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सवर्ण आरक्षण : हमारा और उनका कोटा

यद्यपि अधिकांश गरीब नीची जातियों के हैं। परंतु गरीब होना, नीची जाति का होने से एकदम अलग है

मोदी सरकार के तथाकथित ‘सामान्य श्रेणी‘ को दस प्रतिशत आरक्षण देने के निर्णय पर स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर आपत्तियों – अर्थात यह कि यह एक कुटिल चुनावी स्टंट है, जो कानूनी दृष्टि से अरक्षणीय साबित होगा और जो बेरोजगारी को कतई कम नहीं करेगा – को यदि दरकिनार कर भी दिया जाए, तब भी हम कुछ दिलचस्प निष्कर्षों पर पहुंच सकते हैं। पहला तो यह कि मोदी सरकार अनजाने में ‘बादशाह के नए कपड़े‘ के किस्से के उस बच्चे की तरह है, जिसने चिल्लाकर कहा कि बादशाह नंगा है। मोदी सरकार के ताजा जुमले से हम जाति और आरक्षण के उलझे हुए प्रश्नों के उन पहलुओं को समझ सकेंगे जो हमेशा से हमारे सामने थे परंतु जिन्हें हम देख नहीं पा रहे थे।

सबसे पहले हम बात करें योग्यतावादी योद्धाओं की चुप्पी की। निश्चय ही हर कोटा – चाहे उसका लाभार्थी कोई भी क्यों न हो, योग्य व्यक्तियों के लिए उपलब्ध मौकों को घटाता है। कहां हैं गुस्से से भरे, गले में आला लटकाए सफेद कोटधारी और लैपटाॅप कंधे पर टांगे युवक और युवतियां, जो योग्यता की हत्या का शोक मनाते रहते थे। इसकी जगह, हमारे माननीय वित्तमंत्री अरूण जेटली, राज्यसभा को यह समझाते हुए नजर आए कि केवल परीक्षा में प्राप्त अंक, योग्यता का माप नहीं हो सकते।

दरअसल, यह बात हमें पहले ही समझ में आ जानी चाहिए थी कि विरोध केवल जाति-आधारित कोटे का  होता है। केपिटेशन फीस कोटे, मैनेजमेंट कोटे, मूलनिवासी कोटे और अन्य ऐसे ही कोटों में उन्हें कुछ भी गलत नजर नहीं आता। आईए, हम यह सबक एक बार फिर से दुहराएं : ‘उनके‘ लिए कोटा हमेशा गलत होता है, परंतु ‘हमारे‘ लिए कोटा हमेशा सही। और ऐसा इसलिए क्योंकि मुद्दा कोटा नहीं, बल्कि जाति है – ‘उनकी‘ जाति और ‘हमारी‘ जाति।

आरक्षण के विरोध में प्रदर्शन करते सवर्ण

मोदी सरकार के इस कदम से हम यह जान सके हैं कि जाति, मूलतः एक पहचान नहीं बल्कि एक रिश्ता है। मेरी जाति मेरी व्यक्तिगत विशेषता नहीं है, जैसे मेरी ऊँचाई या मेरा वजन, बल्कि वह दूसरों से मेरे रिश्तों की निर्धारक है – उनसे भी जो मेरी तरह हैं और ‘हम‘ का हिस्सा हैं, और उनसे भी जो मुझसे अलग हैं और ‘वे‘ हैं। दुर्भाग्यवश, जाति सिर्फ एक प्रकार का रिश्ता नहीं – वह ऊँच-नीच पर आधारित है और इस प्रकार भेदभावपूर्ण है। इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि यह भेदभाव, जाति का अनिवार्य और स्वीकार्य हिस्सा है। यह कोई रोग नहीं है, जिससे जाति ग्रसित हो गई हो। एक संस्था के रूप में जाति ने हमारे समाज में गहरी जड़ें जमा ली हैं। जातिगत नियमों और परंपराओं को मानना, हमारे सामाजिक व्यवहार का हिस्सा बन गया है। अर्थात, भले लोग भी जातिगत भेदभाव कर सकते हैं क्योंकि वह सामाजिक आचार-व्यवहार का भाग है। इसका अर्थ यह भी है कि जातिगत असमानता, जातियों के परस्पर असमान और भेदभावपूर्ण रिश्तों की उपज है और उसका संबंध व्यक्तिगत (या सामूहिक) गुणों या अवगुणों से नहीं है।

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अब, जबकि मोदी सरकार हमें यह समझाने में सफल रही है कि आरक्षण का उपयोग आर्थिक वंचना की समस्या से निपटने के लिए भी किया जा सकता है, तब क्या हम एक कदम और आगे बढ़कर यह नहीं पूछ सकते कि फिर जाति-आधारित आरक्षण की क्या आवश्यकता है। क्यों न आरक्षण को केवल निर्धनता से जोड़ दिया जाए? इस प्रश्न के उत्तर में जो सबसे महत्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किया जा सकता है वह यह है कि यद्यपि अधिकांश गरीब, नीची जातियों से आते हैं तथापि गरीब होना, नीची जाति का होने से बहुत अलग है। गरीबों, चाहे वे किसी भी जाति के क्यों न हों, को आर्थिक भेदभाव और वंचना का सामना करना पड़ता है। परंतु ज्योंही ऊँची जातियों के लोग अपनी गरीबी से मुक्ति पा लेते हैं वे अपने साथ होने वाले भेदभाव से भी मुक्त हो जाते हैं। इसके विपरीत, नीची जातियों के लोगों को, चाहे वे कितने ही धनी क्यों न हों, सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, उन्हें मकान किराए पर लेने या किसी क्लब की सदस्यता हासिल करने में कठिनाई होती है। नीची जातियों के आईएएस अधिकारी, कारपोरेट दुनिया की शीर्ष हस्तियां, डाॅक्टर व प्रोफेसर रिकार्ड पर यह कह चुके हैं कि उन्हें अपने ही साथियों के हाथों दबे-छिपे परंतु मनोबल और दिल तोड़ने वाले भेदभाव का सामना करना पड़ता है।

अपने अधिकारों के लिए प्रदर्शन करने के दौरान आंबेडकर की तस्वीर के सहारे बरसात से बचने का प्रयास करता एक दलित युवक (फाइल फोटो)

इस प्रश्न के उत्तर का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि भेदभाव अंततः बहिष्करण को जन्म देता है। अगर हम समाज को अकेला छोड़ दें तो अर्थव्यवस्था, राजनीति और संस्कृति का तंत्र यह सुनिश्चित करेगा कि भेदभावपूर्ण प्रथाओं के चलते, समाज दो हिस्सों में विभाजित हो जाए। एक शिविर होगा विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों का और दूसरा, वंचितों का। इसी कारण आरक्षण की व्यवस्था प्रारंभ की गई। इस व्यवस्था का उद्धेश्य था उन लोगाें का समावेशीकरण, जो सामाजिक बहिष्करण का शिकार थे। आरक्षण का उद्धेश्य गरीबी उन्मूलन नहीं था और ना ही कोई भौतिक लाभ प्रदान करना था। यह कुछ वर्गों के जबरदस्ती समाज से बहिष्करण से मुकाबला करने का हथियार था। आरक्षण से संबंधित वर्गों को समाविष्ट करना अनिवार्य बन जाता है और इस अर्थ में यह बहिष्करण से निपटने का सबसे प्रभावी और शायद एकमात्र तरीका है। परंतु निश्चय ही यह गरीबी उन्मूलन का एकमात्र या सबसे प्रभावी तरीका नहीं है।

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जातिगत असमानता से निपटने के लिए जाति-आधारित के स्थान पर जाति-निरपेक्ष तरीकों का प्रयोग बहुत सफल नहीं रहा है। स्वतंत्रता के पश्चात, नेहरू युग में सभी गरीबों की बेहतरी के लिए जाति-निरपेक्ष विकास का माॅडल अपनाया गया था परंतु अगले चार दशकों में इस माॅडल ने न केवल जातिगत असमानताओं को बनाए रखा बल्कि उन्हें और गहरा किया। इसके साथ ही, ऊँची जातियों के पूर्वाग्रहग्रस्त वर्ग की यह भ्रांत धारणा और मजबूत हो गई कि आरक्षण एक तरह का कल्याण कार्यक्रम है।

सन् 1990-91 में मंडल आयोग की रपट लागू किया जाना भी एक ऐसा क्षण था, जब हमें ज्ञात हुआ कि बादशाह नंगा है। इससे यह सर्वज्ञात राज उजागर हुआ कि हिन्दुओं की उच्च जातियाें को यह देश सिर पर चढ़ाए हुए है। वे आबादी का केवल पन्द्रह प्रतिशत हैं परंतु सत्ता केन्द्रों, उच्च पदों व देश की संपत्ति पर उनका लगभग एकाधिकार है। आज भी हमारे देश की सबसे धनी एक प्रतिशत आबादी (जिनमें से अधिकांश ऊँची जातियों के व्यक्ति हैं) देश की आधी से अधिक संपत्ति की मालिक है। मंडल आयोग, आरक्षण की व्यवस्था का दूसरा अवतार था, जिसने अन्य पिछड़ा वर्गों को आगे आने का अवसर दिया। यद्यपि इससे लंबे समय से लंबित सामाजिक क्रांति का आगाज हुआ परंतु हम एक बार फिर यह भूल गए कि आरक्षण केवल एक साधन है, साध्य नहीं।

गत 9 जनवरी को आरक्षण के तीसरे अवतार ने जन्म लिया है। यह एक जाति-निरपेक्ष ‘सामान्य वर्ग‘ के मिथक को पुनर्जीवित करने का प्रयास है। हमें यह मानने के लिए कहा जा रहा है कि ऊँची जातियों के गैर-समृद्ध सदस्य, आरक्षण के उतने ही पात्र हैं जितने कि एससी, एसटी और ओबीसी। हिन्दू त्रिमूर्ति के तीसरे अवतार की तरह, आरक्षण का यह अवतार भी विध्वंसकर्ता साबित हो सकता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि साध्य को प्राप्त करने के साधन के रूप में आरक्षण कोई ऐसी चीज नहीं है जिसके साथ छेड़छाड़ की इजाजत ही नहीं दी जा सकती। उसके स्वरूप को बेहतर बनाने की काफी गुंजाइश है। इसके अतिरिक्त, यह भी तथ्य है कि आज रोजगार के कुल उपलब्ध अवसरों में से केवल तीन से चार प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था के अधीन हैं और इस कारण जातिगत भेदभाव और असमानता को समाप्त करने में आरक्षण, ऊँट के मुंह में जीरे के समान है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम यह मान लें कि ऊँट है ही नहीं या फिर वह ऊँट नहीं बल्कि एक चींटी है, जिसके लिए एक दाना भी दावत के समान है।

(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)

(यह लेख इंडियन एक्सप्रेस के 11 जनवरी 2019 के अंक में अंग्रेजी में प्रकाशित है।


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लेखक के बारे में

सतीश देशपांडे

डॉ. सतीश देशपांडे दिल्ली विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में प्राध्यापक हैं। वे 'कंटेम्परेरी इंडिया: ए सोश्योलाजिकल व्य’ (2003) के लेखक व 'अनटचेबिलिटी इन रूरल इंडिया' (2006) के सह-लेखक हैं

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