बीते 8 जनवरी, 2025 को समाजवादी चिंतक मधु लिमये (1 मई, 1922 – 8 जनवरी 1995) की 30वीं पुण्यतिथि थी। तीन दशक पूर्व 8 जनवरी, 1995 को उनका दिल्ली में 72 वर्ष की आयु में निधन हो गया था। वर्तमान परिस्तिथियों में उनकी कमी और ज़्यादा महसूस होती है। उनका जीवन संघर्ष तथा विचार और भी ज़्यादा प्रासंगिक हो गया है जब लोकतांत्रिक मूल्यों का पूरे विश्व में हनन हो रहा है।
वर्ष 1922 में एक मई को महाराष्ट्र के पुणे में जन्मे मधु लिमये भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की विचारधारा और भारतीय राष्ट्र की अवधारणा के असली मायनों में साधक थे।
महाराष्ट्र से लेकर गोवा और फिर बिहार तक राजनीतिक यात्रा
पांच दशक से भी अधिक का उनका सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन समाजवादी और समतावादी विचारों एवं मूल्यों के विस्तार एवं उनको संरक्षित रखने के संघर्ष में बीता। वर्ष 1937 में 15 वर्ष की अल्पायु में राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने वाले मधु लिमये साम्राज्यवाद और तानाशाही के विरुद्ध एक सशक्त आवाज़ थे। उन्होंने अंग्रेज़ी सत्ता का जुल्म सहते हुए आज़ादी के आंदोलन में शरीक महाराष्ट्र के समाजवादी जैसे नारायण गणेश गोरे, श्रीधर महादेव जोशी जैसे लोगों के संपर्क में आए। बाद में कांग्रेस के अंदर के समाजवादियों जैसे आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, यूसुफ़ मेहरअली, मीनू मसानी द्वारा 1934 में बनाई गई कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से प्रभावित होकर 1938 में उसकी सदस्यता ली और राष्ट्रीय आंदोलन में शरीक हुए।
आज़ादी के पश्चात समाजवादी आंदोलन कांग्रेस से अलग होकर रचनात्मक विपक्ष की भूमिका में अपने आपको देखने लगा और मधु लिमये की राजनीतिक पारी भी स्वतंत्र भारत में भी इन्हीं संगठनों से होकर गुज़री, जिसमें वह सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और फिर पार्टी में टूट आने के बाद डॉ. लोहिया के नेतृत्व वाली सोशलिस्ट पार्टी एवं 1960 के दशक में बनी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य रहे।
मधु लिमये के जीवन के शुरुआती प्रमुख घटनाओं में गोवा मुक्ति आंदोलन था, जिसे उनके नेता डॉ. लोहिया ने 1946 में शुरू किया था। वर्ष 1955 में मधु लिमये ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। इस दौरान जेल में बंदी बनाए जाने के बाद उन्होंने दुनिया भर का साहित्य पढ़ा जिसमें इतिहास, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र जैसे अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर पुस्तकें शामिल थीं। उन्होंने अपने जेल में रहते हुए एक डायरी लिखी, जो बाद में “गोवा लिबरेशन मूवमेंट एंड मधु लिमये” के नाम से प्रकाशित हुई।
मधु लिमये 1964 से 1979 के बीच बिहार से 4 बार लोकसभा के सदस्य रहे। वर्ष 1964-67 व 1967-71 में मुंगेर तथा वर्ष 1973-77 व 1977-79 में बांका से। डॉ. ए. रघु कुमार ने अपने लेख ‘मधु लिमये: द पास्ट इन द प्रेजेंट’ में मधु लिमये के संबोधन का उल्लेख करते हैं– “संसद जन और लोकप्रिय आंदोलनों का विकल्प नहीं थी, बल्कि जन सेवा का एक अतिरिक्त साधन और जनता की शिकायतों को व्यक्त करने का एक मंच थी। इसका इस्तेमाल आम आदमी की उम्मीदों और प्रेरणाओं को दर्शाने के साधन के रूप में किया जाना चाहिए।” (पृष्ठ 4) उन्होंने लोकतांत्रिक ढांचे में सबसे ज़रूरी अंग यानी विपक्ष की भूमिका बखूबी निभायी। सनद रहे कि 1969 तक लोकसभा के अंदर नेता प्रतिपक्ष का पद रिक्त था, क्योंकि किसी भी पार्टी के पास सदन की कुल सीटों का कम से कम 10 प्रतिशत सीट नहीं थी। ऐसे कमजोर विपक्षीय संभावनाओं के दरमियान मधु लिमये जैसे सांसदों ने मज़बूत विपक्ष की भूमिका निभायी। इसीलिए सांसद के तौर पर संसद में उनको बहुत सम्मान हासिल था। वे सरकार को कटघरे में रखते थे। उनसे चिढ़ कर ही सत्ता पक्ष के लोग उन्हें कटु लिमये भी कहते थे।
उनकी नैतिकता भी अकल्पनीय थी। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1976 में आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने जब संसद का कार्यकाल एक वर्ष बढ़ा दिया तब मधु जी ने इसे अनैतिक घोषित करके जेल से ही पांच वर्ष पूर्ण होने पर इस्तीफ़ा दे दिया। साथ ही, उन्होंने कभी भी सांसदों को मिलने वाली पेंशन को स्वीकार नहीं किया। वे इसका विरोध करते थे।
मधु लिमये सत्ता के लोभ से बिलकुल दूर थे। वर्ष 1967 में डॉ. लोहिया के निधन के बाद उन्होंने संसोपा के संसदीय दल के नेता का पद छोड़ दिया और उन्होंने 1977 की जनता सरकार में मंत्री पद भी नहीं स्वीकार किया।
मधु लिमये ने प्रचुर मात्रा में लेखन किया। उन्होंने अंग्रेज़ी, हिंदी और मराठी में सौ से अधिक किताब लिखे। साथ ही, उन्होंने विभिन्न सम-सामयिक विषयों पर अखबारों व पत्रिकाओं के लिए भी लेखन किया। वर्ष 1982 के बाद जब उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास लिया तब उनका पढ़ने-लिखने का कार्य और भी बढ़ गया, जिसे उन्होंने अपनी मृत्यु तक जारी रखा।
मधु लिमये और हिंदू राष्ट्रवाद
लिमये अपने समाजवादी साथियों की तुलना में आरएसएस, जनसंघ (बाद में भारतीय जनता पार्टी) और दक्षिणपंथी राजनीति को लेकर अपने शुरुआती दिनों से ही स्पष्ट थे। लिमये ने आरएसएस की राजनीति को बहुत क़रीब से देखा, परखा और बार-बार विरोध किया। ‘मधु लिमये इन पार्लियामेंट: अ कमेमोरेटिव वॉल्यूम’ में छपे अपने लेख ‘मधु लिमये : एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्तित्व’ में वरिष्ठ पत्रकार क़ुरबान अली लिखते हैं– “मधु लिमये ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन से की थी, इसलिए मधु लिमये की सोच पर राष्ट्रीय आंदोलन की गहरी छाप थी। पुणे के साने गुरु के प्रभाव के कारण सांप्रदायिक राजनीति और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से वे शुरू से ही सहमत नहीं थे। इसलिए अपने जीवन के अंतिम दिनों तक वे इसके खिलाफ जेहाद छेड़े रहे।” (मधु लिमये इन पार्लियामेंट: अ कमेमोरेटिव वॉल्यूम, लोकसभा सचिवालय, 2008, पृष्ठ 67)
मधु लिमये यह भलीभांति समझते थे कि आरएसएस और उसके अन्य संगठन हिंदू राष्ट्रवाद की भावना से ओत-प्रोत हैं, जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रती एजेंडा चलाती है और जिसका मुख्य लक्ष्य मुस्लिमों को हिंदुस्तान में दोयम दर्जे का नागरिक बनाना है।
मधु लिमये ने इस मुद्दे पर स्पष्ट रूप से वर्ष 1979 में ‘रविवार’ साप्ताहिक में छपे अपने लेख में लिखा– “मैंने राजनीति में 1937 में प्रवेश किया। उस समय मेरी उम्र बहुत कम थी। मैंने मैट्रिक की परीक्षा जल्दी पास कर ली थी, इसलिए कॉलेज में भी मैंने बहुत जल्दी प्रवेश किया। उस समय पूना में आरएसएस और सावरकरवादी लोग एक तरफ और राष्ट्रवादी व विभिन्न समाजवादी और वामपंथी दल दूसरी तरफ थे। मुझे याद है कि 1 मई, 1937 को हम लोगों ने मई दिवस का जुलूस निकाला था। उस जुलूस पर आरएसएस के स्वयंसेवकों और सावरकरवादी लोगों ने हमला किया था और उसमें प्रसिद्ध क्रांतिकारी सेनापति बापट और हमारे नेता एस.एम. जोशी को भी चोटें आई थीं। उसी समय से इन लोगों के साथ हमारा मतभेद था।”
लिमये के विचारों को हमें ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखना होगा। 1960 के दशक में उत्तर भारत में डॉ. लोहिया के नेतृत्व में ग़ैर-कांग्रेसवाद की एक नई राजनीति जन्म ले रही थी। यह क्षणिक नीति वे राजनीतिक फ़लक पर कांग्रेस के प्रभुत्व को ख़त्म करने के लिए लेकर आए थे। इसी के परिणामस्वरूप उन्होंने ग़ैर-कांग्रेसी संगठनों को साथ लाने की कोशिश शुरू की, जिसमें उन्होंने जनसंघ जैसे दक्षिणपंथी संगठन को भी तरजीह दी। जैसे कि 1963 के उपचुनावों में उन्होंने जनसंघी नेता दीनदयाल उपाध्याय को जौनपुर लोकसभा से समर्थन दिया था। वर्ष 1967 के प्रांतीय चुनावों में इस खिचड़ी गठबंधन को उत्तर भारत के कई राज्यों में, जिसमें हिंदी पट्टी के दो प्रमुख राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार में, सफलता प्राप्त हुई। इस संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकार का नेतृत्व उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह ने और बिहार में महामाया प्रसाद सिन्हा ने किया।
इससे सवर्ण प्रभुत्व की सरकारें गिर गई और भारी संख्या में बहुजन समाज के लोगों की, ख़ास कर पिछड़ों की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित हुई, जिसे लोहिया के ‘पिछड़ा पावें सौ में साठ’ की राजनीति के परिणाम के तौर पर भी देखा जा सकता है। लेकिन इसका नुक़सान यह हुआ कि जनसंघ-आरएसएस जैसे ग़ैर-लोकतांत्रिक संगठन, जो गांधी की हत्या के बाद राजनीतिक रूप से अस्पृश्य हो चुके थे और किनारे पर जा चुके थे, उन्हें मुख्यधारा में आने का मौक़ा मिला। बाद में 1977 में उन्हें जनता पार्टी की सरकार में सत्ता में आने का मौक़ा मिला, जिससे राजनीति में उग्र हिंदुत्व का ख़तरा आगे भी बढ़ता गया। लिमये इस ख़तरे को भलीभांति जानते थे और इस कारण इसका विरोध उन्होंने उस समय भी किया और बाद में भी करते रहे। इस क्रम में उन्होंने डॉ. लोहिया का विरोध भी किया। हालांकि वे पार्टी में बने रहे। लिमये लिखते हैं– “जब कांग्रेस के एकतंत्रीय शासन के खिलाफ हमारी लड़ाई चल रही थी, तो हमारे नेता डॉ. राममनोहर लोहिया कहते थे कि जिस कांग्रेस ने चीन के हाथ भारत को अपमानित करवाया, उस कांग्रेस को हटाने के लिए और देश को बचाने के लिए हमको विपक्ष के सभी राजनीतिक दलों के साथ तालमेल बैठाना चाहिए। इस विषय पर डॉक्टर साहब से मेरी बहुत चर्चा होती थी। दो साल तक बहस चली। आखिर तक मैं यह कहता रहा कि आरएसएस और जनसंघ के साथ हमारा तालमेल नहीं बैठेगा। अंत में डॉक्टर साहब ने कहा कि मेरे नेतृत्व को तुम मानते हो या नहीं? मैंने कहा– हां, मैं मानता हूं। वे बोले, क्या यह जरूरी है कि सभी प्रश्नों पर तुम्हारी और मेरी राय मिले या सभी प्रश्नों पर मैं तुमको सहमत करूं? एकाध प्रश्न ऐसे भी रहे, जो हमदोनों के बीच मतभेद का विषय हो और मैं तो इस तरह का तालमेल चाहता हूं एक बड़े दुश्मन को हराने के लिए। तो इस मामले में तुम मान जाओ, इसको ‘ट्रायल’ दे दो। हो सकता है कि अंत में आरएसएस और डॉक्टर राममनोहर लोहिया की विचारधारा में संघर्ष हो कर रहेगा।”
राजनीतिक वैज्ञानिक पॉल आर. ब्रास अपने 1976 में अपने लेख ‘लीडरशिप कॉन्फ़्लिक्ट एंड द डिसइंटिग्रेशन ऑफ़ द इण्डियन सोशलिस्ट मूवमेंट: पर्सनल एम्बिशन,पॉवर एंड पॉलिसी’ में 1971 के दिनों में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के विलय पर हो रही राजनीति पर लिखा– “प्रसोपा में संसोपा की तुलना में विलय की भावना ज़्यादा थी और कम विभाजनकारी थी। इसके विपरीत, इस मुद्दे पर संसोपा स्पष्ट रूप से दो गुट में बट गया था। एक गुट जो बॉम्बे-महाराष्ट्र का था जिसका नेतृत्व मधु लिमये और जॉर्ज फर्नांडीस ने किया। इस गुट का समर्थन पूर्व प्रसोपा द्वारा समर्थित एस.एम. जोशी जैसे नेताओं ने किया। यह गुट ग़ैर-कांग्रेसवाद की नीति के त्याग और प्रसोपा के साथ विलय के पक्ष में था। वहीं दूसरा गुट, जो राज नारायण के नेतृत्व वाला गुट था और पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई थी, सत्ता विरोधी कांग्रेस गठबंधन को जारी रखने का समर्थन किया और प्रसोपा के साथ विलय का विरोध किया।”
लिमये आरएसएस से मतभेद और दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर (जिसमें जनसंघ के नेताओं को आरएसएस की सदस्यता त्यागने की बात थी) जनता पार्टी की सरकार में सवाल उठाया, जिसमें समाजवादी नेता राजनारायण ने भी उनका साथ दिया। ध्यान देने योग्य बात है कि इसी मुद्दे के चलते 1979 में जनता पार्टी की सरकार गिर गई।
लिमये ने अपनी लेखनी के द्वारा आरएसएस जैसे संगठनों से अपने मतभेद के कारण स्पष्ट किये। उन्होंने संघ के प्रमुख विचारक और दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर की दो प्रमुख पुस्तकों – ‘वी ऑर आवर नेशनहुड डिफ़ाइंड’ तथा ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ (जिसे हिंदी में ‘विचार नवनीत’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया) – में लिखे उनके विचारों की आलोचना की।
मसलन, राष्ट्रवाद के सवाल पर मधु लिमये आरएसएस का विरोध करते हैं। वह उनकी हिंदू राष्ट्रवाद की अवधारणा और मुस्लिम नफ़रत की राजनीति को नाज़ी नेता हिटलर के विचारों के समानांतर पाते हैं। गोलवलकर की मुस्लिमों और ईसाइयों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने के पीछे नाज़ी आदर्शों को पाते हैं जो यहूदियों के लिए भी यही विचार रखता था। ऐसे ही गोलवलकर और आरएसएस से दूसरा मतभेद भारतीय समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था के सवाल पर था। लिमये लिखते हैं– “गोलवलकर जी और आरएसएस वर्ण-व्यवस्था के समर्थक हैं और मेरे जैसे समाजवादी वर्ण-व्यवस्था के सबसे बड़े दुश्मन हैं। मैं अपने को ब्राह्मणवाद और वर्ण-व्यवस्था का सबसे बड़ा शत्रु मानता हूं। मेरी यह निश्चित मान्यता है कि जब तक वर्ण-व्यवस्था और उस पर आधारित विषमताओं का नाश नहीं होगा, तब तक भारत में आर्थिक और सामाजिक समानता नहीं आ सकती है। लेकिन गुरुजी कहते हैं कि ‘हमारे समाज की दूसरी विशिष्टता थी वर्ण-व्यवस्था, जिसे आज जाति-प्रथा कह कर उपहास किया जाता है।’ आगे वे कहते हैं कि ‘समाज की कल्पना सर्वशक्तिमान ईश्वर की चतुरंग अभिव्यक्ति के रूप में की गई थी, जिसकी पूजा सभी को अपने-अपने ढंग से और अपनी अपनी योग्यता के अनुसार करनी चाहिए।’”
मधु लिमये ने भाषा, तिरंगा झंडा, संवैधानिक मूल्यों जैसे अनेक सवालों पर आरएसएस के विचारों से असहमति जतायी। वह हमेशा आरएसएस और जनसंघ की आलोचना करते रहे। इसीलिए वह उन संगठनों को खटकते रहे होंगे। वह ख़ुद लिखते हैं– “मुझे गाली देने में अपने अखबारों का जितना संसाधन आरएसएस ने खर्च किया, उतना तो शायद इंदिरा गांधी को भी गाली देने के लिए नहीं किया होगा। ‘पांचजन्य’ और ‘ऑर्गनाइजर’ में मुझे और जनता पार्टी के कई नेताओं के बारे में बहुत भला-बुरा लिखा गया। इसके बावजूद एक अरसे तक इन लोगों से मेरी बातचीत होती रही। एक दफा तो मुझे याद है कि मेरे घर बंबई में बाला साहब देवरस आए। फिर उसके बाद 1971 के चुनाव के बाद एक दफा मैं उनसे मिला। बाला साहब देवरस से मई 1977 में भी मेरी बात हुई थी। इसलिए ऐसा कोई नहीं कह सकता कि मैंने उनसे चर्चा नहीं की थी। लेकिन मैं अब इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि उनके दिमाग का किवाड़ बंद है। उसमें कोई नया विचार पनप नहीं सकता। बल्कि आरएसएस की यह विशेषता रही है कि वह बचपन में ही लोगों को एक खास दिशा में मोड़ देता है। पहला काम वे यही करते हैं कि बच्चों और नौजवानों की विचार प्रक्रिया को ‘फ्रीज़’ कर देते हैं। उन्हें जड़ बना देते हैं, जिसके बाद कोई नया विचार वे ग्रहण ही नहीं कर पाते।”
सामाजिक न्याय और आरक्षण पर विचार
हम सब जानते हैं कि भारतीय हिंदू समाज असमानता और ऊंच-नीच पर आधारित है। जाति प्रथा ने इस मुल्क के बहुसंख्यक (दलित, पिछड़े और आदिवासी) समाज को इंसानियत के न्यूनतम मूल्यों से वंचित रखा। हिंदू समाज में व्याप्त असमानता को दर्शाते हुए बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने अपने समाचारपत्र ‘मूकनायक’ के 31 जनवरी, 1920 के प्रथम संपादकीय में हिंदू धर्म की परतबद्ध असमानता को समझाते हुए लिखा– “हिंदू धर्म में व्याप्त भेदभाव जितना अनुपम है, उतना ही निंदनीय भी है, क्योंकि भेदभावपूर्ण आचरण से हिंदू धर्म का जो स्वरूप बनता है, वह हिंदू धर्म की पवित्रता को शोभा नहीं देता है। हिंदू धर्म में जो जातियां हैं, वे ऊंच-नीच की भावना से प्रेरित होती हैं। हिंदू समाज का स्वरूप एक मीनार की तरह है, जहां हरेक जाति उस मीनार की मंजिल के रूप में है। लेकिन यहां एक बात याद रखनी चाहिए कि इस मीनार की मंजिलों के बीच कोई सीढ़ी नहीं है। इसलिए एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर जाने का मार्ग नहीं मिलता है। जिस मंजिल में उसका जन्म हुआ, उसी में उसे मरना है। नीचे की मंजिल का मनुष्य कितना भी लायक क्यों न हो? उसके लिए उसे ऊपर की मंजिल पर प्रवेश नहीं है तथा ऊपर की मंजिल का मनुष्य कितना भी नालायक क्यों न हो, उसे नीचे की मंजिल पर भेजने की ताकत किसी में नहीं है!”
लिमये बहुत हद तक डॉ. आंबेडकर से प्रेरित दिखते हैं। जाति प्रथा के ख़ात्मे तथा आरक्षण, जिसे वह सामाजिक न्याय के सिद्धांत का एक हथियार समझते थे, के ज़रिए पिछड़े वर्गों को मुख्यधारा में लाने के पैरोकार थे। लिमये जनवरी, 1990 में ‘असली भारत’ पत्रिका में अपने लेख ‘आरक्षण और सामाजिक समता’ में लिखते हैं– “हमारे संविधान-निर्माता न्याय पर आधारित समाज-व्यवस्था का निर्माण करना चाहते थे। उनके सामने सवाल यह था कि ऊंच-नीच के भेदभावों पर आधारित समाज में समता का सिद्धांत कैसे लागू किया जाए। डॉ. आंबेडकर कहते थे कि हिंदू समाज एक सीढ़ी है, जिसमें संगीत के स्वरों की तरह सम्मान का आरोहण है और तुच्छता का अवरोहण। इसे खत्म करने के लिए ही संविधान सभा ने आरक्षण और विशेष अवसर के सिद्धांत को अपनाया। लोकतंत्र में सत्ता का अंतिम स्रोत है जनता। चूंकि हमारी जनसंख्या में पिछड़े वर्ग के लोगों की बहुलता है, इसलिए महात्मा गांधी ने उनकी उन्नति के एक सबल हथियार के रूप में बालिग मताधिकार पर जोर दिया। इस हथियार का महत्व डॉ. आंबेडकर अच्छी तरह जानते थे। समता की दिशा में वह एक महत्वपूर्ण कदम था। आरक्षण की कसौटी के रूप में अक्सर आर्थिक कसौटी की बात की जाती हैं। मगर दरिद्रता हमारे यहां एक व्यापक चीज है। संविधान के निर्माता मूर्ख नहीं थे। उन्होंने जानबूझकर सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन की कसौटी को चुना, जिसके बिना न्याय हो ही नहीं सकता।”
लिमये आरक्षण का आधार सामाजिक विषमता को मानते हैं और इस बात को वह बार-बार उल्लेखित करते हैं। वे आगे लिखते हैं– “आरक्षण नीति के विरोधियों की एक और दलील है। वे पूछते हैं कि क्या इस नीति के चलते इन लोगों की गरीबी दूर हुई है? लेकिन यह तर्क गलत है। सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की सेवाएं रोजगारों का एक सीमित स्रोत हैं। इनसे गरीब लोगों की स्थिति पर विशेष असर होगा, ऐसी अपेक्षा भी नहीं थी। क्या बालिग मताधिकार और नागरिक अधिकारों से रोटी की समस्या हल हुई है? नहीं! लेकिन क्या इसीलिए लोकतंत्र को ही समाप्त कर दिया जाए? वस्तुतः आरक्षण नीति का उद्देश्य आर्थिक समस्या का समाधान नहीं था। इसका एकमात्र उद्देश्य सामाजिक दृष्टि से दलित और पीड़ित वर्गों को राज्य सत्ता में भागीदारी देना था। स्वतंत्रता के पहले बंबई विधानसभा में मुख्यमंत्री बाल गंगाधर खेर ने आंबेडकर की आलोचना करते हुए उनसे कहा था कि आप सारे राष्ट्र के हित की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं? क्या अनुसूचित जातियां भी पूर्ण का एक अंश नहीं हैं? इस पर डॉ. आंबेडकर ने गुस्से में कहा था– ‘नहीं, मैं आपके पूर्ण का अंश नहीं हूं। मैं अलग हूं। बहिष्कृत हूं।’ इसलिए राज्य की नीति का लक्ष्य यह होना चाहिए कि समाज के हर वर्ग को, विशेषकर सदियों से दलित और शोषित वर्गों को, इस बात की अनुभूति हो कि यह भारतीय गणराज्य उनका भी है।”
लिमये आर्थिक आधार पर आरक्षण के पैरोकारों से प्रश्न पूछते हुए लिखते हैं– “जो लोग आरक्षण के आधार के रूप में आर्थिक कसौटी की बात करते हैं, उनसे मैं पूछना चाहता हूं कि जो स्थान आरक्षण के दायरे के बाहर हैं, उनके लिए गरीबी की कसौटी क्यों नहीं लगाते? इन स्थानों के लिए गरीब ब्राह्मण, गरीब ठाकुर, गरीब कायस्थ, गरीब बनिया, गरीब शेख और गरीब सैयद क्यों नहीं चुनते? उचित तो यही होगा कि जब हरिजन-आदिवासी पिछड़ों का अनुपात सरकारी सेवाओं में उनकी जनसंख्या से अधिक हो जाए, तभी आरक्षण के लिए आर्थिक कसौटी का इस्तेमाल हो।”
लिमये ने न्यायपालिका में जजों की सामाजिक पृष्ठभूमि तथा वहां बहुजन वर्गों की अनुपस्थिति का सवाल उठाया और दलित और आदिवासी के अलावा पिछड़े वर्गों की आज़ादी के बाद से लगातार की जा रही हकमारी को भी रेखांकित किया। उन्होंने पिछड़ेपन की पहचान का आधार जाति को कहा और इस बात से इंकार को ढोंग माना। 1960 के दशक में उन्होंने कहा था कि हिंदू समाज में जिन लोगों को शूद्र माना गया है, उन तमाम लोगों को पिछड़े वर्ग में शामिल किया जाना चाहिए।
इन सब बातों को मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों एवं वी.पी. सिंह द्वारा उनको लागू किए जाने के संदर्भ में देखना चाहिए। हम सब जानते हैं कि अल्पसंख्यक वर्गों को भी मंडल आयोग के तहत ओबीसी आरक्षण का प्रावधान है, जिसका आधार सामाजिक पिछड़ापन है। इसकी मांग लिमये ने बहुत पहले ही कर दी थी। 8 नवंबर, 1965 को लोकसभा में पिछड़ी जातियों के आयोग द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट पर चर्चा के दौरान विचार व्यक्त करते हुए लिमये ने कहा था– “अब मैं मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों आदि के बारे में जिनको अल्पसंख्यक लोग कहा जाता है, कुछ कहना चाहता हूं। मैं यह कभी नहीं कहूंगा कि सभी अल्पसंख्यक लोग पिछड़े वर्ग में आ जाएं। केंद्रीय सरकार ने आज तक जितनी सुविधाएं इनको दी हैं, वे खानदानी लोगों को ही दी हैं, बड़े लोगों को, पैसे वालों को बड़े कुटुंब के लोगों को ही दी हैं। ऐसे लोगों के साथ ही पक्षपात किया है। लेकिन जो जुलाहा है, जो गरीब लोग हैं, जो मेहनतकश मजदूर हैं, ऐसे मुसलमानों को कभी मौका इस देश में नहीं मिला है। जब विशेष अवसर और मौके की बात की जाती है तो मुसलमानों में भी शेख, सैय्यद आदि को, इसको छोड़कर गरीबों को, पिछड़े वर्गों को मौका मिलना चाहिए। ईसाइयों के बारे में भी मैं यही कहूंगा। कसौटी अल्पसंख्यक धर्म या जाति के हैं, वह नहीं होनी चाहिए। सामाजिक दृष्टि से, आर्थिक दृष्टि से, शिक्षा की दृष्टि से पिछड़े हैं या अगड़े हैं, इसी ख्याल से हमें इस समस्या पर विचार करना चाहिये।” (मधु लिमये इन पार्लियामेंट: अ कमेमोरेटिव वॉल्यूम, पृष्ठ 546)
बहरहाल, इन सब बातों से यह ज्ञात होता है कि मधु लिमये के अंदर मुल्क के दबे-कुचले शोषित व्यक्ति के प्रति कितना लगाव था। उनका पूरा जीवन ग़ैर बराबरी व अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करते गुज़रा। अपने 72 साल के जीवन में लिमये ने राजनीतिक फ़लक पर ऊंचे प्रतिमान रचे, जिन्हें प्राप्त करना वर्तमान समय में नामुमकिन मालूम होता है। लिमये अपने समकालीनों से कई मायनों में अलग थे और आगे भी। मशहूर कन्नड़ साहित्यकार यू.आर. अनंतमूर्ति ने कहा था कि “लिमये शायद समाजवादियों के पुरोधा डॉ. राम मनोहर लोहिया से भी अधिक अपने सिद्धांत और कृतित्व को लेकर समझौता न करने वाले थे। आज उनके जैसी क्षमता और ईमानदारी रखने वाला शायद ही कोई राजनेता होगा।”
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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