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एक दलित बस्ती की कथा : कैथ का पेड़ (पांचवां भाग)

तपेश्वरी ऊर्फ टिइयां ने मुझे बताया था कि उस समय ब्राह्मण ऐसे वाद्य-यंत्रों को बिल्कुल हाथ नहीं लगाते थे, जिनमें चमड़ा लगा होता था। इसलिए उसके अनुसार ढोलक और नगाड़ा बजाने वाले ज्यादातर कलाकार गैर-ब्राह्मण ही होते थे। शायद यह स्थिति आज भी है। आज भी सर्वश्रेष्ठ तबला और ढोलक वादक गैर-ब्राह्मण ही हैं। पढ़ें, कंवल भारती द्वारा लिखित आत्मकथात्मक शृंखला का पांचवां भाग

[दलित साहित्य में आत्मकथाओं का खास महत्व रहा है। सामान्य तौर पर आत्मकथाओं के लेखक अपने जीवनानुभवों को उद्धृत करते हैं। इसमें उनकी सफलताएं व असफलताएं भी शामिल होती हैं। कंवल भारती ने आत्मकथा के बजाय सामुदायिक स्तर पर कथा लिखी है। अपनी इस कथा में वह अपने पैतृक शहर रामपुर के उस मुहल्ले के बारे में बता रहे हैं, जहां उनका जन्म और परवरिश हुई।]

 चौथे भाग के आगे

मटरू लाल का उद्यम ज्यादा बड़ा नहीं था, छोटा ही था। लेकिन ठीक-ठाक था। उनका एक पुत्र पूरन लाल था, जिसका जिक्र पहले के भाग में आ चुका है। वे दोनों बाप-बेटे मिलकर घर में ही जूता बनाने का काम करते थे। उनका घर हमारी बाखर के पीछे वाली बाखर में था, जिसमें कुइयां नहीं थी। वे पानी के लिए चंद्रसेन की बाखर में बने कुएं का इस्तेमाल करते थे। मटरू लाल उस बाखर के पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने घर में हैंडपंप लगवाया था। यह तब की बात है, जब नगरपालिका ने भी उस बस्ती के लोगों के लिए पानी की सुध नहीं ली थी। और यह तब की बात भी है, जब कुंओं का पानी मुंह को लगना बंद हो गया था। उस स्थिति में पूरन के घर का वह हैंडपंप बड़े काम का था। उसकी बाखर के लोग तो उस हैंडपंप से पानी लेते ही थे, दूसरी बाखर के लोग भी लेने आ जाते थे। मैं भी उस नल से कई बार पानी भरकर लाया था। लेकिन, फिर भी वह नल उनका निजी था, इसलिए अनेक बार वे उसका हत्था निकालकर रख लेते थे। तब हम कुछ कर भी नहीं सकते थे, और वापस लौट आते थे। जब मैं बाल्टी लेकर वहां जाता, तो दूर से देख लेता था कि हत्था है कि नहीं? अगर हत्था लगा होता, तो मैं पानी भरकर ले आता था, वरना खाली हाथ लौट आता था। हालांकि उस परिवार से मेरे संबंध बहुत अच्छे थे, पूरन से तो दोस्ती ही थी। पर, गेहूं के साथ घुन को तो पिसना ही पड़ता है। दरअसल, इसके पीछे अंधविश्वास काम करता था। वह अंधविश्वास यह था कि खाली बाल्टी या खाली घड़ा किसी के घर लेकर जाने से अपशकुन होता है।

ठकरी का कारोबार उनकी चौपाल में चलता था, जिसे हम चौपाल मड़ैया कहते थे। बाद में जब मड़ैया का नामोनिशान मिट गया, तो उसे चौपाल द्वारे’ कहा जाने लगा था और आज भी वह चौपाल द्वारे ही है। वह मड़ैया सड़क के किनारे थी, जिसमें आज एक तरफ सरकारी नल और दूसरी तरफ छोटा-सा मंदिर बना हुआ है। किसी समय उसी मड़ैया में पारिवारिक झगड़ों के निपटारे के लिए बस्ती की पंचायत बैठती थी। उसी मड़ैया में वैवाहिक अवसरों पर मंडलियां नाचती थीं और वहीं खाना बनाने के लिए भट्ठी भी रखी जाती थी। बरसात के दिनों में वहीं बैठकर मटरू लाल अत्तार की आल्हा भी गाई जाती थी। उस मड़ैया में कई लोग काम करते थे, ठकरी, उनके बेटे बाबूराम, और अर्जुन। मैं तब बहुत छोटा था, इसलिए उसके उत्थान और पतन के बारे में ज्यादा नहीं जानता। पर जो कुछ याद आ रहा है, वह यह है कि मड़ैया की खपरैल जगह-जगह से उधड़ी हुई थी, जो बरसात में न काम लायक रहती थी और ना ही बैठने लायक। मिट्टी का फर्श भी पानी से रपटीला हो जाता था, जिसमें जो भी जाता, वह रपटकर गिर जाता था। इसलिए, बरसात में उसमें काम होता ही नहीं था। पर इतनी जगह फिर भी रहती थी कि रात को उसमें गाने-बजाने का अड्डा जम जाता था। आल्हा और रागनी की किताबें ज्यादातर पूरन के बाप रखते थे, या फिर रामप्रसाद, जो सुरताल के साथ आल्हा और रागनियां गाते थे। ढोलक टिइयां बजाता था और हारमोनियम के लिए झंडे मुहल्ले की जाटव बस्ती से, जो पास में ही थी, हरस्वरूप को बुला लिया जाता था, या कभी बरसात में एक सूरदास भी संभल से हारमोनियम लेकर हमारी बस्ती में आकर टिइयां के घर ठहरते थे, (जो उनके रिश्तेदार थे), वह भी बहुत बढ़िया हारमोनियम बजाते थे। बरसात की इस मंडली में आल्हा-ऊदल की 52 लड़ाइयों के साथ-साथ बुंदू मीर, बलवंत सिंह उर्फ बुल्ली और नथाराम शर्मा गौड़ की सांगीत की किताबें भी पढ़ी और गाई जाती थीं। खैर, मैं मड़ैया पर आता हूं। 

उस मड़ैया से जुड़ी एक घटना की याद आ रही है। मुहल्ले में एक काले रंग का कुत्ता था, जिसे सब लोग बुलाते भी कालू नाम से ही थे। वह बहुत प्यारा और वफादार कुत्ता था, जो मुहल्ले के सभी लोगों को पहिचानता था और देर रात में कोई निकलता था, तो उसे उसके घर तक छोड़कर आता था। वह अक्सर रोटी के समय ही बखरी में आता था और उसे हर घर से आधी-पौनी रोटी दी जाती थी। पर उसी मुहल्ले के दो बदमाश पता नहीं किन कारणों से उसे पसंद नहीं करते थे। उनमें एक बदमाश का नाम शौकत था और दूसरे का नाम, जिसके चेहरे पर चेचक के दाग बने हुए थे, मैं न तब जानता था और न अब जानता हूं। वे दोनों उस कालू के पीछे बल्लम [एक नुकीला हथियार] लेकर दौड़े, और जान बचाने के लिए कालू चौपाल मड़ैया में बिछी हुई एक खाट के नीचे छिप गया। पर उन दोनों बदमाशों ने उसे उसी खाट के नीचे बल्लमों से ढेर कर दिया। वह खून से लथपथ तड़प-तड़प कर दूसरे दिन मर गया था। मुहल्लों में उन बदमाशों का इतना आतंक था कि कालू को बचाने की किसी की भी हिम्मत नहीं हुई थी। चेचक के दाग वाला आदमी तो नामी गुंडा था, उसने एक आदमी के पेट में तो मेरे सामने ही चाकू घुसेड़ा था। इस बात को पचास साल से भी ज्यादा हो गए, पर वह दृश्य आज भी मेरे जहन में हरारत पैदा करता है।

बस्ती की बेटियों की बरातें भी इसी चौपाल द्वारे में ठहराई जाती थी। दरियां बिछ जाती थीं और बाराती उन्हीं दरियों पर लेट मारते थे। बरातियों के मनोरंजन के लिए वहीं पर मंडली भी नाचती थी। हरिश्चंद्र-तारामती या सत्यवान-सावित्री का सांग रात भर चलता था। उन दिनों धर्मशालाओं या होटलों में बारात शादी-ब्याह करने का रिवाज नहीं था।

एक दलित बस्ती (फाइल फोटो)

टिइयांका असली नाम तपेश्वरी था, पर उसे सब टिइयां’ नाम से ही बुलाते थे। उसका यह नाम कब और कैसे पड़ा, इसका कोई इतिहास मैं नहीं जानता। एक दलित का इतना परिष्कृत सुंदर नाम दूसरों को शायद हजम नहीं हुआ होगा। इसलिए उसका टिइयां नामकरण निश्चित रूप से किसी अभिजात के अहम का संतुष्टीकरण होगा। लेकिन तपेश्वरी उर्फ टिइयां जाटव बस्ती का अद्भुत नगीना था, जिसने ढोलक वादक के रूप में दूर-दूर तक नाम कमाया था। उसने अपने समय की मशहूर नौटंकियों में ढोलक बजाई थी, यहां तक कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के अनेक जिलों में उसने रामलीलाओं में भी ढोलक बजाई थी। पर, चमार होने के नाते वह हर जगह अपमानित हुआ था। अंततः वह अपमानों से तंग आकर घर वापिस आ गया था। मैं आज सोचता हूं कि अगर वह रामपुर वापिस नहीं आता, तो ढोलक-वादन में उसकी महान कलाकारी से मैं शायद ही परिचित हो पाता। मैं अनेक अवसरों पर उसके ढोलक-वादन का साक्षी रहा हूं। वह अचानक हवा में ढोलक उछालकर थाप लगा देता था, और मजाल है कि थाप गलत पड़ जाए। वह हाथ की उंगलियों में जाने क्या-क्या बांधकर बड़ी कड़क ढोलक बजाता था। हारमोनियम और नगाड़े के साथ उसकी ढोलक की संगत बड़ा रोमांच करती थी। जब मेरी उससे मित्रता हुई, तो उसने नौटंकियों और रामलीलाओं में काम करने के समय के अपने जो रोचक संस्मरण और कटु अनुभव मुझे सुनाए, वे उस समय के संगीत और नाट्य कला के क्षेत्र में व्याप्त जातिवाद को उजागर करते थे। उसी ने मुझे बताया था कि उस समय ब्राह्मण ऐसे वाद्य-यंत्रों को बिल्कुल हाथ नहीं लगाते थे, जिनमें चमड़ा लगा होता था। इसलिए उसके अनुसार ढोलक और नगाड़ा बजाने वाले ज्यादातर कलाकार गैर-ब्राह्मण ही होते थे। इससे मैंने महसूस किया कि शायद ब्राह्मण संगीतकार पश्चिमी पोशाक, सिर्फ चमड़े की बेल्ट बांधने से बचने के लिए ही नहीं पहिनते थे? शायद यह स्थिति आज भी है। आज भी सर्वश्रेष्ठ तबला और ढोलक वादक गैर-ब्राह्मण ही हैं।

जाटव बस्ती में संगीत के क्षेत्र में गर्व करने योग्य एक और व्यक्ति बाबूजी थे। वे नरोत्तम सरन के बड़े भाई थे। उनका नाम मैंने कभी किसी के मुंह से नहीं सुना था। सब उन्हें बाबूजी नाम से ही जानते थे। वह गोरे-चिट्टे रंग के तंदुरुस्त आदमी थे, पर तोंद निकली हुई थी। जब मलमल का सफेद कुर्ता और सफेद धोती पहिनकर निकलते, तो वह पूरे बनिया लगते थे। मैंने उन्हें हमेशा सफ़ेद धोती-कुर्ता में ही देखा था। उनका जूतों का अपना अलग कारोबार था, जो बहुत ही अच्छे स्तर पर था। उनका कारखाना रामपुर की तहसील बिलासपुर में था, जहां से हफ्ता-दस दिन में वह रामपुर आते थे और दो-चार दिन रुककर वापिस चले जाते थे। वह बस्ती में शादी-ब्याह के कारजमें हमेशा सक्रिय रहते थे और गरीब की शादी में हर तरह की मदद भी करते थे। लेकिन मैं यहां उनकी जिस विशेषता का उल्लेख करना चाहता हूं, वह उनकी नगाड़ा बजाने की कला का है। एक बार की बात है, चौपाल द्वारे कोई सांग (नृत्य नाटिका जैसी एक विधा) चल रहा था। अचानक उस मंडली का नगाड़ा बजाने वाला कलाकार बीमार पड़ गया, शायद उसको दस्त लग गए थे। तुरंत ही उस कमी को बाबूजी ने पूरा किया। ऐसा कड़क नगाड़ा बजाया कि मंडली मालिक भी दंग रह गया। नगाड़ा बिना नगाड़ी के नहीं बजता था। वह नगाड़ी के साथ ही मुकम्मल होता है। नगाड़ा काफी बड़ा होता था, और नगाड़ी छोटी होती थी। ये अब भी है, पर अब उसमें काफी परिवर्तन है। नगाड़ा एक होता था, लेकिन नगाड़िया दो होती थीं। एक नगाड़ी नगाड़े के साथ बजती थी और दूसरी नगाड़ी को एक सेवक मंच के नीचे आग जलाकर उसे गर्म करता रहता था। जब पहली नगाड़ी ठंडी हो जाती, तो सेवक तुरंत दूसरी नगाड़ी रख देता था और पहली वाली को फिर आग दिखाने लगता था। मतलब, नगाड़ी को गरम करके बजाया जाता था, पर नगाड़े को पानी भीगे कपड़े की पौंचारी से गीला करके बजाया जाता था। इसी से नगाड़ा कड़क बजता था और उसकी आवाज कई किलोमीटर दूर तक जाती थी।

भजन, रागनियां, चौबाला, छंद, लावनी और खयाल गायकी के उस्ताद कलाकार भी जाटव बस्ती में थे। एक चोखेलाल नाम के भजन रचयिता भी थे, जिनके लिखे भजन ही कीर्तनों में गाए जाते थे। ये लोग बहुत कम शिक्षित थे, कुछ तो साक्षर भर थे। यह सोचकर मुझे दुख होता है कि हमारी बस्ती के ये कलाकार गुमनाम ही दुनिया से चले गए। लगभग सभी घोर गरीबी में मरे, ठीक से इलाज तक उन्हें नसीब नहीं हुआ। चोखेलाल कुष्ठ रोगी होकर मरे थे और टिइयां की मृत्यु टीबी से फेफड़े खराब होने से हुई थी, जबकि इनमें कोई भी शराब नहीं पीता था।

ख्याली राम

बस्ती में एक व्यक्ति ख्याली राम थे, जिनकी पूरी जिंदगी नाली के किनारे मोची का काम करते हुए ही गुजरी थी। मैंने उसे जूते बनाते कभी नहीं देखा था। जिस स्त्री को वह ब्याहकर लाए थे, उसकी अखियां उनके छोटे भाई दौलत राम से मिल गई थी। मामला पकड़े जाने पर पंचायत बैठी, और लंबी जिरह के बाद उन दोनों के अवैध संबंधों पर पंचायत ने अपनी मुहर लगा दी। अब वे बाकायदा पति-पत्नी हो गए थे। बेचारे ख्याली राम पंचायत के फैसले के सामने लाचार थे। वह स्त्री आजीवन दौलत राम की संगिनी बनकर ही रही और ख्याली राम ने अपना पूरा जीवन बिना पत्नी के एक रंडुआ की तरह बिताया।

लेकिन इन्हीं ख्याली राम के व्यक्तित्व का एक रहस्य मुझे बहुत बाद में पता चला। वह मुझसे उम्र में काफी बड़े थे– लगभग 35 साल बड़े। वह अपने काम से मतलब रखते थे, किसी के पास भी उठते-बैठते नहीं थे, सुबह काम पर जाते और शाम को घर आकर खाना बना-खाकर सो जाते थे। एक तरह से वह अंतर्मुखी ज्यादा थे। एक दिन वह मुझसे बोले, “लल्ला, तू अंग्रेजी पढ़ लेता है?” मैंने कहा, “हां”। फिर बोले, “तो आ मैं तुम्हें एक चीज दिखाता हूं।” तब मैं दसवीं में पढ़ता था। अंग्रेजी जानता ही था। मैंने सोचा कोई अंग्रेजी की किताब इनके पास होगी, शायद उसी को दिखाना चाहते होंगे। मैं उनके घर चला गया। उन्होंने खाट के नीचे से लकड़ी की एक छोटी-सी संदुकची निकाली, जो बिना ताले की थी। उन्होंने संदुकची खोली, तो मैंने देखा कि उसमें पीतल के कुछ बैज और बिल्ले थे। मैंने पूछा, “यह क्या है?” फिर जो उन्होंने बताना शुरू किया, मैं तो यह जानकर दंग रह गया कि वह द्वितीय विश्वयुद्ध के सिपाही थे और अनेक देशों में उस दौरान रह चुके थे। वे बैज और बिल्ले उन्हें वहीं पर मिले थे। मैं अपनी 15 साल की उस उम्र में द्वितीय क्या, पहले विश्वयुद्ध के बारे में भी नहीं जानता था। उन्होंने मुझे सिर्फ इतना ही बताया था कि वह फौज में थे और अंग्रेजों की तरफ से बाहर लड़ने गए थे। यह तो मैंने लेखक बनने के बाद जाना कि वह द्वितीय विश्वयुद्ध ही रहा होगा, क्योंकि प्रथम विश्वयुद्ध के समय तो वह पैदा भी नहीं हुए होंगे। खैर, वे मेडल-बैज और बिल्ले उनके पास ही रहे, न उन्होंने मुझे दिए और न मैंने मांगे। उस उम्र में उनके महत्व को समझना मेंरे लिए भी संभव नहीं था। लेकिन उन्होंने उनको अपने प्राण की तरह संभालकर रखा और प्राण न रहने पर ही वे उनसे अलग हुए। उनकी मृत्यु के बाद वे जिसके भी हाथ लगे होंगे, उसने उनको बेचकर मीठी टिकिया ही खाई होगी।

मटरू नाई

हमारी बस्ती में लोगों के बाल काटने मटरू नाई आता था। औरतें उसे भाई कहती थीं और हम बच्चा लोग चच्चा। भाई का मतलब भ्राता से नहीं था, बल्कि मुहल्ले में जितने भी बूढ़े लोग थे, वे रिश्ते में उन औरतों के ससुर होते थे, जो वहां की बहुएं होती थीं, अर्थात् वे औरतें, जो ब्याह कर बस्ती में आई थीं। मटरू नाई को भी वे उसी रिश्ते से भाई कहती थीं। लेकिन यह रिश्ता उन औरतों पर लागू नहीं था, जो बस्ती की ही बेटियां थीं। मटरू था तो मुस्लिम नाई, और रहता भी कैथ का पेड़ से दो फर्लांग दूर पीर की पेंठ के पास ही, पर वह हमारी बस्ती की जान था और शान भी। उसे रामायण, महाभारत और पुराणों की इतनी कहानियां कंठस्थ थीं कि जब वह सुनाता था, तो हिंदू ही लगता था। उसकी एक आंख खराब थी, इसलिए वह काना भी था। लेकिन उसके बाल और दाढ़ी का रंग लाल था, जबकि हमारे मुहल्ले में ज्यादातर लोगों के दाढ़ी-बाल या तो काले थे या सफेद। मटरू के दाढ़ी-बाल का लाल रंग उसके मेंहदी लगाने की वजह से था। वह कमीज के नीचे टखनों तक का पाजामा पहनता था। जब वह बस्ती में आता, तो दाढ़ी-बाल बनवाने वालों का तांता लग जाता था। उसके पास टीन की एक छोटी-सी संदुकची रहती थी, जिसमें बाल काटने और शेव बनाने का सामान रहता था– जैसे, उस्तुरा, कैंची, मशीन, निहन्नी, ब्रुश, कटोरी, वगैरा-वगैरा। वह निहन्नी से नाखून काटता था। बस्ती में किसी की मौत होने पर भी मटरू नाई को ही श्मशान घाट पर लोगों के दाढ़ी-बाल बनाने के लिए बुलाया जाता था। वह बस्ती के एक-एक आदमी को नाम से जानता था और पैसे नहीं होते थे, तो उधार बाल काटकर चला जाता था।

मटरू नाई की मुख्य विशेषता थी, उसकी किस्सागोई और लोकगायकी। किस्सागोई में तो उसका जवाब नहीं था। उसमें बेहतरीन कहानीकार बनने की संभावनाएं थीं, मगर वह शिक्षित नहीं था। वह राजा-रानी, परियों और राक्षसों के लोक की अद्भुत कहानियां सुनाता था। अनेक सांग तो उसे इस कदर कंठस्थ थे कि घंटों तक सुना सकता था। उसका स्वर बहुत बारीक था। जब गाता था, तो बड़ा मधुर लगता था। उसकी मनपसंद गायकी दोहा, चौबोला और बहरतबील थे। सच्ची बताऊं, तो मुझे रागनी लिखने और गाने का रोग उसी से लगा था।

लोक काव्य में रुचि

इसी रोग ने मुझे लोकसांगीत की किताबों तक पहुंचाया। उन दिनों बुंदू मीर, बलवंत सिंह उर्फ बुल्ली, और नथाराम शर्मा गौड़ की किताबों की धूम थी। ये किताबें बहुत मोटे हरुफों में छपी होती थीं, संभवतः 30 प्वायंट साइज टाइप में। लोकसांगीत की ज्यादातर किताबें जवाहर बुक डिपो, भारतीय प्रेस, गुजरी बाजार, मेरठ, तथा गर्ग एंड को, 484 खारी बावली, दिल्ली से छपती थीं, जहां से बहुत सारी किताबें मैंने वीपीपी से मंगाईं थीं। कुछ किताबें मैंने मेलों में से भी खरीदी थीं। बुंदू मीर नेत्रहीन मुस्लिम थे। पर उनकी सांग की पचास से भी ज्यादा किताबें थीं। उनकी किताबों पर उनका सफेद कुर्ते में सफेद टोपी लगाए जो फोटो छपा होता था, उसमें वह युवा दिखाई देते थे। नथाराम शर्मा गौड़ की किताबें श्याम प्रेस, हाथरस से प्रकाशित होती थीं। एक-दो भाग आल्हा की किताबें भी मैंने मेलों से खरीदी थीं, जिसके रचनाकार मटरूलाल अत्तार थे। एक किताब मुझे किसी मेले में कानपुर के श्रीकृष्ण पहलवान की भी मिल गई थी, जिसके मुख पृष्ठ पर हाथ में मुगदर लिए लंगोट लगाए बड़ी-बड़ी मूंछों वाले पहलवान का फोटो छपा हुआ था। नथाराम शर्मा की किताबें मेरे पास सबसे अधिक थीं। उनके मुखपृष्ठ पर चारों ओर नीले-लाल रंग का चौड़ा बार्डर होता था। ऊपर लिखा होता था– श्री श्याम देवाय नमः, उस्ताद इंदरमन।उसके नीचे सांगीत का नाम और बीच में गोलाई में पगड़ी धारी व्यक्ति का फोटो छपा होता था, जिसके नीचे लिखा होता था– फोटो सांगीत शिरोमणी हिंदी भूषण पं. नथाराम शर्मा गौड़।सबसे नीचे छपा होता था– बिना मुहर की किताब चोरी की समझी जाएगी।शायद इसी वजह से उनकी हर किताब पर उनके फोटो के पास उनके नाम की गोल मुहर लगी होती थी। ये किताबें मेरे पास इतनी अधिक संख्या में थीं कि मैं उनके आधार पर सांगीत पर एक बड़ी किताब लिखना चाहता था। पर, अफसोस! मैं उन्हें अपने कच्चे घर में सुरक्षित नहीं रख सका। कुछी सालों में वे दीमक का भोजन बन गईं। पर कुछ किताबें, जिनमें ‘शहरयार गुलवदन’, ‘विचित्र धोखेबाज’, ‘त्रिया चरित्र’, ‘नकली मालिन’ और ‘पूरनमल प्रथम भाग’ मुख्य हैं, अभी भी मेरे पास सुरक्षित हैं। फटी हुई स्थिति में एक-एक किताब बुंदू मीर और बलवंत सिंह उर्फ बुल्ली की भी क्रमशः ध्रुव भक्त और बिल्व मंगल बचाकर रखी हुई है। अब मैं इनका उपयोग लोक में प्रतिरोधपुस्तक में करने की सोच रहा हूं।

नथाराम शर्मा गौड़ की रचना-शक्ति पर मैं आश्चर्यचकित हूं। मुझे लगता है कि डेढ़ सौ के लगभग उनकी लिखी किताबें होंगी। उनकी किताबों की सूची में महाभारत पर 36, रामायण पर 25, आल्हा-ऊदल पर 24, वीर रस पर 26, और शृंगार तथा भक्ति रस पर भी लगभग 40 किताबें मिलती हैं। उनकी हर किताब में आरंभ में मंगलाचरण होता है, जिसमें सभी हिंदू देवी-देवताओं का सुमरन किया गया होता है। उसके बाद वह दोहा, चौबोला और दौड़ छंद में कथा की शुरुआत करते थे। उनकी एक किताब में, जो अब मेरे पास नहीं है, मैंने अंग्रेज बहादुर की स्तुति भी इसी दोहा, चौबोला और दौड़ छंद में पढ़ी है, जिसे उन्होंने रोमन अंग्रेजी में हिंदी में लिखा था। अंग्रेजी में भी कमाल की तुकांत थीं उसमें। नथाराम शर्मा लगभग हर सांगीत का अंत बहरतबीलछंद से करते थे और उसमें रचना-समय भी डालते थे। सांगीत विचित्र धोखेबाजसे एक उदाहरण पेश है–

‘जैसे बिगड़ी बनाई बिपन चंद की,
तैसे सब की बनावें प्रभो दुख हरन।
कहैं नथाराम रोको कलम रूप अब,
जै अटल क्षत्र की बोलौ होके मगन।।
संभवत शुभ उन्नीस सौ, और अठासी मीत।
फागुन शुक्ला द्वादशी, शनि दिन इति सांगीत।।

इसी तरह त्रिया चरित्रके रचनाकाल के बारे में उन्होंने लिखा–

शुभ उनईस सौ सतत्तर, विक्रम साल पवित्र।
किया चैत शुदि दौज को, पूरण त्रिया चरित्र।।

मैं सांगीत की इन किताबों में इतना डूब गया था कि स्कूल की किताबें छोड़कर इन्हीं किताबों को पढ़ता रहता था। बहरतबील गाने की तर्ज मैंने मटरू चाचा से सीख ली थी। वह गाने में बड़ी मधुर लगती थी। जब मैं गाता था, तो आवाज सुनकर पूरन के बाप आ जाते थे– सिर पर साफा बांधे, हाथ में लाठी से ठक-ठक करते हुए, कुएं के पास आकर रुक जाते। मानती उन्हें बैठने को पिढ़िया देती और खाने को रामपुरी तंबाकू का देशी पान, और वह एक-दो घंटों के लिए वहीं जम जाते। मुझसे कहते, “शुरू से सुना लल्ला! कौन-सी किताब है?” मैं कहता, “पूरनमल का पहला भाग है।” “हां, सुना!वह बोलते। और मैं सुनाता–

सतलज झेलम ब्यास सरि, रावी और चनाव।
इन पांचों के दरमियां, बसै मुल्क पंजाब।।
बसै मुल्क पंजाब खुदा की वहां महरबानी है।
पैदा हों माहरू हंसीं माशूका लासानी है।।
दुनिया में मशहूर नूर लखि हूर पशेमानी है।
उसी मुल्क में स्यालकोट छोटी सी रजधानी है।।

एक आध घंटे में पहला भाग समाप्त होता– स्वामी गोरखनाथ ने, पूरन दिया जिलाय। इससे आगे का बयां, भाग दूसरे जाय।।फिर दूसरा भाग शुरु होता। और वह तब तक सुनते रहते, जब तक कि उनके घर से रोटी खाने के लिए कोई बुलाने नहीं आ जाता।

इन किताबों को पढ़ते-पढ़ते मेरे अंदर भी लोक कविता के कीड़े कुलबुलाने लगे और मैंने भी रागनी, चौबोला और बहरतबील छंदों में तुकबंदी करनी शुरू कर दी। इन तुकबंदियों की विचारधारा भी वही थी, जो उन किताबों ने मेरे मस्तिष्क में भरी थी– एक दम ब्राह्मणवादी। इस सोच की मेरी लोक कविताओं की एक किताब कंवलकिशोर का गुच्छानाम से 1968 में रामपुर के जनता बुक डिपोसे छप भी गई। शायद उसकी एकाध प्रति किसी फाइल में अब भी पड़ी हो, पर उसकी तरफ अब मैं देखना भी नहीं चाहता। लेकिन जनता बुक डिपो पर उसकी सारी प्रतियां तीन महीने में ही बिक गई थी। मैं उन दिनों हाईस्कूल का छात्र था। उस समय मेरी पहली किताब को किसी प्रकाशक का मिलना, आज सोचता हूं तो बड़ी बात थी।

लेकिन यह मैं बहुत बाद में समझा, जब मेरे भीतर प्रगतिशील विचारधारा के अंकुर फूटे, कि इस लोक सांगीत का स्वर ब्राह्मणवादी था, और अपने समय के ये लोक रचनाकार ब्राह्मणी पाखंड के सबसे बड़े प्रचारक और प्रगतिशीलता के सबसे बड़े अवरोधक थे। हिंदू समाज को राम, कृष्ण और पुराणों की कहानियों में उलझाकर समाज में यथास्थिति बनाए रखने में उनका बहुत बड़ा योगदान था। पाखंड फैलाने में जो भूमिका आज के सत्संगी संत-महात्मा निभा रहे हैं, ठीक वही भूमिका उस समय के लोक रचनाकार और गायक निभा रहे थे।

(क्रमश: जारी)

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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