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सीआरपीएफ के सेवानिवृत्त कमांडेंट की नजर में आर्मी ऑपरेशन को सिंदूर नाम देना असंवैधानिक

आर्मी ऑपरेशन का नाम ऐसा होना चाहिए था जो हमारे देश के सभी धर्मों में मान्य हो। लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि हमारी सेना के उच्च अधिकारियों ने इस शब्द को किस आधार पर स्वीकार कर लिया? पढ़ें, सीआरपीएफ के सेवानिवृत्त कमांडेंट सरदार हवा सिंह सांगवान का यह आलेख

हम सभी जानते हैं कि सिंदूर एक ऐसी शृंगार सामग्री है जो साफ़ तौर पर धर्म से जुड़ी हुई है, और वह भी कट्टर हिंदुत्व से। हरियाणा में लगभग 88 प्रतिशत हिंदू आबादी है। लेकिन इन 88 प्रतिशत हिंदुओं में जो औरतें ब्राह्मण धर्म अर्थात कट्टर हिंदू धर्म का पालन करती हैं, केवल वे ही सिंदूर का इस्तेमाल करती हैं, और आम तौर पर पहनावे में साड़ी भी बांधती हैं। इनकी संख्या भी करीब 19 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी। इनमें 6.5 प्रतिशत के करीब ब्राह्मण, 5 प्रतिशत अहीर (यादव), 4 प्रतिशत बनिया, 3 प्रतिशत राजपूत और 0.5 प्रतिशत जांगड़ ब्राह्मण (बढ़ई) हैं। हालांकि ये भी प्रायः शादी-विवाह आदि जैसे अवसरों पर ही सिंदूर का इस्तेमाल करती हैं।

असल में कट्टर हिंदू धर्म में सिंदूर को सुहाग का प्रतीक माना जाता है और सिंदूर न लगाना अपशकुन माना जाता है। हरियाणा के गांव में रहने वाली गैर-ब्राह्मण जातियों की महिलाएं आमतौर पर सिंदूर का इस्तेमाल नहीं करती हैं। जाट औरतें तो बिलकुल ही नहीं करती हैं, जो हरियाणा की सबसे बड़ी आबादी वाली जाति है।

उदाहरण के लिए, मेरा परिवार चार साल पहले हिंदू था। मैंने और मेरे परिवार ने सिक्ख धर्म अपना लिया है। मेरी पत्नी, जिनकी उम्र 75 वर्ष है और हमारी शादी को 56 वर्ष हो चुके हैं, ने आजतक कभी भी सिंदूर का प्रयोग नहीं किया है। जबकि मैंने सीआरपीएफ़ में अपनी नौकरी के 35 वर्षों के दौरान में बड़ी विषम परिस्थितियों में ड्यूटी की। इसमें सात साल जम्मू-कश्मीर में पोस्टिंग रही थी। लेकिन मुझे कभी कोई खरोंच तक भी नहीं आई। यह भी देखा जाना चाहिए कि पूरे भारत की महिलाएं सिंदूर नहीं लगाती हैं। मणिपुर में मैतेई समुदाय जो कि ब्राह्मण धर्म मानता है, की ही महिलाएं सिंदूर लगाती हैं। नागालैंड, सिक्किम, मेघालय और मिजोरम आदि राज्यों में सामान्य तौर पर सिंदूर का चलन ही नहीं है।

यदि सिंदूर लगाने या नहीं लगाने से शकुन या अपशकुन जैसा कुछ होता तो युद्धादि में केवल गैर-हिंदू ही मारे जाते?

हालांकि, आजकल की हमारी नई पीढ़ी की कुछ औरतें टीवी के प्रभाव से शादी-विवाह आदि के समारोहों के अवसर पर सिंदूर इस्तेमाल करने लगी हैं। लेकिन वह भी फ़ैशन के तौर पर ही लगाती हैं, ना कि शकुन-अपशकुन के लिहाज से।

इसी प्रकार पहलगाम में हमारे जो 26 भारतीय नागरिक शहीद किए गए थे, वे सभी हिंदू नहीं थे। इसलिए उन सबकी पत्नियां सिंदूर का इस्तेमाल करने वाली नहीं थीं।

अब प्रश्न यह उठता है कि पाकिस्तान को दंड देने के लिए इस आर्मी ऑपरेशन का नाम ‘ऑपरेशन सिंदूर’ किस आधार पर रखा गया है? सोशल मीडिया पर तो यही देखने-पढ़ने में आया कि यह विचार स्वयं हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का था!

मोदी जी आरएसएस के प्रचारक भी रह चुके हैं और यह हम सभी जानते ही हैं कि आरएसएस एक कट्टर हिंदुवादी संगठन है, जो हमेशा हिंदुत्व की बात करता है।

मुझे अच्छी तरह याद है कि जब 25 सितंबर, 1990 को आडवाणी जी की रथयात्रा गुजरात के सोमनाथ मंदिर से चलकर 30 अक्तूबर, 1990 को अयोध्या पहुंचने वाली थी। तब मेरी कंपनी ड्यूटी के लिए अयोध्या पहुंच गई थी। अयोध्या में बाबरी मस्जिद और रामचरितमानस भवन के बीच में बरगद का एक विशाल पेड़ था, जिसके नीचे उत्तर प्रदेश पुलिस के एसपी, डीआईजी, आईजी, एडिशनल डीजी जैसे सीनियर अधिकारी कंधे पर आईपीएस का बैज लगाकर बैठते थे, या आते जाते रहते थे।

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यह एक प्रकार से अस्थाई पुलिस कंट्रोल रूम था। जहां तक मुझे याद है, ये सभी उच्च अधिकारी हिंदू थे और अपने माथे पर तिलक लगाया करते थे। इन तिलकधारी अधिकारियों की देखा-देखी उत्तर प्रदेश पुलिस के अन्य हिंदू कर्मचारी भी तिलक लगाया करते थे। और इसका असर यह हुआ कि उत्तर प्रदेश पुलिस की नकल पर हमारी सीआरपीएफ़ के हिंदू जवानों और अधिकारियों पर भी धर्म का रंग चढ़ने लग गया था। यानी वहां का सारा माहौल राममय हो गया था।

चूंकि मेरी कंपनी के अधिकतर हिंदू जवान भी तिलकधारी हो गए थे, जिसे देखकर मुझे बड़ा बुरा लगा था, क्योंकि हमारी सीआरपीएफ़ की ट्रेनिंग और उसका चरित्र पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष है। मैंने अपनी नौकरी के 35 वर्षों में इसका पालन भी किया। वहां इस तिलकमय माहौल की रिपोर्ट मैंने अपने कमांडेंट को दी, जो कि आंध्र प्रदेश के रहने वाले थे। अपनी प्रतिक्रिया में उन्होंने कहा कि अब किसको बताएं, यहां तो सभी तिलक लगाए घूम रहें हैं। लेकिन मैंने अपनी कंपनी के जवानों को इकट्ठा किया और उनको सख्त लहजे में कहा कि आज के बाद कोई भी जवान या अधिकारी अपने शरीर या वर्दी पर तिलक या अन्य किसी भी प्रकार के दूसरे धार्मिक चिह्न का प्रयोग नहीं करेगा। यदि फिर भी किसी को तिलक लगाने का इतना ही चाव है तो वह सीआरपीएफ़ की नौकरी छोड़ कर किसी मंदिर में बैठकर डफली बजाए, वरना मैं उसे निलंबित कर दूंगा।

ऐसा मैंने इसलिए कहा क्योंकि यह अनुशासन के विरुद्ध था और सीआरपीएफ़ की ट्रेनिंग में भी था कि किसी धार्मिक दंगे के दौरान किसी को भी अपना नेम प्लेट लगाने की मनाही होती है। मेरे द्वारा पहली बार में ही सख्त लहजे में दिए गए इस आदेश का मेरी कंपनी के जवानों व अधिकारियों ने पूर्णतया पालन किया। लेकिन वहां उत्तर प्रदेश पुलिस का जो राममय माहौल हो गया था, उसे देखकर तो ऐसे लगता था जैसे कि वे बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए नहीं, राम मंदिर को बनवाने के लिए इकट्ठा हो रखे हैं!

उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव का बड़ा ही स्पष्ट आदेश था कि किसी भी सूरत में बाबरी मस्जिद को कोई नुकसान नहीं होने दिया जाएगा। और हमने इस आदेश का बड़ी कठोरता से पालन भी किया था। परिणामस्वरूप तब दो कार सेवकों की गोली लगने से मौत हुई और बाबरी मस्जिद को बचा लिया गया था। लेकिन दुर्भाग्य से 6 दिसंबर, 1992 को षड्यंत्र के तहत इसे तोड़ दिया गया।

मैंने इस संबंध में सेवानिवृत्त होने के बाद एक पुस्तक भी लिखी थी, जिसका शीर्षक है– ‘अयोध्या में अयोद्धा’। मतलब यह कि अयोध्या क्षेत्र में योद्धा नहीं थे, इसी कारण वहां बाबरी मस्जिद का निर्माण हुआ था! और इस पुस्तक में मैंने तिलक लगाने वाली घटना के बारे में भी विस्तार से चर्चा की है। 

जब पहलगाम में शहीद होने वाले सभी पुरुषों की स्त्रियां सिंदूर लगाने वाली नहीं थीं, यानी वे कट्टर हिंदू नहीं थीं, तो फिर किस आधार पर इस आर्मी ऑपरेशन का नाम एक धर्म के प्रतीक सिंदूर के नाम पर ‘ऑपरेशन सिंदूर’ रखा गया?

मारे गए सभी 26 लोगों की औरतें विधवा हुईं, यानी उनके सुहाग उजाड़े गए, इसलिए इस ऑपरेशन का नाम ‘सिंदूर’ की बजाए ‘सुहाग’ या ‘हिफाजत’ जैसा धर्मनिरपेक्ष नाम रखा जा सकता है। या ऐसा कोई नाम होना चाहिए था जो हमारे देश के सभी धर्मों में मान्य हो। लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि हमारी सेना के उच्च अधिकारियों ने इस शब्द को किस आधार पर स्वीकार कर लिया?

‘ऑपरेशन सिंदूर’ नाम क्यों दिया, किसने दिया, वह आप सब समझ ही गए होंगे। नहीं समझे हैं तो ऑपरेशन के बाद की घटनाओं पर गौर करेंगे तो समझ में आ जाएगा। हद तो तब हो गई जब भाजपा ने घर-घर सिंदूर पहुंचाने की घोषणा कर दी। इस पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री पर तंज कसते हुए कहा था कि “प्रधानमंत्री मोदी ऐसे बात कर रहे हैं, जैसे वे हर महिला के पति हों। वे अपनी पत्नी को सिंदूर क्यों नहीं भेजते?”

हालांकि, बाद में भाजपा ने इसका खंडन कर दिया कि हमारी ऐसी कोई योजना नहीं थी। लेकिन सोच कर देखिए कि यदि घर-घर सिंदूर पहुंचाया जाता तो हमारे गांवों और शहरों में क्या हालात होते? क्या इससे धार्मिक दंगे भड़कने का अंदेशा नहीं था? क्या इससे देश का माहौल खराब नहीं होता? 

जहां तक मैं समझता हूं कि आर्मी ऑपरेशन को ‘सिंदूर’ का नाम देना हमारे संविधान की धर्मनिरपेक्ष नीति के विरुद्ध है। राजनीतिक लाभ के लिए ऐसा किया जाना सरासर अनुचित है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सरदार हवा सिंह सांगवान

सरदार हवा सिंह सांगवान केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के सेवानिवृत्त कमांडेंट हैं।

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