बीत रहा 2025 का वर्ष बिहार के लिए चुनावी वर्ष है। सभी पार्टियां अपने-अपने स्तर पर चुनाव की तैयारियों में जुट गई हैं। साथ ही, जातिगत समीकरणों को साधने की कवायद शुरू हो चुकी है। ‘इंडिया’ गठबंधन की घटक दल कांग्रेस भी बिहार में अपनी जमीन मजबूत करने की कोशिश में है। कांग्रेस आखिरी बार 1989 में सूबे की सत्ता में थी। तब मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र मुख्यमंत्री थे। लेकिन बाद में बिहार की राजनीति में सामाजिक न्याय के आंदोलन का प्रभाव बढ़ता गया और कांग्रेस सत्ता से दूर होती गई।
अब कांग्रेस सामाजिक न्याय की रणनीति के तहत ही नए समीकरण बनाने में जुटी है। बीते 18 जनवरी को पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में आयोजित संविधान सुरक्षा सम्मेलन में बिहार के अलग-अलग सामाजिक संगठनों को इकट्ठा करने के प्रयास ने कांग्रेस के आगामी राजनीति के पथ तथा समीकरण पर थोड़ा प्रकाश डाला। मतलब यह कि बिहार में कांग्रेस कौन-सा प्रयोग करने जा रही है।
सामाजिक न्याय का झंडा हाथ में लेकर घूम रहे राहुल गांधी की कांग्रेस की नजर दलितों व अतिपिछड़ों के वोटों पर है। संविधान के हवाले से बोलते हुए राहुल गांधी लोकतंत्र बचाने भर की बात अब नहीं करते बल्कि आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक करने, और जातिगत जनगणना की भी बात करते हैं। मंचों से अलग-अलग मंत्रालयों में सचिवों की जातियों पर खुले तौर पर बात करते हैं। जाहिर तौर पर कांग्रेस के भीतर राहुल गांधी के ये कदम साहसिक तो हैं, लेकिन सवाल यह है कि दलितों तथा अतिपिछड़ों को साधने चली कांग्रेस क्या सामाजिक न्याय की राजनीति को कांग्रेस की राजनीति बनाना चाहती है? या फिर ये सारी जद्दोजहद सरकार बनाने या चुनाव जीतने भर के लिए अपनाई गई रणनीति है? असल में सामाजिक न्याय की राह पर अगर कांग्रेस चलना चाहती है तो उसे ठोस संरचनात्मक बदलाव करना होगा। सिर्फ किसी एक पद पर या दिखावे के लिए दलित-पिछड़ों को किसी बड़े पद बैठा देने से बात नहीं बनने वाली।

इसी क्रम में गत 7 अप्रैल को श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में आयोजित न्याय अधिकार सम्मेलन में जिन नायकों को याद किया गया, वे दलित और अति पिछड़ी समुदाय से आते हैं। आजादी के आंदोलन के नायक रहे बुद्धू नोनिया, बाबू जगजीवन राम तथा आजादी आंदोलन से ही जुड़े हुए नायक प्रजापति रामचंद्र विद्यार्थी को राहुल गांधी ने याद किया। इन्हीं तबकों के महापुरुषों को इस वर्ष 18 जनवरी को आयोजित संविधान सुरक्षा सम्मेलन में भी याद किया गया था।
इसके साथ ही, सामाजिक न्याय की बात कर रही कांग्रेस प्रतीकों की राजनीति कर रही है। समाज के नायकों पर कार्यक्रम आयोजित कर उनके वोट हासिल करना चाहती है। हालांकि प्रतीकों के इस्तेमाल की राजनीति अब बहुत पुरानी हो चुकी है। भाजपा ने इसका प्रयोग खूब किया है। अलग अलग समुदाय के नायकों पर कार्यक्रम आयोजित करके तथा उनके प्रतीकों के इस्तेमाल से समुदायों का वोट लेना अब मुश्किल काम है, क्योंकि सामाजिक न्याय की राजनीति ने एक यात्रा तय कर ली है। इन समुदायों ने संघर्ष के जरिए कई अधिकार हासिल किए हैं। ये समुदाय अपने इतिहास के साथ खड़े हो रहे हैं और सिर्फ अपने नायकों के लिए जगह की मांग ही नहीं कर रहे, बल्कि स्वयं का हिस्सा भी मांग रह हैं।
ऐसे में यह कहना मुश्किल है कि स्वतंत्रता सेनानी रहे जगलाल चौधरी के नाम के इस्तेमाल से उनके समुदाय का वोट मिलेगा ही। ऐसे ही बुद्धू नोनिया और प्रजापति रामचंद्र विद्यार्थी के इस्तेमाल से या नाम ले लेने से उस तबके को कांग्रेस अपने साथ नहीं जोड़ सकती। उसे उन्हें प्रतिनिधित्व देना पड़ेगा। पार्टी के ढांचे में भी उन समाज से आने वाले को प्रतिनिधित्व देना होगा। सामाजिक न्याय के एजेंडे में सिर्फ आरक्षण और जातिगत जनगणना नहीं है। इसमें भूमि सुधार भी है। आरक्षण तथा जातिगत जनगणना जैसे लोकप्रिय एजेंडे को भाषण में बोल देने से बात नहीं बनने वाली। संपूर्णता में बात करनी होगी, क्योंकि ढांचागत बदलाव से पार्टी का व्यवहार और संस्कृति भी बदलेगी। और बदली हुई जो संस्कृति होगी वह सामाजिक न्याय की संस्कृति तथा बहुजनों की संस्कृति होगी।
गौरतलब है कि कांग्रेसी आलाकमान ने अपना प्रदेश अध्यक्ष बदला और भूमिहार जाति के अखिलेश प्रसाद सिंह के स्थान पर दलित समुदाय से आने वाले राजेश कुमार राम को प्रदेश अध्यक्ष बनाया, साथ ही अपने कई जिला अध्यक्षों को भी बदला है। इसके पहले कांग्रेस के 40 जिला अध्यक्षों में 25-26 जिला अध्यक्ष सवर्ण जातियों के थे और इनमें भी भूमिहार जाति के अध्यक्षों की संख्या सबसे अधिक 11 थी। सामाजिक न्याय की बात कर रही कांग्रेस में बदलाव के बाद भी 14-15 सवर्ण जिला अध्यक्ष हैं। इनमें भी 6 भूमिहार जाति से हैं। पसमांदा अब भी नगण्य हैं। अति पिछड़ी जातियों के कांग्रेस जिला अध्यक्षों की संख्या मात्र 3 है। जाहिर तौर पर ये आंकड़े कांग्रेस के सामाजिक न्याय की राजनीति पर सवाल उठा रहे हैं।
नए प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए राजेश राम एक दलित चेहरा हैं। लेकिन दलित समाज की नज़र इस पर है कि क्या ये भी सिर्फ प्रतीक हैं या ये दलितों के सवालों को कांग्रेस के विमर्श का केंद्र बना पाते हैं।
सामाजिक न्याय के बरअक्स, भूमिहार जाति से आनेवाले कन्हैया कुमार ने ‘पलायन रोको रोजगार दो’ यात्रा किया। वे बिहारी अस्मिता की बात खूब करते हैं, लेकिन उनका राजनीतिक दृष्टिकोण बिहारी नहीं है। इसके अलावा उनके सामने चुनौती यह है कि अभी तक वे कांग्रेस के भीतर भी स्वयं को स्वीकृति नहीं दिला सके हैं। मसलन, बिहार में छात्रों और युवाओं के कई बड़े आंदोलन चलें। उदाहरण के लिए बीपीएससी अभ्यार्थियों का लंबा आंदोलन चला, लेकिन कन्हैया इस आंदोलन को झांकने तक नहीं गए। हालांकि राहुल गांधी जब पटना आए तो वे इस आंदोलन के प्रतिनिधियों से मिले। सामाजिक तौर पर कन्हैया चूंकि दलित-पिछड़े समुदाय से नहीं आते हैं, इसलिए भी इस वर्ग में उनकी स्वीकृति संदिग्ध है। वजह यह कि कन्हैया सामाजिक न्याय के सवाल पर बहुत मुखर भी नहीं रहे हैं। इसलिए वे कांग्रेस के सामाजिक न्याय के फ्रेम में कहीं भी शामिल नहीं हो पा रहे हैं। हां, यह जरूर है कि उनकी वाकपटुता से कुछ युवा आकर्षित होंगे। हालांकि ऐसा भी नहीं कि कांग्रेसी नेतृत्व को इसकी भनक नहीं है कि कन्हैया सामाजिक न्याय के खांचे में फीट नहीं बैठ रहे हैं। लेकिन इसके बाद भी कन्हैया को तरजीह दी जा रही है तो सवाल उठेंगे ही।
बहरहाल, कांग्रेस सामाजिक न्याय के रास्ते पर कितना आगे बढ़ेगी, यह देखने की बात है। लेकिन इसके पहले यह भी कि सामाजिक न्याय के एजेंडे को पार्टी के भीतर कितना लागू करती है, इसी से बहुत चीजें तय होंगीं।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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