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अनुच्छेद 370 : आंबेडकर नहीं, श्यामाप्रसाद मुखर्जी का सपना हुआ पूरा

बीते 5 अगस्तर 2019 को जम्मू-कश्मीर में लागू अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया गया। इसे वाजिब ठहराने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि ऐसा कर उन्होंने डॉ. आंबेडकर का सपना पूरा किया है। जबकि उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्य इसके विपरीत हैं

आखिरकार केंद्र में सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार ने मूलभूत लोकतांत्रिक मर्यादाओं, संवैधानिक मूल्यों, संसदीय लोकतंत्र की परम्पराओं और संघीय शासन के सिद्धान्तों की अवहेलना करते हुए अनुच्छेद 370 के खंड (2) व (3) तथा धारा 35(ए) को निष्प्रभावी बना दिया। 1952 से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अनुच्छेद 370 के खिलाफ था। इस तरह भाजपा ने संघ की एक बहुत पुरानी इच्छा को पूरा किया है। संघ न केवल अनुच्छेद 370 का विरोध करता रहा है बल्कि इसके विरुद्ध झूठा प्रचार भी करता  रहा है। इन प्रचार सामग्रियों में डॉ. आंबेडकर के एक वक्तव्य को प्रस्तुत किया जा रहा है जो सोशल मीडिया में प्रसारित हो रहा है। इसमें कहा गया है कि डॉ. आंबेडकर भी अनुच्छेद 370 के विरोध में थे।

सम्भवतः इन्हीं प्रचार सामग्रियों से प्रभावित होकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 8 अगस्त को देश जनता (इसमें 1.25 करोड़ जम्मू और कश्मीर की जनता शामिल नहीं है क्योंकि वहां संचार के सभी  साधनों को प्रतिबंधित कर दिया गया था) के समक्ष एक अपराधी की भांति सफाई दी, जिसमें उन्होंने डॉ. आंबेडकर के सपनों को सच करने का दावा किया। वास्तव में यह उनका अपराधबोध है जो डॉ. आंबेडकर जैसे तमाम महापुरुषों के पीछे छुपने के लिए उनको विवश कर रहा है। वास्तविकता यह है कि डॉ. आंबेडकर ने अनुच्छेद 370 का विरोध नहीं किया था। इसलिए यह कहना कि नरेंद्र मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 को खत्म कर डॉ. आंबेडकर का सपना पूरा किया है, सच से परे हैं। अलबत्ता सरकार ने श्यामाप्रसाद मुखर्जी और अटल बिहारी वाजपेयी के सपने को अवश्य पूरा किया है।

अनुच्छेद 370 से सम्बन्धित लगभग सभी महत्वपूर्ण दस्तावेजों को हमने खंगालने का प्रयास किया। इसमें मुख्य दस्तावेज है संविधान सभा की बहस तथा भारतीय संविधान के शिखर विशेषज्ञ के रूप में प्रसिद्ध अमेरिकी विद्वान ग्रेनविल आस्टिन की पुस्तक का हिन्दी अनुवाद भारतीय संविधान: राष्ट्र की आधारशिला’। इनको 2011 में ‘भारतीय संविधान की प्रक्रिया और कार्यों पर उल्लेखनीय योगदान’ के लिए भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया गया। इसके साथ ही मैंने डॉ. आंबेडकर के सम्पूर्ण वांगमय (हिन्दी) का खण्ड पन्द्रह भी देखा जिसमें उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ संग्रहित है। इसके अलावा उनके द्वारा निर्मित राजनीतिक दल सिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन’ का घोषणापत्र भी देखा। इनमें से किसी में भी यह तथ्य नहीं मिला कि उन्होंने अनुच्छेद 370 का विरोध किया था।

डॉ. आंबेडकर (14 अप्रैल 1891 – 6 दिसंबर 1956)

आइए, अब डॉ. आंबेडकर के उस वक्तव्य का परीक्षण करते हैं जो सोशल मीडिया में प्रसारित हो रहा है तथा जो शेख अब्दुल्ला को भेजे गये डॉ. आंबेडकर के तथाकथित पत्र में है। वह इस प्रकार है- ‘‘आप चाहते हो कि भारत आपकी सीमाओं की रक्षा करे, वह आपके क्षेत्र में सड़कें बनाए, वह आपको खाद्य सामग्री दे और कश्मीर का वही दर्जा हो जो भारत का है, लेकिन भारत के पास केवल सीमित अधिकार हों और भारत के लोगों को कश्मीर में कोई अधिकार न हों। ऐसे प्रस्ताव को मंजूरी देना भारत के हितों से दगाबाजी करने जैसा होगा और मैं भारत का कानून मन्त्री होते हुए ऐसा कभी नहीं करूंगा।’’ जबकि उत्तर प्रदेश के पूर्व आईपीएस अधिकारी व सामाजिक कार्यकर्ता एस. आर. दारापुरी का कहना है कि ‘भारतीय जनसंघ के नेता बलराज मधोक के हवाले से एक रिपोर्ट उपलब्ध है जिसमें यह लिखा हुआ है कि डॉ. आंबेडकर ने शेख अब्दुल्ला से उपरोक्त बातें कही थीं।’[1]

सोशल मीडिया पर इसके अलावा कहा जा रहा है कि डॉ. आंबेडकर ने अनुच्छेद 370 का ड्राफ्ट तैयार नहीं किया।

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बलराज मधोक संघ के प्रचारक और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संस्थापक थे। वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी बने थे। दो बार संसद सदस्य भी थे। संघ, अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए झूठ का सहारा लेता रहा है। संघ के लिए यह कोई नयी बात नहीं है। चूंकि संघ पूर्णतः झूठ नहीं बोलता है इसलिए उसकी बातें लोगों को सत्य प्रतीत होने लगती हैं। अनुच्छेद 370 के विरोध की प्रचार सामग्री में कुछ तथ्य सत्य है जैसे डॉ. आंबेडकर ने इस धारा को संविधान सभा में प्रस्तावित नहीं किया था। गोपाल स्वामी अयंगर ने इस धारा को संविधान सभा में प्रस्तावित किया था। इसके पीछे की कहानी जो संघ द्वारा प्रचारित की जा रही है कि डॉ. आंबेडकर इतने नाराज थे कि उन्होंने इस अनुच्छेद का न तो प्रारूप तैयार किया और न ही इसके पक्ष में कुछ बोले, बिलकुल मनगढ़ंत है। तथ्य यह है कि डॉ. आंबेडकर ने 4 नवम्बर 1948 को प्रारूप समिति के अध्यक्ष के हैसियत से संविधान के प्रारूप को संविधान सभा के समक्ष रखा। प्रारूप सभी सदस्यों को पहले ही वितरित किया जा चुका था तथा संशोधनों को आमंत्रित भी किया जा चुका था। लगभग 10,000 संशोधन प्रस्तावित थे, 2743 संशोधनों पर बहस हुई। संविधान सभा ने बहुत सारे संशोधन को स्वीकार किया। संविधान सभा ने तय किया था कि प्रारुप के सभी अनुच्छेदों पर बहस होगी और उसी समय उस अनुच्छेद से सम्बन्धित संशोधनों पर भी बहस होगी। लगभग 11 माह बाद 17 अक्टूबर 1949 को धारा 306 (क) पर बहस प्रारम्भ हुई। अध्यक्ष ने एन. गोपालस्वामी अयंगर को अपना संशोधन प्रस्तुत करने को कहा। गोपालस्वामी अयंगर ने संशोधन संख्या-450 प्रस्तुत किया। इस अनुच्छेद पर बहस में, पंडित हृदय नाथ कुंजरु, मौलाना हसरत मोहानी, के. सन्तानम, महावीर त्यागी ने भाग लिया। अन्त में, बहस के पश्चात 306 (क) को संविधान में प्रविष्ट किया गया जो मूल संविधान में धारा 370 के नाम से जानी जाती है। यह संशोधन प्रारूप समिति की तरफ से प्रस्तुत किया गया था। प्रस्तुतकर्ता प्रारूप समिति के सदस्य के साथ, राज्य समिति, संविधान सभा की कार्य समिति सहित कुल 8 समितियों के सदस्य थे। इसके साथ ही वह (एन. गोपालस्वामी अयंगर) 1937-43 के दौरान कश्मीर के प्रधानमंत्री भी रह चुके थे। 1948 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारतीय शिष्ट मण्डल के नेता भी थो। इतने योग्य व अनुभवी व्यक्ति के रहते आंबेडकर बहस में क्यों कूदते। और यदि वे इसके विरुद्ध रहते तो वे चुप बैठने वाले नेता तो थे नहीं, अपना विरोध अवश्य दर्ज कराते। परंतु, डाॅ. आंबेडकर ने ऐसा कुछ नहीं किया। इसलिए यह कहना कि डॉ. आंबेडकर अनुच्छेद 370 के विरुद्ध थे, पूर्णतः तथ्यहीन, मनगढ़ंत और झूठ है।


वैसे एक तथ्य यह है कि डॉ. आंबेडकर देशी रियासतों को ब्रिटिश शासन के अधीन राज्यों से अधिक अधिकार देने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने 4 नवम्बर 1948 को संविधान का प्रारूप पेश करते समय एक लम्बा भाषण दिया था जिसमें यह तथ्य रेखांकित किया जा सकता है। वह वक्तव्य इस प्रकार है-

इस मसौदे की आलोचना इस बात के लिए भी की गयी है कि इसमें केन्द्र और प्रान्तों के बीच एक प्रकार के वैधानिक सम्बन्ध की व्यवस्था है। परन्तु केन्द्र और रियासतों के बीच एक भिन्न प्रकार के वैधानिक सम्बन्ध की। रियासतें संघ सूची में दिये हुए विषयों रक्षा, वैदेशिक मामले एवं यातायात के अन्तर्गत आने वाले विषयों को ही मानने के लिए बाध्य हैं।’’[2]

बलराज मधोक ने डॉ. अम्बेडकर के इसी बयान को तोड़-मरोड़ कर मनगढ़ंत तथ्य के रूप में संघ के प्रचारकों को दे दिया।

यह सत्य है कि 4 नवम्बर 1948 को जो प्रारूप प्रस्तुत किया गया था उसमें देशी रियासतों को दिये गये अधिकार से डॉ. अम्बेडकर सहमत नहीं थे। लेकिन लोकतंत्र में अटूट विश्वास के कारण उन्होंने प्रारूप में रियासतों के विशेष अधिकार को स्वीकार किया। उन्होंने कहा-

‘‘मैं इस प्रबन्ध को बड़ा ही हानिकर और विपरीतगामी समझता हूं, जो भारत के ऐक्य को छिन्न-भिन्न कर सकता है और केन्द्रीय सरकार को उलट सकता है। अगर मैं मसविदा समिति के विचार को रखने में गलती नहीं कर रहा हूं, तो इस व्यवस्था से वह बिल्कुल ही सन्तुष्ट न थी उसके सदस्य बहुत चाहते थे कि प्रांतों और रियासतों का केन्द्र से जो वैधानिक सम्बन्ध हो, उसमें एकरूपता हो। किन्तु दुर्भाग्य से इस मामले में सुधार के लिए वे कुछ भी नहीं कर सके। वे विधान परिषद के निर्णयों से बंधे थे और विधान परिषद उस समझौते से बंधी थी, जो दोनो निगोशिएशन कमेटियों के बीच तय पाया था।’’[3]

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इसका अर्थ है कि प्रारूप समिति ने वही किया जो रियासतों के विलय के लिए बनी कमेटियों ने तय किया था। डॉ. आंबेडकर ने असहमत होने के बावजूद भी लोकतांत्रिक मर्यादाओं का पालन करते हुए अपनी इच्छा को नहीं थोपा तथा अपने पक्ष को स्पष्ट भी कर दिया। लेकिन डॉ. आंबेडकर का रियासतों के सम्बन्ध में यदि केवल इन्हीं कथनों को उद्धृत करके रूक जायेंगे तो हम उनके पक्ष (डॉ. आंबेडकर) को समझने में भूल करेंगे। इसी भाषण में उन्होंने जर्मनी का उदाहरणा देते हुए आशा व्यक्त की कि ‘‘1947 ई. की 15वीं अगस्त को यहां 600 रियासतें थीं। और आज (4 नवम्बर 1948) इन रियासतों के प्रान्तों में मिल जाने से अथवा इनके अपने अपने संघ बना लेने से या केन्द्र  द्वारा उन्हें केन्द्रशासित क्षेत्र बना देने से उनकी संख्या केवल 20-30 रह गयी है, जो अपने पांव पर खड़ी हो सकती हैं। यह प्रगति बड़ी तेज है। जो रियासतें रह गयी हैं, उनसे मैं अपील करता हूं कि वे भारतीय प्रान्तों का पूर्णतः अंग बन जायें।’’[4]


डॉ.आंबेडकर की अपील निराधार नहीं थी। तमाम समितियों के रिपोर्टों तथा बहसों के पश्चात् रियासतों का मुद्दा 26 नवम्बर 1949 को अपनी सार्थक परिणति पर पहुंचा। सभा के सदस्यों ने संविधान के अन्तिम रूप पर इसी दिन हस्ताक्षर किये। उस दिन सरदार पटेल ने यह घोषणा की थी कि ‘संविधान की प्रथम अनुसूची में निर्दिष्ट भाग बी की हैदराबाद सहित सभी नौ रियासतों ने संविधान को अपनी स्वीकृति दे दी है।’[5]यह पूरी प्रक्रिया पूर्णतः लोकतांत्रिक तरीके से चलायी गयी। 25 नवम्बर 1949 को जो संविधान अस्तित्व में आया, उसमें अनुच्छेद 370 शामिल था। डॉ. आंबेडकर ने इस दिन एक लम्बा भाषण दिया जिसमें सविधान और समाज के कई विरोधाभासों को भी रेखांकित किया। लेकिन इस भाषण में भी उन्होंने अनुच्छेद 370 का विरोध नहीं किया।

अब सवाल है कि डॉ. आंबेडकर अनुच्छेद 370 के विरोध में नहीं थे तो कश्मीर पर उनका पक्ष क्या था?

1951 में उन्होंने नेहरू मंत्रिमंडल से त्याग पत्र दे दिया। इसके पांच कारण उन्होंने बताये। तीसरा कारण जो भारत की विदेश नीति से सम्बन्धित है, में कश्मीर समस्या का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि, मेरे विचार से कश्मीर का दो भागों में विभाजन समस्या का सही समाधान है। जैसा कि हमने भारत के साथ किया था। हिन्दू और बौद्धों वाला भाग भारत ले ले और मुसलमानों वाला भाग पाकिस्तान ले ले। यह पाकिस्तान और कश्मीर के मुसलमानों के बीच का मामला है कि वह पाकिस्तान का भाग बनेगा या स्वतंत्र रहेगा, वे जैसे चाहे इसका निपटारा करें।’’[6]

इसी प्रकार का मत ‘सिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन’ के घोषणापत्र में भी डॉ. आंबेडकर ने व्यक्त किया था।

इस प्रकार स्पष्ट है कि डॉ. आंबेडकर का मत था कि कश्मीर पर निर्णय लेने का अधिकार केवल कश्मीरियों को है न तो भारत को है न पाकिस्तान को।

आज के परिप्रेक्ष्य में यदि हम देखें तो ‘जम्मू और कश्मीर’ से विशेष राज्य का दर्जा छीनना डॉ. आंबेडकर के सपनों को पूरा करना नहीं बल्कि सपनों को तोड़ना है। कश्मीर पर निर्णय लेते समय कश्मीरियों से पूछा तक नहीं गया। पूरे जम्मू और कश्मीर को जेल में तब्दील कर दिया गया। संसदीय मर्यादाओं को तार-तार कर किया गया। डॉ. आंबेडकर सोशल डेमोक्रेट थे। एक समाज द्वारा दूसरे समाज को गुलाम बनाये जाने के प्रबल विरोधी थे। मोदी सरकार के निर्णय से स्पष्ट झलक रहा है कि वह मुसलमानों को सवर्ण जातियों का गुलाम बनाना चाहती है।

(कॉपी संपादन : नवल)

सन्दर्भ :

[1] एस.आर. दारापुरी फेसबुक पोस्ट, 7 अगस्त 2019

[2] भारतीय संविधान सभा के वाद-विवाद की सरकारी रिपोर्ट (हिन्दी संस्करण), 2015, पुस्तक संख्या-3, पृ.83-84

[3] पाद टिप्पणी-3, पृ.84

[4] वही, पृष्ठ-85

[5] ग्रेनविल आस्टिन, भारतीय संविधान, राजकमल, दिल्ली, 2017, पृ.367

[6] डॉ. आंबेडकर के विचार, मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल, 2002, पृ. 52


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लेखक के बारे में

अलख निरंजन

अलख निरंजन दलित विमर्शकार हैं और नियमित तौर पर विविध पत्र-पत्रिकाओं में लिखते हैं। इनकी एक महत्वपूर्ण किताब ‘नई राह की खोज में : दलित चिन्तक’ पेंग्विन प्रकाशन से प्रकाशित है।

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