भारतीय समाज में नायक का निर्धारण जाति करती है। उत्तर भारत में तो खास तौर पर नायक के लिए आदरभाव जातीय संस्कारों से प्रेरित होता है। हां, महाराष्ट्र और दक्षिण के प्रांतों में सामाजिक आंदोलनों के चलते दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्ग के प्रति सोच में बदलाव आया है। इसके साथ ही इन वर्गों में भी अपने नायकों के प्रति जागरूकता और आत्मसम्मान का भाव विकसित हुआ है। लेकिन ये बदलाव काफी नहीं है और यह जरूरी है कि नायकों के मामले में मानदंड बदले जाएं। और इसमें फिल्म जगत की भूमिका महत्वपूर्ण है।
यह निर्विवाद है कि आज भी समाज का सवर्ण तबका किसी दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के नायक के चित्र को अपने घर की दीवारों पर जगह नहीं देता। इन वर्गों के नायकों के योगदान को द्विज समाज के लोग कम करके आंकते हैं। अगर कोई द्विज उन्हें नायक मानता भी है तो अधिकांशतः केवल दिखावे के लिए ही. या फिर उन्हें ब्राह्मणवाद का चोला पहनाकर स्वीकार किया जाता है जैसे, कबीर को विधवा ब्राह्मणी की संतान कहना या फिर बुद्ध को विष्णु का अवतार बताना।
क्या हिंदी फिल्में समाज में आये बदलाव को प्रतिबिंबित करती हैं? इस प्रश्न के उत्तर में हम बेखटके कह सकते हैं कि व्यावसायिक फिल्मकारों ने हमेशा भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था पर आधारित बुनियाद को न केवल बरकरार रखा है बल्कि मजबूत ही किया है। फिर चाहे वह आजादी के पहले की फिल्म “अछूत कन्या” ही क्यों न हो जिसमें अशोक कुमार और देविका रानी ने अभिनय किया था। वर्ष 1936 में आयी इस फिल्म में अछूत होने की पीड़ा झेलने वाली नायिका और उसके पिता को तो दिखाया गया था लेकिन नायक उंची जाति का ही था।
ऐसे कई उदाहरण हैं जो यह साबित करते हैं कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले और बाद भी भारतीय समाज के सम्बन्ध में फिल्मकारों की सोच में कोई बदलाव नहीं आया है। पहले भी फिल्में कुलीन वर्ग को संतुष्ट करने के इरादे से ही बनायी जाती थीं और अब भी वही सिलसिला बरकरार है।
यह परिस्थिति आज इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भी मौजूद है। फिल्मों में मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग छाया रहता है और ज्यादातर फ़िल्में इन्हीं को केंद्र में रखकर बनाई जाती हैं। व्यावसायिक फिल्मों के ज्यादातर नायक उंची जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं। वैसे यह भी सच है कि फिल्में मुनाफा कमाने के उद्देश्य से बनाई जाती है और इनसे किसी सामाजिक क्रांति की उम्मीद नहीं की जा सकती । लेकिन मुनाफे के नाम पर नायक का केंद्रीय चरित्र सिर्फ उंची जाति होना तो फिल्मकारों का जातिवाद ही है।
आइए, इसे कुछ उदाहरणों से समझते हैं। सलमान खान अभिनीत फिल्म “दबंग” (2010) में खुलकर जातिवाद को बढ़ावा दिया गया है। फिल्म का नायक चुलबुल पांडे है और नायिका के रूप में कुम्भकार (ओबीसी समाज) समाज की महिला। फिल्म में यह दिखाया गया है कि कैसे एक उंची जाति का नायक गरीब व निम्न जाति की सुंदर महिला की किस्मत बदल देता है। एक फिल्म आयी थी “सूर्यवंशम” (1999)। नायक थे अमिताभ बच्चन। इस फिल्म में पितृसत्ता को बनाए रखने के तमाम हथकंडे दिखाए गए थे। इसके अलावा पूरी फिल्म जातिगत श्रेष्ठता के बोध से ओत-प्रोत थी। फिर प्रकाश झा की फिल्म “गंगाजल” (2003) को कैसे भुलाया जा सकता है जिसमें उन्होंने साधू यादव नामक पात्र को प्रस्तुत कर एक पूरी जाति को भागलपुर के आंखफोड़वा कांड के लिए जिम्मेदार साबित किया था।
हिंदी सिनेमा में दलित समाज के नायकों की स्थिति वैसी ही है जैसी हमारे इतिहास में। वे मौजूद तो हैं लेकिन सर्वस्वीकृत नहीं है। सिनेमा इस प्रवृत्ति से कैसे अछूता रह सकता क्योंकि पूंजी की शक्ति उंची जातियों के लोगों के हाथ में है। इस कारण भी नायक का निर्धारण वे अपने हिसाब से करते हैं। इसके अलावा फिल्म जगत में दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्ग के लोगों की हिस्सेदारी अत्यंत ही न्यून है।
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इन सबके बावजूद कुछ फिल्में बनाई गई हैं जिनमें दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्ग की सामाजिक स्थिति को दिखाया गया है। इनमें हाल ही में अनुभव सिन्हा द्वारा निर्देशित फिल्म “आर्टिकल-15” (2019) भी है। इसके अलावा शेखर कपूर की फिल्म “बैंडिट क्वीन” (1996) का भी उल्लेख किया जा सकता है। यह फिल्म बहुजन वीरांगना फूलन देवी के जीवन पर आधारित थी। अन्य फिल्मों में “बवंडर” (2000), “डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर” (2000), “आरक्षण” (2011), “धड़क” (2018), “मांझी : द माउंटेन मैन” (2015), “शूद्र द राइजिंग” (2012), “मसान” (2015) आदि उल्लेखनीय हैं। दिलचस्प यह कि इन फिल्मों को समानांतर फिल्मों की संज्ञा देकर द्विज समीक्षकों ने खारिज कर दिया।
हालांकि यह दौर 1940 के दशक में बंगाल से होकर मुख्यधारा के हिंदी सिनेमा में आया। सत्यजीत रे, मृणाल सेन, बिमल रॉय, गुरुदत्त से लेकर गुलजार, श्याम बेनेगल, मणि कौल, गोविंद निहलानी, मीरा नायर, दीपा मेहता जैसे निर्देशकों ने फिल्मों के विषयों को व्यापक विस्तार दिया। नायक निर्धारण के मानदंड भी बदले, परंतु इससे पहले कि यह प्रक्रिया और तेज होती, 1980 के दशक में व्यावसायिक फिल्मों की बढ़ती लोकप्रियता ने इसे हाशिए पर धकेल दिया।
हिंदी सिनेमा की तुलना में पश्चिमी सिनेमा, खासकर हॉलीवुड, में काले लोगों को केंद्र में रखकर बेहतरीन फिल्में बनाई गयीं हैं – फिल्में जो कि प्रसिद्ध भी हुईं और जिन्होंने मुनाफ़ा भी कमाया। सिनेमा के क्राफ्ट की समझ को देखें तो हिंदी सिनेमा की तुलना में हॉलीवुड फिल्मकारों ने चरित्र, लेखन, इतिहास आदि पर ज्यादा ईमानदारी से काम किया है। कहीं ना कहीं यह अमेरिकी समाज के बदलावों को भी प्रतिबिंबित करता है। इनमें अश्वेत लोगों को केंद्र में रखकर बनी कुछ लोकप्रिय फिल्मों को बतौर उदाहरण उल्लेखित किया जा सकता है। इनमें ब्लैक पैंथर (2019), हैनकॉक (2008), ब्लेड (1998-2004) और “द अवेंजर्स” (2012-2019) आदि शामिल हैं।
बहरहाल, 21वीं सदी का हिंदी सिनेमा जगत जाति से जुड़े सवालों को उठाना एक जोखिम के रूप में लेता है और उससे बचने की कोशिश करता है। वह सच को दिखाने के बजाय परंपरा और फैंटेसी को ज्यादा तरजीह देता है। यह डर, जेंडर और सेक्सुअलिटी के सवालों पर नही है, जिसकी समस्या हिंदुस्तान में बहुत है। लेकिन चूँकि ये विषय वैश्विक विमर्श का हिस्सा हैं इसलिए हिंदी सिनेमा में इन मुद्दों पर विदेशी फिल्मों का प्रभाव देखने को मिलता है। लेकिन जाति का सवाल सिर्फ हिंदुस्तान का सवाल है इसलिए कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यादातर बॉलीवुड फिल्मकार परंपरागत रवैया ही अपनाते हैं। कहना गैरवाजिब नहीं कि हिंदी सिनेमा जगत पुराने मानदंडों वाले महाकाव्यों के नायकों के लक्षणों को ढो रहा है।
(संपादन : नवल/अमरीश)