h n

‘जाति का विनाश चाहते थे रेणु’

प्रो. जितेंद्र श्रीवास्तव के मुताबिक, अपनी रचनाओं के माध्यम से सर्वप्रथम रेणु जी ने अलग-अलग जाति-आधारित राजनीतिक संगठनों की निर्मिति को रेखांकित किया। वे इस बात को जानते थे कि जातियां सीमाएं पैदा करती हैं, इसीलिए यह चाहते थे कि भारत एक जातिमुक्त राष्ट्र बने। अम्बरीन आफताब की खबर

फणीश्वरनाथ रेणु स्वातंत्र्योत्तर भारत के हिन्दी प्रदेश के यथार्थ की स्वाभाविक गति को चित्रित करने वाले रचनाकार हैं। रेणु के साहित्य में विवेक-संपन्न स्त्री-पक्षधरता विद्यमान है। स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यासों में मैला आंचल प्रथम उपन्यास है जिसमें आदिवासी चेतना के उभार का प्रसंग निहित है। रेणु के लेखन में एक किसान का चित्त और एक मुक्तिधर्मी का विवेक निरंतर प्रवाहमान है। अपनी रचनाओं के माध्यम से सर्वप्रथम उन्होंने अलग-अलग  जाति-आधारित राजनीतिक संगठनों की निर्मिति को रेखांकित किया। वे इस बात को जानते थे कि जातियां सीमाएं पैदा करती हैं, इसीलिए यह चाहते थे कि भारत एक जातिमुक्त राष्ट्र बने। अपनी रचनाओं में चित्रित अंतर्जातीय विवाहों के माध्यम से रेणु इसी स्वप्न को रोपते हैं। ‘परती परिकथा’ के मलारी और सुवंश बाबू का प्रेम-विवाह वस्तुतः भविष्य के जीव-द्रव्य की तरह है जिससे कि भारतीय समाज को एक नूतन, उन्नत एवं प्रगतिशील रूप प्राप्त हो सकता है। प्रेमचंद के स्वप्नों और वैचारिकी को आगे ले जाने के संदर्भ में वे, निश्चित रूप से प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं। रेणु के संपूर्ण साहित्य में ग्रामीण जीवन के हाशिए को केन्द्रीयता मिलती है। ये बातें इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जितेंद्र श्रीवास्तव ने एक बीते 7 जून, 2020 को वेबिनार को संबोधित करते हुए कही।

 “सामयिक संदर्भ और फणीश्वरनाथ रेणु का साहित्य” विषयक इस एकदिवसीय वेबिनार का आयोजन के.एम.अग्रवाल काॅलेज, कल्याण, महाराष्ट्र, किशोरी रमण महाविद्यालय, मथुरा तथा वृंदावन शोध संस्थान, वृंदावन के संयुक्त तत्त्वावधान में रेणु के जन्मशती वर्ष के उपलक्ष्य में  किया गया। 

संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो. रमेश रावत ने की। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में उन्होंने आंचलिकता की अवधारणा पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता पर बल दिया। कबीर, तुलसी, प्रेमचंद आदि के रचना-संदर्भों के माध्यम से उन्होंने कहा कि रेणु का मूल्यांकन उनके रचना-कर्म के व्यापक एवं विस्तृत फ़लक को केंद्र में रखकर किया जाना चाहिए। उन्होंने रेणु को पात्र, परिस्थिति और परिवेश की संवेदना को उसके समग्र रूप में पकड़ने और रचनात्मक धरातल पर रूपायित करने वाला साहित्यकार बताया।

फणीश्वरनाथ रेणु (4 मार्च, 1921 – 11 अप्रैल, 1977)

मुख्य वक्ता के रूप में कन्हैया माणिकलाल मुंशी इंस्टीट्यूट हिंदी एंड लिग्विस्टिक्स, आगरा के निदेशक प्रो. प्रदीप श्रीधर ने ‘मैला आंचल’ के संदर्भ में आंचलिक उपन्यासों के वैशिष्ट्य पर प्रकाश डाला। उन्होंने रेणु को युगांतकारी रचनाकार बताते हुए सामयिकता की स्थिति पर विचार किया। संगोष्ठी के द्वितीय सत्र की अध्यक्षता प्रो. वेद प्रकाश (प्रोफ़ेसर, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय) ने की। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में उन्होंने रेणु की संभवतः अंतिम रचना ‘ऋणजल धनजल’ पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा कि रेणु ने अपने लेखन के आरंभिक दौर से जो देखना प्रारंभ किया, उसकी परिणति इस अंतिम रचना में उभरकर सामने आती है। अपनी रचना-यात्रा के अंत तक आते-आते राजनीतिक परिदृश्य उन्हें निराश करता है। राजनीतिज्ञों की अवसरवादिता को रेखांकित करते हुए रेणु राजनीति की निरर्थकता की बात करते हैं। वस्तुतः मैला आंचल स्वातंत्र्योत्तरकालीन ऐसा पहला उपन्यास है जिसमें भारतीय राजनीति के अंधकारमय भविष्य की आहट सुनाई देती है। गांधीवादी मूल्यों की मृत्यु और उन मूल्यों की अवहेलना कर विकास की छद्म राजनीति के स्पष्ट संकेत उस उपन्यास में मिलते हैं। राजनीति की निरर्थकता को इंगित करते हुए भी  रेणु जन और लोक में अगाध विश्वास रखते हैं। रेणु राजनीति तथा राजनीतिक दलों से भले ही निराश थे, परंतु जनसाधारण के संघर्ष और जिजीविषा को चित्रित करते हुए भविष्य के प्रति वे आशान्वित प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि रेणु अपने उपन्यासों को आख्यान का स्वरूप प्रदान करते हैं जिससे कि जनमानस के भीतर की सूखी परती टूट सके।

इस सत्र में महात्मा गांधी केंद्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के डॉ. अंजनी श्रीवास्तव ने जहां रेणु की रचनाओं में निहित ग्रामीण संवेदना पर विचार किया, वहीं कलकत्ता विश्वविद्यालय के डॉ. मृत्युन्जय पाण्डेय ने रेणु की विभिन्न कहानियों के माध्यम से वर्तमान समय में उनकी प्रासंगिकता पर विस्तार से चर्चा की। सिक्किम विश्वविद्यालय के डॉ. प्रदीप त्रिपाठी ने रेणु की भाषा और शिल्प पर विचार करते हुए प्रभावी ढ़ंग से अपनी बात रखी।

वहीं तृतीय सत्र की अध्यक्षता करते हुए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रो. देवेन्द्र कुमार गुप्ता ने कहा कि रेणु उन विरले रचनाकारों में से हैं जो अपने परिवेश को उसकी संपूर्णता में चित्रित करते हैं। अपने अंचल की आशाओं-आकांक्षाओं को निरूपित करते हुए वहाँ व्याप्त विसंगतियों पर भी विचार करते हैं। डॉ. जयाप्रियदर्शिनी शुक्ल ने रेणु के रिपोर्ताज साहित्य का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि रेणु के रिपोर्ताज केवल घटनाओं की सूचना नहीं देते, अपितु साहित्यिकता और कथात्मकता से परिपूर्ण हैं। इन रिपोर्ताजों में अनुभव जगत की अभिव्यक्ति के साथ लोक के प्रति उनकी चिंता विद्यमान है जो इन्हें सामयिकता प्रदान करती है। राजनीति के प्रश्नों के अतिरिक्त रेणु इन रिपोर्ताजों के माध्यम से मानवीय संवेदना के विविध पक्षों का सूक्ष्म रेखांकन प्रस्तुत करते है। इसी क्रम में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्रो. सत्यपाल शर्मा तथा डॉ. ऊषा आलोक दूबे ने भी अपने वक्तव्य द्वारा रेणु के रचना-कर्म के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला।

यह भी पढ़ें : रेणु के साहित्य में जाति, जमात और समाज

समापन सत्र की अध्यक्षता डॉ.अनिल सिंह ने की। अंतिम सत्र में जामिया मिल्लिया इस्लामिया के असिस्टेेंट प्रो. डॉ.मुकेश मिरोठा ने रेणु की रचनाओं में विद्यमान ग्रामीण संस्कृति एवं लोक-तत्त्वों पर अपने विचार व्यक्त किए।

कार्यक्रम का संचालन डॉ. मनीष कु. मिश्रा तथा संजीव श्रीवास्तव ने किया। 

(संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

अम्बरीन आफ़ताब

लेखिका अम्बरीन आफ़ताब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हिंदी विषय की शोधार्थी हैं

संबंधित आलेख

कुठांव : सवर्ण केंद्रित नारीवाद बनाम बहुजन न्याय का स्त्री विमर्श का सवाल उठाता उपन्यास
अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास ‘कुठांव’ हमें यही बताता है कि बहुजन और पसमांदा महिलाओं का संघर्ष सिर्फ पुरुषों से नहीं है, बल्कि वह उस...
‘जाति का विनाश’ में संतराम बीए, आंबेडकर और गांधी के बीच वाद-विवाद और संवाद
वर्ण-व्यवस्था रहेगी तो जाति को मिटाया नहीं जा सकता है। संतराम बीए का यह तर्क बिलकुल डॉ. आंबेडकर के तर्क से मेल खाता है।...
यात्रा संस्मरण : जब मैं अशोक की पुत्री संघमित्रा की कर्मस्थली श्रीलंका पहुंचा (अंतिम भाग)
चीवर धारण करने के बाद गत वर्ष अक्टूबर माह में मोहनदास नैमिशराय भंते विमल धम्मा के रूप में श्रीलंका की यात्रा पर गए थे।...
जब मैं एक उदारवादी सवर्ण के कवितापाठ में शरीक हुआ
मैंने ओमप्रकाश वाल्मीकि और सूरजपाल चौहान को पढ़ रखा था और वे जिस दुनिया में रहते थे मैं उससे वाकिफ था। एक दिन जब...
When I attended a liberal Savarna’s poetry reading
Having read Om Prakash Valmiki and Suraj Pal Chauhan’s works and identified with the worlds they inhabited, and then one day listening to Ashok...