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रांची विश्वविद्यालय : नाम तो बदल गया, लेकिन शैक्षणिक वातावरण में भी बदलाव की जरूरत

श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम से बदलाव किये जाने के बाद से स्नातक और स्नातकोत्तर की पढ़ाई बेहद महंगी हो गई है। कई तरह के फीस छात्रों से वसूले जाने लगे है। जबकि पढ़ाई व शैक्षणिक सत्रों में व्यापक गड़बड़ियां हैं। इसलिए आदिवासी नायक के नाम पर नाम बदलना ही काफी नहीं। पठन-पाठन की स्थिति में भी सुधार हो तभी इस बदलाव का कोई महत्व होगा। पढ़ें, विनोद कुमार का यह आलेख

रांची विश्वविद्यालय, रांची झारखंड का सबसे पुराना और पहला विश्वविद्यालय है। इसकी स्थापना 12 जुलाई, 1960 को की गई थी, तब झारखंड बिहार का हिस्सा था। लेकिन करीब पांच साल पहले भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री रहे रघुवर दास ने अपने कार्यकाल में इस विश्वविद्यालय का नाम बदल कर जनसंघ के नेता रहे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम पर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय कर दिया। उस समय भी इस बात का विरोध हुआ था और जब हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झारखंड मुक्ति मोर्चा की सरकार 2019 में सत्तासीन हुई, तभी से इस विश्वविद्यालय का नाम बदल कर झारखंड के किसी महापुरूष के नाम पर करने की मांग होने लगी थी।

रांची एक जमाने में मुंडाबहुल क्षेत्र था, लेकिन यह अब उरांवों का भी एक महत्वपूर्ण क्षेत्र हो गया है, इसलिए इस बार इस बात पर जोर रहा कि इसका नाम किसी उरांव जन नायक के नाम पर रखा जाए। पिछले कार्यकाल में तो हेमंत सोरेन सरकार यह काम नहीं कर सकी, लेकिन इस बार जब प्रचंड बहुमत से झारखंड की सत्ता पर काबिज होने हुई तब उसने यह काम किया।

गत 8 मई, 2025 को हुई राज्य सरकार की कैबिनेट बैठक में विश्वविद्यालय का नाम बदलकर लरका व कोल विद्रोह के नायक वीर बुधु भगत पर करने का निर्णय हुआ और उसे अमल में ले आया गया। अब डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय का नाम ‘वीर शहीद बुधु भगत विश्वविद्यालय’ हो गया है। इसका झारखंडी जनता और बुद्धिजीवियों ने स्वागत भी किया है, लेकिन भाजपा इस बात का विरोध कर रही है।

अब बुधु भगत विश्वविद्यालय, रांची के नाम से जाना जाएगा डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, रांची

भाजपा विधायक दल के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने इस बात का यह कह कर विरोध किया है कि यह दोनों महान विभूतियों – शहीद बुधु भगत और डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का अपमान है। उनका कहना है कि झामुमो के नेतृत्व में चलने वाली सरकार यदि शहीद बुधु भगत का सम्मान करना ही चाहती है तो वह उनके नाम पर दूसरा विश्वविद्यालय खोल सकती है।

पहली नजर में किसी को भी यह बात अखर सकती है कि सत्ता बदलने से शहरों, सड़कों, शिक्षा संस्थानों का नाम बदला जाए। यह उचित नहीं। नाम में लिपटा रहता है उस शहर या संस्थान का इतिहास, वह समय जिस वक्त उसका नामाकरण हुआ हो। यदि मुगल शासकों या अंग्रेजी दौर के किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के नाम पर किसी शहर, गांव या सड़क आदि का नाम है, तो वह हमारे गुलामी के दिनों का प्रतीक है, यह बेवकूफाना सोच है। दुनिया में त्रासद जमाने की घटनाओं को संग्रहालय बना कर रखने की परिपाटी है। हिटलर की नाजी सेनाओं के जुल्म की कई यादगार यातनागृहों को संग्रहालय बना कर रखा गया है। हिरोशिमा में एटम बम से भग्न शहर के कुछ मार्मिक हिस्सों को संजोकर रखा गया है। और सत्ता बदले तो पार्टियां अपने मिजाज के अनुकूल शहरों कस्बों, सड़कों आदि का नाम बदलना शुरू कर दें, यह किसी भी तरह से बुद्धिमत्तापूर्ण कार्रवाई नहीं। लेकिन यह काम तो भाजपा ने ही शुरू किया है। रांची विश्वविद्यालय रांची और झारखंड का पुराना व पहला महत्वपूर्ण शैक्षणिक संस्थान है। चूकि रांची कॉलेज को ही बाद में रांची विश्वविद्यालय में बदल दिया गया, इसलिए उसका नाम रांची विश्वविद्यालय रहा। लेकिन रघुवर दास के नेतृत्व में झारखंड की सत्ता में आई तब उस भाजपा सरकार ने जन-भावना के प्रतिकूल जाकर उसका नाम बदल कर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम कर दिया। और अब जब झामुमो की सरकार बनी है तो उसने उसका एक तरह से परिमार्जन करते हुए इस विश्वविद्यालय का नाम झारखंड के एक क्रांतिवीर के नाम पर कर दिया है तब भाजपा विरोध कर रही है।

यह फैसला कितना उचित है, इस पर विचार करने के पहले हम इस बात पर विचार कर लें कि डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का झारखंड से क्या रिश्ता रहा है। वे एक संघी विचारधारा के नेता और विद्वान थे। सावरकर की प्रेरणा से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल हुए। बाद में भारतीय जनसंघ की स्थापना का श्रेय भी उन्हें ही दिया जाता है। जनसंघ बाद में 1980 में भारतीय जनता पार्टी बन गई। इसकी सोच और विचारधारा हमेशा से झारखंड विरोधी रही है। इस पार्टी ने ‘झारखंड’ शब्द को ही कभी स्वीकार नहीं किया। झारखंड को हमेशा वनांचल कहा। उनके अनुसार झारखंड शब्द शालीन नहीं, भदेस है। इसकी जगह उन्होंने संस्कृतनिष्ठ शब्द वनांचल का प्रयोग किया। झारखंड अलग राज्य के गठन का श्रेय भले ही भाजपा को जाता है, लेकिन इतिहास गवाह है कि उन्होंने हमेशा झारखंड अलग राज्य के आंदोलन का विरोध किया। लेकिन इंदर सिंह नामधारी और समरेश सिंह ने उनके इस निर्णय का विरोध करते हुए वनांचल के नाम से अलग राज्य का आंदोलन शुरू किया तो इन दोनों को भाजपा ने पार्टी से निकाल दिया गया। झारखंड आंदोलन के दबाव में जब भाजपा ने वनांचल के नाम से अलग झारखंड राज्य की मांग का समर्थन करना शुरू भी किया। लेकिन झारखंड बनने के पहले जब बाबूलाल मरांडी को झारखंड प्रदेश का अध्यक्ष मनोनीत किया, लेकिन उन्हें वनांचल प्रदेश अध्यक्ष ही कहा।

तो जिस पार्टी को झारखंड शब्द से विरोध रहा हो, जो आदिवासियों को वनवासी कह कर पुकारते रहे हो, जिसे आप उन्हें जड़ से ही काटने की कोशिश के रूप में देख सकते हैं, वैसी पार्टी के एक नेता का नाम रांची विश्वविद्यालय को देना कितना सही कहा जा सकता है?

मान कर चलिए कि भाजपा ने सत्ता के मद में मदांध होकर जो इस तरह के काम किए हैं। उसका परिमार्जन उनके सत्ता से बाहर होने के बाद सत्ता में आई दूसरे दलों की सरकार करेगी ही। झारखंड आदिवासीबहुल राज्य है। पूरे देश में आदिवासी आबादी करीबन 8 फीसदी माना जाता है और ईसाई बने आदिवासियों को जोड़ दिया जाए तो उनकी आबादी करीबन 10 फीसदी होगी। लेकिन मध्य भारत में यानि झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, सटे बंगाल और ओड़िसा में देखा जाए तो उनकी सघनता ज्यादा है और झारखंड में तो उनकी आबादी 26 फीसदी है। झारखंड राजनीतिक चेतना के लिहाज से भी आदिवासी राजनीति का केंद्र है। लेकिन इसका इतिहास बंगाल और बिहार से जुड़ा रहा है। अंग्रेजों ने पलासी के युद्ध में मीर कासिम को हरा कर बंगाल की दीवानी हासिल की और उस बंगाल में ही झारखंड, बिहार और ओड़िसा शामिल था। पहले 1912 में बंगाल से अलग बिहार और 1936 में ओड़िसा बना और 2000 में बिहार से अलग झारखंड राज्य बना। और उसके पहले तक यह आदिवासी बहुल संपूर्ण इलाका औपनिवेशिक शोषण और फिर आजादी के बाद आंतरिक औपनिवेशिक शोषण का शिकार रहा। इसलिए यहां की भाषा, संस्कृति, यहां के जन-संघर्ष और जन-संघर्षों के नायक हमेशा उपेक्षा के शिकार रहे। ज्यादातर चौक-चौराहों पर उन महापुरुषों की मूर्तियां लगाई गईं, जिनका आदिवासी जनता से न तो कोई रागात्मक संबंध रहा है और न वे आदिवासी संघर्ष के नायक ही रहे।

लेकिन अलग राज्य बनने के बाद इस दिशा में झारखंडी बुद्धिजीवी और सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय आंदोलनकारी सचेष्ट हुए हैं। बिरसा मुंडा की मूर्तियां कई जगहों पर लगी हैं। सिदो-कान्हू के नाम पर विश्वविद्यालय का नाम रखा गया है। अब वीर बुधु भगत के नाम पर विश्वविद्यालय का नामकरण भी इसी दिशा की एक कड़ी है।

बताते चलें कि 1850 में सिदो-कान्हू के नेतृत्व में हुए संथाल विद्रोह, जिसे ‘हूल’ के नाम से जाना जाता है, के बाद लगातार अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ और जल, जंगल और जमीन पर आम जन के अधिकार के लिए सतत संघर्ष होते रहे। लरका और कोल विद्रोह उसी तरह के संघर्ष थे, जिसके नायक बुधु भगत थे। हालांकि, ये अब तक उपेक्षित रहे हैं।

लेकिन महज नाम बदल देने से स्थितियां या हालात नहीं बदल जाते। रांची विश्वविद्यालय में शुरू से जनजातीय भाषाओं में पढ़ाई की मांग की जाती रही है। डॉ. रामदयाल मुंडा जब इसके उप कुलपति बनाए गए थे, तब उन्होंने जनजातीय भाषा विभाग की स्थापना की थी। लेकिन उसमें नियमित शिक्षक नहीं हैं। उस भाषा विभाग की बात तो छोड़िए, विश्वविद्यालय के अधिकतर कॉलेजों में आदिवासी भाषाओं की पढ़ाई की समुचित व्यवस्था नहीं। एक शिकायत यह भी है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम से बदलाव किये जाने के बाद से स्नातक और स्नातकोत्तर की पढ़ाई बेहद महंगी हो गई है। कई तरह के फीस छात्रों से वसूले जाने लगे है। जबकि पढ़ाई व शैक्षणिक सत्रों में व्यापक गड़बड़ियां हैं। इसलिए आदिवासी नायक के नाम पर नाम बदलना ही काफी नहीं। पठन-पाठन की स्थिति में भी सुधार हो तभी इस बदलाव का कोई महत्व होगा। नहीं तो यह महज राजनीतिक लोकप्रियता हासिल करने की एक मशक्कत के रूप में ही देखा जाएगा।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विनोद कुमार

झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता विनोद कुमार का जुड़ाव ‘प्रभात खबर’ से रहा। बाद में वे रांची से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘देशज स्वर’ के संपादक रहे। पत्रकारिता के साथ उन्होंने कहानियों व उपन्यासों की रचना भी की है। ‘समर शेष है’ और ‘मिशन झारखंड’ उनके प्रकाशित उपन्यास हैं।

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