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एक दलित बस्ती की कथा : कैथ का पेड़ (छठा भाग)

हमारी बस्ती जैसी गंदगी, गरीबी और नारकीय स्थिति रामपुर के हिंदूवाड़ा में नहीं थी। क्या गरीबी का कारण अशिक्षा है? इसका उत्तर भी मैं हां में नहीं दे सकता, क्योंकि शहर के और भी इलाकों और समुदायों में मैंने शिक्षा के न्यूनतम स्तर को देखा था। पढ़ें, कंवल भारती द्वारा लिखित आत्मकथात्मक शृंखला का छठा भाग

[दलित साहित्य में आत्मकथाओं का खास महत्व रहा है। सामान्य तौर पर आत्मकथाओं के लेखक अपने जीवनानुभवों को उद्धृत करते हैं। इसमें उनकी सफलताएं व असफलताएं भी शामिल होती हैं। कंवल भारती ने आत्मकथा के बजाय सामुदायिक स्तर पर कथा लिखी है। अपनी इस कथा में वह अपने पैतृक शहर रामपुर के उस मुहल्ले के बारे में बता रहे हैं, जहां उनका जन्म और परवरिश हुई।]

पांचवें भाग के आगे

उत्तर प्रदेश के रामपुर में हमारा सामना जातिव्यवस्था से उतना कभी नहीं हुआ, जितना गरीबी से। हम जाटव थे, और हिंदू समाज व्यवस्था में अछूत थे, पर इस आधार पर उत्पीड़न की किसी घटना की कोई याद मुझे नहीं है। हम रामपुर के किसी भी मंदिर और समाधि-मठ में जा सकते थे। मेरे पिता सावन में रोज ही भमरौआ के शिव-मंदिर में जल चढ़ाकर आते थे, कोई रोक नहीं थी। पुरातनपंथी परंपराएं थीं, पर वे ज्यादा सक्रिय नहीं थीं। अनेक हिंदुओं के साथ मेरा उठाना-बैठना था। स्कूल-कालेज में भी कभी जातीय भेदभाव मेरे साथ नहीं हुआ। मनोविज्ञान के अध्यापक ईश्वरशरण सिंहल के साथ तो मेरी मित्रता ही थी, जिनके साथ मैं सिनेमा तक देखने जाता था। आर्यसमाजी और सनातनी दोनों का ही व्यवहार कभी रूढ़िवादी नहीं लगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कुछ लोगों से तो मेरी इस कदर मि़त्रता थी कि कभी-कभी पूरा दिन उनके साथ ही गुजर जाता था। सरस्वती शिशु मंदिर के प्रधानाचार्य आनंद वेताल ने, जो एक अच्छे कवि भी थे, मुझे अपने विद्यालय (शिशु मंदिर) में आचार्य की नौकरी दे दी थी, जहां मै कुर्ता-धोती पहिनकर जाता था। मैं रामपुर के प्रसिद्ध पत्रकार महेंद्र प्रसाद गुप्त के कार्यालय में कई साल तक उनका सहायक बनकर रहा और उनकी बड़ी लड़की ममता को पढ़ाता भी था। आज भी उनका पूरा परिवार मेरे साथ आत्मीयता रखता है। इसी तरह मुसलमानों के अंदर भी हमारे प्रति कोई जातीय दुर्भाव मैंने नहीं देखा। उन कुछ बदजुबान और बदमाश मुसलमानों ने भी हम पर कभी हमला नहीं किया, जो आपस में रोज मुहल्ले में छुरेबाजी करते थे। रामपुर की इस्लामी प्रकाशन संस्था ‘मक्तबा अलहसनात’ में भी, जहां मेरी पहली नौकरी लगी थी, (जिस पर मैंने एक संस्मरण अलग से लिखा है) मुझे जातीय भेदभाव का कोई अनुभव नहीं हुआ। 

लेकिन, मैं यह नहीं भूल सकता कि इस समरसता के वातावरण से निकल कर जब मैं अपनी बस्ती में लौटता था, तो मेरा सामना वहां के लोगों, घरों और दर-ओ-दीवार पर पसरी हुई भयावह गरीबी से होता था। मैं अपने पिता के पलायन पर रोता था, (जिस पर चर्चा इस आत्मकथा में अलग से होगी) और अपने छोटे भाईयों की दुर्दशा पर तड़प जाता था, जिनकी पढ़ाई छूट गई थी और जिन्हें घर का खर्च चलाने के लिए पुश्तैनी काम पर लगा दिया गया था। लेकिन पिता, दोनों भाई और मैं चारों मिलकर भी इतना नहीं कमा पाते थे कि खपरैल के कच्चे घर को हम पक्का कर लेते, और हमारी मां को बरसात में कुछ सुख नसीब हो जाता। मैं इस स्थिति से मानसिक रूप से टूट-सा रहा था। अजीब स्थिति थी। मैं दिन में घर के बाहर सुखासीन लोक में रहता, और दोनों भाई दिन भर गरम-सर्द झेलते थे। मैं देर रात तक बस्ती में आता था, और घर में घुसते ही मेरे भीतर कुछ उबलने लगता था। 

कोई अगर मुझसे पूछे कि सामाजिक अपमान की पीड़ा ज्यादा होती है या गरीबी की, तो मेरा उत्तर होगा– गरीबी की स्थिति में सामाजिक अपमान भी महसूस नहीं होता। गरीबी हमारे मुहल्ले में ऐसी पसरी थी कि जैसे वह दक्षिण अफ्रीका के अभागे गरीबों की कोई बस्ती हो। गंदगी, संक्रमण, भूख, कुपोषण से ग्रस्त इस बस्ती के बाशिंदे, झुकी हुई कमर वाले, हरदम खांसते-खखारते, जवानी में ही बूढ़े नजर आने वाले पीलिया रोग से झुलसे हुए लोग थे। छोटे बच्चों के जिस्मों पर चिपकी हुई खाल में एक-एक हड्डी दिखाई देती थी, चिड़ियों के पंजों जैसे उनके छोटे-छोटे हाथ-पैर होते थे, और उनके बडे़ से सिर पर अंदर को धंसी हुईं आंखें डरावनी लगती थीं। मांएं अपने इन नौनिहालों को आंचल से ढंककर आकाश में मंडराती चीलों से बचाए फिरती थीं। चालीस की उम्र में ही वृद्धों की तरह हांफते-खांसते, टीबी-ग्रस्त मर्द और औरतें, ऐसे अभागे जीव थे, जिनकी चिंता किसी को नहीं थी – न शासन को, न प्रशासन को और न नेताओं को। अनेक अवयस्क और बाल मौतों का गवाह थी हमारी बस्ती। चार मौतें तो मेरे अपने घर में ही हुई थीं। आधी सदी बीत जाने के बाद भी वे भयावह दृश्य आज भी मेरी आंखों में सजीव हैं। खपरैल और छप्पर के कच्चे घर, उनके पीछे कच्चे पाखाने, उनमें बजबजाती गंदगी, सूड़ियां, डांस-मच्छरों का प्रकोप, बरसात में टपकते घर, सड़कों पर घुटनों तक पानी और उसमें बहता हुआ घरों का पाखाना, एक ऐसा साक्षात नरक था, जिसमें हम रहने के आदी हो चुके थे, क्योंकि उससे मुक्ति का हमारे पास कोई रास्ता नहीं था। यह विडंबना ही थी कि हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले इन कमेरों को तन ढंकने को भी पर्याप्त कपड़े मयस्सर नहीं होते थे। जो कपड़े तन पर होते थे, वो भी हफ्तों नहीं धुलते थे। उनमें जुएं पड़ जाती थीं, जिन्हें हम ‘डींगर’ बोलते थे। जब भी फुर्सत मिलती, लोग-लुगाई अपने कमीज, सरई (पजमिया), घुटन्नों, बंडी, जम्फर और पेटीकोट की सिलवनों के बीच बैठे हुए डींगरों को पकड़कर बाएं अंगूठे के नाखून पर रखकर दाएं अंगूठे के नाखून से मारने बैठ जाते थे। हां, महीने में एक आध बार अच्छे जान की दुकान से दो आने की ‘सनलाइट’ या सफ़ेद साबुन की गोल बटिया लाकर औरतें कपड़े धो लेती थीं, और उसी से नहा भी लेती थीं। वैसे नहाने के लिए ‘लाइफबाय’ का लाल साबुन आता था, जिसके लिए दस आने नहीं होते थे, तो दुकानदार पांच आने में आधा साबुन भी दे देता था, जिसे वह लंबाई में तार से काटता था। पाठकों को ये हालात हैरान कर सकते हैं, पर यही यथार्थ था। ऊपर से भरपेट भोजन का अभाव, कई-कई दिन के फांके, बीमारियां; कुल मिलाकर हमारी बस्तियां डॉ. आंबेडकर के शब्दों में, यातनाएं देने के लिए बनाए गए ‘घेटो’ थे, जिनमें हम पल-पल यंत्रणा सहते थे। आज जब उन दिनों को याद करता हूं, तो बदन में सिहरन और दिमाग में गुस्सा पैदा होता है कि हमने बगावत क्यों नहीं की? 

एक दलित बस्ती (फाइल फोटो)

क्या इन सबके मूल में गरीबी थी या जाति? यह इस तरह का पेचीदा प्रश्न नहीं है कि पहले मुर्गी आई या अंडा? हमारी बस्ती जैसी गंदगी, गरीबी और नारकीय स्थिति रामपुर के हिंदूवाड़ा में नहीं थी। क्या गरीबी का कारण अशिक्षा है? इसका उत्तर भी मैं हां में नहीं दे सकता, क्योंकि शहर के और भी इलाकों और समुदायों में मैंने शिक्षा के न्यूनतम स्तर को देखा था, पर वहां उतनी गरीबी नहीं थी, जितनी कि हमारी बस्ती में थी और न वहां के लोगों का जीवन हमारी तरह नारकीय था। इस प्रश्न का उत्तर हमें डॉ. आंबेडकर के चिंतन में मिलता है कि गरीबी का कारण अशिक्षा नहीं है, बल्कि वह व्यवस्था है, जो कुछ लोगों को गरीब बनाकर रखती है। हिंदू वर्णव्यवस्था ने एक बहुसंख्यक वर्ग को जीविका के लिए गंदे और सेवा के कामों तक ही सीमित रखा, और स्वतंत्र तथा सम्मानित व्यवसाय अपनाने से रोकने के लिए उन पर अस्पृश्यता थोपी। इस व्यवस्था ने ऐसे समुदायों को शहरों और गांवों के बाहर बसाया था और अस्पृश्यता को सुरक्षित रखने के लिए उनको अनेक कठोर बंधनों में भी जकड़ कर रखा था, जिनमें यह भी था कि वे अपने बच्चों को पढ़ाएंगे नहीं और नए तथा साफ कपड़े नहीं पहिनेंगे। हमारी बस्ती का नरक सदियों तक इन्हीं बंधनों में रहने का परिणाम था। हमारा ‘कैथ का पेड़’ मुहल्ला जिस नाले के किनारे बसा हुआ है, उससे साफ पता चलता है कि किसी समय वह शहर की सीमा थी। 

लेकिन यह फलसफा हमारी बस्ती के लोग नहीं जानते थे। जानते भी कैसे? उनके मस्तिष्कों में तो ब्राह्मणों का थोपा हुआ कर्मफल का सिद्धांत पलता था, जिसे वे कर्म लिखा बताते थे। वे यह नहीं समझते थे कि जन्म हमारे वश में नहीं था। और अगर हमारा जन्म पूर्व जन्म के पापकर्मों का फल है, तो हमारे वर्तमान जन्म के कर्म क्या हैं? वे नहीं जानते थे कि यही कर्मफल उन्हें विद्रोह करने से रोकता था। वे बस यह मानते थे कि हमें भगवान ने नीच और गरीब बनाया है। उन्होंने कभी सोचा ही नहीं कि गरीबी भगवान की दी हुई कैसे हो सकती है, जबकि वे दिन-रात हाड़-तोड़ मेहनत करते हैं। उनके बनाए जूतों के व्यापारी रात को जल्दी सोते हैं और सुबह आराम से उठते हैं, बढ़िया नाश्ता करते हैं और सारी सुख-सुविधाओं के साथ रहते हैं, पर जूते बनाने वाला कारीगर देर रात तक काम करता है, सुबह तड़के ही चाय के साथ रात की बची रोटी खाकर फिर काम पर चला जाता है। क्या यह भगवान की देन है? मेरा मन इस बात को नहीं मानता था। 

दरअसल, मैंने जिस वर्णव्यवस्था का जिक्र किया है, वह पूंजीवाद को भी रास आती है। व्यापारी लोग हमारी बस्ती के कारीगरों से दो रुपए प्रति जोड़े की दर से जूते खरीद कर उसे बाजार में दस रुपए प्रति जोड़े की दर से बेचते थे। इस तरह दूकान और सेल्समैन का खर्चा निकालकर भी वे बिना श्रम किए पांच रुपए प्रति जोड़ा मुनाफा कमाते थे। वे दिनभर में बीस जोड़े जूते बेचकर सौ रुपए कमाते थे, तो उन्हीं जूतों के लिए कारीगर के हिस्से में दो रुपए जोड़े के हिसाब से चालीस रुपए आते थे। क्या ऐसी व्यवस्था श्रम करने वालों को आत्मनिर्भर बना सकती है? यही वह पूंजीवादी वर्णव्यवस्था है, जो गरीब को गरीब और धनी को धनी बनाती है।

पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादनों के साधनों पर बहुत ही छोटे-से वर्ग का स्वामित्व होता है, जो स्वयं उत्पादन नहीं करता, लेकिन उत्पादनों का मालिक होता है। वह श्रमिकों के श्रम पर मौज मारता है। यही वर्ग सत्ता पर अधिकार जमाकर शासक वर्ग बनता है और अपने हित में सत्ता का उपयोग करता है। यह वर्ग श्रमिकों का शोषण करने वाली नीतियों का सबसे बड़ा पैरोकार होता है।

जूते के जिस कारखाने में मेरे बाप काम करते थे, वहां शोषण और दमन का खेल चलता था। कारखाना-मालिक का जाल कारीगर को कर्ज में फंसाने वाला होता था। वह जाल वैसा ही था, जैसे बहेलिया दाने डालकर पक्षियों को पकड़ता है। कारखाना मालिक अपने कारखाने में मासिक वेतन या दिहाड़ी पर काम नहीं करवाता था, बल्कि वह कारीगर को अपनी खुद की दुकान से कच्चा माल उधार दिलवाकर उससे अपने यहां जूते तैयार करवाता था और खुद ही उन जूतों को खरीदता था। वह मांगने पर कारीगर को रोज के खर्च के वास्ते भी दो-तीन रुपए देता था। हिसाब वाले दिन वह बनाए गए जूतों की रकम में से कच्चे माल के और रोज के देने वाले रुपए काटकर बकाया रुपए कारीगर को दे देता था। ऊपर से यह योजना बड़ी अच्छी और ईमानदार लगती थी, पर हकीकत में इसमें कारीगर का दोहरा शोषण था, जिसमें फंसकर कितने ही जाटव कारीगर तबाह हो गए थे। इस शोषण के दो अहम सूत्र थे, एक, उधार का कच्चा माल, जो कारखाना-मालिक की दूकान से ही आता था। उसमें हर चीज के रेट बाजार के रेट से पांच-दस रुपए ज्यादा होते थे। पर कारीगर के लिए उसकी दूकान से ही माल लेना अनिवार्य था, वरना वह कारखाने में काम नहीं कर सकता था। इस तरह पहला शोषण कच्चे माल में हुआ। दूसरा शोषण मजदूरी में था। जो जूते कारीगर बनाते थे, उनको कारखाना-मालिक जूतों में तमाम तरह की कमियां निकालकर बहुत सस्ते में खरीदता था, प्रति जोड़ी दो या तीन रुपए में। ऐसा नहीं था कि कारीगर अपने बनाए जूते बाजार में नहीं बेच सकते थे, वे बेच सकते थे; पर उसमें दो बाधाएं थीं– एक, खर्चे के लिए रोज लिए जाने वाले रुपए, और, दो, कच्चे माल का उधार। इन दोनों को चुकता करने के बाद वे अपने जूते कहीं भी बेच सकते थे। पर उसके बाद वे उस कारखाने में काम नहीं कर सकते थे। गरीब दलितों के पास कहां पैसा था, जो वे यह कर्ज चुकाते। इसलिए वे किसी भी भाव में कारखाना-मालिक पर ही निर्भर रहने के लिए विवश थे। इस षडयंत्र में जिस दिन हिसाब होता, कारीगरों के हिस्से में उधारी आती थी, मिलता कुछ नहीं था। हालांकि कारखाना-मालिक मुसलमान थे, और उसी शोषण के पैसे से वे हज करके हाजी हो गए थे, इस षडयंत्र में मेरे बाप सड़क पर आ गए थे और मुहल्ले के कितने ही कारीगर कर्ज में डूबकर रामपुर से पलायन कर गए थे। 

हमारी बस्ती के ये कारीगर अपनी बदहाल स्थिति में भी परम आस्तिक थे, पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, तीर्थ सब करते थे, और इस धर्मकर्म के लिए वे साहूकार से कर्ज भी लेते थे। उन्हें आशा बनी रहती थी कि शायद भगवान उनकी पूजा से प्रसन्न होकर उनकी बिगड़ी बना देंगे। बहुत ज्यादा की मांग भी उनकी भगवान से नहीं होती थीं। वे बस अपनी कमाई में बरकत की दुआ मांगते थे। लेकिन, भगवान को प्रसन्न करने के उनके सारे अनुष्ठान निष्फल जाते थे। उनकी कमाई में बरकत कैसे हो सकती थी, जब उन्हें उनके श्रम का ठीक-ठीक मूल्य ही नहीं मिलता था। पर, यह समझने के लिए उनके पास दिमाग नहीं था। वे यह भी नहीं देख पा रहे थे कि अगर गरीबी-अमीरी का संबंध भगवान से होता, तो भगवान ने सबसे बुरा हाल नास्तिकों का किया होता। लेकिन कोई भी नास्तिक गरीब नहीं है। यह सवाल भी उनके जहन में नहीं आता था कि भगवान उनके साथ भेदभाव क्यों करता है, जबकि वे उनके भक्त हैं? क्या कारण है कि उसकी कृपा अमीरों पर ही होती है, गरीबों पर नहीं? पूजा-पाठ तो अमीर भी करते हैं, पर वे दुखी नहीं हैं। फिर गरीब ही क्यों दुखी हैं? भगवान गरीबों को ही क्यों सताता है? ये सवाल मेरी बस्ती के लोगों के जहन में कभी नहीं आते थे। पर मुझे ये सवाल बहुत परेशान करते थे, और शायद इन्हीं सवालों ने मुझे नास्तिक बनाया था।

रामपुर में जूते के कारखानों के मालिक मुसलमान थे। लेकिन वे अगर हिंदू बनिया भी होते, तो मजदूरों की स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ता। वे व्यापारी पहले थे, मजदूरों पर दया-धर्म से नहीं, पैसे की ताकत से राज करते थे। मैं कोई सात-आठ साल का था, जब अंगूरी बाग के पास बैजोड़ी टोला में भैए भाई के कारखाने में अपने पिता को, जहां वह काम करते थे, रोटी देने जाता था। हमारे घर से कारखाना पांच किलोमीटर दूर था। मां अल्मूनियम के कटोरदान में कपड़े में रोटियां लपेटकर रखती, उसके ऊपर दाल की कटोरी रखकर, ढक्कन लगाकर कटोरदान को  कपड़े से बांधकर मेरे हाथ में थमा देती थी। जिस दिन दाल या सब्जी नहीं बनती थी, तो मां गंठी रखती या लहस्सन की चटनी बनाकर रखती थी। मैं पैदल ही पक्का पुल और पुराना गंज होते हुए उस गली से निकलकर, जिसमें आज विश्व-विख्यात इस्लामी विद्वान मौलाना यूसुफ इस्लाही साहेब का घर पड़ता है, कारखाना पहुंचता था। मेरे पिता जब कटोरदान खोलते, तो सारी दाल रोटियों में मिल चुकी होती थी। लेकिन वे मुझसे कुछ नहीं कहते थे, उसी दाल सनी रोटी को माथे से लगाकर खा लेते थे। इतनी महत्वपूर्ण थी मजदूर के लिए रोटी, जो आज भी है। 

व्यापारियों के शोषण-तंत्र ने बस्ती के कारीगरों को साहूकारों का कर्जदार बना दिया था। कारण, मजदूर का जीवन सिर्फ रोटी से ही नहीं चलता; उसे बच्चों की शादियां भी करनी होती हैं, घर की मरम्मत भी करानी होती है, तन ढंकने के लिए कपड़े भी चाहिए होते हैं, बीमार पड़ने पर इलाज की भी जरूरत पड़ती है, और इस सब के लिए उसे पैसे चाहिए। आदमी ये सारे खर्चे अपनी बचत से करते हैं। पर बस्ती के कारीगरों को इतना पैसा कहां मिलता था कि वे बचत कर सकें? जब वे ठीक से दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पाते थे, तो बचत कहां से करते? इसका कारण है, शोषण का तंत्र, जो मजदूर को बचत नहीं करने देता। इसलिए हमारी बस्ती के कारीगर अपने अन्य खर्चों के लिए साहूकार से कर्ज लेते थे, जिसका सूद उस वक्त भी दस रुपया सैकड़ा था। ऐसे दो साहूकार मेरी स्मृति में घूमते हैं। उनमें एक जैन बनिया था और दूसरा हिंदू बनिया। एक की शहर में जिला सहकारी बैंक के निकट कपड़े की दूकान थी, और दूसरा बनिया पुराना गंज का था। इन दोनों के कारिंदे मुसलमान थे, जो बहुत बदतमीजी से पेश आते थे। अक्सर वे तू-तड़ाक और गालियों से बात करते थे। मिस्टन गंज वाला साहूकार हर बुधवार को आता था और पुराने गंज के बनिए का डरावने चेहरे वाला कारिंदा कभी भी धमक पड़ता था, जो हमेशा एक मोटा लट्ठ अपने हाथ में लेकर चलता था। हालांकि उसका लट्ठ ढपोरशंख था, जो डराता था, चलता नहीं था। पर, वह गालियां बहुत मोटी-मोटी और गंदी-गंदी देता था। उसकी गालियां बस्ती में दहशत पैदा करती थीं। उससे डरे हुए लोग उसकी गालियां चुपचाप सुनते रहते थे। वह लाठी वाला खां साब एक काम और गलत करता था। अगर किसी की तरफ तीन महीने का ब्याज बकाया होता, और वह एक महीने का ब्याज देता, तो वह उस पैसे को बनिए के पास जमा नहीं करता था। इस प्रकार वह भी गरीबों का शोषण करता था। ये साहूकार ब्याज में तो शोषण करते ही थे, एक और भी शोषण करते थे। वह यह था कि अगर कोई उनसे सौ रुपए कर्ज लेता था, तो वे दस रुपए अग्रिम ब्याज के और दस रुपए ‘लिखाई’के काटकर 80 रुपए उसके हाथ पर रखते थे। यह लिखाई क्या होती थी, इसे कोई नहीं जानता था। पर, साहूकार से मजदूर सौ रुपए की लिखा-पढ़ी करके 80 रुपए घर लेकर आता था, जिसका हर महीने दस रुपए ब्याज देता था, जबकि कायदे से 80 रुपए पर 8 रुपए ही ब्याज बनता था। यह चोरी और सीना-जोरी थी, जो साहूकार गरीबों पर करता था।

संयोग से उन्हीं दिनों प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक बड़ी घोषणा की थी, जिसमें बैंकों का राष्ट्रीयकरण, और साहूकारों से लिया गया गरीबों का सारा कर्जा माफ कर दिया गया था। इसके बाद ही उन दोनों जालिम बनियों से बस्ती के लोगों की जान छूट गई थी। 

क्रमश: जारी

(संपादन : राजन/नवल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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