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एक दलित बस्ती की कथा कैथ का पेड़ (सातवां भाग)

डॉ. आंबेडकर का मत था कि किसी भी जाति के लोग अपनी इच्छा से जूठन और मरे हुए जानवर का सड़ा मांस नहीं खाते थे। दलित जाति के लोग अगर जूठन और मरे हुए जानवर का सड़ा मांस खाते थे, तो इसलिए कि उसे स्वच्छ खाना और ताजा मांस उपलब्ध नहीं होता था। उन्हें स्वतंत्र जीविका के अवसरों से वंचित और जीवित रहने के लिए पराश्रित बनाकर रखा गया था। पढ़ें, कंवल भारती द्वारा लिखित आत्मकथात्मक शृंखला का सातवां भाग

[दलित साहित्य में आत्मकथाओं का खास महत्व रहा है। सामान्य तौर पर आत्मकथाओं के लेखक अपने जीवनानुभवों को उद्धृत करते हैं। इसमें उनकी सफलताएं व असफलताएं भी शामिल होती हैं। कंवल भारती ने आत्मकथा के बजाय सामुदायिक स्तर पर कथा लिखी है। अपनी इस कथा में वह अपने पैतृक शहर रामपुर के उस मुहल्ले के बारे में बता रहे हैं, जहां उनका जन्म और परवरिश हुई।]

छठे भाग से आगे 

बुद्ध ने जन्म को भी दुख कहा है और मरण को भी। मैं नहीं जानता कि बुद्ध ने सही कहा है या गलत? पर, आज जब मैं पीछे मुड़कर अपनी बस्ती के लोगों को देखता हूं, तो बुद्ध मुझे गलत दिखाई नहीं देते। हमारे लोगों का संपूर्ण जीवन दुख से शुरू होता था और दुख में ही खत्म हो जाता था। वे कीड़े-मकोड़ों की तरह पैदा होते थे और कीड़े-मकोड़ों की तरह ही मर जाते थे। उनका जन्म भी दुख था और मरण भी। शायद बुद्ध को यह संबोधि ऐसे ही श्रमिक लोगों को देखकर प्राप्त हुई होगी। पर इन दुखी श्रमिकों में भी, जो रोज थोड़ा-थोड़ा मरते थे, गजब की उत्सवधर्मिता थी। वे दुखी थे, पर दूसरों का दुख बांटते थे। वे असहाय थे, पर सबकी सहायता करते थे। वे, हर्ष-शोक, सब मिलकर मनाते थे।

यही कारण था कि हमारी बस्ती में विवाह के कारज में सामूहिक भागीदारी होती थी। पचास साल पीछे का वह समाज सामूहिक रूप से कितना सहकारी था! आज उसकी परंपराओं पर गर्व होता है, जिनमें से शायद आज भी कुछ बची रह गई हैं।

अभी कुछ दिनों पहले की बात है। मैं एक ‘गोद भराई’ की रस्म में शामिल होने के लिए अपनी रिश्तेदारी में गया था। मुश्किल से बीस लोग थे। वहां हलवाई खाना बना रहे थे। एक ही घर में चहलपहल थी, शेष बस्ती में पूरी उदासीनता पसरी हुई थी। मैं वहां एक ओर बैठा हुआ सोच रहा था कि समय कितना बदल गया है। हम कहां से कहां आ गए हैं? हमारी बस्ती में जब किसी लड़के या लड़की की शादी होती थी, तो वह पूरी बस्ती के लिए उत्सव होता था। उसमें बच्चों की धमाचौकड़ी तो होती ही थी, बड़े लड़के भी, जो कल तक आपस में लड़ाई-झगड़े करते थे, उस दिन जिम्मेदार नागरिक बन जाते थे। पतंग के कागजों से बनी रंगबिरंगी झंडियां लगाने, पेड़ पर चढ़कर सबसे ऊंची डाल पर लाउडस्पीकर बांधने, जनवासे में दरियां बिछाने, गैस की लालटेनें लाने, उनमें मेंटल बांधने, तेल डालकर उन्हें जलाने, सब्जियां काटने और आटा माड़ने तक का सारा काम ये छोटे नागरिक ही संभालते थे, और बिना किसी शिकायत के सब अपना काम बखूबी निभाते थे। एक मिठाई को छोड़कर, जिसे हलवाई बनाता था, सारा खाना बस्ती के लोग ही तैयार करते थे। घरों के आंगन में ही वे किसी बड़ी खाली जगह पर ईंटों के बड़े चूल्हे बनाकर रखते। एक-दो लोग ईंटें लेकर आते, तो दो लोग चूल्हा बनाने का काम करते, कोई टाल से सूखी लकड़ियां लेकर आता, तो कुछ लोग मिलकर कड़ाही, भगोने, करछे, बड़ी परातें, गंगासागर, डोंगे, पतीले, छन्ने, चमचे, वगैरा बर्तनों को राख से मांज-धोकर साफ करके रखते। ये बर्तन पंचायती होते थे, जो बस्ती के ही किसी जिम्मेदार आदमी के घर में रखे होते थे। खाने के मीनू में पूड़ी, सब्जी-काशीफल और आलू टमाटर की सब्जी, रायता, और लड्डू, तो कभी-कभी कड़ी-भात और घी-बूरा भी होता था। जिस दिन भात बनता, उस दिन बच्चों की बहुत मौज होती थी। कारण, भात पसाकर बनाया जाता था। दो बांस पर एक बड़े से छन्ने को बांधकर रखा जाता और पके हुए चावल के भगोनों को माड़ समेत उस छन्ने पर उड़ेल दिया जाता था। बच्चे लोग, जो इस अवसर के लिए अपने घरों से लोटा, पतीली, गिलास आदि बर्तन लाकर पहले से ही तैयार रहते थे, अपने बर्तनों को छन्ने के नीचे रख देते थे, जो मांड़ से भर जाते थे, बाकी सारा मांड़ नाली में चला जाता था। बच्चे लोग अपने बर्तनों में भरे हुए मांड़ में नमक मिलाकर पीते थे। पूड़ियों का आटा माड़ने के लिए आठ-दस घरों से एक-एक परात मंगाई जाती थी। हर घर में एक ही परात होती थी। पर, चूंकि, बस्ती के सभी परिवारों की ‘चूल्हा-नौत’ दावत होती थी, इसलिए परात इकट्ठी करने में कोई समस्या नहीं आती थी। चूल्हा नौत दावत का मतलब होता था चूल्हे को नौतना। यानी, उस दिन किसी भी घर में चूल्हा नहीं जलता था, घर के सभी सदस्य शादी वाले घर में ही खाना खाते थे। मोहल्ले से बाहर की बस्तियों में हर घर में एक-एक आदमी की दावत भेजी जाती थी। इस दावत को ‘सद्दा’ कहा जाता था। कह सकते हैं कि यह इसका तकनीकी नाम था। अपनी और बाहर की सारी जाटव बस्तियों में ‘सद्दा’ की आवाज लगाने का काम जिस व्यक्ति को सौंपा जाता था, वह इस काम को अंजाम देने के लिए तुरंत निकल पड़ता था। उन दिनों साईकिल भी हर घर में नहीं होती थी, इसलिए इस काम के लिए भी उसे अधिकतर पैदल ही जाना पड़ता था, जिसमें वह पूरा दिन खपा देता था। अथवा, वह किराए की साइकिल से जाता था, जो उन दिनों चवन्नी घंटे के हिसाब से मिलती थीं।

इकट्ठा की गईं परातें आटा माड़ने के लिए लड़कों को दे दी जाती थीं। वे दो-दो किलो आटा उन परातों में माड़ते। और मड़ा हुआ आटा एक कमरे में जाकर दे आते, जहां दस-बारह औरतें चकला-बेलन लिए बैठी होती थीं। वे उस आटे की पूड़ियां बेलतीं और एक डलिया में रखती जातीं। उधर बाहर चूल्हे पर पुरुष लोग सब्जियां बना रहे होते थे। सब्जियां बनाने के बाद वे बड़ी-सी कड़ाही में एक टिन डालडा का उड़ेलते, उसे खौलाते और फिर औरतों द्वारा बेली हुई पूड़ियों को छानते। हलवाई से लड्डू एक दिन पहले बनवाकर भगोनों में भरकर रख लिए जाते थे। फिर खाना खाने की आवाज लगवाई जाती। खाना खाने की जगह कोई अलग से नहीं होती थी, बल्कि बखरी में दूर तक पसरे आंगन को ही बुहारकर उस पर पट्टे, बोरे और दरियां बिछा दी जाती थीं। जहां बिछावन नहीं होता था, वहां नंगी जमीन पर ही लोग उकड़ूं बैठ जाते थे। तब पत्तलों पर खाना खाने का रिवाज था। पत्तलें बनी-बनाई बाजार में मिलती थीं। पानी और रायते के लिए पुराने गंज से कुम्हारों के यहां से कुल्हड़ मंगाए जाते थे। जब खाने के लिए लोगों की पंगत बैठ जाती, तो बस्ती के ही कुछ लोग सर्विस-ब्याय यानी परोसने वाले सेवक की भूमिका में आ जाते थे। इस अवसर पर सभी लोग अपने जूते-चप्पल बाहर उतार देते थे और नंगे पैर हो जाते थे। कुछ सेवक हरेक के आगे पत्तलें रखते, कुछ उन पर दाल और सब्जियां परोसने का काम करते, कुछ लड़के हाथों में पानी के जग लिए रहते और जल-जल कहते हुए हर कुल्हड़ में पानी भरते जाते। दो व्यक्ति पूड़ियों की डलिया लेकर पत्तलों पर पूड़ियां परोसते। एक व्यक्ति दोनों हाथों में लड्डुओं की परात थामे रहता, और एक व्यक्ति परात में से लड्डू निकाल कर हरेक की पत्तल पर रखता जाता। बड़ों को चार और बच्चों को दो लड्डू दिए जाते, यही नियम था। पर अगर बाहर की बस्ती से, जहां प्रति घर एक आदमी की दावत जाती थी, किसी घर से बड़े आदमी की जगह कोई बच्चा आता था, तो उसे चार लड्डू दिए जाते थे। सेवक लोग हरेक की पत्तल पर जाकर देखते थे कि किसी चीज की कमी तो नहीं है। वे बड़े प्रेम से ‘एक पूड़ी और एक पूड़ी और’ के अनुरोध के साथ लोगों को खाना खिलाते थे। एक बात यहां और उल्लेखनीय है कि कोई भी शराब पीकर वहां नहीं आता था, हालांकि उस दौर में बस्ती में शराब पीने वाले भी इक्के-दुक्के ही लोग होते थे। अधिकांश लोग शराब से विरत ही रहते थे। 

पहली पंगत खाना खाकर उठती, तो दूसरी बैठती। दूसरी के बाद तीसरी। और जब सब मर्द खाकर निबट जाते, तो सबसे अंत में बेचारी अबला औरतों का नंबर आता था। वे बेचारी जब रोटी के इंतजार में सोने लग जाती थीं, तो उन्हें बुलाने के लिए बस्ती में आवाज लगवाई जाती थी। और वे बेचारी नींद से जागकर घर से थाली, कटोरा और गिलास लेकर आती थीं। यह समझ में आता है कि औरत की गणना पितृसत्ता में अंत में ही होती है, पर पत्तलों और कुल्हडों के होते हुए उनका अपने बर्तनों को लेकर आने का कारण यह था कि उनकी पंगत नहीं लगती थी, वे सब एक कमरे में समा जाती थीं और थाली को घुटनों पर रखकर या हाथ में लेकर अपने छोटे बच्चों के साथ खाती-खिलाती थीं। वे बचे हुए खाने को साथ में भी ले जाती थीं, जबकि मर्द ऐसा नहीं कर सकते थे। खैर, बहुत बार ऐसा भी होता था कि औरतों का नंबर आने तक अक्सर कोई सब्जी या कोई अन्य आईटम कम पड़ जाता था या खत्म हो जाता था। तब बेचारी उन औरतों को ही या तो फिर से बनाना पड़ता था या जो उपलब्ध होता था, उसी से काम चलाना पड़ता था। इसी समय परोसने वाले सेवक भी खाना खाते थे। वे परोसते भी थे और इस अवसर का लाभ उठाते हुए अपनी दिलकश भाभियों के साथ हंसी-मजाक भी कर लेते थे। वे भाभियां भी उसका लाभ उठाते हुए उनसे लड्डुओं का अतिरिक्त भोग लगवा लेती थीं। माहौल कुछ ऐसा हो जाता था कि कुंवारे देवरों को भाभियों से नसीहत भी मिल जाती थी। कोई-कोई तो यहां तक कह देती थी कि ‘देवर जी, जल्दी शादी कर लो, तुम्हाए बच्चे पिछाए होते जा रए हैं।’ उन देवरों के पास जवाब भी तैयार रहता था। तुरंत कहते, ‘भौजी, कोई तुम जैसी मिलै तो कर लूं।’ कोई कहता, ‘भाभी अपनी भैन से करा दो न, मेरी शादी!’ इसी हंसी-मजाक में औरतों का भी खाना निबट जाता।

लेकिन ऐसे सभी अवसरों का एक घृणित, मार्मिक और हृदयविदारक दृश्य भी मेरी स्मृतिपटल पर साथ-साथ चलता है, जो भुलाए नहीं भूलता। यह दृश्य जूठन बटोरने का है। जिन जूठी पत्तलों को उठाकर बाहर घूरे पर फेंका जाता था, वहां उनमें से जूठन निकालने के लिए एक मेहतर परिवार कुछ बर्तन लिए बैठा होता था। उनके साथ ही मुहल्ले के कुत्ते भी खड़े होते थे। जब पत्तलें फेंकी जातीं, तो कुत्ते उन पर टूट पड़ते थे, जिन्हें वे मेहतर अपने डंडे से भगाकर उन पत्तलों पर से बची हुई पूड़ी और सब्जी को अपने बर्तनों में अलग-अलग रखना शुरु कर देते थे। उनका यह सिलसिला अंतिम पंगत के खाना खाने तक चलता था। जूठन बटोरने की यह प्रथा पूरे शहर के मेहतरों में प्रचलित थी। मेरी शादी 1975 में हुई थी, और 1975 तक मैंने इस प्रथा को देखा था। ये मेहतर उसी मुहल्ले में इस प्रथा को अंजाम देते थे, जो उनके ठिकाने में आते थे। दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ में इस प्रथा का जो चित्रण किया है, वह अक्षरशः सत्य है। दलित लेखक सूरजपाल चौहान ने तो अपनी आत्मकथा ‘तिरस्कृत’ में जूठन से भरी बाल्टी को अपने सिर पर ढोने की बेबसी का भी चित्रण किया है।

एक दलित बस्ती (फाइल फोटो)

आज यह प्रथा अस्तित्व में नहीं है। पर अगर कोई यह सोचता है कि सामाजिक जागरण ने इस प्रथा को समाप्त किया है, तो वह गलत सोचता है। इस अमानवीय प्रथा का अंत पूंजीवाद के विकास ने किया है। इसके विरुद्ध समाजवादियों ने भी आवाज नहीं उठाई। समानता और भाईचारे का संदेश देने वाला इस्लाम और सिख धर्म भी इसके विरुद्ध कभी सक्रिय नहीं हुआ। होता भी क्यों? सभी को तो उनकी जरूरत थी। इसे समाप्त करने का काम उस पूंजीवादी सभ्यता ने किया, जिसे हम पानी पी-पीकर कोसते हैं। जैसे-जैसे सीवर-सिस्टम और फ्लश के पश्चिमी शौचालय अस्तित्व में आते गए, शुष्क शौचालयों का वजूद मिटता गया, और उसके कारण मेहतरों का भी घरों में जाकर मानव-मल उठाने का काम बंद होता गया। इधर विवाहों तथा मांगलिक कार्यों में भी बहुत बड़ा परिवर्तन आया। अब ये मांगलिक कार्य घरों की अपेक्षा होटलों, बैंक्वेट हॉलों और धर्मशालाओं में संपन्न किए जाने लगे हैं, और इन अवसरों पर अब खाना बनवाने का काम हलवाईयों से कराया जाने लगा है। पत्तलों की जगह प्लेटों ने ले ली है, और पंगत में बैठकर खाने की जगह, अब खड़े होकर स्वयं खाना लेकर खाने की नई संस्कृति अस्तित्व में आ गई है। जूठन इस नई संस्कृति में भी फेंकी जाती है, पर प्लेटों में से जूठन बटोरकर खाने की घृणित प्रथा अब विदा हो गई है। यह कहना भी गलत न होगा कि नई पीढ़ी में शिक्षा के विकास ने भी मानव-गरिमा का भाव जगाया है, जिसने उनमें जूठन के प्रति घृणा पैदा की है।

लेकिन यहां यह सवाल जरूर विचारणीय है कि क्या किसी दलित जाति ने जूठन खाने के काम को अपनी मर्जी से अपनाया था? डॉ. आंबेडकर का मत था कि किसी भी जाति के लोग अपनी इच्छा से जूठन और मरे हुए जानवर का सड़ा मांस नहीं खाते थे। दलित जाति के लोग अगर जूठन और मरे हुए जानवर का सड़ा मांस खाते थे, तो इसलिए कि उसे स्वच्छ खाना और ताजा मांस उपलब्ध नहीं होता था। उन्हें स्वतंत्र जीविका के अवसरों से वंचित और जीवित रहने के लिए पराश्रित बनाकर रखा गया था। और, जूठन खाने की प्रथा इसी प्रवंचना से पैदा हुई थी।

मेहतरों की भाषा में पाखानों को ‘ठिकाने’ और उन्हें साफ करने के काम को ‘कमाना’ कहा जाता था। ठिकाने पुश्तैनी होते थे, और किसी भी मेहतर के ठिकानों में कोई दूसरा मेहतर घुसपैठ नहीं कर सकता था। मेहतर के न आने पर पाखाने भले ही सड़ जाएं, पर बस्ती का कोई व्यक्ति किसी अन्य मेहतर को नियुक्त नहीं कर सकता था और न ही कोई अन्य मेहतर किसी दूसरे के ठिकाने में जाकर कमाने की हिम्मत करता था। इसका कारण यह था कि ठिकाने बेचे जाते थे। अगर कोई मेहतर किन्हीं कारणों से किसी बस्ती के ठिकाने छोड़ना चाहता था, तो वह उन्हें अपने किसी रिश्तेदार या अन्य मेहतर को कुछ रुपयों में बेच देता था। फिर वही उस बस्ती का मेहतर होता था। असल में, बस्ती का मेहतर सिर्फ मेहतर भर नहीं होता था, बल्कि जन्म, विवाह और अन्य मांगलिक अवसरों पर उसका सम्मान एक नेग के रूप में भी होता था। मसलन, विवाह में कन्या पक्ष की ओर से लगन में, और वर पक्ष की ओर से विदाई में, बस्ती के मेहतर के लिए कपड़े और कुछ रुपए नेग में दिए जाने का रिवाज था। मैं मानता हूं कि ये सारी परंपराएं सामंती थीं, और अपमानजनक थीं। इसलिए नेग का ठप्पा भी मेहतर, चमार, धोबी और नाई आदि दलित जातियों के माथे पर ही लगा। मुझे याद आता है, एक सेमिनार में एक दलित वक्ता ने इन्हीं सब चीजों का जिक्र करते हुए सवर्णों से, मौका मिलने पर, बदला लेने का आक्रोश व्यक्त किया था। मैंने उसका विरोध करते हुए कहा था कि तब हम में और उनमें अंतर क्या रह जाएगा? हम बुद्ध और बाबासाहेब के अनुयायी हैं, जो सिखाते हैं कि हिंसा से हिंसा, बैर से बैर और अलगाव से अलगाव को समाप्त नहीं किया जा सकता।

हमारे यहां विवाह में एक रस्म होती थी ‘नौता’ या ‘न्यौता’, जो आजकल ‘लिफाफा संस्कृति’ में बदल गई है। उन दिनों हमारी बिरादरी में सभी जाटव बस्तियों – झंडा, पुराना गंज, बगिया, बड़ी बस्ती, छीपीयान, नालापार, ठोठर और कैथ का पेड़ – में हर विवाह में हर घर से नौता पड़ता था। हर घर में नौते की कापी रहती थी, जिसमें दिया गया नौता दर्ज होता था। कापी में बायीं तरफ ‘उतारू’ और दायीं तरफ ‘चढ़ाऊ’ नौता लिखा जाता था। जिस घर में कोई पढ़ा-लिखा नहीं होता था, वह अपना नौता देते वक्त तत्काल अपनी कॉपी में लिखवा लेता था। विवाह में नौता लेने का कार्य खाने की पंगत बैठने से दो घंटे पहले किया जाता था। यह काम रात में होता था। जमीन पर दरी बिछाई जाती, लालटेन जलाकर रखी जाती और फूल की थाली या थाल में आधा या किलो भर चावल भर लिए जाते। एक पढ़े-लिखे व्यक्ति को नौता लिखने के लिए कॉपी लेकर बैठा दिया जाता। शादी वाले घर से वर या कन्या के पिता अपनी पुरानी कॉपी लेकर बैठते थे। लोगों का आना शुरू होता और उसी के साथ नौता लिखना शुरू हो जाता। कॉपी पर सबसे पहले जो लिखा जाता था, उसका मजमून इस तरह होता था– ‘आज तारीख (शादी की तारीख) व दिन (तारीख का दिन) को श्री (वर या कन्या के पिता का नाम) पुत्र श्री (पिता की वल्दियत), निवासी (मुहल्ले का नाम) के सुपुत्र या सुपुत्री (वर या कन्या का नाम) के शुभविवाह में, इस प्रकार नौता आया।’ फिर उसके बाद नौता लिखना शुरू हो जाता। जो नौता देता, वह यह भी बताता कि चढ़ाऊ है या उतारू। कोई दो रुपए देता, तो बताता कि यह उतारू है, तब लिखने वाला उसे बायीं तरफ लिखता। अगर वह बताता कि यह चढ़ाऊ है, तो वह उसे दायीं तरफ लिखता। कोई पांच रुपए देता और कहता कि दो उतारू हैं और तीन चढ़ाऊ हैं, तो दो रुपए बायीं ओर तथा तीन रुपए दायीं ओर लिखे जाते। चढ़ाऊ और उतारू को लेनदारी और देनदारी के अर्थ में समझा जाना चाहिए। अगर किसी नौते पर विवाद होता, तो उसका निबटारा पुरानी कॉपियों में देखकर किया जाता था। अक्सर विवाद उतारू नौते पर होता था। अगर कोई उतारू में दो या एक रुपया कम नौता लिखवाता, तो वहां मौजूद कन्या या वर का पिता अपनी कॉपी देखकर कहता कि उसने तुम्हारी फला लड़की की शादी में, जो फला तारीख को हुई थी, पांच रुपए नौते में चढ़ाऊ दिए थे। कॉपी देखकर उसे भी बात माननी पड़ती थी। कॉपी का लिखा ही सही माना जाता था। इसमें भूल-चूक तो हो जाती थी, पर बेईमानी एक पैसे की भी नहीं होती थी। नौते की यह परंपरा विवाह में आर्थिक सहायता का एक अतिरिक्त स्रोत थी। आर्थिक सहायता का एक अन्य स्रोत ‘भात’ की परंपरा भी थी, जो आज भी है। इस परंपरा में वर या कन्या की माता के मायके से नकदी और कपड़ों के रूप में मदद आती थी। आम तौर से यह भाईयों की ओर से अपनी बहिन की सहायता होती है। नौता उतारू के रूप में लौटाना होता था, पर भात नहीं लौटाया जाता। उन दिनों नौते की रकम रुपए-दो रुपए की ही होती थी। उस दौर में यह रकम भी बहुत थी। यह एक आदमी की दिनभर की मजदूरी होती थी। इस रस्म से पांच-छह सौ रुपए इकट्ठे हो जाते थे, जो सस्ती की उस दौर में काफी मायने रखते थे।

विवाह और नौते में सामुदायिकता का यह भाव अब दिखाई नहीं देता। एक तरह से सहकारिता पर आधारित यह व्यवस्था अब पूरी तरह खत्म हो गई  है।

यही सामुदायिकता और सहकारिता की भावना मृत्यु के अवसर पर भी देखी जाती थी। विवाह के सद्दे की खबर की तरह ही मृत्यु की खबर भी सातों मुहल्लों में भिजवाई जाती थी। जिस बस्ती में मौत होती, उसकी खबर सभी बस्तियों में भेजने के लिए एक आदमी को भेजा जाता। वह न सिर्फ यह खबर देता कि फलां मुहल्ले में गमी हो गई है, बल्कि मरने वाले का नाम और मैयत या मिट्टी उठने का समय भी बताता था। खबर सुनकर लोग अपने काम से जल्दी उठ जाते और समय से पहले ही गमी वाले घर पहुंच जाते थे। जो समय पर नहीं आ पाते थे, वे सीधे श्मशान पर पहुंचते थे। मृतक के घर के पास एक खाली जगह पर दरियां बिछा दी जाती थीं, जिन पर लोग आकर बैठते जाते थे। उनके बीच में एक-दो हुक्के और कुछ बीड़ी के बंडल व माचिसें रख दी जाती थीं। हर बस्ती में कुछ लोग थे, जो अर्थी को बांधने में निपुण होते थे। उन्हीं लोगों को अर्थी बांधने का काम सौंपा जाता था। कफन अन्य सामग्री को छोड़कर अर्थी का सामान कुम्हारों के यहां से लाया जाता था, जिनमें बांस, फूंस, खपच्चियां होती थीं। कफन बाज़ार जाकर कपड़े की दुकान से लाया जाता था। यह भी नियम था कि जिस घर में मौत होती थी, उस घर का सदस्य कफन आदि सामग्री लेने नहीं जाता था। पर खर्चा सारा अंतिम क्रिया का मौत वाला वही परिवार करता था। अगर वह परिवार बहुत गरीब होता, तो अंतिम क्रिया का सारा इंतजाम परस्पर सहयोग से इतनी आसानी से हो जाता था कि पता ही नहीं चलता था। यह सामुदायिकता थी बस्ती में। अमूमन शाम को चार बजे तक अर्थी उठ जाती थी। इसके बाद रात में अंतिम संस्कार नहीं किया जाता था।

रामपुर की कोसी नदी के तट पर बने श्मशान घाट तक शवयात्रा पैदल ही जाती थी। आज यह श्मशान घाट बहुत ही खूबसूरत और मनमोहक ‘स्वर्गधाम’ बना दिया गया है, जहां आराम से बैठाकर बतियाया जा सकता है। पर तब वह एक डरावना स्थल होता था। जब तक चिता जलती, तब तक सभी लोगों को खड़े रहना ही पड़ता था। जब चिता में आग लग जाती, तो उपस्थित लोगों की गणना की जाती थी, और यह पता लगाया जाता था कि किस मुहल्ले और किस घर से गमी में कौन नहीं आया है। उस अनुपस्थित व्यक्ति पर उसी वक्त अर्थदंड लगाया जाता था। अगर कोई व्यक्ति गमी के अवसरों पर लगातार अनुपस्थित रहता था, तो उसका हुक्कापानी बंद कर दिया जाता था, अर्थात् सामाजिक बहिष्कार। इसलिए कुछ लोग, जो किसी कारण से खुद नहीं आ सकते थे, दंड से बचने के लिए अपने लड़के को भेज दिया करते थे। ऐसी थी सामुदायिकता! जब घर से श्मशान तक शवयात्रा गुजरती थी, तो कम-से-कम उसमें डेढ़-दो सौ लोग शामिल होते थे।

(क्रमश: जारी)

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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