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एक दलित बस्ती की कथा : कैथ का पेड़ (तीसरा भाग)

मुहल्ले में अगर कोई वर्ग सर्वहारा था, तो वह बरवालों का समुदाय था। बाकी समुदायों के पास कुछ न कुछ काम के औजार होते ही थे, जैसे कहारों के पास ठेले थे, पालकी थी, तो तेलियों के पास करछी, छन्ना, घोटा, कढ़ाह आदि और जाटवों के पास तो जूता बनाने के औजार रहते ही थे। पढ़ें, कंवल भारती द्वारा लिखित आत्मकथात्मक शृंखला का तीसरा भाग

[दलित साहित्य में आत्मकथाओं का खास महत्व रहा है। सामान्य तौर पर आत्मकथाओं के लेखक अपने जीवनानुभवों को उद्धृत करते हैं। इसमें उनकी सफलताएं व असफलताएं भी शामिल होती हैं। कंवल भारती ने आत्मकथा के बजाय सामुदायिक स्तर पर कथा लिखी है। अपनी इस कथा में वह अपने पैतृक शहर रामपुर के उस मुहल्ले के बारे में बता रहे हैं, जहां उनका जन्म और परवरिश हुई।]

दूसरे भाग के आगे 

जैसा कि मैं बता चुका हूं, ‘कैथ का पेड़मेहनतकश मजदूरों का मुहल्ला था, जो सीधे-सादे लोग थे, न राजनीति जानते थे और ना ही छल-कपट। वे दिनभर कड़ी मेहनत करने के बावजूद रोटी-कपड़े को तरसते थे। उसी में वे कर्जदार हो जाते थे और कर्ज की चिंता में नशा करने लगते थे, जो बाद में उनकी चिता बना देता था। नशे के दो स्रोत थे- स्पिरिट और कच्ची शराब। हमारी बाखर के पीछे, नाले से सटा हुआ बगिया नाम से एक मुस्लिम मुहल्ला था। वहां एक घर में कच्ची शराब तोड़ी जाती थी। उसे तोड़ने और बेचने वाला वह आदमी भला-मानुस नहीं था, बल्कि उसकी गिनती बदमाशों में होती थी। मैं उसका नाम जानता हूं। पर यहां उसे लिखना उचित नहीं समझ रहा। उस अवैध शराब को, उसके आदमी साइकिल की ट्यूब में भरकर शाम के समय नाले के पास खड़े होकर बेचते थे। कीमत भी सस्ती थी– पूरा गिलास आठ आने में और आधा चार आने में। हमारे मुहल्ले के अलावा दूसरे मुहल्लों के लोग भी इस अवैध शराब को पीने आते थे। पैसे नहीं होते थे, तो वह उधार में भी शराब दे देता था और जब कर्जा ज्यादा हो जाता, तो वह उससे कहता कि मेरा पैसा दे या मेरा काम कर।जो पैसा नहीं दे सकता था, उसे वह अपने ही अवैध धंधे में लगा लेता, बदले में उसका कर्जा भी खत्म हो जाता था और दारू तो मुफ्त में मिल ही जाती थी। मैंने वहां कभी पुलिस को आते नहीं देखा था।

आर्थिक रूप से मुहल्ला इतना विपन्न था कि एक-दो अपवाद को छोड़कर कोई घर पक्का नहीं था और न किसी घर में पानी का नल और बिजली थी। हर बस्ती में एक कुआं था, जिसे हर जाति का कुआं भी कहना गलत न होगा। नहाने-धोने, पीने और खाना बनाने का सारा काम उस कुएं के पानी से ही होता था। किसी भी कुएं पर छतरी नहीं थी, जिसकी वजह से बरसात में कुआं ऊपर तक भर जाता था और कोई जानवर भी उसमें गिरकर मर जाता था। बरसात का पानी तो उलीच दिया जाता था, पर नीचे का पानी दूषित होकर काम लायक नहीं रह जाता था। तब कुएं को उधवाया जाता था। बरसात में अक्सर उधैये लोग बस्तियों में आवाज लगाते घूमते रहते थे। एक उधैया कुएं में उतरता था और दूसरा बाहर बाल्टी में रस्सी बांधकर नीचे डालता था। नीचे वाला उधैया उस बाल्टी में कीचड़-गाद भरता था और ऊपर वाला बाल्टी खींचकर उस गाद-कीचड़ को नाली में उड़ेलकर बाल्टी को फिर कुएं में डाल देता था। यह क्रम तब तक चलता था, जब तक कि सारी कीचड़-गाद निकलकर पानी साफ न हो जाता था। फिर कीड़े मारने के लिए उसमें लाल दवाई डाली जाती थी। उधाई में कुएं में कुछ गिरी हुई चीजें भी मिल जाती थीं, जैसे गिलासी, लोटा, पैसा, जो हम बच्चों से गिर जाते थे, और पीतल या कांसे का कलसा, जो रस्सी की गांठ खुलने से, कुएं में गिर जाता था। कभी कभार बाल्टी भी कुएं में गिर जाती थी, पर उसे कांटे से निकाल लिया जाता था। कांटा हमारी बखरी में ही था, जिसे दूसरी बस्ती वाले भी जरूरत पर मांग कर ले जाते थे। लेकिन कलसे और अन्य वस्तुएं कुओं की सफाई के वक्त ही निकलती थीं, जब उधैये आते थे। उधैये की मजदूरी बखरी के सारे घर मिलकर देते थे। लेकिन बाखरों के ये कुएं मौत के कुएं भी थे, जिनमें गृह-क्लेश से तंग आकर स्त्री-पुरुष (अधिकतर स्त्रियां) आत्महत्या करने के इरादे से उनमें कूद जाते थे। पता चलने पर ऐसे लोगों को तुरंत बचा भी लिया जाता। कुएं में उतरकर बचाने वाले ऐसे कुशल लोग हमारे मुहल्ले में ही थे। सुना जाता है कि ऐसी एक घटना कभी मुहल्ले में हो चुकी थी, पर मैं उसका साक्षी नहीं हूं।

स्त्री और पुरुष जीवन-रथ के दो पहिए हैं, जिनमें अगर एक भी अक्षम हुआ, तो जीवन की गाड़ी नहीं चलती। पर, मेरे मुहल्ले में स्त्री-पुरुष के साथ बच्चे भी मिलकर जीवन की गाड़ी चलाते थे। फिर भी वे कोई बहुत अच्छा जीवन नहीं जीते थे, बस किसी तरह निर्वाह किए जा रहे थे। शुरुआत कहारों से ही करूं, तो उनमें कुछ पालकी ढोने वाले थे, जो मुस्लिम शादियों में दुल्हन को, तो कभी दूल्हे को भी पालकी में बैठाकर उसे कंधों पर ढोकर ले जाने का काम करते थे। एक पालकी में चार लोग लगते थे, दो आगे और दो पीछे। पालकी बहुत भारी होती थी, जिसे वे अपने कंधों पर मोटा कपड़ा रखकर उठाते थे। उन दिनों संपन्न मुसलमानों में नेग और दहेज के सामान को जुलूस की शक्ल में सार्वजनिक प्रदर्शन करते हुए ले जाया जाता था। ऐसी बरातों में आगे-आगे बैंड बाजा चलता था, उसके पीछे दूल्हा या दुल्हन की पालकी लेकर कहार चलते थे और उसके पीछे एक कतार में कुछ बाल मजदूर चलते थे, जिनके हाथों में नेग या दहेज का एक-एक सामान होता था, मेवे वगैरा के थाल भी होते थे, जो उनके सिरों पर रखे होते थे। आसपास की मुस्लिम शादियों में ये बाल मजदूर हमारे ही मुहल्ले के कहार और जाटव बच्चे होते थे। मुझे यह स्वीकार करने में कोई हीनता-बोध नहीं हो रहा है कि उनमें एक बाल मजदूर मैं भी हुआ करता था। इस मजदूरी को हम खौन ढोना’ कहते थे। खौन दहेज के सामान को सिर पर रखकर ले जाने का नाम था। हमारी बस्ती में जब कोई खौन ढोने के लिए बुलाने आता, तो मेरी मां मुझे भी उसके साथ कर देती थी। खौन ढोने की मजदूरी चवन्नी मिलती थी।  

हिंदुओं की बारातें रात में चढ़ती थीं, जिनमें गैस की लालटेनें जलती थीं। हिंदू बारातें आज भी रात में चढ़ती हैं, पर आज रोशनी के लिए बिजली के लट्टू और झालरें बरात के साथ-साथ चलती हैं और उन्हें बिजली देने के लिए जेनरेटर भी साथ चलता है। पर, उन दिनों ये सुविधाएं नहीं थीं। तब रोशनी के लिए कई सारी गैस की लालटेनें बारात के साथ चलती थीं। इन लालटेनों में मिट्टी का तेल भरा जाता था और उनमें मेन्टल बांधकर जलाया जाता था। फिर हर एकाध घंटे के बाद उनमें पम्प से हवा भरी जाती थी। यह पम्प लालटेन में ही लगा होता था। शहर में तीन दुकानें मुझे याद हैं, जहां से ये लालटेनें सप्लाई होती थीं। दो दुकानें बाजार नसरुल्लाह खां में थीं, और ये दोनों पुलिस चौकी के सामने थीं। तीसरी दुकान मिस्टन गंज में हिन्दुस्तान प्रेस के बगल में थी। आज वहां न हिन्दुस्तान प्रेस है और न वह लालटेनों वाली दुकान है। समय परिवर्तनशील है, विकास का पहिया चलता ही रहता है। खैर, मैं लालटेनों की बात कर रहा था, जिन्हें उठाकर बरात में ले जाने के लिए दलित गरीब बस्तियों से बाल मजदूरों को बुलाया जाता था। बाल मजदूर इसलिए कि एक तो बड़े मजदूर दिन भर काम करने के बाद रात में फिर से काम करने के लायक नहीं रहते थे और दूसरे इसलिए कि बाल मजदूरों को वे चवन्नी-अठन्नी देकर ही अपना काम चला लेते थे। ये बाल मजदूर उन्हें हमारी बस्तियों से ही सबसे ज्यादा मिलते थे। मैं यह सब इतने विश्वास से इसलिए लिख रहा हूँ, क्योंकि मैंने इन तीनों दुकानदारों के यहां मजदूरी की थी। हमारी बस्ती से डालचंद, शंकर, ललता और मैं यहां मजदूरी करने जाते थे। हम रात को 6-7 बजे दुकान से लालटेनें उठाते थे और उन्हें लेकर जहां बारात चढ़ती थी, वहां पैदल ही पहुंचते थे। एक बार सिविल लाइंस में बारात थी, और हम मिस्टर गंज से पांच किलोमीटर सिविल लाइंस तक पैदल ही कंधों पर लालटेनें लेकर गए थे। वहां पहुंचकर लालटेनें जलाई गईं, उन्हें कंधें पर रखकर हम बरात के साथ चले- कभी बैंड बाजे वालों के साथ, कभी दूल्हा के घोड़े के साथ तो कभी बारात में चलने वाले स्त्री-पुरुषों के बीच। जैसे-जैसे बारात आगे बढ़ती, हमें अपने घर पहुंचने की मंजिल करीब आती दिखती थी। हमें उस समय सबसे ज्यादा पीड़ा लालटेन के ढक्कन के छेदों से निकलने वाली आग की लपटों से होती थी। गर्मियों में तो ये लपटें कनपटी तक को गरम कर देती थीं, जिससे बचने के लिए बार-बार कंधा बदलना पड़ता था। एक बार तो मुझे इस मजदूरी ने रुला दिया था। वह बारात भी सिविल लाइंस में थी, जिसमें मिलिटरी का बैंड बज रहा था। उस समय मेरे पैरों में फुंसियां निकली हुई थीं और एकाध हाथ में भी थी। लालटेन से निकलने वाली आग की लपटें मेरी पीड़ा को बढ़ा रही थीं। बरात धीरे-धीरे कछुआ की चाल से आगे बढ़ रही थी और मैं पीड़ा से बिलबिला रहा था, क्योंकि मेरी फुंसियां तर्रा रही थीं। मन करता था कि लालटेन फेंककर घर भाग जाऊं, और अम्मा को सुनाऊं कि आठ आने-बारह आने के लिए मुझे यहां तू क्यों भेजती है? किसी तरह बारात से निबट कर हम रात को बारह बजे लालटेनें लेकर लालटेन वाले की दुकान पर पहुंचे। दुकानदार ने हमसे लालटेनें लेकर दुकान में रखने के बाद हम सब बाल मजदूरों को एक-एक पुड़िया थमाकर चलता कर दिया। वह पुड़िया ही रात की हमारी मजदूरी थी। दुकानदार ने उस पुड़िया को खोलने को मना किया था, कहता था, घर जाकर खोलना। लेकिन हमारी टोली में शामिल शंकर लाल ने पुड़िया खोलकर हंगामा खड़ा कर दिया था। पुड़िया में अठन्नी थी, जबकि हमें बारह आने की मजदूरी पर लाया गया था। दुकानदार का भांडा फूटने पर वह हमारे साथ बदमाश की तरह पेश आने लगा था। तब हमने वहां से चुपचाप चले आने में ही खैर समझी थी। दुकान से घर आते-आते हमें रात का एक बज गया था। मैं अम्मा को अपने सात घंटे की यंत्रणा की उजरत की पुड़िया थमाकर रोटी खाकर सो गया था।

मुहल्ले में अगर कोई वर्ग सर्वहारा था, तो वह बरवालों का समुदाय था। बाकी समुदायों के पास कुछ न कुछ काम के औजार होते ही थे, जैसे कहारों के पास ठेले थे, पालकी थी, तो तेलियों के पास करछी, छन्ना, घोटा, कढ़ाह आदि और जाटवों के पास तो जूता बनाने के औजार रहते ही थे। दर्जियों के पास भी सूई-धागा और कैंची से लेकर सिलाई मशीन तक थी। बस, बरवाल ही ऐसा समुदाय था, जिसके पास काम का कोई औजार नहीं था, अगर थे भी तो नाम मात्र के, जैसे सूप और थपनी।  लेकिन सबसे कड़ी मेहनत का काम वे ही करते थे। उनमें अधिकतर लोग पल्लेदारी का काम करते थे, सिर्फ मर्द ही नहीं, औरतें भी। शहर की अनाज मंडी, जो आज भी गंज के नाम से जानी जाती है, इन्हीं कमेरों के बल से चलती थी। एक-एक कुंतल की अनाज की बोरियां यही लोग अपने कंधों पर लादकर ट्रकों से गोदाम तक और गोदाम से ग्राहकों तक पहुंचाते थे।  अनाज को छानने-फटकने, बीनने और साफ करने का काम उनकी औरतें करती थीं। आज क्या स्थिति है, यह मुझे नहीं पता। शिक्षा ने विकास के द्वार सबके लिए खोले हैं, और मुझे लगता है कि बरवालों की वर्तमान पीढ़ी ने भी शिक्षा से जरूर लाभ उठाया होगा। पर, किसी भी जाति का पूरा समुदाय न कभी शिक्षित हुआ है और न पूंजीवादी व्यवस्था होने देती है। यह समुदाय आज भी गंज में ही पल्लेदारी करता हुआ मिल जाएगा।

एक दलित बस्ती (फाइल फोटो)

शहर में बरवालों की दो बस्तियां हैं, एक हमारे कैथ का पेड़मुहल्ले में और दूसरी आर्य समाज मंदिर से आगे तबलची मुहल्ले में थाना हजियाना के पास। कैथ का पेड़में भी वे जाटव बस्ती से सटकर रहते हैं और तबलची मुहल्ले में भी उनकी बस्ती जाटव बस्ती के पास ही है। कुछ बरवाल औरतें अनाज फटकने और साफ करने के अलावा छतें कूटने का काम भी करती थीं। उस समय तक मकानों पर सीमेंट का लिंटर डालने का दौर नहीं आया था। उन दिनों मकानों में कड़ियों की छत डाली जाती थी। कड़ियां शाल की होती थीं। छत पर कड़ियां रखने के बाद उन पर ईंटें बिछाई जाती थीं। उनके ऊपर टूटी हुई ईंटों की रोड़ियां डाली जाती थीं। रोड़ियों को कूटा जाता था। फिर उसके ऊपर सुरखी और चूना के मिश्रण की मोटी परत बिछाई जाती थी। उसकी भी दिन भर कुटाई होती थी। इसी को छत कूटना कहा जाता था। यह काम अधिकतर बरवाल औरतें ही करती थीं। पर, एक-दो औरतें कहारों में से और हमारी जाटव बस्ती से भी एक औरत छत कूटने जाती थीं। उन्हें छत कूटने की क्या उजरत मिलती थी, यह तो नहीं पता, पर वह आसान काम नहीं था, बहुत मेहनत का था। एक छत को कई औरतें मिलकर कूटती थीं। यह कुटाई लकड़ी की एक थपनी से होती थी और छत पर उकडूं बैठकर धीरे-धीरे थपनी से चोट करते हुए पीछे सरकते जाकर कूटना पड़ता था। इस काम में हाथों में ठेठें पड़ जाती थीं और घुटने अकड़ जाते थे। वे अपना खाना साथ लेकर जाती थीं, जिसे दोपहर में आधे घंटे के अवकाश में खाती थीं। गर्मियों के दिनों में उन्हें पूरे दिन तपती धूप में छत पर ही रहना पड़ता था। लेकिन बरवालों की सभी औरतें पल्लेदारी और छतें कूटने का काम नहीं करती थीं। उनमें कुछ दुकान भी चलाती थीं और कुछ घर में ही रहती थीं।

बरवाल औरतों में एक बुरी आदत यह थी कि वे लड़ाका बहुत थीं। लड़ाका होने का मतलब यह नहीं था कि वे योद्धा थीं, बल्कि यह था कि वे आपस में इतने जबरदस्त तरीके से लड़ती थीं कि उनकी आवाज आसपास के मुहल्लों तक जाती थी। लेकिन उनकी वह लड़ाई जुबानी होती थी। अक्सर शाम होते ही लड़ाई शुरू हो जाती। कभी सुबह उठने के साथ भी वे लड़ना शुरू कर देती थीं। वे लंहगा खोंस-खोंस कर, हाथों को नचा-नचाकर, जमीन पर उछल-उछलकर एक-दूसरे को ऐसी-ऐसी अभद्र गालियां देती थीं कि मर्द भी क्या देंगे। हमारी बाखर के लोग-लुगाई और बच्चे भगत जी (जिनका जिक्र आगे आएगा) की दीवाल के पास खड़े होकर उनकी लड़ाई से मनोरंजन करते थे। उनमें दो औरतें तो इतनी लड़ाका थीं कि, जब वे थक जातीं, तो नाड़े में गांठ बांधकर सो जाती थीं और सवेरे गांठ देखकर फिर शुरू हो जाती थीं।

बरवाल बस्ती के उत्तम लाला भी मुझे बहुत याद आते हैं। वे स्वयं तो गंज में काम नहीं करते थे, पर उनके बेटे नंदराम करते थे। इस परिवार के कुछ बच्चे थोड़ा पढ़-लिखकर और कुछ अलग करने के मकसद से कहीं अच्छी जगह हैं। पर इस परिवार के मुखिया उत्तम का संघर्ष शायद उन बच्चों की दूसरी-तीसरी पीढ़ी नहीं जानती होगी। उत्तम एक ठेले पर मिट्टी के दो बड़े मटकों में गन्ने का रस बेचते थे। रस वह कुल्हड़ में देते थे, क्योंकि तब तक प्लास्टिक अस्तित्व में नहीं आई थी। वे दूर-दूर तक फेरी लगाकर गन्ने का रस बेचते थे। रस बेचते हुए वह जो आवाज लगाते थे, वह मुझे अभी तक याद है। वे हर पांच मिनट के बाद बोलते थे– आधा पानी आधा रस, फिर भी है गन्ने का रस।वह उस समय के गन्ने के रस के अजब विक्रेता थे, जो अपने ग्राहकों को यह जताकर बेचते थे कि इसमें आधा रस और आधा पानी है। पर बाद में उन्होंने गोरे मियां की दूध की दुकान के सामने परचून की दुकान खोल ली थी। यह दुकान उसी कब्रिस्तान वाले मैदान में बनी थी, जिसमें हम खेला करते थे।

लेकिन, हर जाति और समुदाय में अपवाद भी होते हैं, जो इतिहास बनाते हैं और इतिहास में अमर होते हैं। उनकी जाति उन पर गर्व करती है और समाज उनका अभिनंदन करता है। पर मैं बरवाल जाति की जिस महान विभूति का यहां उल्लेख कर रहा हूं,  उसके ऊपर न उसकी जाति ने गर्व किया और न रामपुर के समाज ने उसका अभिनंदन किया। बरवाल समुदाय की, मुहल्ला कैथ का पेड़’  की और जनपद रामपुर की उस महान विभूति का नाम यूसुक था। यूसुक को करतब-बाज कहा जाता था, जबकि वह महान स्टंट कलाकार थे। पूरे रामपुर में ही नहीं, बल्कि आसपास के जिलों में भी यूसुक का अखाड़ा मशहूर था। रामपुर का हर जुलूस, चाहे वह जन्माष्टमी का हो, या गुरु गोबिंद सिंह की जयंती का, उसकी कल्पना यूसुक के अखाड़े के बिना नहीं की जा सकती थी। सिखों के गुरु गोबिंद सिंह की जयंती के जुलूस में तो यूसुक का अखाड़ा अनिवार्य था, उतना ही अनिवार्य एक बड़े हजूम का उसे देखना भी था। यूसुक के अखाड़े में ज्यादातर कलाकार बरवाल जाति के ही नौजवान नहीं थे, दूसरी जातियों के भी लोग थे। वे सब चेले थे और यूसुक को अपना उस्ताद कहते थे। वे सारे कलाकार लाठी चलाने से लेकर तलवार बाजी और मल्ल युद्ध तक में पारंगत थे। लेकिन उनकी विशेषता यह थी कि वे कलाकार निम्न जातीय मजदूर वर्ग से आते थे, जो दिनभर पेट के लिए मजदूरी करने के बाद शाम को अखाड़े में अभ्यास करते थे। निम्न वर्गों के लिए वह दौर एक ही समय में सब कुछ सीख लेने और कुछ कर दिखाने का था।

यूसुक शहर के नामी पहलवान भी थे। उनके दोनों बेटे– खजांची और मनकू भी जबरदस्त पहलवान थे। मैं अपने को खुशनसीब समझता हूं  कि वे मेरे ही मुहल्ले के थे और मुझे उनकी पहलवानी और उनके बेमिसाल करतबों को देखने का अवसर मिला था। उनसे घंटों बैठकर बातें की थीं। जब मैं मिडिल में पढ़ता था, उनका बेटा खजांची, मेरी बस्ती का पूरन लाल और मैं, तीनों दोस्त हो गए थे। इस वजह से भी यूसुक के घर जाता रहता था। खैर, मेरे देखे हुए करतबों में यूसुक के दो करतब बेहद खतरनाक और देखने वालों के दिलों की धड़कनें बंद करने वाली थीं। उनमें एक था, तलवार की नोक से आंखों में सुरमा लगाना और दूसरा था केला रखकर काटना। मैंने इन दोनों करतबों को एक जुलूस में देखा था। वे इन दोनों करतबों में सहायक के रूप में अपने बेटे मनकू का उपयोग करते थे। उसे जमीन पर लिटाकर यूसुक अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर तलवार चलाते हुए तलवार की नोक से उसकी आंख में सुरमा लगाते थे। इसी तरह वह उसकी नाक पर केला रखकर अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर तलवार चलाते हुए खच्च से केले के दो टुकड़े कर देते थे। सुरमा लगाने और केला काटने के बीच के क्षण दर्शकों के लिए सांस रोकने वाले होते थे।

यूसुक की मृत्यु के बाद उनके बेटे मनकू उस्ताद ने अखाड़ा चलाया था, पर घर की स्थितियों में अनचाहे बदलाव आने लगे थे, जिनका अखाड़े पर ही नहीं, मनकू उस्ताद पर भी विपरीत प्रभाव पड़ रहा था, जिसका अंत अखाड़े के बलिदान में हुआ।

यूसुक उस्ताद की बस्ती में ठीक उनके घर के सामने कुएं के पास शिव मंदिर था, जिसे आज भी जरूर होना चाहिए, क्योंकि इस देश में सब कुछ उजड़ जाता है, पर मंदिर नहीं उजड़ता है। सालों साल गुजर जाते हैं, एक पीढ़ी से दूसरी, और दूसरी पीढ़ी से तीसरी पीढ़ी आ जाती है, पर, मंदिर की मानताबनी रहती है। लेकिन गरीबों की बस्तियों के इतिहास जिंदा नहीं रहते। लोग उस व्यक्ति को शायद ही याद रखते हैं, जिसने बस्ती में कोई निर्माण या सुधार कराया होता है। बरवाल बस्ती में भी आज की पीढ़ी को कहां भगत जीयाद होंगे, जिन्होंने अपने खून और पसीने से उस मंदिर का निर्माण कराया था। वह दुबले-पतले लंबे से व्यक्ति भगत जीके नाम से ही जाने जाते थे, उनका असली नाम क्या था, यह तो नहीं पता। पर वह इस कदर भगवान के भक्त थे कि भगत जीउनका निकनेम मशहूर हो गया था। भगत जीकी कोई जीविका नहीं थी, यानी घर चलाने के लिए वे कोई काम नहीं करते थे। उनकी एक ही धुन थी और एक ही काम था कि बस्ती में मंदिर बन जाए। उनके घर की दाल-रोटी उनकी बूढ़ी मां और पत्नी चलाती थीं, जो दोनों गंज में अनाज फटकने और बीनने का काम करती थीं। भगत जीसुबह ही घर से निकलते और शाम को अंधेरा होने के बाद घर में घुसते थे। दिनभर वे कहां-कहां भटकते और किन-किन से चंदा लेकर आते, यह कोई नहीं जानता था। पर, थे ईमानदार। चंदे में जो भी मिलता, उसे मंदिर के निर्माण में खर्च करते थे। लेकिन, उनका घर बहुत अशांत रहता था। रोज रात को, जब भी भगत जीघर में आते, जोर-जोर से लड़ने-झगड़ने और चीखने-चिल्लाने की आवाजें, यहां तक कि मारने-पीटने की आवाजें भी बाहर आना शुरू हो जाती थीं। चूंकि भगत जीका घर उनकी बखरी का आखिरी घर था, जिसकी दीवाल हमारी बखरी के भी आखिरी घर से मिली हुई थी, और वह दीवाल भी इतनी नीची थी, कि भगत जीका घर हमें साफ-साफ दिखाई देता था। उनके घर में उनकी मां और पत्नी के अलावा उनके तीन बेटे भी थे। लेकिन यह झगड़ा उनके शादीशुदा बड़े बेटे रामचंद्र से होता था, जो बिजली विभाग में लाइनमैन था। जब वे लड़ते थे, तो उनमें कोई भी शिष्टता नहीं दिखाता था। सबसे दुखद यह था कि उनका यह बेटा मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम वाला होकर भी, पिता-भक्ति तो दूर, उनके प्रति सम्मान की भावना भी नहीं रखता था। पिता को अश्लील गालियां तो आम बात थी, मैंने उसे उन्हें मारते हुए भी देखा था। भगत जीकी उनके अपने घर में यह इज्जत थी, लेकिन इसके पीछे ठोस कारण क्या था, यह पता नहीं चल सका। भगत जीका मंझला बेटा रमेश, जो मेरे ज्यादा करीब था, इस लड़ाई से बहुत दुखी था। उसकी पढ़ाई-लिखाई चौपट हो रही थी। वह उस दलदल से निकलना चाहता था, क्योंकि उसके बड़े भाई का रवैया उसके साथ भी क्रूर ही था। हांलाकि यह सच था कि रामचंद्र ही उसे पढ़ा रहा था, पर पढ़ाई के लिए घर में अनुकूल माहौल तो होना चाहिए। रमेश अपने घर के माहौल से इतना दुखी था कि उसमें आत्महत्या करने के विचार आने लगे थे। एक दिन उसने मुझसे कहा, “भाई साहब! क्या आप मुझे दिल्ली भेजने की व्यवस्था करा सकते हैं? मैं आपका जीवन भर आभारी रहूंगा।मैं खुश हुआ कि वह परवाज करना चाहता है। पर दुखी भी हुआ कि कल अगर इसके घर वाले इसे नहीं देखेंगे, तो वे मुझे ही पकड़ेंगे, क्योंकि वे जानते थे कि वह मेरे साथ रहता था। मैंने उसे अपनी शंका बताई। वह बोला, “भाई साहब! यह तो है, पर मेरा यहां से निकलना बहुत जरूरी है।मैंने भी इरादा कर लिया कि चलो, जो होगा, देखा जाएगा। मैंने योजना बनाई और उसे एक रात अपने घर में सुलाया। और, सुबह ही पांच बजे मैं उसे दिल्ली की बस में बैठाकर घर आ गया। जब रात भर वह घर नहीं पहुंचा, तो सुबह ही उसकी मां मेरे घर आई, बोली– लल्ला सच्ची बतइये रमेश कहां है? मेरे बच्चे, तुझे जरूर पता होगा।मैंने आधा सच बता दिया, “अम्मा, वह मुझसे दिल्ली जाने को कह रहा था। शायद वहीं गया होगा। मैंने उससे पूछी भी कि दिल्ली में क्या है, तो वह इत्ता ही बोला कि दिल्ली जाकर खत लिख दूंगा।उसकी मां ने फिर कुछ नहीं पूछा, शायद उसने अपने घर में भी दिल्ली का जिक्र किया होगा। आज इस बात को चालीस साल हो गए, उस रमेश नामक प्राणी से, फिर कभी मिलना नहीं हुआ। उसके बाद उसने कोई संपर्क मुझसे भी नहीं किया।

खैर, मैं भगत जी की बात कर रहा था। उन्होंने मंदिर बनवाया, उसमें शिवलिंग स्थापित कराया। दलित बस्तियों में शिव मंदिर ही होते थे, राम-कृष्ण या हनुमान के मंदिर कोई नहीं बनवाता था। भगत जी ने मंदिर बनने के बाद एक भव्य भोज (भंडारा) का आयोजन भी किया। यह ऐतिहासिक भोज था, जिसमें बिना किसी जातीय और धार्मिक भेदभाव के सबको पंगत में बैठाकर भोज कराया गया था। भोज में पूड़ियों के साथ आलू और काशीफल की सब्जी थी। वह हमारे मुहल्ले का पहला और आखिरी सार्वजनिक भोज था। उस मुहल्ले में उस जैसा भोज फिर कभी नहीं हुआ। यह सम्भवतः 1968 की बात थी। उस दौर में सभी जातियों का एक साथ बैठकर खाना किसी चमत्कार से कम नहीं था, कम-से-कम मेरी बस्ती के लोगों के लिए चमत्कार ही था। भगत जी खुद हमारी बस्ती में आकर सबको बुलाकर ले गए थे।

फिर वह दिन भी आया, जब भगत जी बीमार पड़े और ठीक नहीं हुए। मजदूर परिवार था, आर्थिक हालात उन्हें बेहतर इलाज के लिए बाहर ले जाने लायक नहीं थे। वह 1976 का जून या जुलाई का महीना था, जब उनके रुग्ण शरीर ने भौतिक संसार को अलविदा किया था। उनकी मृत्यु का शोक पूरे मुहल्ले ने मनाया था। 

(क्रमश: जारी)

(संपादन : राजन/नवल)

लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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