h n

हिंदी में कुछ और व मैथिली में कुछ और थे नागार्जुन, रेणु के प्रति रखते थे विचित्र कुंठा : रामधारी सिंह दिवाकर (तीसरी किश्त)

अपनी मातृभाषा मैथिली में वे कुछ और थे, हिंदी में कुछ और व्यक्तिगत जिन्दगी में कुछ और। अपने अंतिम काल में लगभग आठ-दस साल वे दरभंगा में रहे। इस दौरान मैंने उन्हें जाना-समझा। रेणु और नागार्जुन दोनों में मित्रता जैसी थी। रेणु उनको बड़ा भाई मानते थे, मगर रेणु को लेकर मुझे लगता है उनमें एक विचित्र किस्म की कुंठा थी। पढ़ें, रामधारी सिंह दिवाकर से युवा समालोचक अरुण नारायण की बातचीत की तीसरी किश्त

[बिहार के चर्चित कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर से युवा समालोचक अरुण नारायण की विस्तृत बातचीत की यह तीसरी कड़ी है। इस कड़ी में इसबार दिवाकर जी ने रेणु, नागार्जुन, मधुर गंगाधर, मधुकर सिंह और चंद्रकिशोर जायसवाल के बारे में अपना अनुभव साझा किया है। अगली समापन किश्त में हम उनकी रचना प्रक्रिया और पाठकीय अनुभव संसार के बारे में उनके विचार जानेंगे।]

फणीश्वरनाथ रेणु को लेकर आपकी कौन-सी स्मृतियां हैं?

तब मैं मैट्रिक में पढ़ता था। उन्हीं दिनों [1954-55 में] रेणु जी का ‘मैला आंचल’ चर्चा में आ गया था। मेरे स्कूल के एक शिक्षक वासुदेव मंडल, जो कि हिंदी के एक अच्छे अध्येता थे, उन्होंने मुझे यह किताब पढ़ने को दिया। समता प्रकाशन,  से यह उपन्यास प्रकाशित हुआ था। हरे रंग का उसका आवरण था और बाइंडिंग बहुत ढिली-ढाली थी। कवर के दूसरे पृष्ठ पर सुमित्रानंदन पंत की कविता ‘भारत माता ग्रामवासिनी’ छपी हुई थी। मैं नवें वर्ग का विद्यार्थी भला क्या पढ़ता इतने मोटे उपन्यास को। सिर्फ उलट-पुलट कर देख गया। बाद में जब काॅलेज पहुंचा, तो रेणु जी को पहली बार फारबिसगंज में देखा। तब उनके बाल छोटे थे। बड़े बाल पंत जी से मिलने के बाद उन्होंने रखना शुरू किया। रेणु जी को लेकर बहुत लंबी स्मृतियां हैं मेरी। उनके संग साथ भी रहा। इस बारे में कई बार अनेक पत्रिकाओं में लिखा है। ‘बनास जन’ में तो मेरा लंबा संस्मरण है ही। इसे दुहराना जरूरी नहीं। इतना अवश्य कहूंगा कि रेणु न होते तो मैं कथा क्षेत्र में न आता।

पूरा आर्टिकल यहां पढें : हिंदी में कुछ और व मैथिली में कुछ और थे नागार्जुन, रेणु के प्रति रखते थे विचित्र कुंठा : रामधारी सिंह दिवाकर (तीसरी किश्त)

लेखक के बारे में

अरुण नारायण

हिंदी आलोचक अरुण नारायण ने बिहार की आधुनिक पत्रकारिता पर शोध किया है। इनकी प्रकाशित कृतियों में 'नेपथ्य के नायक' (संपादन, प्रकाशक प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची) है।

संबंधित आलेख

त्रिवेणी संघ के एजेंडे आज सेंटर स्टेज में हैं : महेंद्र सुमन
2005 में जब बिहार में नीतीश कुमार की जीत हुई थी तो ‘सामाजिक न्याय की मृत्यु’ विषयक लेख लिखे जाने लगे थे कि यह...
त्रिवेणी संघ, हिंदी पट्टी का पहला बहुजन संगठन, कायम है जिसके बिगुल की गूंज
बिहार के शाहाबाद जिले के करगहर में 30 मई, 1933 को गठित त्रिवेणी संघ के मूल में देशी साम्राज्यवादियों के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और...
त्रिवेणी संघ : पृष्ठभूमि, परिप्रेक्ष्य और वर्तमान
वंचित समुदायों की आज जवान हो रही पीढ़ी को यह जानकर कुछ हैरत तो होगी ही कि आज से सौ साल पहले उनके पूर्वजों...
जब राहुल गांधी हम सभी के बीच दिल्ली विश्वविद्यालय आए
बातचीत के दौरान राहुल गांधी ने विश्वविद्यालयों में दलित इतिहास, आदिवासी इतिहास, ओबीसी इतिहास को पढ़ाए जाने की मांग की। उन्होंने कहा कि 90...
प्रधानमंत्री के नए ‘डायलॉग’ का इंतजार कर रहा है बिहार!
बिहार भाजपा की परेशानी यह है कि आज की तारीख में ऐसा कोई नेता नहीं है जो चुनाव में पार्टी का नेतृत्व कर सके।...