“किसी भी साहित्यिक रचना में अगर विद्रोह नहीं, तो वह और कुछ भले हो, पर साहित्य नहीं है। इस निकष पर अगर हिंदी साहित्य को परखा गया, तो प्रेमचंद ही हिंदी साहित्य की लाज बचाते हैं। उससे पहले का सारा साहित्य मैं ख़ारिज करूंगा। वर्तमान में मार्क्सवादी और आंबेडकरवादी साहित्यकारों ने अपने फ़र्ज़ को अंजाम दिया है।” ये बातें प्रसिद्ध दलित विचारक व साहित्यकार कंवल भारती ने बीते 21-23 फरवरी, 2025 को महाराष्ट्र के छत्रपति संभाजीनगर (औरंगाबाद) में आयोजित 19वें अखिल भारतीय विद्रोही मराठी साहित्य के उद्घाटन के मौके पर कही।
कंवल भारती ने कहा कि हिंदी साहित्य में ‘विद्रोह’ का आगमन तभी हुआ जब मार्क्सवाद आया। इसके पहले किसी भी हिंदी साहित्यकार ने विद्रोह की बात नहीं की। यहां तक कि यदि मार्क्सवाद भारत में नहीं आया होता तो निश्चित रूप से प्रेमचंद वह नहीं लिख पाते, जो उन्होंने लिखा। इसी बीसवीं सदी में डॉ. आंबेडकर की वैचारिकी आई, जिसका मूल ही असमानता और भेदभाव से विद्रोह था।
कंवल भारती ने अपने संबोधन में विद्रोह के साहित्य का इतिहास बताते हुए कहा कि हर्षवर्धन के काल में शुंग वंश के 200 साल का शासन ख़त्म हुआ था। शासन ख़त्म होते ही स्त्रियों और शूद्रों ने उन बंधनों को तोड़ना आरंभ कर दिया, जिनसे उन्हें बांधा गया था। यह काम भक्ति आंदोलन के जरिए हुआ। यह मनुस्मृति के इस सिद्धांत का विरोधी था कि केवल ब्राह्मण ही ज्ञानी हो सकते हैं। कंवल भारती ने यह भी कहा कि इस काल में अनेक गैर-ब्राह्मण संत कवि हुए और इनमें से किसी ने किसी ब्राह्मण को अपना गुरु नहीं माना।

यह तीन दिवसीय सम्मेलन औरंगाबाद (महाराष्ट्र) के आमखास मैदान स्थित मलिक अंबर नगर में संपन्न हुआ। इस दौरान सेमिनार, कविता पाठ, व्याख्यान, समूह चर्चा, सांस्कृतिक आदि कार्यक्रम आयोजित किये गये। बैठक में बड़ी संख्या में उत्साही लोगों ने भाग लिया।
इसके पहले सम्मेलन की शुरुआत जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले की प्रतिमाओं पर श्रद्धांजलि अर्पित करके शुरू हुई। संविधान मंच पर आयोजित इस सम्मेलन का उद्घाटन कंवल भारती ने किया। इसकी अध्यक्षता डॉ. अशोक राणा ने की। इस मौके पर निवर्तमान सम्मेलन अध्यक्ष डॉ. वासुदेव मुलाटे, उर्दू लेखक नूरुल हसनैन, स्वागत अध्यक्ष सतीश चकोर, मुख्य संयोजक धनंजय बोर्डे और प्रो. प्रतिमा परदेशी मुख्य अतिथि थीं।
सम्मेलन में विभिन्न विषयों पर हुई चर्चा
22 और 23 फरवरी, 2025 को विद्रोही मराठी साहित्य सम्मेलन में विभिन्न विषयों पर चर्चा की गई। सम्मेलन में प्रो. एच.एम. देसरडा, प्रा. मा.रा. लामखडे, तुकाराम गायकवाड़, लोककथा शोधकर्ता मधुकर वाकोडे, ए.क. शेख, प्रो. प्रकाश शिरसाट, डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे, डॉ. सीताराम जाधव और वरिष्ठ पत्रकार स.सो. खंडालकर को ‘विद्रोही जीवन गौरव पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया।
सम्मेलन में दलित-बहुजनों से जुड़े विविध विषयों पर चर्चा आयोजित की गई। मसलन,अरविंद सुरवड़े की अध्यक्षता में ‘भारतीय असमानता के विरुद्ध विभिन्न धार्मिक आंदोलनों की भूमिका और आज की वास्तविकता’ विषय पर संगोष्ठी आयोजित की गई। वहीं वंदना महाजन की अध्यक्षता में ‘बोली भाषा, मानक भाषाएं, शास्त्रीय भाषाएं और सांस्कृतिक आधिपत्य की राजनीति’ पर सविस्तार चर्चा हुई। शाहू पटोले की अध्यक्षता में ‘अंधकारमय काल में नए विषय, नई चुनौतियां और नया लेखन’ विषय पर संगोष्ठी तथा निरंजन टकले के अध्यक्षता में ‘संविधान और लोकतंत्र के लिए कॉरपोरेट मनुवादियों की चुनौती’ विषय पर एक विशेष व्याख्यान आयोजित किए गए। इस मौके पर दलित-बहुजनों के इतिहास व इसके लेखन पर आधारित गोष्ठी ‘इतिहास के विकृतीकरण के विरोध में सच्चे इतिहास का वर्णन और लेखन’ आयोजित की गई।

सम्मेलन में अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश किए गए। मसलन, पहले दिन 21 फरवरी को शाम 7 बजे आदिवासी सांस्कृतिक कार्यक्रम के तहत ‘शिवाजी अंडरग्राउंड इन भीमनगर मोहल्ला’ नाटक का मंचन किया गया। अन्य प्रस्तुतियों में प्रो. वृषाली रणधीर का एकपात्री नाटक ‘मैं सावित्री जोतीराव फुले बोल रही हूं’, अंकुर तांगड़े का मराठी स्टैंड-अप कॉमेडी कार्यक्रम के बाद एकांकी नाटक ‘ए बिस्मिल्ला’ शामिल रहे। इसके अलावा कवि सम्मेलन, ग़ज़ल सम्मेलन और लेखकों, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों के साथ साहित्यिक संवाद भी हुए।
सम्मेलन स्थल पर आदिवासी गीत, कला प्रदर्शन, लोककला प्रस्तुतियां, चित्रकला प्रदर्शनी, मूर्तिकला प्रदर्शनी, सुलेख, रंगोली एवं अन्य कलाविधाओं का आयोजन किया गया।
इसके अलावा विद्रोही साहित्य सम्मेलन के लिए आमखास मैदान में पुस्तक स्टॉल लगाए गए थे। इस पुस्तक मेले में बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया।
अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन के बरअक्स विद्रोही मराठी साहित्य सम्मेलन
दरअसल, औरंगाबाद में 19वां विद्रोही मराठी साहित्य सम्मेलन का आयोजन दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में गत 21-23 फरवरी को आयोजित 98वां अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन के समानांतर किया गया। अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से भट-ब्राह्मणों और मनुवादी वर्गों को बढ़ावा देने का आरोप लगाया जाता रहा है। इसी कारण से पिछड़े वर्गों तथा शोषित, कमजोर वर्गों को वंचित रखने और उन्हें बेदखल करने का आरोप लगाते हुए, डेढ़ दशक पहले, कुछ प्रगतिशील विचारकों, कार्यकर्ताओं और लेखकों ने साहित्य के क्षेत्र में तथाकथित मराठी साहित्यकारों के दिखावटीपन और अहंकार को तोड़ने और हाशिए के लोगों के परिवर्तनकारी साहित्य को जगाने के लिए विद्रोही सांस्कृतिक आंदोलन का गठन किया। इसके माध्यम से, महाराष्ट्र में हर साल विभिन्न स्थानों पर एक स्वतंत्र विद्रोही मराठी साहित्य सम्मेलन आयोजित किया जाता है। पहला विद्रोही साहित्य सम्मेलन 7 फरवरी, 1999 को धारावी, मुंबई में आयोजित किया गया था। इस प्रथम विद्रोही साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष प्रसिद्ध लेखक बाबूराव बागुल थे तथा उद्घाटन डॉ. आ.ह. सालुंके द्वारा किया गया था।
बहरहाल, 19वें विद्रोही मराठी साहित्य सम्मेलन में कई प्रस्ताव पारित किए गए। इनमें अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन को दिया जानेवाला सरकारी अनुदान तत्काल बंद किए जाने की मांग शामिल है। मांग की गई कि यह अनुदान आत्महत्या करनेवाले किसानों के परिवारों और प्रति घंटे के आधार पर काम करनेवाले शिक्षकों को वितरित की जानी चाहिए। दूसरा प्रस्ताव रहा कि असमानता के प्रतीक शनिवारवाड़ा को सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय के प्रतीक चिह्न से हटा दिया जाए और उसके स्थान पर स्वराज के प्रतीक लाल महल को रखा जाए। सम्मेलन में यह भी प्रस्ताव पारित किया गया कि पत्रकारों पर हमला करनेवालों के खिलाफ तत्काल कार्रवाई की जानी चाहिए। इसके अलावा यह मांग भी की गई कि सावित्रीबाई फुले की सह-शिक्षिका फातिमा शेख के लिए एक स्मारक बनाया जाए। इसके अतिरिक्त राजस्थान के जयपुर उच्च न्यायालय के सामने स्थापित मनु की प्रतिमा को हटाने की मांग भी की गई तथा एक प्रस्ताव अंतर्जातीय और अंतर्धार्मिक विवाहों को संरक्षित किए जाने से संबंधित था। अन्य प्रस्तावों में समन्वित जल आवंटन नीति तुरंत लागू करने, मराठवाड़ा और पश्चिम महाराष्ट्र के बीच का भेद खत्म करने, देश में जातिवार जनगणना कराने, बाल-विवाह रोकने, कॉलेज स्तर पर पालि भाषा की नियमित पढ़ाई शुरू करने, मराठी स्कूलों को बंद करने के खिलाफ, राष्ट्रीय नई शिक्षा नीति के अमल पर रोक लगाने, गोविंद पानसरे, कलबुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर, गौरी लंकेश आदि के हत्यारों को अविलंब सजा देने, आदिवासियों को वनवासी के रूप में उनके मूल निवास से वंचित करने वालों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने, संविधान के अनुसार आदिवासियों के धर्म के रूप में ‘हिंदू’ का उल्लेख हटाए जाने की मांग आदि शामिल थे।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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