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जात न त्यागी जाए!

संन्यासियों के एक बड़े तबके की सोच साफ नहीं है। मानवता की पूजा और धर्म की सेवा के लिए वे सांसारिकता का परित्याग करते हैं। इसी परम उद्देश्य के लिए उन्होंने अपना पिंडदान किया है। स्वयं वे इस बात का दावा करते हैं। ऐसे में जातिगत भेदभाव और धार्मिक उलाहने का भला क्या अर्थ! गोरी चमड़ी के प्रति यह आकर्षण क्यों? राकेश कुमार सिंह का यात्रा संस्मरण

पिछले दिनों अपने घुमक्कड़ी स्वभाव से विवश हो निकला, तो चलता ही चला गया। इलाहाबाद से लेकर वाराणसी तक। एक अखाड़े से दूसरे अखाड़े के सफर में नागा संन्यासियों के सातों अखाड़ों से जान-पहचान बन चुकी थी। फिर भी, लेकिन ज्यादातर समय जूना निरंजनी और महानिर्माणी अखाड़े में संतोष के साथ गुजरा। साधारण भेंट-मुलाकात से शुरू हुआ यह सिलसिला जल्दी ही लंबी बैठकों में तब्दील हो गया। ऐसा समय भी आया जब रातें भी अखाड़ों में ही गुजरने लगीं। वाराणसी में तो तीन हफ्ते एक अखाड़े में ही गुजरे एक नागा संन्यासी के साथ।

 

भांति-भांति के संन्यासी। भांति-भांति की सोच, लेकिन जीवन उद्देश्य एक ही। मानवता की पूजा! धर्म की सेवा! पर उनके उपदेश और अमल में भारी अंतर नजर आया। इनके बीच से रहते हुए इनकी धारणाओं से अवगत हुआ। मसलन दलित और पिछड़ी जाति वालों ने आकर अखाड़ों की व्यवस्था बिगाड़ दी है। या ये कि धर्म-कर्म तो ब्राह्मणों की जिम्मेदारी है, क्षत्रियों को शुरू से ही धर्मरक्षक माना गया है इसलिए संन्यास में उनका प्रवेश मान्य है लेकिन शूद्रों की क्या आवश्यकता है यहां। शूद्रों का जो कर्म है उनको वही करना चाहिए। पैसे और सत्ता के लोभ में कुछ अखाड़ों ने शूद्र जातियों के लोगों को भी संन्यासियों की जमात में शामिल करना शुरू कर दिया है। इससे धर्म की हानि हो रही है। ऐसी ही और भी कई बातें। एक अखाड़े से संबंधित एक प्रकाशन में साफ.-साफ लिखा है कि पहले तो केवल ब्राह्मणों और क्षत्रियों को संन्यास धारण करने की इजाजत थी लेकिन अब वैश्यों को भी इसकी इजाजत दे दी गई है। लेकिन उस प्रकाशन में शूद्रों के संन्यास के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। गैर हिन्दुओं विशेषकर मुसलमानों और ईसाईयों के खिलाफ भी अखाड़ों में खास किस्म की कट्टरता नजर आई। मसलन अधिकांश अखाड़े मानते हैं कि ये लोग मुसलमान ईसाई सनातन धर्म के शत्रु हैं। इनका एकमात्र उद्देश्य हमारे धर्म को नुकसान पहुंचाना है। कुछ संन्यासियों ने यही आरोप बौद्ध धर्म पर भी लगाए हैं।

अखाड़ों में ऐसे संन्यासियों की तादाद ठीक-ठाक नजर आई जो विदेशी सैलानियों को हेलो कम हियर कहकर अपने पास बुलाते रहते हैं। गोरी चमड़ी वालों के पास आने पर क्या चाय और क्या चिलम! उदार ह्दय से भरपूर स्वागत में जुट जाते। विदेशी महिलाओं के प्रति कुछ संन्यासियों का आकर्षण और प्रेम अत्यंत विस्मयकारी लगा। गोरी देवियों के ललाट पर भभूत तो पहली ही मुलाकात में लगा देते थे। दूसरी मुलाकात होते-होते गले में रूद्राक्ष की माला भी लटका देते और कुछ तो नामकरण भी कर देते, जैसे शिवगिरि या शक्तिगिरि। फिर साथी-संन्यासियों यानी गुरु भाइयों से बताते फिरते, गजब की आास्था है धरम में उस अंग्रेजन माई की। बहुत जल्दी ओम नमो नारायण बोलना सीख गई। चेली बनने के लिए तैयार है। अगली बार आएगी तो संन्यास ले लेगी। साथ में ऐसा कुछ जरूर जोड़ते, जिससे यह पता चलता कि उनकी संभावित चेली शाकाहारी है। बहरहाल, ऐसे दर्जन भर से ज्यादा संन्यास के ऐसे मामलों का साक्षी होने के बावजूद कभी दूसरे पक्ष की मंशा अपने को स्पष्ट नहीं हो पाई। चेली बनने की बात को तो किसी ने स्वीकार नहीं की। बाबागण इन गोरियों की तारीफ करते नहीं अघाते लेकिन इसके उलट उनमें इन बाबाओं के प्रति किसी में इतनी वैसी बेकरारी या उतावलापन मुझे नजर भी नहीं आया।

दोनों उदाहरणों से एक चीज साफ है कि संन्यासियों के एक बड़े तबके की सोच साफ नहीं है। मानवता की पूजा और धर्म की सेवा के लिए वे सांसारिकता का परित्याग करते हैं। इसी परम उद्देश्य के लिए उन्होंने अपना पिंडदान किया है। स्वयं वे इस बात का दावा करते हैं। ऐसे में जातिगत भेदभाव और धार्मिक उलाहने का भला क्या अर्थ! गोरी चमड़ी के प्रति यह आकर्षण क्यों? कुछ संतों से जब इसका कारण जानने की कोशिश की गई तो उनकी आंखें लाल-पीली हो गईं, चिमटा चिपका देने की हद तक। जातिगत भेदभाव का एक भी प्रश्न उन्हें गंवारा नहीं है। सत्यमेव जयते कार्यक्रम देख चुके एक बाबा ने तो आमिर खान को खूब खरी-खोटी सुनाई और कहा, कौन सिर पर मैला ढो रहा है, आज मानव मानव की सेवा करता है तो कैसा अत्याचार। अरे, शास्त्रों में स्पष्ट रूप से सभी जातियों के कर्म का वर्णन है। कोई अपने भाई या समाज की सेवा करता है तो वो गलत कैसे है। अपवादस्वरूप इक्के-दुक्के बाबा जाति और इससे जुड़े अमल को व्यक्तिगत मामला मानते हैं लेकिन संन्यास में शूद्रों के प्रवेश पर उनकी स्थिति बिल्कुल साफ है, हरगिज नहीं। कुछ संन्यासियों ने जूना अखाड़े पर यह आरोप लगाया कि वहां तो किसी को भी चेला बना लिया जाता है। यही हाल रहा तो कुछ सालों बाद धर्म का नाश हो जाएगा। उनकी इस दलील पर कबीर ही याद आते हैं–

चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात।
एक निसप्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ॥

(फारवर्ड प्रेस के मई 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

राकेश कुमार सिंह

राकेश कुमार सिंह फारवर्ड प्रेस के वरिष्ठ संवाददाता हैं

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