दिल्ली में अरावली की पहाड़ी पर बसा, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) फिर से खबरों में है। चार-साल के लंबे इंतज़ार के बाद, जेएनयू छात्रसंघ का चुनाव बीते 22 मार्च, 2024 को संपन्न हुआ। डफली का आवाज़ पर, ‘जय भीम-लाल सलाम’ के नारे पूरे कैंपस में गूंजे। एक अर्थ में जेएनयू छात्रसंघ का चुनाव विश्वविद्यालय का आंतरिक मामला है, मगर देश भर में बहुत सारे लोगों की नज़रें इस बात पर भी टिकी रहती हैं कि जेएनयू के छात्र क्या सोचते हैं। यह जेएनयू की एक ख़ास पहचान की वजह से है, जहां देश के कोने-कोने से और विदेशों से भी छात्र पढ़ने के लिए आते हैं।
जहां देश के ज़्यादातर हिस्सों में हिंदुत्व का शोर मचाया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर देश की संसद से कुछ ही मील दूर जेएनयू ने भगवा झंडा को नकार दिया है। चुनाव के नतीजे डंके की चोट पर कह रहे हैं कि जेएनयू के छात्रों को सांप्रदायिक राजनीतिक क़बीले क़बूल नहीं है। यह भी याद रहे कि जेएनयू छात्र संघ के परिणाम आम चुनाव से ठीक पहले आए हैं। जहां सत्तासीन भारतीय जानता पार्टी इस बार 400 से ज़्यादा सीटें जीतने का दावा कर रहीं हैं, वहीं देश की राजधानी में स्थित उसका छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) को छात्रसंघ के चारों सीटों मुंह की खानी पड़ी है। जेएनयू का जनादेश क्या इस बात की तरफ़ इशारा नहीं करता है कि हिंदुत्व की राजनीति अजेय नहीं है?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भाजपा से जुड़े छात्र संगठन एबीवीपी को ‘सेंट्रल पैनल’ की चारों सीटों – अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महासचिव और संयुक्त सचिव – पर हार का सामना करना पड़ा है। वहीं, वामपंथी और आंबेडकरवादी संगठन विजयी हुए हैं।
अध्यक्ष के पद पर ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) के धनंजय कामयाब हुए। उन्हें 2598 मत प्राप्त हुए और उन्होंने एबीवीपी के उम्मीदवार उमेश चंद्र अजमीरा को 922 वोटों के अंतर से हराया। वहीं बिरसा आंबेडकर फुले छात्र संगठन (बापसा) के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार विश्वजीत मिंजी थे, जो आदिवासी समाज से आते हैं, उन्हें सिर्फ़ 398 वोट ही मिले। लेकिन चुनाव से पहले उन्होंने अपने भाषण में बहुजन छात्रों की समस्याओं को बखूबी मंच पर रखा था। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया था कि वंचितों की लड़ाई वंचितों के द्वारा ही लड़ी जानी चाहिए। अध्यक्ष पद के लिए समाजवादी छात्रसभा की उम्मीदवार आराधना यादव थीं, जो चौथे स्थान पर रहीं और 245 वोट पाने में सफल हुईं। मगर उन्होंने अपने भाषण से छात्रों का ध्यान आकर्षित किया।
ख़ासकर, बहुजन छात्रों ने उनकी सराहना की कि उन्होंने वंचित समाज के साथ महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में हो रहे अन्याय और भेदभाव को काफ़ी प्रमुखता से रखा और इसे दूर करने की अपील की। अध्यक्ष पद के लिए छात्र राज़द के उम्मीदवार अफ़रोज़ आलम थे। आलम का संबंध पसमंदा मुस्लिम परिवार से है। उन्होंने भी महकूमों के मसले को ज़ोर-शोर से उठाया। मगर उन्हें सिर्फ 36 वोटों से ही संतोष करना पड़ा। आलम के इस निराशाजनक प्रदर्शन के लिए उनके ही संगठन के अंदर सुलग रहे कलह बड़ी वजह रही। हाल के दिनों में छात्र राज़द जेएनयू कैंपस की राजनीति में मुखर रहा है, मगर चुनाव से पूर्व शीर्ष नेताओं की आपसी रस्साकशी ने संगठन की लुटिया डुबो दी। कांग्रेस से जुड़े हुए छात्र संगठन (नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया (एनएसयूआई) ने अध्यक्ष पद के लिए जुनैद रजा को उतारा, मगर उनकी झोली में सिर्फ़ 283 मत मिले। एक अन्य वामपंथी संगठन ‘दिशा’ की ओर से अध्यक्ष पद के उम्मीदवार सार्थक नायक थे। उनका मैदान में उतरना चुनाव जीतना कम और कैंपस में ‘दिशा’ छात्र संगठन की उपस्थिति दर्ज करना ज़्यादा था। नायक को सिर्फ़ 113 वोट प्राप्त हुए। दिलचस्प यह कि नोटा के पक्ष में कुल 142 मत पड़े।
वहीं, उपाध्यक्ष के पद पर, ‘वाम एकता’ और स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) के उम्मीदवार अभिजीत घोष कामयाब रहें। घोष को कुल 2409 वोट मिलें। वहीं एबीवीपी की उम्मीदवार दीपिका शर्मा को 1482 वोटों के साथ दूसरे स्थान पर रहना पड़ा। अगर संयुक्त सचिव के पद बात की जाये तो, यहां वाम एकता और ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (एआईएसएफ़) के उम्मीदवार मोहम्मद साजिद फ़तहयाब रहे। उन्हें 2574 वोट मिलें। इस तरह उन्होंने एबीवीपी के उम्मीदवार गोविंद दांगी को 481 मतों से हराया।
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मगर इस चुनाव में बापसा ने इतिहास रच डाला। बापसा ने 23 वर्षीय प्रियांशी आर्य को महासचिव के पद पर उम्मीदवार बनाया था। प्रियांशी को 2887 वोट मिले। उन्होंने एबीवीपी के उम्मीदवार अर्जुन आनंद को 926 वोटों के बड़े अंतर से हराया।
स्मरण रहे कि साल 2014 में बापसा की स्थापना जेएनयू में हुई थी। प्रियांशी की जीत बापसा के दस सालों के चुनावी इतिहास की सब से बड़ी कामयाबी है। यह बात सच है कि बापसा ने पिछले चुनाओं में अच्छे प्रदर्शन किए थे। उसने सामाजिक न्याय के ‘डिस्कोर्स’ को कैंपस की राजनीति में बखूबी रखा था। मगर वह सेंट्रल पैनल में कामयाबी हासिल करने से महरूम रहा था। काउन्सलर के स्तर पर, बापसा को इधर-उधर कामयाबी मिल जाती थी। मगर प्रियांशी की इस तारीखी जीत ने बापसा की पोजीशन को कैंपस में काफ़ी मज़बूत कर दिया है। अब उसके ख़िलाफ़ यह दुष्प्रचार काम नहीं करेगा कि बापसा जीतने के लिए नहीं, बल्कि ग़ैर-एबीवीपी वोटों को बंटने के लिए खड़ा होता है।
प्रियांशी की जीत इस मायने में भी अहम है, क्योंकि जेएनयू में दशकों से वामपंथी संगठनों का दबदबा रहा है। वामपंथी संगठन दबे-कुचलों की बात करना पसंद करता है, मगर जब बात उन्हीं दबे-कुचलों को नेतृत्व देने की होती है तो यह बहाना बनाया जाता है कि कैडर की जाति नहीं, बल्कि उसकी विचारधारा अहम होती है। मगर इस तरह कि थोथी दलीलें देते वक़्त वाम संगठनों को इस बात का ख़याल नहीं रहता है कि वह अनजाने में यह कह रहे हैं कि विचारधारा से लैस अक्सर सवर्ण ही होती हैं।
बहरहाल, बापसा के उभार ने नुमाइंदगी और हिस्सेदारी के सवाल को सामने लाया है और इन सवालों से स्वर्ण मानसिकता के वामपंथी लीडर सहज नहीं हैं। मिसाल के तौर पर, बापसा ने यह बात खुल कर कहा है कि दक्षिणपंथी एबीवीपी की कौन कहें, जेएनयू के वामपंथी संगठन भी दलितों और पिछड़ों को लीडरशिप देने से कतराते हैं।
अपने ऊपर हो रहे तीखे सवालों से परेशान, वामपंथी छात्र संगठन इसी बात पर ज़ोर देते हैं कि एबीवीपी जैसी फ़िरक़ापरस्त छात्र संगठन से सिर्फ़ वामपंथी संगठन ही लड़ा है और इसका मुक़ाबला अस्मिता की राजनीति करने वाले संगठन नहीं कर सकते हैं। मिसाल के तौर पर, एबीवीपी के अध्यक्ष पद के उम्मीदार उमेश चंद आजमीरा ने दावा किया है कि उनका संबंध आदिवासी समाज से है। इसलिए अगर पहचान की राजनीति ही सब कुछ है तो आजमीरा को भी वोट देने में क्या हर्ज है? मगर जेएनयू के छात्र आजमीरा को इस लिए ख़ारिज कर चुके हैं क्योंकि उनकी विचारधारा मज़दूर, किसान और आम आदमी के ख़िलाफ़ है।
मगर जेएनयू की पहचान पर सबसे बड़ा ख़तरा हिंदुत्व से है। वामपंथी और आंबेडकरवादी संगठनों को बड़ी कामयाबी ज़रूर मिल गई है, मगर इसके साथ ही उनके कंधों पर ज़िम्मेदारी का बड़ा बोझ भी है। बोगेनविलिया फूल से सजे जेएनयू कैंपस में, निर्वाचित पदाधिकारियों के लिए उनका कार्यकाल कांटों के ताज से कम नहीं है। जिस वक़्त पूरे देश में, हिंदुत्व ताक़तों का उभार हुआ है, उस हालत में जेएनयू को भगवा शक्तियों के क़ब्ज़े में बचाना कोई आसान काम नहीं है। इस लिये आज ज़रूरत इस बात की है कि वामपंथी और आंबेडकरवादी संगठन एक मंच पर आएं और सामाजिक न्याय और आर्थिक और सांस्कृतिक बराबरी की लड़ाई मज़बूत करें। वामपंथी और आंबेडकरवादी के नव निर्वाचाित पदाधिकारियों को यह बात बखूबी मालूम है कि उनकी लड़ाई सिर्फ़ एबीवीपी से नहीं है, बल्कि ऐसी एबीवीपी से है, जिसे आरएसएस, भाजपा के साथ-साथ प्रशासन और सवर्ण मीडिया का भी समर्थन हैं।
(संपादन : नवल/अनिल)