष्ठ 105

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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