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ऊंची जातियों के लोग क्यों चाहते हैं भारत से लोकतंत्र की विदाई?

कंवल भारती बता रहे हैं भारत सरकार के सीएए कानून का दलित-पसमांदा संदर्भ। उनके मुताबिक, इस कानून से गरीब-पसमांदा मुसलमानों की एक बड़ी आबादी के लिए दहशत और तबाही के दरवाजे खुलने जा रहे हैं

जिन दिनों नेपाल में राजतंत्र की विदाई हो रही थी, उस अवसर पर कमला प्रसाद ने ‘प्रगतिशील वसुधा’ (अप्रैल-जून 2006) में एक संपादकीय लिखा था, जिसका शीर्षक था– ‘राजतंत्र का विदाई समारोह’। इस आलेख में एक जगह उन्होंने बहुत मार्के की टिप्पणी की थी। उन्होंने लिखा था– “आज हमें समझना यह है कि दुनिया की लोकतंत्र में विश्वास करने वाली शक्तियां जातिवादी-नस्लवादी क्यों हो जाती हैं? ऐसे राष्ट्रवाद की कल्पना क्यों की जाती है, जो हिंदूवादी-ईसाईवादी-इस्लामवादी हो? राष्ट्रीयता का आधार जाति-धर्म हो? वर्णवाद-वर्गवाद हो? अतीत में बने उसूलों से समाज चले?” लेकिन कमला प्रसाद को क्या मालूम था कि उनकी इस टिप्पणी के आठ साल बाद ही (2014 में) भारत में ऐसी पार्टी केंद्र की सत्ता पर काबिज हो जाएगी, जो हिंदू राज्य को वापस लाने के लिए लोकतंत्र की विदाई की ही तैयारी शुरू कर देगी? 

अच्छा है कि आज वर्णवाद-वर्गवाद और अतीत के रामराज्य की लोकतंत्र-विनाशक हिंदू राजनीति को देखने के लिए कमला प्रसाद जी जीवित नहीं है। अगर वह जीवित होते तो बीते 22 जनवरी के दीपोत्सव पर ही वह “लोकतंत्र का विदाई समारोह” लिख डालते।

पिछले दस सालों में मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुस्लिम और आक्रामक हिंदुत्व की भाजपाई राजनीति ने जिस तरह शिक्षा संस्थानों को बर्बाद किया, उद्योग-धंधे चौपट किए, जिसमें एक अनुमान के मुताबिक लगभग ग्यारह लाख भारतीय उद्यमी देश छोड़कर चले गए, और जिस तरह सार्वजनिक क्षेत्रों का निजीकरण हुआ, उससे उत्पन्न बेरोजगारी और बढ़ती गरीबी से कमजोर वर्गों में त्राहि-त्राहि मची हुई है। लेकिन सरकारी तंत्र से संचालित संस्थान ऐसे सर्वे दिखा रहे हैं, जैसे भारत में 2014 के बाद सब कुछ अच्छा हुआ है, गरीबी घटी है और समृद्धि बढ़ी है। ऐसे ही एक सर्वे में, जो गत दिनों ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित हुआ था, कहा गया है कि 2011 के बाद प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई है। उसके अनुसार, 2011-12 में प्रति व्यक्ति आय ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में क्रमश: 816 रुपए और 1000 रुपए थी, जो 2022-23 में बढ़कर क्रमश: 1622 रुपए और 1929 रुपए हो गई है। लेकिन इसमें यह नहीं जोड़ा गया कि जिस सरसों के तेल की कीमत 2011-12 में 80-90 रुपए प्रति लीटर थी, वह 2022-23 में बढ़कर 200-250 रुपए प्रति लीटर हो गई। बढ़ती महंगाई पर चर्चा न करके सिर्फ़ आय को दर्शाना गरीबी घटाने के नाम पर एक झूठा महल खड़ा करना है। अगर तुलना ही करनी है तो फिर सत्तर के दशक से क्यों नहीं करते, जब गरीबों की प्रति व्यक्ति आय पचास या साठ रुपए थी? पर तब आटा पचास पैसे में एक किलो मिलता था। आज वह चालीस रुपए में एक किलो मिलता है। सरकारी सर्वे इस तथ्य को छिपा जाते हैं कि प्रति व्यक्ति 1929 रुपए आय की तुलना में 1000 रुपए आय के दौर में इतनी दमघोटू महंगाई नहीं थी। तब गैस का सिलेंडर भी चार सौ रुपए में आता था, आज की तरह उसकी कीमत एक हजार रुपए नहीं थी।

लेकिन हिंदू राज्य के लिए मंहगाई कोई मुद्दा नहीं है। उसके लिए बेरोजगारी भी कोई मुद्दा नहीं है, क्योंकि ये सारे मुद्दे लोकतंत्र के मुद्दे हैं। भाजपा के हिंदू राज्य के मुद्दे तो रामलला, ज्ञानवापी, मथुरा का कृष्ण मंदिर, तीन तलाक, धारा 370, कॉमन सिविल कोड और नागरिकता कानून हैं। गृहमंत्री अमित शाह कहते हैं, हमें इन्हीं मुद्दों पर बहुमत मिला है। यह उनके चुनावी घोषणा-पत्र में है। इसी की वह गारंटी लेते हैं, बाकी सब जुमलेबाजी है। भारत में यह पहली बार हुआ है, जिसका प्रधानमंत्री अपने चरित्र से लोकतंत्र का अहसास नहीं कराता, बल्कि खुलकर एक ऐसे हिंदू सम्राट का अहसास कराता है, जो विधर्मियों का नाश करके हिंदू राज्य का ध्वज फहराना चाहता है, जो मंदिर-मंदिर घूमता है, गुफा में समाधि लगाता है, मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा डालने का आडंबर रचता है, खुलेआम रामराज्य की घोषणा करता है, तांत्रिक क्रियाओं में भाग लेता है और भारतीय समाज के सांप्रदायिक बहुमत का तुष्टिकरण करता है। वह देश और राष्ट्र का काम कब और क्या करता है, यह कोई नहीं जानता। उनके लिए शायद हिंदू-सेवा ही देश और राष्ट्र की सेवा है। 

नागरिकता संशोधन अधिनियम के समर्थन में प्रदर्शन करते ऊंची जातियों के लोग
नागरिकता संशोधन अधिनियम के समर्थन में प्रदर्शन करते लोग

इस संदर्भ में ताज़ा मुद्दा नागरिकता कानून (सीएए) है। यह हिंदू राज्य के सांप्रदायिक बहुमत को और भी मजबूत करने वाला कानून है। दिसंबर 2019 में भाजपा सरकार ने लोकसभा में अपने सांप्रदायिक बहुमत के बल पर संसद से 1955 के नागरिकता अधिनियम को पुनर्संशोधित करके पारित करवाया था। अब इसका एक हिस्सा नागरिकता कानून-2024 लागू हुआ है। इस कानून में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगलादेश से 31 दिसंबर 2014 से पहले आने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने का प्रावधान है। इसमें मुसलमानों को शामिल नहीं किया गया है। लेकिन मुसलमानों को ही निशाना बनाकर यह कानून बनाया गया है। सच्चाई यह है कि इन तीनों पड़ोसी देशों से भारत में पलायन करने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई शरणार्थियों की संख्या लगभग 32 हजार है, जबकि इससे कहीं अधिक संख्या बंगलादेशी मुसलमानों की है। तब इस कानून के तहत कौन प्रभावित हो रहा है? लोकतंत्र का मूल सिद्धांत समानता है। संविधान का अनुच्छेद 14 में समानता का प्रावधान है। यह अनुच्छेद जाति और धर्म के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ देश की सीमा के भीतर भेद का निषेध करता है। इस दृष्टि से मोदी सरकार का नागरिकता कानून पूरी तरह संविधान-विरोधी है, और जो कानून संविधान-विरोधी है, वह लोकतंत्र-विरोधी भी है। इसी आधार पर 2020 में इंडियन मुस्लिम लीग ने नागरिकता कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। उसके बाद दो सौ और भी याचिकाएं दायर की गईं थीं। ये याचिकाएं कुछ राजनेताओं जैसे, असदुद्दीन ओवैसी, जयराम रमेश, रमेश चेन्निथला और महुआ मोइत्रा तथा कुछ राजनीतिक संगठनों, जैसे असम प्रदेश कांग्रेस कमेटी, असम गण परिषद, असम की नेशनल पीपुल्स पार्टी, असम के मुस्लिम फेडरेशन एवं द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम ने दायर की थीं। इन याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस यू.यू. ललित, जस्टिस रविंद्र भट्ट और जस्टिस हिमा कोहली की पीठ ने यह आदेश पारित किया था कि अंतिम निर्णय चीफ जस्टिस ललित की सेवा-निवृत्ति के बाद किया जाएगा। यह मामला अब जस्टिस पंकज मित्थल की बेंच में सूचीबद्ध है, और विचाराधीन है। इन याचिकाओं में तर्क दिया गया है कि सीएए के साथ-साथ अवैध प्रवासियों की पहचान करने के लिए असम में जो नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न (एनआरसी) लागू किया गया है, उसके तहत मुसलमानों को निशाना बनाया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट को यह देखना है कि क्या अनुच्छेद 14 के अंतर्गत प्रवासी मुसलमानों को नागरिकता दी जानी चाहिए या नहीं? लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि इसमें सिर्फ़ तीन देशों पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगलादेश के अल्पसंख्यकों को ही नागरिकता देने के लिए क्यों चुना गया? इसमें श्रीलंका और म्यांमार देशों को क्यों शामिल नहीं किया गया? क्या श्रीलंका से आए तमिल हिंदू वहां के बहुसंख्यकों से पीड़ित नहीं हैं? यदि पीड़ित अल्पसंख्यकों को ही नागरिकता देने का आधार है तो क्या अफगानिस्तान में हजारा संप्रदाय के मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं हैं, जो वहां के बहुसंख्यक मुसलमानों से पीड़ित हैं? क्या पाकिस्तान में अहमदिया संप्रदाय के मुसलमान उसी तरह बहुसंख्यक मुसलमानों से पीड़ित नहीं हैं, जिस तरह भारत की अल्पसंख्यक दलित जातियां बहुसंख्यक हिंदुओं से पीड़ित हैं? फिर रोहंग्या मुसलमानों से सरकार को चिढ़ क्यों है? लेकिन सच यह है कि आरएसएस और भाजपा को मुसलमान पसंद नहीं हैं। इसीलिए उसने मुसलमानों को बाहर निकालने के लिए सिर्फ़ पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगलादेश इन तीन देशों को चुना, ताकि यह तर्क दिया जा सके कि इन देशों में मुसलमान बहुसंख्यक हैं, इसलिए उन्हें सताए गए अल्पसंख्यकों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इसलिए, उसने धर्म के आधार पर नागरिकता का कानून बनाया और वह भी हिंदुत्व के आधार पर। लेकिन यह कानून समानता के साथ-साथ लोकतंत्र के धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का भी उल्लंघन करता है, जो भारतीय संविधान की मूल विशेषता है। 

कहना न होगा कि भारत की यह पहली सरकार है, जिसे न लोकतंत्र की चिंता है, न संविधान का डर है और न सुप्रीम कोर्ट की कोई परवाह है। शुक्र मनाइए कि अभी दक्षिण भारत इनके कब्जे में नहीं है, अन्यथा ये ही कानून होते, और ये ही सुप्रीम कोर्ट। और उस दिन निश्चित रूप से सब कुछ बर्बाद हो जाएगा, जिस दिन दक्षिण भारत के राज्य भी इनके हाथ में आ जाएगा। अभी संपूर्ण उत्तर भारत उनके कब्जे में है, और उसमें गली-गली में हिंदुत्व का जो नग्न तांडव हो रहा है, वह मुसलमानों के लिए ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र-समर्थकों के लिए भी बेहद डरावना है। पहले पीड़ित के लिए सारे दरवाजे बंद नहीं हुए थे, पुलिस और कोर्ट थी, जहां से उसे संरक्षण मिलने की उम्मीद रहती थी। लेकिन हिंदू राज्य में पीड़ित की, ख़ास तौर से दलित और मुस्लिम पीड़ितों की कहीं कोई सुनवाई नहीं है, उनको जिन संस्थाओं से राहत मिल सकती थी, उसके दरवाजे उनके लिए बंद हो चुके हैं। भगवा बुलडोज़र उनके घरों को नेस्तनाबूद करने के लिए तैयार खड़े रहते हैं। वह चुपचाप आंसू बहाते हुए अपने घर को ढहते हुए देखने के सिवा कुछ नहीं कर सकता। अब वह खामोश रहता है, जुल्म सहने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा है उसके पास, क्योंकि वह जानता है कि उसकी कहीं सुनवाई नहीं होगी, न पुलिस में और न कोर्ट में। वह अपने ही देश में अभागा, पराया और अवांछित बनकर रह रहा है। इस नए नागरिकता कानून के तहत प्रवासी हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनों और पारसी-ईसाईयों को नागरिकता मिलने का दुख नहीं है। दुख यह है कि भारत में रह रहे प्रवासी मुसलमानों की, और वह भी गरीब-पसमांदा मुसलमानों की एक बड़ी आबादी के लिए दहशत और तबाही के दरवाजे खुलने जा रहे हैं।

यह कानून पूर्वोत्तर राज्यों के लिए भी एक बड़ी त्रासदी साबित होगा। असम में, जहां पहले से ही घुसपैठ, पहचान और नागरिकता के मुद्दे गरम रहे हैं, यह कानून उस आग में फूस डालने का काम करेगा। यह जानते हुए भी कि असम का मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है, ऐसी स्थिति में इस कानून को लागू करने कोई हठधर्मिता सिर्फ मोदी सरकार ही कर सकती है, जो यह प्रदर्शित करता है कि “कोर्ट को जो करना है करे, हम तो वही करेंगे, जो हमें करना है।” बताया जा रहा है कि यह नागरिकता देने वाला कानून है, जो लागू हुआ है, एनआरसी अभी बाकी है। ठीक वैसे ही, जैसे अयोध्या कांड पर कहा गया था, यह तो बस झांकी है, काशी-मथुरा बाक़ी है।

इसलिए जैसे ही 11 मार्च को सरकार ने नागरिकता कानून लागू किया, उसी के साथ आरएसएस और भाजपा ने अपने नेताओं और बुद्धिजीवियों को इसके पक्ष में बहस करने और प्रचार करने के काम पर लगा दिया। अब सारे अख़बारों और चैनलों पर सीएए का गुणगान होना शुरू हो गया। लेकिन इस गुणगान में यह कोई नहीं बता रहा है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगलादेश से आने वाले गैर-मुस्लिमों के पास सबूत के तौर पर नौ दस्तावेजों में से कोई एक दस्तावेज जरूर होना चाहिए, जो यह साबित कर सके कि वह किस देश से आया है। चलो, इस दस्तावेज से यह तो साबित हो जाएगा कि किस देश से उनका भारत में पलायन हुआ है, पर यह कैसे साबित होगा कि उनके देश के बहुसंख्यकों ने उनका उत्पीड़न भी किया है? इसके लिए किसी प्रमाणपत्र की आवश्यकता क्यों नहीं समझी गई। इस कानून में उत्पीड़न का प्रमाणपत्र दिखाने का प्रावधान क्यों नहीं है? इससे साबित होता है कि मामला उत्पीड़न और अल्पसंख्यक होने का नहीं है, बल्कि मुस्लिम देशों के गैर-मुस्लिम नागरिकों को नागरिकता देकर अपने हिंदू सांप्रदायिक मत में वृद्धि करने का है।

बहरहाल सीएए कानून की तेज हवा में शिक्षा और रोजगार के मुद्दे उड़ गए। महीने भर से किसान धरने पर बैठे हैं, उनकी मांगें गैर-जरूरी समझी जा रही हैं। नौकरियां मांगने वाले शिक्षित बेरोजगारों को पुलिस से पिटवाया जा रहा है। और कहीं कोई सुनवाई नहीं है। 

मैंने अपने पिछले आलेख में लिखा था कि भारतीय समाज अपने चरित्र में लोकतांत्रिक नहीं है, वह सांप्रदायिक और जातिवादी है। आरएसएस और भाजपा ने समाज के इसी सांप्रदायिक चरित्र का लाभ उठाया है। समाज में हिंदू-मुस्लिम-नफ़रत, दलितों के प्रति घृणा और विषमता पहले से ही थी। आरएसएस और भाजपा ने उसे और गाढ़ा किया है। वे जानते हैं कि इस देश के ऊंची जातियों के लोग हिंदू राज्य चाहते हैं, दलितों और मुसलमानों पर अपना प्रभुत्व चाहते हैं, और उनके चरित्र में लोकतंत्र नहीं है। उन्हें अगर हिंदू राज्य की राजनीति की ओर मोड़ा जाएगा, तो उसे [आरएसएस को] भरपूर सफलता मिलेगी। इसलिए आरएसएस और भाजपा ने ऊंची जातियों के सांप्रदायिक और जातिवादी चरित्र को अपना साधन बनाया और इस कार्य में उसे उनका भरपूर सहयोग मिल रहा है। इसलिए सत्य यही है कि भारत की ऊंची जातियों के लोग ही लोकतंत्र की विदाई चाहते हैं। 

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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