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पेपरलीक : स्वास्थ्य हो या नौकरी, वंचित समुदायों की हकमारी

पेपरलीक (यदि वे पकड़े जाने से बच जाते हैं) यह सुनिश्चित करते हैं कि भारत का अमीर वर्ग व उसके हितों का रक्षक तंत्र ग़रीब दलित-आदिवासी और पिछड़ें वर्ग को सरकारी कॉलेजों में चिकित्सा शिक्षा से भी बाहर कर दे। बता रहे हैं सुशील मानव

हाल ही में दो विरोधाभासी चीजें एक साथ घटित हुईं। गत 18 मई, 2024 को यूजीसी नेट की परीक्षा हुई और गत 19 मई, 2024 को अचानक केंद्र सरकार ने परीक्षा रद्द कर दी। जबकि न किसी छात्र ने पेपरलीक का आरोप लगाया न कहीं कोई विरोध प्रदर्शन हुआ। वहीं दूसरी ओर 5 मई, 2024 को एनईईटी-यूजी की परीक्षा में पेपरलीक प्रकरण को लेकर छात्र लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। बिहार, गुजरात, झारखंड, महाराष्ट्र राज्यों की पुलिस ने 26 आरोपियो को गिरफ़्तार करके एनईईटी पेपरलीक और बड़े स्कैम का पर्दाफाश किया है। मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी एनईईटी पेपरलीक हुआ है। बावजूद इसके केंद्र सरकार कह रही है कि कहीं कोई पेपरलीक नहीं हुआ है, एनईईटी की परीक्षा रद्द नहीं होगी न ही काउंसिलिग रोकी जाएगी।

आखिर ऐसा क्या है कि एक ओर सरकारी विश्वविद्यालयों के सहायक प्राध्यापक पदों पर भर्तियों और पीएचडी में दाख़िले की परीक्षा रद्द करने में सरकार को एक दिन भी नहीं लगता जबकि दूसरी ओर मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस के लिए एनईईटी-यूजी पेपरलीक के तमाम सबूत और आरोपियों की गिरफ़्तारी और क़बूलनामे के बावजूद सरकार इस परीक्षा को किसी भी क़ीमत पर रद्द नहीं करने की जिद पर अड़ी हुई है। साथ ही राज्य पुलिस के आरोपों और जांचों को झुठलाने के लिए मामले को सीबीआई के हवाले कर दिया है।

उत्तर प्रदेश के प्रयागराज (इलाहाबाद) जनपद के पेशे से पैथोलॉजिस्ट और समाजसेवी पवन यादव कहते हैं कि एनईईटी परीक्षा में सफल अभ्यर्थी नौकरी देने या भर्ती निकालने के लिए किसी भी तरह से सरकार या राज्य सरकार के ऊपर दबाव नहीं बनाते हैं। वहीं दूसरी ओर आप पीएचडी, बीएड, बीटीसी में सफल होने के बाद सरकार पर भर्ती निकालने और रोज़गार देने के लिए दबाव बनाते हैं। इसीलिए सरकार के पास एनईईटी की तुलना में नेट, टेट की परीक्षा को रद्द करना ज़्यादा सहूलियत वाला क़दम है।

लेकिन क्या सिर्फ़ इतनी-सी ही बात है, या फिर इसके पीछे और कोई ठोस आर्थिक राजनीतिक या नीतिगत कारण हो सकता है?

दरअसल सबसे बड़ा कारण है आर्थिक। आज के दौर में मेडिकल क्षेत्र सबसे ज़्यादा मुनाफ़ा देने वाला क्षेत्र है। निजी अस्पतालों का जिस तरह और जितनी तेजी से जाल पूरे देश में फैल रहा है उसी अनुपात में उन्हें डाक्टरों की ज़रूरत है। संपन्न लोग अपने बच्चों को डाक्टर बनाने के लिए बड़ी मात्रा में पूंजी का निवेश मेडिकल सीट हासिल करने के लिए कर रहे हैं। और उन्हें एमबीबीएस सीट दिलाने के लिए कोचिंग संस्थान से लेकर तमाम आपराधिक गिरोह, माफिया और राजनीतिक रसूख के लोग इसमें शामिल हैं।

यह कोई तुक्का नहीं है कि इस साल एक साथ 67 छात्रों ने एनईईटी टॉप किया और उनके 720 में 720 अंक आये हैं। बीपीएससी समेत कई पेपरलीक में शामिल एक आरोपी बिजेंद्र गुप्ता ने ‘इंडिया टूडे’ के एक स्टिंग वीडियो में बताया है कि एनईईटी पेपरलीक के मास्टरमाइंड संजीव मुखिया ने 700 छात्रों को पेपर बेचा और एक पेपर के बदले 40 लाख रुपए लिये हैं। यानि एनईईटी-2024 परीक्षा में मेडिकल की एक-एक सीट के लिए 40 लाख रुपए की डील हुई है।

यह कोई आज या अचानक से नहीं शुरू हो गया है। आज से क़रीब दो दशक पहले सहसों इलाहाबाद के एक प्राइवेट इंटरमीडिएट कॉलेज के प्रिंसिपल अपने बेटे का एमबीबीएस में दाखिला दिलाने की डील होने पर लाखों रुपए कैश लखनऊ पहुंचाने जा रहे थे। चलती ट्रेन में चेकिंग हो गई। उन्होंने रुपयों से भरा सूटकेस छोड़ दिया, बोले मुझे नहीं पता किसका है, पर मेरा नहीं है। आज वे प्रिंसिपल महोदय रिटायर हो चुके हैं और राष्ट्रीय राजमार्ग पर एक बड़ा-सा अस्पताल बनवा लिया है, जिसे उनके डाक्टर बहू-बेटे संचालित करते हैं।

इससे पहले मध्य प्रदेश में 2013 में मेडिकल में दाख़िले के सबसे बड़े घोटाले व्यापम का खुलासा हुआ था। व्यापम केस में 43 लोगों की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हुई थी। उस घोटाले में वर्ष 2015 में मध्य प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल राम नरेश यादव के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया था और सूबे के शिक्षामंत्री रहे लक्ष्मीकांत शर्मा की भी गिरफ्तारी हुई थी।

इलाहाबाद के डॉक्टर आशीष मित्तल एनईईटी का अर्थशास्त्र समझाते हुए इसके जातीय और वर्गीय पहलुओं को उजागर करते हैं। वे कहते हैं कि एनईईटी का उत्तीर्ण प्रतिशत 20 प्रतिशत अंक है! यानि 20 प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाला कोई भी व्यक्ति मेडिकल कॉलेज में प्रवेश ले सकता है, बशर्ते वह एक निजी मेडिकल कॉलेज की फीस (70 लाख से लेकर 1.3 करोड़ रुपए वार्षिक ख़र्च) वहन कर सके। सामर्थ्य के कारण ग़रीब दलित-आदिवासी, पिछड़े और मध्यम वर्ग के पास केवल 51.66 प्रतिशत सीटें हैं। वे आगे कहते हैं कि पेपरलीक उद्योग इस 51.66 प्रतिशत से भी ग़रीब और मध्य वर्ग के दलितों आदिवासियों और पिछड़ों को बाहर कर रहे हैं, और अमीरों से कमाई कर रहे हैं, ताकि उनके अयोग्य बच्चों को भी इसमें शामिल किया जा सके। वे सवाल उठाते हैं कि पास प्रतिशत इतना कम क्यों रखा गया है? ताकि अधिकतम अमीर लोग मेडिकल सीटों का लाभ उठा सकें और प्राइवेट मेडिकल कॉलेज की 48.34 प्रतिशत सीटों के लिए, उनके मालिकों को ज्यादा संख्या में अमीर घरों के बच्चे उपलब्ध हों। पेपरलीक (यदि वे पकड़े जाने से बच जाते हैं) यह सुनिश्चित करते हैं कि भारत का अमीर वर्ग और उसके हितों का रक्षक तंत्र ग़रीब दलित-आदिवासी और पिछड़ें वर्ग को सरकारी कॉलेजों में चिकित्सा शिक्षा से भी बाहर कर दे। जाहिर है मेडिकल सीटों की संख्या कम है और इसकी पढ़ाई बहुत महंगी होती है। सिर्फ़ एडमिशन परीक्षा पास करने के लिए दलित-आदिवासी और बहुजन समाज का व्यक्ति इतनी बड़ी धनराशि नहीं ख़र्च कर सकता है, क्योंकि इतनी रक़म जुटाना उनके सामर्थ्य से बाहर की बात है।

राष्ट्रीय मेडिकल कमीशन (एनएमसी) के मुताबिक भारत में मेडिकल कॉलेजों की कुल संख्या 706 है। इसमें 381 सरकारी, 21 प्राइवेट और 258 विभिन्न ट्रस्टों द्वारा संचालित हैं और कुछ सोसायटी आदि के द्वारा संचालित हैं। एनएमसी के मुताबिक साल 2022 तक देश में एमबीबीएस की कुल सीटें 1,09,145 हैं। इसमें सबसे ज्यादा 11,545 सीटें कर्नाटक, 11,475 सीटें तमिलनाडु, 10,845 सीटें महाराष्ट्र, 9,263 सीटें उत्तर प्रदेश, 7,250 गुजरात, 6,485 सीटें आंध्र प्रदेश, 5,325 सीटे पश्चिम बंगाल, 5,505 राजस्थान, 4,900 मध्य प्रदेश और 2,765 सीटें बिहार में हैं।

कौन करवाता है परीक्षा?

नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) शिक्षा मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्त निकाय है, जो देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में एडमिशन के लिए प्रवेश परीक्षा आयोजित करती है। परीक्षा पेपर तैयार करने से लेकर इसे परीक्षा केंद्र तक वितरित करने और परीक्षा पेपर जांच की जिम्मेदारी भी एनटीए ही संभालती है। केंद्र सरकार ने साल 2017 में इसका एलान किया था और दिसंबर, 2018 में एनटीए ने पहली यूजीसी-नेट की परीक्षा कराई थी। यूजीसी-नेट, एनईईटी के अलावा एनटीए इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा जॉइंट एंट्रेस एग्जामिनेशन (मेन) भी आयोजित कराती है। इसी परीक्षा के आधार पर देश के शीर्ष इंजीनियरिंग संस्थानों जैसे आईआईटी और एनआईटी में एडमिशन मिलते हैं। इनके अलावा एनटीए ही सीमैट और जीपैट जैसी परीक्षाएं भी आयोजित कराती है। सीमैट देश के प्रबंधन संस्थानों में एडमिशन के लिए और जीपैट फार्मेसी संस्थानों में मास्टर्स प्रोग्राम में दाखिले के लिए कराए जाते हैं।

फिलहाल एनटीए के प्रमुख यूपीएससी के पूर्व अध्यक्ष प्रदीप कुमार जोशी हैं, जो एबीवीपी और आरएसस में लंबे समय तक सक्रिय रहे हैं। एनटीए की गवर्निंग बॉडी में अध्यक्ष समेत 14 लोग हैं। आईएएस अधिकारी सुबोध कुमार सिंह एनटीए के डायरेक्टर जनरल हैं।

सरकारी चिकित्सा क्षेत्र में भर्ती के चौंकाने वाले तथ्य

गत 14 जून, 2024 को एक ख़बर तमाम अख़बारों में प्रमुखता से छपती है। जिसका शीर्षक है- “यूपीपीएससी : चिकित्साधिकारी पीडियाट्रिशियन के 87 फीसदी पद रह गए खाली, नहीं मिले अभ्यर्थी”। 440 पदों पर 6 जून को हुए इंटरव्यू के बाद उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ने चिकित्सा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग (एलोपैथी) के तहत चिकित्साधिकारी ग्रेड-2 पीडियाट्रिशियन के पदों पर सीधी भर्ती का चयन परिणाम ज़ारी किया। अभ्यर्थी उपलब्ध न होने के कारण केवल 58 पदों पर अभ्यर्थियों को चयनित घोषित किया गया है। आयोग के संयुक्त सचिव विनोद कुमार सिंह के अनुसार अनारक्षित श्रेणी के अवशेष 22 पद, ओबीसी के 171, एससी के 133, एसटी के 12 और ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षित 44 पद के लिए अभ्यर्थी उपलब्ध न होने के कारण खाली रह गए। रिक्त पदों के पुनर्विज्ञापन की संस्तुति की गई है।

वंचित समुदायों के छात्र हो रहे सबसे अधिक शिकार

फिर 17 मई, 2024 को एक ख़बर छपी कि चिकित्साधिकारी ग्रेड 2 स्तर के 39 पदों पर सीधी भर्ती के लिए 14 मई को इंटरव्यू लिया गया, जिसमें केवल 5 पद ही भरे जा सके। इसमें चिकित्साधिकारी न्यूरो फिजिशियन के 19 पद थे। इनमें 10 पद अनारक्षित, 5 पद पिछड़ा वर्ग, 3 अनुसूचित जाति और 1 पद ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षित था। जबकि चिकित्साधिकारी नेफ्रोलॉजिस्ट के 20 पदों में 9 अनारक्षित, 5 ओबीसी, 4 अनुसूचित जाति और एक पद ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षित था।

इसी तरह 28 मई, 2024 को एक ख़बर छपती है कि “सरकारी अस्पतालों में रेडियोलॉजिस्ट के 70 पदों पर नहीं मिला कोई उम्मीदवार”। आयोग के संयुक्त सचिव विनोद कुमार सिंह के अनुसार सभी 70 पदों को फिर से विज्ञापित करने की संस्तुति की गई है। अनारक्षित श्रेणी के 27, ओबीसी के 20, अनुसूचित जाति के 15, अनुसूचित जनजाति के एक और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के अभ्यर्थियों के लिए आरक्षित सात पदों पर सीधी भर्ती के लिए 21 मई को साक्षात्कार हुआ था।

27 मई, 2024 को एक और ख़बर छपती है– “प्लास्टिक सर्जन के 50 पदों में से 46 खाली रह गए”। अनारक्षित श्रेणी के 21, ओबीसी के 13, अनुसूचित जाति के 10, अनुसूचित जनजाति के एक और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के अभ्यर्थियों के लिए आरक्षित पांच पदों पर सीधी भर्ती के लिए 18 मई को साक्षात्कार आयोजित किया गया था। साक्षात्कार के आधार पर अनारक्षित वर्ग के चार अभ्यर्थियों का चयन हुआ।

जिस राज्य में एक पद के लिए 100-200 आवेदन मिलना सामान्य बात हो, वहां मेडिकल के पदों पर भर्ती के लिए उम्मीदवार ही नहीं मिल रहे हैं। नागरिकों के स्वास्थ्य अधिकारों, और निजी अस्पतालों के राष्ट्रीयकरण के लिए संघर्ष कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता मुनीश कुमार कहते हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं व शिक्षा के निजीकरण का परिणाम है यह कि सरकारी अस्पतालों को डॉक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ नहीं मिल रहे हैं। छात्र मेडिकल व पैरामेडिकल की पढ़ाई के लिए मोटी फीस चुका रहे हैं और बैंकों से क़र्ज़ ले रहे हैं। जिस कारण डिग्री प्राप्त करने के बाद छात्र के मन में सेवा-भाव नहीं, बल्कि पैसा कमाना ही प्राथमिकता बन रहा है। वे आगे कहते हैं कि देशवासियों को इलाज उपलब्ध कराने के लिए ज़रूरी है कि निजी बड़े अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण किया जाए तथा मेडिकल और पैरामेडिकल की पढ़ाई निःशुल्क उपलब्ध हो ताकि छात्रों के मन में देश और समाज के प्रति प्रेम व सेवाभाव उत्पन्न हो सके।

सरकारी महकमें में डाक्टरों का अकाल

मध्य प्रदेश में 8715 स्वीकृत पदों में से केवल 53 प्रतिशत यानि 4592 पदों पर ही डॉक्टर काम कर रहे हैं। चिकित्सा विशेषज्ञों के स्वीक़ृत पद 3618 हैं, जिसमें 66 फीसदी (2404 पद) खाली हैं। मध्य प्रदेश के 70 फीसदी सरकारी अस्पतालों में एनिस्थीसिया विशेषज्ञ नहीं हैं। इसी तरह स्त्री रोग विशेषज्ञ के स्वीकृत 631 पदों में से 420 खाली हैं। शिशु रोग विशेषज्ञ के स्वीकृत 516 पदों में से 272 खाली हैं। शल्य चिकित्सक के 655 पदों में से 534 खाली हैं। चिकित्साधिकारी के 5097 पदों में से 1719 पद खाली हैं।

ऐसे ही उत्तर प्रदेश में कुल 3011 पीएचसी, 855 सीएचसी, 592 शहरी पीएचसी हैं। जिला अस्पताल और मेडिकल कॉलेजों और बड़े सरकारी अस्पतालों की संख्या भी लगभग 200 है। उत्तर प्रदेश में लगभग 67 मेडिकल कॉलेज हैं, जिसमें 35 सरकारी और 32 निजी हैं। इन 67 मेडिकल कॉलेज में साल 2023 में कुल एमबीबीएस सीटें 5128 हैं। उत्तर प्रदेश में इस साल मार्च में सरकारी अस्पतालों के लिए चिकित्साधिकारी ग्रेड-2 (विशेषज्ञ) के 2532 पदों पर भर्ती के लिए आवेदन निकाला गया है। इनमें गायनकोलॉजिस्ट के 385 पद, एनेस्थेटिस्ट के 460 पद, पीडियाट्रिशियन के 440 पद, रेडियोलॉजिस्ट के 70 पद, पैथोलॉजिस्ट के 21 पद, जनरल सर्जन के 338 पद, फिजिशियन के 316 पद शामिल हैं।

पिछले साल भी चिकित्साधिकारी ग्रेड-2 (विशेषज्ञ) 2382 पदों पर यूपीपीएसी द्वारा आवेदन मांगे गए थे। लेकिन चिकित्सकों ने भर्ती में कोई रुचि नहीं दिखाई थी। रिक्त पदों के सापेक्ष बेहद कम आवेदन आने के चलते स्क्रीनिंग परीक्षा नहीं ली गई। सीधे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। आवेदन करने के बावजूद लोग इंटरव्यू के लिए नहीं आए और 2382 पदों में से सिर्फ़ 285 पदों पर ही नियुक्ति हो पाई और 2097 पद नहीं भरे जा सके। जबकि इसी दौरान 435 पद और खाली हुए। इसी तरह साल 2021 में सरकार ने 3620 पदों के लिए आवेदन निकाला था, लेकिन आवेदन कम आने के कारण सिर्फ़ 1881 पदों को ही भरा जा सका था।

उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में 19 हजार डॉक्टर के पद स्वीकृत हैं। 12 हजार डॉक्टर तैनात हैं। मतलब क़रीब सात हजार पद खाली हैं। इन पदों को भरने के लिए पिछले साल संविदा के आधार पर वॉक इन इंटरव्यू का आयोजन किया गया था, जिसके लिए सिर्फ़ 3422 एमबीबीएस और 767 विशेषज्ञ चिकित्सकों ने इंटरव्यू के लिए आवेदन किया था। 8-18 सितंबर, 2023 के बीच साक्षात्कार के बाद 749 डॉक्टरों कों चयन हुआ था। चयन किए गये डॉक्टर में ए ग्रेड के शहर में तैनात होने वाले एमबीबीएस डाक्टरों को 50 हजार, विशेषज्ञ को 80 हज़ार, बी ग्रेड के शहर में एबीबीएस डॉक्टर को 55 हजार और विशेषज्ञ को 90 हजार, सी ग्रेड के शहर में एमबीबीएस को 60 हजार और विशेषज्ञ को एक लाख और डी ग्रेड के शहर में तैनाती करवाने पर एमबीबीएस को 65 हजार और विशेषज्ञ को 1.2 लाख रुपये मानदेय निर्धारित किया गया है।

गौरतलब है कि इन्हीं डाक्टर विहीन सरकारी अस्पतालों पर देश की ग़रीब दलित आदिवासी पिछड़े वर्ग के लोग इलाज के लिए आश्रित हैं।

मेडिकल सीटों पर दाखिले में सत्ता का बड़ा दख़ल

एमबीबीएस की सीटों पर एडमिशन के लिए बड़े-बड़े राजनेता, कॉर्पोरेट और माफिया लॉबिंग करते हैं। इसे एक केस से समझते हैं। 12 जनवरी, 2017 को इलाहाबाद में जीवन ज्योति अस्पताल में डॉ. अश्विनी कुमार बंसल की दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी गई। बंसल की पत्नी ने तब मौजूदा डिप्टी सीएम केशव मौर्या पर अपने पति की हत्या करवाने का आरोप लगाया था।

चार साल बाद यानि साल 2021 में बंसल हत्याकांड का खुलासा करते हुए यूपीएसटीएफ ने आलोक सिन्हा नामक एक 50 हजार के ईनामी बदमाश को पकड़ा। उसने पूछताछ में बताया था कि डॉ. बंसल ने अपने बेटे का एमडी नेफ्रोलॉजी में दाखिले के लिए उसे 55 लाख रुपए दिए थे। लेकिन वह न तो एडमीशन करवा पाया और न ही पैसा लौटा पाया, जिसके चलते डॉ. बंसल ने उसे जेल भेजवा दिया था। इसी खुन्नस में जेल से ही उसने 70 लाख रुपए की सुपारी देकर डॉ. बंसल की हत्या करवा दी। हालांकि उसकी बातें विरोधाभासी हैं, कि जो व्यक्ति 55 लाख लौटा नहीं पाया, वह सुपारी देकर हत्या करवाने के लिए 70 लाख रुपए कहां से लाया होगा।

खैर, बता दें कि यूपी के मौजूदा डिप्टी सीएम केशव मौर्या, डॉ. ए.के. बंसल और महर्षि महेश योगी के भतीजे अजय श्रीवास्तव ने मिलकर एक जीवन ज्योति ग्रुप बनाया था। बंसल का अस्पताल भी इसी नाम से था और कौशाम्बी में भी इसी नाम से अस्पताल है, जिसके कर्ता-धर्ता केशव मौर्या की पत्नी राजकुमारी देवी हैं। केशव मौर्या और बंसल बिजनेस पार्टनर थे। लेकिन राजनीतिक रसूख बढ़ने के बाद मौर्या और बंसल के रिश्तों में खटास आ गई थी, क्योंकि बंसल ने अपने नजदीकी लोगों में केशव प्रसाद मौर्या के आपराधिक रिकॉर्ड को उजागर करते हुए उनका संसदीय निर्वाचन रद्द करने की मांग की थी। केशव मौर्या बंसल के अस्पताल मे साझीदारी होने के अलावा, उनके साथ मिलकर लखनऊ की महर्षि यूनिवर्सिटी चला रहे थे। दोनों के तीन साझा बैंक खाते थे। डॉक्टर बंसल के खिलाफ़ खाद्यान्न आपूर्ति घोटाले में केस चल रहा था। इसके अलावा पैसे के लेन-देन और ज़मीन पर क़ब्जे, धमकाने, हत्या जैसे कई मामलों में उनके खिलाफ़ आपराधिक केस दर्ज़ थे। 

केवल एनईईटी तक सीमित नहीं रहा है ‘पेपरलीक’

एनईईटी और नेट से पहले उत्तर प्रदेश में 17 और 18 फरवरी, 2024 को यूपी पुलिस सिपाही भर्ती परीक्षा-2023 पेपरलीक होने के बाद 24 फरवरी को भर्ती ही रद्द कर दी गई। 11 फरवरी, 2024 को समीक्षा अधिकारी और सहायक समीक्षा अधिकारी (आरओ, एआरओ) भर्ती परीक्षा होने के बाद पेपरलीक के चलते रद्द कर दी गई। 23 फरवरी, 2024 को वाराणसी में यूपी लेखपाल के 8025 पदों पर चयनित अभ्यर्थियों को नियुक्ति पत्र प्रधानमंत्री मोदी के हाथों बांटा जाना था, लेकिन उससे दो दिन पहले ही उत्तर प्रदेश अधीनस्थ सेवा चयन आयोग की सिफारिश पर आयुक्त एवं सचिव राजस्व परिषद ने सभी मंडलायुक्त जिलाधिकारी को पत्र लिखकर नियुक्ति पत्र देने पर रोक लगा दी। पिछले 5 सालों में भारत के 15 राज्यों में पेपरलीक के मामले समाने आए हैं। क़रीब 41 नौकरी भर्ती परीक्षाओं में परीक्षा से पहले पेपरलीक हुए हैं। एक मोटा अऩुमान है कि राजस्थान में 10 साल में 29 बार पेपरलीक, उत्तर प्रदेश में 10 साल में 17 बार पेपरलीक, गुजरात में पिछले 07 सालों में 13 बार पेपरलीक, मध्य प्रदेश में पिछले 3 साल में ही 5 बार पेपरलीक, बिहार में 2 सालों में 8 बार पेपरलीक, हरियाणा में पिछले सिर्फ 2 साल में ही 3 बार पेपरलीक और उत्तराखंड में पिछले 10 सालों में 6 बार पेपरलीक हुए हैं।

सर्वविदित है कि आर्थिक पहलू के बिना कोई भी संगठित अपराध नहीं होता है। उत्तर प्रदेश समेत तमाम राज्यों में सरकार में शामिल नेताओं और विभागीय अधिकारियों का पेपरलीक और भर्ती से होने वाली कमाई में हिस्सा लगता है। कई मंत्री, सांसद, विधायक और स्थानीय राजनीतिक प्रतिनिधि अपना चुनाव ख़र्च निकालने के लिए इस तरह के अनैतिक काम को सुरक्षा और संरक्षण देते हैं। दूसरी ओर पेपरलीक में कई नामी कोचिंग इंस्टीट्यूट के लोग शामिल होते हैं। दरअसल किसी परीक्षा में किसी कोचिंग इंस्टीट्यूट के ज्यादा बच्चों का चयन होने से उनकी कोचिंग में ज्यादा छात्र एडमिशन लेते हैं, जिससे उनका मुनाफ़ा ज्यादा आता है। दूसरी ओर कोचिंग इंस्टीट्यूट भी अपने यहां के छात्रों से भर्ती कराने के लिए मोटी रकम वसूलते हैं। इसलिए हर एक भर्ती परीक्षा पास कराने के लिए उत्तर प्रदेश में नकल माफियाओं द्वारा अभ्यर्थियों से 10-15 लाख रुपए लिए जाते हैं। एक मामले की जांच के दौरान पुलिस अधिकारियों ने पाया कि राजस्थान में लीक हुए पेपर 5 से 15 लाख रुपये में बिके हैं। बिहार सिपाही भर्ती पेपरलीक मामले में जांच कर रही आर्थिक अपराध इकाई की टीम को प्रश्न-पत्र बेचने या इस परीक्षा में चयनित कराने समेत अन्य सभी तरह के लेन-देन में हवाला का उपयोग होने की जानकारी मिली थी। सरगना से लेकर नीचे तक के तमाम लेनदेन हवाला के ही जरिये होने के साक्ष्य मिले हैं।

निजी प्रिंटिंग प्रेस में परीक्षा पेपर छपवाने, प्राइवेट संस्थानों को परीक्षा केंद्र बनाने, बिका हुआ सरकारी तंत्र, भ्रष्ट अधीनस्थ सेवा चयन आयोग आदि कई कारण हैं पेपरलीक के। तमाम सरकारी स्कूलों, कॉलेजो, संस्थानों के होते हुए आखिर सरकार परीक्षा केंद्र निजी दागी स्कूलों को बनाती आ रही है।

मसलन, यूपी पुलिस कॉन्स्टेबल की 60244 पदों के लिए 50.14 लाख से ज्यादा उम्मीदवारों ने आवेदन किया। परीक्षा के लिए प्रदेश के सभी 75 जिलों में 2385 परीक्षा केंद्र बनाए गए थे। इसके लिए उम्मीदवारों के लिए फॉर्म शुल्क 400 रुपए था, जिससे सरकार के 2 अरब 56 लाख रुपये की कमाई हुई। इस तरह तमाम राज्यों में होने वाले प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में साल-दर-साल बढ़ती आवेदकों की संख्या और आवेदन शुल्क से सरकारें इतनी कमाई कर लेती हैं कि छोटा-मोटा सरकारी ख़र्चा आसानी से निकल आता है। एक सामान्य पैटर्न यह भी है कि अधिकांश भर्तियां चुनाव के दौरान ही निकलती हैं। तो एक दृष्टिकोण यह भी हो सकता है कि सरकार को पैसे की ज़रूरत हुई तो भर्ती निकाल दिया और आवेदन शुल्क से पैसा जुटाने के बाद किसी कारण से परीक्षा साल दो साल के लिए टाल दी। कई बार देखा गया कि आवेदन मांगने के तीन से चार साल बाद भर्ती परीक्षा का आयोजन किया गया और परीक्षा से पहले ही पेपरलीक हो जाने से परीक्षा रद्द कर दी गई। परीक्षाओं के आयोजन से जहां सरकार की प्रत्यक्ष आय होती है, वहीं परीक्षा के लिए छात्रों की आवाजाही से परिवहन विभाग को भी मुनाफ़ा होता है।

क्या सरकार की नीयत नौकरी देने की है

क्या सरकार की नीयत युवाओं को नौकरी और रोज़गार देने की है? केंद्र सरकार के पिछले 10 सालों में उठाये गये क़दमों और नीतियों पर एक नज़र डालने पर इसका भी जवाब हमें मिल जाता है। आज से तीन साल पहले 24 फरवरी, 2021 को निजीकरण पर आयोजित एक वेबिनार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने निजीकरण की ज़रूरत पर बल देते हुए कहा था कि व्यवसाय करना, कंपनी चलाना सरकार का काम नहीं है। उनकी सरकार चार रणनीतिक क्षेत्रों को छोड़कर बाकी क्षेत्रों के सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण को प्रतिबद्ध है। उन्होंने आगे कहा था कि सरकारी कंपनियों को केवल इसलिए नहीं चलाया जाना चाहिए कि वे विरासत में मिली हैं। उन्होंने यह दलील भी दिया था कि रुग्ण सार्वजनिक उपक्रमों को वित्तीय समर्थन देते रहने से अर्थव्यवस्था पर बोझ पड़ता है। सिर्फ़ इतना ही नहीं, नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद तमाम सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों को वीआरएस लेने के लिए मज़बूर किया गया। एयर इंडिया को बेचने के बाद उसके कर्मचारियों के लिए साल में दो बार वीआरएस स्कीम लाया गया। पहली बार जून, 2022 में फिर मार्च, 2023 में। पहली वीआरएस स्कीम के तहत 1500 लोगों को वीआरएस दिया था। दूसरी बार टारगेट पर 2100 कर्मचारी थे। तब एयर इंडिया में 11,000 कर्मचारी काम करते थे। जबरन वीआरएस के विरोध में एयर इंडिया के कर्मचारियों ने औद्योगिक कार्रवाई करने की धमकी दी थी। गौरतलब है कि सरकार ने एयर इंडिया को टाटा समूह के हाथों बेच दिया।

ऐसे ही नवंबर, 2019 में बीएसएनएल द्वारा एक लाख कर्मचारियों को टारगेट करके वीआरएस स्कीम लाया गया। उस वक़्त बीएसएनएल में डेढ़ लाख कर्मचारी कार्यरत थे। 92,678 कर्मचारियों को एक झटके में वीआरएस दे दिया गया। इसमें 78300 कर्माचारी बीएसएनएल के थे और 14,378 कर्मचारी एमटीएनएल के। इस तरह एक झटके में बीएसएनएल के 50 प्रतिशत और एमटीएनएल के 76 प्रतिशत कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।

जुलाई, 2020 में देश की दूसरी सबसे बड़ी ऑयल कंपनी भारत पेट्रोलियम (बीपीसीएल) द्वारा निजीकरण से पहले अपने कर्मचारियों को वीआरएस की पेशकश की गई। सरकार द्वारा बीपीसीएल में अपनी 52.98 प्रतिशत की समूची हिस्सेदारी बेचने के निर्णय के बाद कंपनी ने 45 साल से ऊपर की आयु वाले कर्मचारियों को वीआरएस की पेशकश की। तब कंपनी में 20 हजार कर्मचारी थे। वीआरएस के विरोध में कर्मचारी उच्च न्यायालय पहुंचे। हालांकि इसके बावजूद 69 कर्माचारियों को वीआरएस दिया गया।

वहीं दूसरी ओर तमाम विभागों में खाली पदों को खत्म कर दिया गया। रेलवे ने साल 2014-23 के दरमियान 9 साल में डेढ़ लाख पदों को खत्म कर दिया। पहले चरण में साल 2014-21 के दरमियान रेलवे के सभी 16 जोन में 56,888 पद को समाप्त कर दिया गया। इसी अवधि में रेलवे ने 15,495 और पदों को खत्म करने की मंजूरी दी। ये सभी 72 हजार पद तृतीय चतुर्थ श्रेणी के थे। फिर उसी अवधि के दौरान 81,303 पदों को समाप्त करने का प्रस्ताव भेजा गया। सरकार ने इन पदों को खत्म करने के पीछे दलील दिया कि ये ग़ैर ज़रूरी पद थे।

इसके बाद राजधानी, शताब्दी, मेल एक्सप्रेस ट्रेनों के जेनरेटर में इलेक्ट्रिकल, मेकैनिकल, तकनीशियन, कोच सहायक, ऑनबोर्ड सफाई आदि के काम ठेके पर दे दिए गए। यहां यह बात गौर करने वाली है कि दलित-आदिवासी और बहुजन समाज के बच्चे इन्हीं पदों पर खपाये जाते थे, क्योंकि इन पदों के लिए बुनियादी अर्हता हाईस्कूल या आईटीआई होती है।

स्मरण रहे कि मोदी काल शुरू होने के पहले तक भारतीय रेलवे में 15 लाख पद स्वीकृत थे। जोकि 2022 तक घटकर 12.75 लाख रह गई। वहीं 4.5 लाख ठेका कर्मी रेलवे में काम करते हैं।

फिर परीक्षाओं का उद्देश्य क्या होता है?

खैर, मार्च, 2023 में केंद्रीय कार्मिक राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने संसद को बताया था कि केंद्र सरकार के अधीन 78 विभागों/मंत्रालयों में 9.79 लाख पद खाली हैं, जिनमें गृह मंत्रलाय में 1.43 लाख पद, राजस्व विभाग में 80,243 पद, भारतीय लेखा परीक्षा और लेखा विभाग में 25,934 पद, परमाणु ऊर्जा विभाग विभाग में 9460 पद खाली हैं। फरवरी, 2023 में केंद्रीय रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने राज्यसभा में बताया था कि रेलवे विभाग में 3.15 लाख पद खाली हैं। जून, 2023 में एक आरटीआई के जवाब में रेलवे ने बताया था कि 2,74580 पद खाली है। जिनमें 1,77,924 पद सुरक्षा श्रेणी में हैं। केंद्रीय विभागों के खाली पदों के साथ तमाम राज्यों के स्वीकृत खाली पदों को जोड़ लें तो खाली पदों का आंकड़ा 60 लाख हो जाता है। इनमें से कुछ पदों को भरने के लिए समय-समय पर प्रतियोगी परीक्षाओं का आयोजन सरकार द्वारा किया जाता है। लेकिन पिछले 10 सालों में तमाम राज्यों में सरकारी भर्तियों के पेपरलीक के मामले बहुत बढ़ गये हैं, जिनके चलते भर्तियां रद्द कर दी जाती हैं। अधिकांशतः स्नातक, परास्नातक, उच्च माध्यमिक शिक्षा प्राप्त छात्र इन प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं। प्रतिस्पर्धी परीक्षा की तैयारियों के लिए बड़े-बड़े कोचिंग संस्थान चल रहे हैं, प्रतिस्पर्धी परीक्षा की किताबें छापने वाले प्रकाशन हाउस चल रहे हैं तो इनका भी सरकार पर एक सामूहिक दबाव होता है। सरकार यदि सालोंसाल भर्ती नहीं निकालेगी तो बेरोज़गार युवाओं का आक्रोश बढ़ेगा, जोकि सत्ता के लिए ख़तरा है। इसलिए उस दबाव को मुक्त करने के लिए ये परीक्षाएं कुकर की सीटी की तरह काम करती हैं।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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