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बहस-तलब : पिछड़े करें अपने साहित्य की तलाश

पिछड़े मेहनत-मशक्कत की मिसाल हैं और इस देश की सारी समृद्धि के कर्ता वे ही हैं, लेकिन उन्होंने अपने हिस्से में इतनी बुरी चीज चुनी और उसे ढो रहे हैं। इस मुख्यधारा का कोई भी नैरेटिव उनको सम्मान नहीं देता। बता रहे हैं रामजी यादव

वंचितों के साहित्य पर केंद्रित इस विमर्श का प्रारंभ फारवर्ड प्रेस द्वारा एक करीब एक दशक पहले किया गया। इस विशेष स्तंभ के तहत हम बहुजन साहित्य की दशा और दिशा पर बहस आमंत्रित कर रहे हैं। जाहिर तौर पर हमारा मकसद वंचितों में सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक एकता के लिए आवश्यक साहित्य सामने लाना है। सुधि पाठकों की टिप्पणियों का हमेशा की तरह इंतजार रहेगा

सारा झगड़ा इस बात का है कि जो कुछ मौजूद है उसमें हमारा क्या है? यह सबसे जरूरी सवाल है। क्या हमने इस सवाल पर सोचा है कि दुनिया की सारी भौतिक संपदाओं में किसकी हिस्सेदारी है? कहने की आवश्यकता नहीं कि जिसके पास भौतिक संपदाओं में हिस्सेदारी है, उसका सामाजिक स्थान ऊंचा है। जिसका सामाजिक स्थान ऊंचा है, उसका सांस्कृतिक जगत जगमग है। इसलिए यह सवाल सबसे बड़ा है कि जो कुछ मौजूद है उसमें हमारा क्या है? 

इसका जवाब खोजते हुए दलितों ने अपना मुकाम बना लिया है, लेकिन इससे उदासीन रहकर पिछड़े आज भी भटक रहे हैं। और भटकना भी क्या है? खाली हाथ होते तो लम्बा भटकते। लेकिन यहां तो सिर पर गोबर का टोकरा लादे घूम रहे हैं। गर्दन अकड़ रही है और आंखें बाहर निकल रही हैं, चक्कर आने लगा है, लेकिन बोझ फेंक दें, इसका ज्ञान ही नहीं है। जान है तो जहान है। गर्दन बची रहेगी तो जीवन बचा रहेगा। जीवन बचा रहेगा तो सबकुछ बचा रहेगा। लेकिन पिछड़े अपने को बचाने की बजाय सिर पर मुख्यधारा के गोबर का भारी टोकरा लादे भटक रहे हैं। अब वे बुरी तरह थके हुए और बदहवास हो चुके हैं। वे बेजार हो चुके हैं और हर कोई उनके ऊपर हंस रहा है। 

उत्तरप्रदेश के बनारस में कबीर मठ में कबीर एवं उनके अनुयायियों की प्रतिमाएं

यहां-वहां बनारस, लखनऊ, दिल्ली, इलाहाबाद, पटना, कोलकाता, हैदराबाद, मुंबई हर कहीं वे दूसरों की सभाओं की भीड़ हैं। ऐसी भीड़ जो कार्यक्रम की सफलता तो होती है लेकिन जब उबकर वापस भी होती है तो कोई नहीं पूछता कि क्यों चल दिए। उनके मन में कई सवाल होते हैं। लेकिन वे पूछ नहीं पाते। उनके सामने जो सवाल आते हैं, वे उनका जवाब देने की जगह रुआंसे हो रहे हैं। सहानुभूति खोज रहे हैं। अपनापन खोज रहे हैं। यहां तक कि अपने मानसिक संताप से छुटकारा पाने के लिए अपने दिल में बची इंसानियत कभी ‘इन’ पर कभी ‘उन’ पर खर्च कर रहे हैं, लेकिन अपने दुखों से छुटकारा पाने के बावजूद ‘ये’ और ‘वे’ इनका कोई शुकराना नहीं अदा कर रहे हैं। शुकराना तो दूर, एक शब्द में कहीं उनका नामोल्लेख तक नहीं कर रहे हैं। बल्कि सच तो यह है कि ‘ये’ और ‘वे’ पिछड़ों के प्रति न केवल हिकारत दिखा रहे हैं बल्कि उन्हें अपराधी भी साबित कर रहे हैं। पिछड़े अपराधी नहीं हैं, लेकिन ‘ये’ और ‘वे’ अपना सारा विमर्श उनके अपराधी होने को लेकर चला रहे हैं। बल्कि ‘ये’ और ‘वे’ इसीलिए अपना फर्जी विमर्श चला रहे हैं क्योंकि ‘वे’ जानते हैं कि असली अपराधी ‘ये’ हैं, लेकिन इसको कहने से पॉवर डिस्कोर्स डगमगा जाएगा। ‘ये’ और ‘वे’ एक दूसरे की असलियत जानते हैं और उनमें शांतिपूर्ण सह अस्तित्व का समझौता हो चुका है। इसलिए दोनों न्याय की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि उनके निशाने पर पिछड़े हैं। 

और पिछड़ों की समस्या यह है कि वे जबसे पढ़ने-लिखने लगे तबसे मुख्यधारा के गोबर का टोकरा ढो रहे हैं। वह भारी टोकरा चड़चड़ की आवाज करते हुए धीरे-धीरे अपने टूटने का संकेत दे रहा है। उसकी कमचियां टूट रही हैं। लपक रही हैं। टोकरी का गोबर गिरने की हालत में है लेकिन अभागे पिछड़े उसे फेंक नहीं रहे हैं। जबकि उन्हें फ़ौरन से पेश्तर वह गोबर का टोकरा धडाम से फेंक देना चाहिए। फेंक कर खुली हवा को अपने फेफड़ों में भरना चाहिए। जब वे फेंकेंगे तब देख पाएंगे कि जिसे मुसीबत में काम आनेवाला गुड़ समझकर ढो रहे थे, दरअसल वह तो खेती के लिए भी नुकसानदायक गोबर है, जिसमें उनको उलझाने और बरगलाने वाली सारी हिकमतें सड़ी हुई बदबू मार रही हैं। 

पिछड़े मेहनत-मशक्कत की मिसाल हैं और इस देश की सारी समृद्धि के कर्ता वे ही हैं, लेकिन उन्होंने अपने हिस्से में इतनी बुरी चीज चुनी और उसे ढो रहे हैं। इस मुख्यधारा का कोई भी नैरेटिव उनको सम्मान नहीं देता। उसके ग्रन्थ और इतिहास उन्हें बहिष्कृत कर चुके हैं, लेकिन पिछड़े उसी को ढोए चले जाते हैं। वे जिन कवियों और द्रष्टाओं को ढो रहे हैं, वे सब के सब उनके प्रति नफरत से भरे हुए हैं लेकिन वे कैसे जान पाएंगे। ज़ाहिर सी बात है वे तभी जान पायेंगे जब अपने सिर पर लदे गोबर के टोकरे को फेंक देंगे। थोडा फोंफर होगा तब वे देख पायेंगे कि उसमें कहीं जाति–विद्वेष से बजबजाते तुलसीदास हैं तो कहीं छिनर-काव्य के धुरंधर सूरदास हैं। कहीं मंगता-शिरोमणि नरोत्तम दास हैं तो कहीं काम क्रीडा के द्रष्टा बिहारीदास हैं। सूची बहुत लम्बी है। केशवदास, अग्रदास, व्यग्रदास, नाभादास से लेकर तमाम दासों तक जा फैलेगी। लेकिन क्या फायदा? पिछड़ों को क्या फायदा कि वे ऐसे लोगों से भरा हुआ मुख्यधारा का भारी-भरकम टोकरा ढोएं? बस उन्हें तो जितनी जल्दी हो सके इस नामाकूल टोकरे को तुरंत अपने सिर से उतार कर बेमुरौवत फेंक ही देना चाहिए।

यदि पिछड़ों के सिर पर वह घृणित टोकरा न होता तो उनके दिमाग की नसें इतनी मोटी न होतीं। वे कहीं बैठते और सोचते-विचारते तो जेम्स वाट की तरह कुछ न कुछ आविष्कार करते। यूं ही बाग़-बगीचे में बैठते और कोई आम, सेब या बेल फल आदि सिर पर गिरते तो न्यूटन कि तरह यही सोचते कि अरे यह ऊपर क्यों नहीं गया। नीचे क्यों आ गिरा? कहीं और लम्बे निकलते तो और कुछ सोचते और दूसरे को बताते। खाली हाथ होते तो दूर तक जाते। कभी-कभार कोई और दुनिया ही खोज लेते। वैसे सच तो यही है कि देश-दुनिया खोजने का श्रेय तो पिछड़ों को ही जाता है, परन्तु एक तो उन्होंने इतिहास लिखा नहीं और जिस इतिहास को वे अपना समझकर ढो रहे हैं, उससे बहिष्कृत ही कर दिए गए हैं। फिर दावा कैसे जताएंगे। जब आप इतिहास से बहिष्कृत कर दिए जाते हैं तब तथ्य चाहे जितने रट लीजिये और गाहे-बगाहे दुहराकर विद्वान बन लीजिये लेकिन आप उस इतिहास के नागरिक नहीं हो सकते। वह इतिहास किसी भी संघर्ष में आपका सहयोग नहीं कर सकता। आप अपने को लेकर कोई दावा ही नहीं कर सकते। 

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जरा पैटर्न देखिये। लबार ब्राह्मणों ने अपने को एक पुरुष की मुख-योनि से जन्मा प्रचारित कर दिया और इसी आधार पर उन्होंने अपने को सबसे श्रेष्ठ मान लिया। उन्होंने माना तो क्या है आप उनको सर्कस का जोकर मान लेते। हंस देते और दुरदुराकर अपने दरवाजे से भगा देते। लेकिन आपने उनकी बात बड़े गौर से सुनी। यहां तक कि उनको दक्षिणा देकर उनकी बात सुनी। उन्होंने अपने जन्ममार्ग का गप्प आपको सुनाया और आपने मान लिया। फिर उन्होंने आपको गोया यह मानने को बाध्य कर दिया कि वे आपसे ऊंचे हैं और आपने मान भी लिया। क्यों मान लिया? क्योंकि आपके पास अपने जन्म का कोई इतिहास नहीं था। आपके पूर्वज भी इस मामले में गाफिल रहे और आप तो माशाअल्लाह हैं ही। फिर क्या हुआ? इन्हीं गप्पियों ने किराए पर आपके लिए बहुत खतरनाक काम किया। सोचिये, किराए पर। यानी आपसे पैसा लिया और आपके भी जन्म की एक झूठी कहानी आपको सुना दिया और वही आजतक आपके दिमाग में बसी हुई है। इसलिए आप उस ईसा मसीह की तरह हैं जो कांटों का ताज पहने अपनी ही सलीब उठाये चल रहा है और पादरी उसके नाम पर मलाई काट रहे हैं  

पता नहीं पिछड़ों ने कबीर का वह मन्त्र क्यों नहीं पढ़ा और समझा कि प्रेम का ढाई आखर पढ़ना बहुत जरुरी है। जो है सो यही ढाई आखर है बाकि तो सारा जमाना ही पोथी पढ़-पढ़कर मर गया, लेकिन ज्ञान की आंख नहीं खुली। और पोथियां क्या थीं? कोई इतिहास और विज्ञान की तो थीं नहीं। यही वेद-पुराण, उपनिषद, किस्से-कहानियों-गप्पों और पहेलियों की पोथियां थीं। लोग उनकी तरफ आकर्षित होते। सोचते कि ज्ञान मिलेगा। फिर उनकी तरफ जाते और पढ़ने लगते। दिन-रात पढ़ते। बस्तियों से ऊबते तो जंगल चले जाते और सबकुछ भूलकर पोथियां पढ़ते और कभी-कभी तो उन पोथियों की टीकाएं तक लिख देते। पोथी पर पोथी बढ़ती जाती, लेकिन नतीजा क्या निकला? वे लोग पढ़-पढ़ कर मर गए, लेकिन इसका रहस्य नहीं समझ पाए कि सौ-सवा सौ साल तक जीनेवाले मनुष्यों की वह कौन सी नस्ल है, जो हजारों साल जी जाती है? लोग पोथी पढ़-पढ़ खून फेंककर मर गए लेकिन यह नहीं जान पाए कि वह कौन सा रास्ता है जिससे निकलकर बाभन सबसे पवित्र हुआ जाता है और मेहनत करनेवाले लोग अपवित्र और नीच हो जाते हैं? और नहीं जान पाए इसलिए यह झूठ मिटा ही नहीं। यह झूठ उनके ऊपर सवार रहा और वे पोथी पढ़-पढ़कर मर गए। 

इसलिए कबीर कह रहे हैं कि फालतू की पोथियां मत पढो, बल्कि प्रेम को पढो, क्योंकि वह बहुत छोटा सा और महज ढाई अक्षर का है। और कबीर जी यह भी बताते हैं पहले जिन लोगों ने इसको पढ़ा वे तो ज्ञानी हो गए, लेकिन बाकी लोग ज्ञान का दावा करनेवाली पोथियों को पढ़-पढ़कर मर गए। 

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प्रेम क्या होता है? क्या हो सकता है? कैसे हो सकता है? किससे हो सकता है? कब हो सकता है? कब तक हो सकता है? कबीर इसकी व्याख्या बहुत दूर तक ले जाते हैं। आदमी की आदमीयत का सारा जामा ही प्रेम का परिणाम है। जो अपने को ठीक से देख न सके और जल-थल-नभ-जंगल-सिवान-शहर-मचान हर कहीं अपनी हैसियत की नाप-जोख न कर ले, वह क्या प्रेम करेगा। क्या प्रेम पढ़ेगा और क्या ज्ञानी होगा? प्रेम कोई औरतबाज़ी थोड़े है। वह होता तो कबीर सबसे बड़े औरतबाज कृष्ण को दुनिया का महान प्रेमी कह डालते। लेकिन कहा क्या? ‘काम को कीरा’। इतना अतृप्त और विकृत कि बुढ़िया-ठेलिया-बहिन-बिटिया सबका कपडा लेकर पेड़ पर चढ़ जाता था और उन्हें मजबूर करता था कि बाहर आओ तब दूंगा। अगर कृष्ण प्रेमी होता तो काशीनाथ सिंह को अपना ‘उपसंहार’ रचते हुए यह दृश्य न बनाना पड़ता कि जिसमें दुर्वासा नामक सड़ियल बाभन रुक्मिणी को नंगी रथ में नाधकर हांकते हुए उस पर कोड़ा बरसाता। लेकिन काशीनाथ सिंह ने यह दृश्य बनाया और इस दृश्य में कृष्ण गूंगा है और अपनी पत्नी को कोड़ों से पिटता हुआ देखता है। ऐसा क्यों? क्योंकि कृष्ण प्रेमी नहीं बल्कि व्यभिचारी था। उसने स्त्रियों की इज्जत नहीं की और वास्तव में उसने ढाई आखर नहीं पढ़ा था। पढ़ा होता तो दुर्वासा जैसे सड़े बुड्ढे को बेरहमी से जमीन पर पटककर मार डालता। उसकी दाढ़ी नोंचकर फेंक देता और मुंह दबाकर दम निकाल देता। लेकिन कृष्ण चुप रहा क्योंकि उसने प्रेम का ढाई आखर नहीं पढ़ा। इसलिए उसने अपनी पत्नी की इज्जत नहीं बचाई। इसलिए वह कहता है कि सारी जातियों को उसने बनाया। इसलिए यह सबसे बड़ा सवाल है कि प्रेम वास्तव में है क्या? 

तो सुन लीजिये! यह जो कबीर बार-बार पूछते हैं कि भाई तुम कहां से और किस रास्ते से आये? यही है प्रेम का ढाई आखर। क्योंकि वह बताता है कि सबका रास्ता एक है और इस आने-जाने के आधार पर कोई किसी से कम नहीं है। दुनिया में जितने भी प्राणी हैं सभी के मां-बाप होते हैं।  इस सच की पहचान और इसपर कठोर विश्वास प्रेम है। ऐसा ही आदमी तो कायदे से सूरज को देख सकेगा और चांद को निहार सकेगा। नदियों का बहाव और उनकी अथाह जलराशि का सुख तो वही ले पाएगा। पहाड़ों का सौंदर्य और जंगलों की सघनता का आनंद तो वही ले पाएगा। खेत को जोत सकेगा। दूध दूह सकेगा, कपडे़ बुन सकेगा। वही तो प्रकृति से प्यार करेगा और मनुष्य को इज्जत देगा। जिसने प्रकृति और सूरज-चाँद-सितारों को लेकर मुसलसल झूठ बोला वह क्या ढाई आखर पढ़ेगा और क्या ज्ञानी होगा। इसलिए पिछड़ों को ढाई आखर की और जाना चाहिए। फालतू पोथियों की तरफ बिलकुल नहीं। 

जब पिछड़ों के सबसे बड़े हितैषी कबीर कहते हैं कि प्रेम का ढाई आखर पढो तो इस बात पर तवज्जो देना चाहिए क्योंकि ऐसा आदमी उनको दूसरा कहां मिलने जा रहा है जो इतना साफ़-साफ़ कह रहा हो। जो उनका सबसे बड़ा हितैषी है। जो उनसे सदियों से कह रहा है कि भाई ढाई आखर पढ़ो तभी अपने को जान पाओगे कि तुम इस संसार के अनमोल रत्न हो। अगर किसी के कहने से तुम नीच बन गए या अपने सोचने से तुम ऊंचे बन गए तब तो यह जन्म अकारथ गया। इसलिए अपने को जानो और जो अपने को जान गया वही सबसे बड़ा पंडित है। बाकी तो पोथी पढ़-पढ़कर मर जाने वाले गदहे हैं। इसीलिए तो कबीर इसकी व्याख्या में यह भी कहते हैं कि ‘मन न रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा’। और इसीलिए बरजते हैं कि ‘हरना समझबूझ बन चरना’। यह नहीं कि गाफिल होकर तुम घास चरो और कोई आकर तुमको चर जाय। इसमें क्या गज़ब कि तुम अपने अधिकार के बारे में नहीं जान पाए और हाशिये पर ठेल दिए गए। इस संसार में तुम्हें इतना भी नहीं मिला और तुम भूख से बिलबिलाकर वन में गाफ़िल होकर घास चरने लगो और तुम्हारे जीवन का नुक्सान हो जाय। तो कबीर ही पिछड़ों के बहुत बड़े हितैषी हैं जो कह रहे हैं कि जब अपने को जान लोगे कि तुम किसी के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक उपनिवेश नहीं हो, बल्कि दुनिया के सबसे अनमोल रत्न हो, तब तुम्हें कोई बेवकूफ नहीं बना सकता। तब तुम सबसे बड़े ज्ञानी बन जाओगे। तब तुम्हारा मन इंसानियत के रंग से रंग जाएगा। तब तुम्हें कपड़ा रंगाने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी। तब तुम्हारे लिए काली टोपी, लाल रुमाल, दाढ़ी और खतना, कच्छा-कंघा और हेन-तेन की कोई जरूरत ही नहीं रहेगी। और जब इतना हो जाएगा तो कोई तुमको वैचारिक रूप से गदहा नहीं बना पाएगा। क्योंकि तब तुम अज्ञानी नहीं रह पाओगे, क्योंकि तुमने प्रेम का ढाई आखर पढ़ लिया है। 

और अगर प्रेम का ढाई आखर पढ़ लिया तो पिछड़े अपना साहित्य भी खोज लेंगे। और वह साहित्य ऐसा-वैसा नहीं होगा बल्कि वह निर्णायक साहित्य होगा। उस साहित्य में इतनी प्रेरणा होगी कि वे अपनी उस दुनिया को वापस ले लेंगे, जिसे बनाया तो उन्होंने, लेकिन मज़ा दूसरे लोग ले रहे। उसमें इतना उत्साह होगा कि पिछड़ों की कमजोर हड्डियां बज्र की तरह सख्त हो जाएंगी और वे अपने शत्रुओं को हथेलियों में उठाकर मसल देंगे। अभी तक पिछड़ों का साबका कबीर से नहीं पड़ा था। वे यहां-वहां भटक रहे थे। युद्ध में हिस्सा लिया। बुद्ध के यहां गए लेकिन किसी ने प्रेम का ढाई आखर पढ़ने की प्रेरणा नहीं दी और वे भटकते रहे। 

इस बात पर देर तक गौर किया जा सकता है कि इस देश में पिछड़ों की दीन-हीन दशा बुद्ध के इतने विस्तार के बावजूद क्यों बनी रही। बुद्ध तो धम्म वाले हैं, लेकिन पिछड़े अधम्म वाले ही रह गए। क्यों? धम्म के स्तूप जितने ऊंचे हैं, अधम्म की खाई उतनी ही गहरी और डरावनी है। और खाई में पड़ी हुई जमातों का फायदा कोई भी उठा सकता है। वही हुआ है। जहां पिछड़ों की समृद्धि का राजमार्ग बनना तो वहां विपत्ति में सिर्फ राममंदिर बनाया जा रहा है। बुद्ध के लोग भी वहां अपने निशान खोज रहे हैं लेकिन कब्जे की हिम्मत नहीं है, क्योंकि पिछड़ों का साथ नहीं है। क्योंकि बुद्ध और बुद्ध के लोग पिछड़ों में नहीं गए। वे तियां-पांचा (त्रिशरण-पंचशील) ही करते रहे। लेकिन कबीर मन-वचन-कर्म से पिछड़ों में गए। कबीर ढरकी-नरी के साथ गए और ताना-बाना बिठाने लगे। पिछड़े हरवाहे-चरवाहे थे इसलिए पटरी बैठने की ज्यादा सम्भावना थी। पिछड़ों ने कबीर को अपने ही जैसा पाया लेकिन जब उनके और कबीर के बीच मठ-महंत आये तो सिलसिला कमजोर पड़ता गया। पिछड़े बरगला लिए गए हैं और उनकी गुलामी को मजबूत करने वाले बेफिक्र हैं। 

फिर भी पिछड़ों में एक चीज है जो उनकी चेतना को बड़ा बनाते देर नहीं लगाएगी। वह है उनकी बेचैनी। उन्हें अपनी बेचैनी की कीमत समझनी पड़ेगी और अब तक जिन बातों को उनसे जोड़ दिया जाता रहा है उनसे भी ज्यादा यात्रा करनी पड़ेगी। वे इस बात से कतई न घबराएं कि उनके पास अपने साहित्य के बहुत निशान और सबूत नहीं है। ठेंगे से नहीं है। जब निगाह साफ़ होगी तो सबकुछ खोज लिया जाएगा। क्योंकि कोई शायर कहता है कि –

‘जो चुप रहेगी ज़बान-ए-खंज़र / लहू पुकारेगा आस्तीं का!’ कोई न बोलेगा न बोले, दाग-धब्बा बोलेगा।  पेड़ बोलेंगे, पहाड़ बोलेंगे, नदियां बोलेंगी, समुन्दर बोलेंगे, जंगल बोलेंगे, घाटियां बोलेंगी। पिछड़े अपने पूर्वजों का आह्वान करेंगे तो वे भी बोलेंगे और आ-आकर अपने-अपने दौर का सारा साहित्य लिखवा जाएंगे। और वह दिन दूर नहीं होगा कि एक दिन हमारी रगों का लहू भी बोलेगा। बहुत मामूली घटनाओं से दुनिया की बहुत महान रचनाओं का जन्म हुआ है। कहीं किसी नायिका का रुमाल भर गिर जाता है और पूरी की पूरी कायनात पलट जाती है। कहीं किसी शिशु की आंख भी नहीं खुलती और वह अनाथ हो जाता है और जब उसका जीवन बढ़ता है तो एक विराट सभ्यता आकार लेती दिखती है। दुनिया में हजारों उदाहरण हैं। इसलिए जब पिछड़े अपना साहित्य खोजेंगे तो भारत का सबसे महान साहित्य बनेगा। और यह मुर्दा विमर्शों का साहित्य नहीं होगा बल्कि इंसानियत की आज़ादी का दस्तावेज़ होगा। ग़ालिब जिस आदमी को इंसानियत का भी मयस्सर होना मुश्किल देखते थे, वह अप्राप्य नहीं रह जाएगी। 

शर्त बस एक ही है कि पिछड़े सबसे पहले अपने सिर पर से मुख्यधारा के गोबर का टोकरा उतार फेंकें!

तत्पश्चात 

मुझे बहुत सी चीजें विचलित करती हैं। हाल में जब पिछड़ों के साहित्य की सोच आगे बढ़ी तो रेशमा-चौहरमल की कहानी ने विचलित करना शुरू किया। इस कहानी का स्रोत कथाकार-इतिहासकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा द्वारा सम्पादित ‘लोकरंग–2’ है। इस कहानी को अश्विनी कुमार आलोक ने दर्ज किया है। वे लिखते हैं – ‘बिहार की लोकगाथाओं में ‘रेशमा’ अत्यंत प्रसिद्ध है। यह प्राचीन जनपद मगध और अंग की सीमा पर अवस्थित ‘मगध’ से सम्बंधित है। मगध की लोकभाषा मगही है। परन्तु आश्चर्य है कि इस लोकगाथा को मगही की लोकगाथा न कहेंगे। वस्तुतः जिस क्षेत्र से इस लोकगाथा का उद्भव माना जाता है, वह भूमिहार बहुल क्षेत्र है। रेशमा भूमिहार जाति से थी। स्थानीय लोग रेशमा की चर्चा तक वर्जित मानते हैं। एक दूसरी मान्यता यहां यह भी है कि इस गाथा के गायन से गांव की बेटियां सम्मोहित हो जाती हैं और उनके चरित्र-स्खलन की आशंका रहती है। दूसरी ओर, इसी गाथा के नायक चौहरमल को दुसाध जाति द्वारा देवत्व प्राप्त है। उनका जन्मोत्सव राजनीतिक रूप से मनाया जाता है। कुछ बड़ी पार्टियों के वैसे लोग जो दुसाध जाति से आते हैं, इस जन्मोत्सव में भाग लेते हैं और इसका राजनीतिक लाभ लेने का भरपूर प्रयास करते हैं।‘ 

जैसा कि आपने पढ़ा कि जहां की यह कहानी है, वहां की भाषा में नहीं कही या गाई जाती है क्योंकि नायिका भूमिहार और नायक दुसाध जाति का है। जाति व्यवस्था में भूमिहार उच्चतम सोपान पर है और दुसाध की हैसियत निम्नतर है। ऐसे में कौन खतरा मोल लेगा। इसलिए लोकगाथा गायकों ने इसे दूसरी भाषा में कहा जो उस इलाके में नहीं बोली जाती। वस्तुतः यह जाति-वर्चस्व में एक प्रेम कहानी का प्रक्षेप है। उच्चता के हित में प्रेम की बलि चढ़ा दी गई है। कायदे से तो यह सामाजिक संघर्ष की एक महान गाथा होनी चाहिए थी लेकिन इसकी विडम्बना यह है उत्पीड़ित दुसाध जाति के अभिजनों के लिए यह गाथा और इसका नायक वोट की राजनीति का एक महत्वपूर्ण घटक बन गई है। मैं इसे ही लेकर विचलित हूं। क्या इसे पिछड़ों के साहित्य के विरुपीकरण के रूप में देखा जाना चाहिए?

मुख्य बात यह है कि रेशमा और चौहरमल दोनों को जलाकर ही मारा गया था और उनसे नफरत का आलम यह था कि जिस इलाके में वे जलाकर मारे गए वहां बोली जानेवाली भाषा में उनका ज़िक्र तक नहीं है। इस प्रकार केवल जीवन ही नहीं मिटाया गया बल्कि किम्वदंतियां भी जन्म न ले सकें, इसके लिए भाषा को भी प्रतिबंधित कर दिया गया। अब आप सोचिए कि अपना मुंह बचाने के लिए लोकगायकों ने उनको पूर्व जन्म का ब्राह्मण और रिश्ते में पति-पत्नी बता दिया। इसमें क्या शक कि इसे ब्राह्मणों और भूमिहारों ने ही प्रचलित किया हो। लेकिन सवाल तो यह है कि वे लोग तो ईश्वर और जन्म-पुनर्जन्म, स्वर्ग नरक में विश्वास करते हैं फिर उनको पति-पत्नी को मिलने देने में क्या परेशानी थी? यह तो ईश्वरीय विधान के एकदम खिलाफ बात है। तो फिर आखिर भूमिहार मानते किसको हैं? और एक छोटा सा सवाल यह भी है क्या नायिका पिछड़ी होती और नायक अगड़ा होता तो यही कहानी होती? भले ही नायिका को अंत में कौआहंकनी बनना पड़ता लेकिन तब यह कहानी प्रेम से ज्यादा ‘भूमिहारी पौरुष’ की महागाथा बनाकर पेश की गई होती। लेकिन नायक चूंकि पिछड़ा था, इसलिए उसे न केवल जलाकर मारा गया, बल्कि उसकी स्मृतियों को भी देश-निकाला दे दिया गया। प्रेम कहानी को विकृत कर दिया गया। 

और दुसाधों ने क्या किया? अन्याय के शिकार अपने एक बहादुर पूर्वज को वोट की राजनीति का माध्यम बना डाला। न जाने कितने ऐसे नायक होंगे जिनकी स्मृतियां तक विध्वंस का शिकार हो गई होंगी। क्योंकि ग़ालिब कहते हैं कि – सब कहां कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं/ ख़ाक में वो सूरतें होंगी जो पिन्हाँ हो गईं!’ 

तो अपने पूर्वजों तक जाओ पिछड़ों! लोक में तुम्हारी कहानियां बिखरी पड़ी हैं। लोक में तुम्हारे साथ हुए अन्याय के सबूत मिलेंगे और लोक में ही तुम्हारे नायक भी तुम्हारी तरह भटक रहे हैं!

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

रामजी यादव

रामजी यादव एक राजनितिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न संगठनों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कानपुर के मिल मज़दूरों और रेलवे कर्मचारियों को संगठित करने में भी भूमिका निभाई। उन्होंने 100 से अधिक वृत्तचित्रों का निर्माण और निर्देशन भी किया है। उनके प्रमुख वृत्तचित्र हैं 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'एक औरत की अपनी कसम', 'यादें', 'समय की शिला पर', 'कालनदी को पार करते हुए', 'विकल्प की खोज', 'वह समाज जो जनता का है', 'जलसत्ता', 'द कास्ट मैटर्स', और 'इस शहर में एक नदी थी' आदि। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'अम्बेडकर होटल', 'खेलने के दिन', 'भारतीय लोकतंत्र' और 'दलित सवाल', 'भारतेंदु', 'ज्योतिबा फुले', 'गिजुभाई', 'रामचंद्र शुक्ल', 'आंबेडकर संचयन'। इन दिनों वे ‘गांव के लोग’ त्रैमासिक का संपादक कर रहे हैं।

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