आदिवासी केवल प्रकृति की पूजा ही नहीं करते, वे उनकी रक्षा के लिए लड़ने-मरने से भी पीछे नहीं हटते। फिर चाहे उत्तराखंड की गौरा देवी का ‘चिपको आंदोलन’ हो या फिर झारखंड में आदिवासियत को बचाए रखने के लिए चल रहा आंदोलन, आदिवासियों का संघर्ष पूरी दुनिया में सराहा गया है। पढ़ें, जनार्दन गोंड का यह लेख
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भिखारी ठाकुर ने जब अपना नाच शुरू किया तब धर्म एवं धार्मिक कथाओं आधारित बिदापत नाच, रामलीला, रासलीला के साथ-साथ राजा-महाराजा के कहानियों से लैस नौटंकी विधा का चलन था। उस समय समाज में जाति और सामंती वर्चस्व, औपनिवेशिक विस्थापन सबसे बड़ी समस्या के रूप में विद्यमान थीं। बता रहे हैं जैनेंद्र दोस्त
यह सही है कि फिल्में मुनाफा कमाने के उद्देश्य से बनाई जाती हैं और उनसे किसी सामाजिक क्रांति की उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन मुनाफे के नाम पर नायक का केंद्रीय चरित्र सिर्फ उंची जाति का हो तो यह फिल्मकारों का जातिवाद ही है। बता रहे हैं कुमार भास्कर
उषा गांगुली के लिए हाशिए के वर्ग और व्यक्ति हमेशा महत्वपूर्ण बने रहे। “चांडालिका” नाटक में उन्होंने समाज की चक्की में पिस रही शूद्र समाज की एक महिला के जीवन को पूरे साहस के साथ लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया, बता रहीं हैं एनाक्षी डे बिस्वास
रमाबाई आंबेडकर (7 फरवरी 1898 – 27 मई 1935) और डॉ. आंबेडकर (14 अप्रैल 1891- 6 दिसंबर 1956) के संघर्षों पर आधारित प्रखर सामाजिक कार्यकर्ता निशा वामन मेश्राम का लघु नाटक
बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित किताबों को ऑनलाइन खरीदना और आसान हो गया है। अब आप अमेजन और फ्लिपकार्ट के जरिए अपने मोबाइल अथवा लैपटॉप की सहायता से बस कुछ सेकेंडों में ही खरीद सकते हैं
राजमार्ग रंगमच समूह के संस्थापक योगेश मास्टर उन मिथकों और अंधविश्वासों को बेनकाब कर रहे हैं, जो ब्राम्हणवादी दुष्प्रचार और भेदभाव का आधार हैं। इसके लिए उन्होंने कला और साहित्य को हथियार बनाया है। प्रस्तुत है फारवर्ड प्रेस द्वारा उनसे की गई बातचीत का संपादित अंश :
The founder of theatre group Rajamarga talks about laying bare the myths and superstitions on which the brahmanical propaganda and discrimination are based
दलित हों या ओबीसी दोनों की हालत कम-अधिक एक जैसी ही है। दोनों वर्ण, जाति के आधार पर श्रेष्ठ जातियों द्वारा अपमानित होते रहे हैं। अगर नाटक में ओबीसी संभाग बनता है तो उसका उद्देश्य भी वर्ण-जाति विहीन समाज का निर्माण हो
There is little to distinguish between the plights of the Dalits and the OBCs. The upper castes have treated both these communities with disdain. If OBC Theatre is born, its aim will be to create a casteless society
साहित्यिक स्तर पर स्त्री विमर्श अब प्रमुख विमर्श के रूप में स्वीकृत हो चुका है। लोक संगीत और लोक साहित्य में अभी भी यह दूर की कौड़ी है। हालांकि लोक संगीत उन्हें इसकी इजाजत देता है परंतु उसे सामाजिक मान्यता नहीं के बराबर है। बता रही हैं कल्पना पटोवारी :
Women’s discourse has found acceptance and prominence in the literary arena. However, in folk music and folk literature, it still looks out of place. While folk music permits women’s discourse, social recognition is lacking, writes Kalpana Patowary