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यह चर्चा क्यों नहीं होती कि डॉ. आंबेडकर प्रथम प्रधानमंत्री होते तो क्या होता?

किसी नेता ने यह कहने की हिम्मत नहीं की कि आजादी के बाद अगर डॉ. आंबेडकर देश के प्रथम प्रधानमंत्री होते तो देश के हालात कुछ और होते, क्योंकि वे भारत की जातीय व्यवस्था में सबसे नीचे पायदान पर खड़े होकर देश की व्यवस्था को ठीक करने की सोच रहे थे। बता रहे हैं इंजीनियर राजेंद्र प्रसाद

जवाहर लाल नेहरू की जगह यदि सरदार वल्लभ भाई पटेल देश के प्रथम प्रधानमंत्री होते तो देश के हालात कुछ और होते। यह बात आए दिन नेहरू या कांग्रेस से नाराज हर नेता या राजनीतिक दल खासकर संघ-भाजपा के लोग उठाते रहे हैं। समय-समय पर समाचार पत्र और पत्रिकाओं में भी इसकी चर्चा की जाती है। लेकिन इस बात पर कभी चर्चा नहीं की जाती है कि यदि नेहरू की जगह डॉ. आंबेडकर देश के प्रथम प्रधानमंत्री होते तो हालात कुछ और होते।

यह सवाल न किसी राजनीतिक पार्टी ने उठाया और न ही पत्र/पत्रिकाओं में चर्चा का विषय बना। डॉ. आंबेडकर को या तो संविधान निर्माता या फिर दलितों के मसीहा के तौर पर कमोवेश हर राजनीतिक दल ने देश के सामने पेश किया। जबकि ऐसा करना उनके व्यक्तित्व और प्रतिभा को कमतर करना ही कहा जाएगा।

आइए इतिहास के पन्नों को पलटते हैं। आजादी से पहले या तुरंत बाद, देश के हालातों को लेकर डॉ. आंबेडकर तब क्या सोच रहे थे। और इस सवाल के जवाब की तलाश करते हैं कि क्यों डॉ. आंबेडकर को राजनीतिक तौर पर उभारने की कोई कोशिश नहीं हुई? मौजूदा वक्त में भी डॉ. आंबेडकर का नाम लेकर राजनीतिक दल और उनके नेता उनकी प्रशंसा के पुल बांधते हैं। लेकिन यह कहने से बराबर बचते हैं कि अगर डॉ. आंबेडकर देश के प्रथम प्रधानमंत्री होते तो क्या होता?

सनद रहे कि 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि “26 जनवरी, 1950 को हम अंतरविरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हम समान होंगे, लेकिन हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में विषमता का बोलबाला होगा। राजनीति में ‘एक व्यक्ति : एक वोट’ और ‘एक वोट : एक मूल्य’ का सिद्धांत होगा, लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक व्यक्ति एक मूल्य को हम नकारते रहेंगे। हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को कब तक नकारते रहेंगे? हम कब तक विरोधाभासों का यह जीवन जीते रहेंगे? यदि हम लंबे समय तक इसे नकारते रहे तो हमारा राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। जितनी जल्दी हो सके हमें इस अंतर्विरोध को दूर करना चाहिए। वरना जो लोग इस असमानता से उत्पीड़ित हैं, वे इस सभा द्वारा इतने परिश्रम से बनाये हुए राजनीतिक लोकतंत्र के महल को ध्वस्त कर देंगे।”[1]

सिर्फ संविधान से ही देश में सामाजिक और आर्थिक समानता बहाल नहीं की जा सकती है।  इसके लिए मुहिम चलानी होगी। इसे यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता है। डॉ. आंबेडकर असमानता के इस सच को उस दौर में ही समझ रहे थे। जबकि आज भी इस सच से राजनीतिक सत्ता आंखे मूंदे रहती है या फिर महज सत्ता पाने के लिए असमानता का जिक्र करती है।

आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर, नई दिल्ली में स्थापित डॉ. आंबेडकर की एक प्रतिमा

संविधान के लक्ष्य और उद्देश्य के बारे में 17 दिसंबर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू के प्रस्ताव कि भारत को ‘स्वतंत्र संप्रभु गणराज्य’ घोषित किया जाए, पर बोलते हुए डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में कहा कि “प्रस्ताव हालांकि यह कुछ अधिकारों का उल्लेख करता है, लेकिन उपायों की बात नहीं करता है। हम सभी इस तथ्य से अवगत हैं कि अधिकार तब तक कुछ भी नहीं है जब तक कि ऐसे उपाय न किए जाएं, जिनके माध्यम से लोग अधिकारों पर आक्रमण होने पर निवारण प्राप्त करने की मांग कर सकें।”[2]

यानी जो व्यवस्था समानता आधारित होनी चाहिए, वह नहीं है। इस बात की कुलबुलाहट डॉ. आंबेडकर को उस दौर में इतनी ज्यादा थी कि 13 दिसंबर, 1946 को जब जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में संविधान के उद्देश्यों पर प्रस्ताव पेश किया तो बिना देर किए उन्होंने प्रस्ताव का तीखा विरोध किया। डॉ. आंबेडकर ने कहा, “समाजवादी के रूप में इनकी [जवाहरलाल नेहरू की] जो ख्याति है, उसे देखते हुये यह प्रस्ताव निराशाजनक है। मैं आशा करता था कि कोई ऐसा प्रावधान होगा, जिससे राज्यसत्ता आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय को यथार्थ रूप दे सके। उस नजरिए से मैं आशा करता था कि ये प्रस्ताव बहुत ही स्पष्ट शब्दों में घोषित करें कि देश में सामाजिक-आर्थिक न्याय हो। इसके लिए उद्योग-धंधों और भूमि का राष्ट्रीयकरण होगा। जब तक समाजवादी अर्थतंत्र न हो तब तक मैं नहीं समझता कि कोई भावी सरकार जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय करना चाहती है, ऐसा कर सकेगी।”[3]

यह तो साफ है कि बीते 75 वर्षों में भारत में सामाजिक और आर्थिक समानता के उद्देश्य को हासिल नहीं किया जा सका है और आज आलम है कि इसके विपरीत संविधान को बदलने की कोशिशें आरएसएस-भाजपा द्वारा की जा रही हैं। जबकि डॉ. आंबेडकर ने 4 नवंबर, 1948 को संविधान सभा में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि “संविधान के स्वरूप को बदले बिना, केवल प्रशासन के स्वरूप को बदलकर उसे असंगत और संविधान की भावना के विरुद्ध बनाना पूरी तरह संभव है।”[4]

यह अलग बात है कि कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों पार्टियां खुद को डॉ. आंबेडकर के सबसे नजदीक खड़े होने की कोशिश संसद में बहस के दौरान करती रही हैं। लेकिन दोनों राजनीतिक दलों में से किसी नेता ने यह कहने की हिम्मत नहीं की कि आजादी के बाद अगर डॉ. आंबेडकर देश के प्रथम प्रधानमंत्री होते तो देश के हालात कुछ और होते, क्योंकि वे भारत की जातीय व्यवस्था में सबसे नीचे पायदान पर खड़े होकर देश की व्यवस्था को ठीक करने की सोच रहे थे। वहीं दूसरी बात यह कि उस दौर में डॉ. आंबेडकर किसी भी राजनेता से ज्यादा पढ़े-लिखे थे, जो अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी के विश्वविद्यालय में राजनीति और सामाजिक अध्ययन करने के साथ-साथ भारत की अर्थ नीति कैसी हो, इस पर भी लिख चुके थे। लेकिन डॉ. आंबेडकर का अध्ययन और भारत को लेकर उनकी सोच दलित नेता और संविधान निर्माता के तौर पर मान्यता के तहत दब कर रह गई। जबकि डॉ. आंबेडकर आधुनिक भारत के अग्रिम पंक्ति के राष्ट्र निर्माता रहे।

जिस दौर में गांधी ‘हिंद स्वराज’ लिख रहे थे और इसके जरिए संसदीय प्रणाली या आर्थिक हालातों का जिक्र भारत के संदर्भ में कर रहे थे। उस दौर में डॉ. आंबेडकर भारत की पराधीन अर्थव्यवस्था को मुक्त कराने के लिए स्वावलंबी आर्थिक ढांचे पर भी कोलंबिया यूनिवर्सिटी में कह-बोल रहे थे। साथ ही भारत के सामाजिक जीवन में झांकने के लिए संस्कृत में रचित धार्मिक, पौराणिक और वेद संबंधी समूचा वाङ्मय (का अनुवाद) पढ़ रहे थे और भौतिक स्थापनाएं लोगों के सामने रख रहे थे।

इसलिए जो दलित नेता आज सत्ता की गोद में बैठकर डॉ. आंबेडकर को दलित नेता के तौर पर याद करके नतमस्तक होते हैं, वह इस सच से आंखें चुराते हैं कि डॉ. आंबेडकर ब्राह्मणी हिंदू व्यवस्था को सामाजिक व्यवस्था से आगे एक राजनीतिक व्यवस्था मानते थे। 1936 में उनका बहुत साफ मानना था कि ब्राह्मणी हिंदू व्यवस्था में अगर अछूत जाति का व्यक्ति भी किसी ब्राह्मण की जगह ले लेगा तो वह भी उसी के अनुरूप काम करने लगेगा।

अपनी किताब ‘बुद्ध और कार्ल मार्क्स’ में डॉ. आंबेडकर ने भारत की सामाजिक व्यवस्था की उन कुरीतियों को उभारा भी और समाधान की उस लकीर को खींचने की कोशिश की। इस लकीर को गाहे-बगाहे नेहरू से लेकर मोदी तक कभी सोशल इंजिनियरिंग तो कभी अमीर-गरीब के खांचे में उठाते हैं। वर्ष 1942 में ऑल इंडिया रेडियो पर एक कार्यक्रम में आंबेडकर कहते हैं– भारत में इस समय केवल मजदूर वर्ग ही सही नेतृत्व दे सकता है।[5] मजदूर वर्ग में अनेक जातियों के लोग हैं, इससे छूत-अछूत का भेद मिटती है। संगठन के लिए मजदूर जाति प्रथा को आधार नहीं बनाते।

आजादी के बाद डॉ. आंबेडकर अपनी किताब ‘थाउट्स ऑन लिंग्विस्टिक स्टेट्स’ में राज्यों के विकास का खाका भी खींचते नजर आते हैं। जिस उत्तर प्रदेश को लेकर आज बहस हो रही है कि इतने बड़े सूबे को चार राज्यों में बांटा जाना चाहिए, वहीं आजादी के बाद आंबेडकर यूपी को प्रशासनिक दृष्टि से बोझिल स्टेट कहते हुए उसे तीन हिस्से में बांटने की वकालत करते हैं।[6]

फिर अपने शोध पत्र ‘स्मॉल होल्डिंग्स इन इंडिया’ (1918 में प्रकाशित) में डॉ. आंबेडकर किसानों के उन सवालों को 100 बरस पहले उठा रहे थे, जिन सवालों का जवाब आज भी कोई सत्ता दे पाने में सक्षम हो नहीं पा रही है। डॉ. आंबेडकर किसानों की कर्ज माफी से आगे किसानों की क्षमता बढ़ाने के तरीके उस वक्त बताते हैं। जबकि आज उत्तर प्रदेश व अन्य राज्यों में कर्ज माफी के बाद भी किसान परेशान हैं। कर्ज की वजह से सबसे ज्यादा किसानों की खुदकुशी वाले राज्य महाराष्ट्र में भी सत्ता किसानों की कर्ज माफी से इतर क्षमता बढ़ाने का जिक्र करती है। लेकिन यह होगा कैसे? सरकार इसका रास्ता बता नहीं पाती। जबकि डॉ. आंबेडकर अपनी किताब में इसके उपाय बताते हैं। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. आंबेडकर को कानून मंत्री के रूप में नियुक्त करते समय उन्हें कुछ समय बाद योजना विभाग का प्रभार देने का वायदा किया था, क्योंकि डॉ. आंबेडकर लगातार भारत के सामाजिक-आर्थिक हालातों पर जिस तरह अध्ययन कर रहे थे, वैसे में उन्हें लगता रहा कि आजादी के बाद जिस अर्थव्यवस्था को या जिस तंत्र की जरूरत देश को है, वह उसे बखूबी जानते-समझते हैं। लेकिन नेहरू डॉ. आंबेडकर को योजना विभाग का प्रभार नहीं दिलवा सके।[7]

इतिहास के पन्नों को पलटने पर गांधी और आंबेडकर कभी राजनीति करते हुए नजर नहीं आते, बल्कि दोनों ही अपने-अपने तरह से देश को गढ़ते नजर आते हैं। और आजादी के बाद संसदीय राजनीति के दायरे में दोनों को अपना बनाने की होड़ तो शुरू हुई लेकिन उनके विचारों को ही खारिज कर दिया गया। इसलिए नेहरू या सरदार पटेल का जिक्र प्रशासनिक काबिलियत के तौर पर तो हो सकता है, लेकिन आजादी के ठीक बाद के हालात को अगर परखें तो उस वक्त देश को कैसे गढ़ना है, यही सवाल सबसे बड़ा था। लेकिन पहले दिन से ही जो सवाल सांप्रदायिकता के दायरे से होते हुए कश्मीर और रोजगार से होते हुए जाति-व्यवस्था और उससे आगे समाज के हर तबके की भागेदारी को लेकर सत्ता ने उठाये या उनसे दो-चार होते वक्त जिन रास्तों को चुना, यह देश पिछले 75 वर्षों में उन्हीं मुद्दों और रास्तों में उलझा हुआ है। राजनीतिक सत्ता जाति-व्यवस्था के दायरे से इतर सोच पाने में सक्षम नहीं है।

जबकि इस सवाल को डॉ. आंबेडकर ने जवाहरलाल नेहरू के पहले मंत्रिमडल की बैठक में ही उठा दिया था। इसलिए डॉ. आंबेडकर ग्राम पंचायत प्रणाली का भी विरोध कर रहे थे, क्योंकि उनका साफ मानना था कि पंचायत चुनाव जाति में सिमटेंगे। जाति राजनीति को चलाएगी और असमानता भी एक वक्त देश की पहचान बना दी जाएगी। जिसके आधार पर बजट से लेकर योजना विभाग की नीतियां बनेंगी। और ध्यान दें तो हुआ भी यही। अंतर सिर्फ यही आया है कि डॉ. आंबेडकर आजादी के वक्त जब देश को गढ़ने के लिए तमाम सवालों पर मंथन कर रहे थे तब देश की आबादी 31 करोड़ थी और आज दलितों की तादात ही करीब 25 करोड़ से अधिक हो चली है। दलितों में शिक्षित चाहे 46 फ़ीसदी हों, लेकिन ग्रेजुएट महज 4 फ़ीसदी हैं। इतना ही नहीं 70 फ़ीसदी दलितों के पास अपनी कोई जमीन नहीं है। और 85 फ़ीसदी दलितों की आय 5 हजार रुपए महीने से भी कम है।[8]

जिन सवालों को डॉ. आंबेडकर आजादी से पहले और आजादी के ठीक बाद उठाते रहे, उन सवालों के आईने में अगर डॉ. आंबेडकर को देश सिर्फ संविधान निर्माता मानता है या दलितों के मसीहा के तौर पर देखता है तो समझना जरूरी है कि ऐसा क्यों है और यह भी कि आखिर आजतक किसी भी राजनीतिक दल या किसी बौद्धिक बहस में यह क्यों नहीं कहा गया कि ऐसे विचारवान डॉ. आंबेडकर को तो प्रधानमंत्री होना चाहिए था। यह बेहद महीन लकीर है कि गांधी जन सरोकार को संघर्ष के लिए तैयार करते रहे और आंबेडकर नीतियों के जरिए जनसरोकार के संघर्ष को पैदा करने की कोशिश करते रहे।

डॉ. आंबेडकर जातियों के उच्च और निम्न दृष्टिकोण की श्रेणीबद्धता की भावना को हिंदुत्व कहते थे। असमानतावाद और ब्राह्मणवाद हिंदुत्व के अभ्यांतर में हैं। जाति और वर्ण हिंदुत्व का महत्वपूर्ण सार है। हिंदुत्व में जातियां हैं। ये जातियां राष्ट्र-विरोधी हैं। इसलिए क्योंकि वे सामाजिक जीवन में अलगाव लाती हैं। जाति-व्यवस्था अमानवीयकरण की प्रक्रिया है। यह जाति उत्पीड़न का साधन है और नफरत फैलाती है। अस्पृश्यता, समाजीकरण के निषेध के साथ मानवीय घृणा की चरम अभिव्यक्ति है। इस कारण डॉ. आंबेडकर हिंदुत्व के कटु आलोचक थे। उन्होंने कहा कि जातिविहीन समाज की स्थापना के बिना लोकतंत्र अर्थहीन है।

कहा जा सकता है कि यदि डॉ. आंबेडकर प्रथम प्रधानमंत्री होते या उनके सुझावों को अमल में लाया गया होता तो वह जाति-व्यवस्था के उन्मूलन का प्रयास करते और जातिविहीन समाज की स्थापना के अग्रदूत बनते, जिससे न केवल जातिजनित भेदभाव और जातीय समस्याओं का हल निकलता, बल्कि भारत के कम से कम पचास फीसदी झगड़े और समस्याएं सुलझ जातीं। इससे सामाजिक-आर्थिक समानता लाने की गति बढ़ती। विद्यार्थी जीवन से ही भारत के अर्थतंत्र का अध्ययन करनेवाले अर्थशास्त्री होने के नाते डॉ. आंबेडकर देश की अर्थव्यवस्था को एक नया आयाम देते। बड़े पैमाने पर रोजगारों का सृजन होता, जिससे बेरोजगारी पर लगाम लगती। देश आर्थिक संपन्नता की ओर तेजी से बढ़ता।

अब सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री पद के आलोक में डॉ. आंबेडकर पर चर्चा नहीं करने का एकमात्र कारण उनका जाति-वर्ण आधारित व्यवस्था का विरोधी होना है, जो कि हिंदुत्व का मूल है? जो लोग अपने को भाजपाई, समाजवादी, साम्यवादी या दलित हितैषी कहते हैं, उनमें से अधिकतर हिंदुत्ववादी मानसिकता से ग्रसित रहते हैं। इसलिए वोट के लालच में वे डॉ. आंबेडकर की खूब प्रशंसा करते हैं। फूल माला चढ़ाने में सबसे आगे रहते हैं। लेकिन अंदर से उनके सिद्धांतों की कब्र खोदते रहते हैं।

संदर्भ :

[1] डॉ. बाबा साहब आंबेडकर राइटिंग्स और स्पीचेज, खंड 13, पृष्ठ 1216
[2] वही, खंड 13, पृष्ठ 8
[3] वही, खंड 13, पृष्ठ 8-9
[4] वही, पृष्ठ खंड 13, 60
[5] वही, खंड 10, पृष्ठ 43
[6] वही, खंड 1, पृष्ठ 151
[7] वही, खंड 14, पृष्ठ 1319
[8] http://www.ncdhr.org.in/wp-content/uploads/2020/09/10-NCDHR-national-factsheet_weclaim_April-May-2020.pdf

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

राजेंद्र प्रसाद

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त करने के बाद राजेंद्र प्रसाद बिहार सरकार के अभियंत्रण सेवा के वरिष्ठ अधिकारी रहे। इनकी प्रकाशित किताबों में “संत ऑफ रिबेलियंस : ऐन अनटोल्ड स्टोरी ऑफ गाडगे बाबा” व “जगजीवन राम : पॉलिटिकल स्ट्रगल एंड वैल्यूज” शामिल हैं।

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