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बहस तलब : कपट साहित्य बनाम बहुजन साहित्य

आरएसएस ने किसी ब्राह्मण जाति का इतिहास नहीं लिखा क्योंकि इससे उसका एजेंडा कमजोर होगा, जबकि खटीक, राजभर, कुर्मी, कोयरी आदि जातियों का इतिहास बाकायदा लिखवाया ताकि इन सबके बीच जातीय अंतर्विरोध, वैमनस्य और आपसी संघर्ष पैदा हो और वे ताकत प्राप्त करने के लिए आरएसएस के खेमे में जायें। रामजी यादव का विश्लेषण

आप दुनिया के ऐसे कितने सामाजिक समूहों के बारे में जानते हैं जिसने दूसरे सामाजिक समूहों से अपनी दूरी, सुरक्षा और विशेषाधिकार को प्रचारित करने के लिए मिथकीय नीति-मूल्यों का सहारा लिया है? शायद यूरोपीय मान्यता ही आपके पल्ले पड़े कि सिर्फ नीले रक्तवाले शासन करने के अधिकारी हैं। वे धरती पर ईश्वर के प्रतिनिधि हैं और उन्हें आनुवंशिक रूप से राजा होने का अधिकार है। हो सकता है थोड़ा और आगे बढ़कर आप अमेरिकी नस्लवाद की अवधारणाओं तक जा पहुंचें जो गोरों की श्रेष्ठता को महत्व देती है। यह अवधारणा गोरों के हाथों में सम्पूर्ण अधिकार देती है। थोड़ा और दूर चलें तो जर्मनी के नस्लवाद को जबड़ा खोले हुए पायेंगें और यहूदी उसके सबसे ज्यादा शिकार हुए लेकिन संभवतः आपको पूरी दुनिया में ब्राह्मण वर्ग जैसा शातिर, निकृष्ट और खूंख़ार कोई सामाजिक समूह नहीं मिलेगा जो नस्लीय रूप से अलग न होने के बावजूद अपने समानान्तर मानव समूहों को नियंत्रित, कमजोर और दरिद्र बनाने के लिए न केवल मिथकीय कथाएं गढ़ता और फैलाता रहा है बल्कि उसे अधिक समय तक सुरक्षित करने के लिए किताबें भी लिखता है। उसको रूढ़ बनाने के लिए हर जगह अपने विचार घुसेडता है और आज ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां उसके निशान न मिलते हों। 

इसकी शिनाख्त बहुत जरूरी है। तभी पता चल पाएगा कि किसी जमाने में गुलामों के बल पर बने यूनान और रोम साम्राज्य के गुंबदों को स्पार्टाकस द्वारा शुरू किए गए विद्रोहों और आजादी पाने की परंपरा को मजबूत बनाते हुए गुलामों ने अंततः उसे उखाड़कर फेंक दिया। उन्होंने अपने खून-पसीने से बनाए हुए साम्राज्य के घमंड को एक दिन हमेशा के लिए ज़मींदोज़ कर दिया। तभी आप समझ पाएंगे कि रुई, गुलामों और घमंड के बलबूते अमेरिका के कालों की खरीद-फरोख्त करनेवाले सारी संपदाओं पर कब्जा जमाए कुलीनों को कैसे मिट्टी में मिला दिया गया। इस बात की शिनाख्त करेंगे तभी पता चलेगा कि एक समय दुनिया को हिला देने का दावा करने वाले हिटलर को कैसे एक दिन जर्मनी की स्मृतियों से धो पोंछ दिया गया। इस कदर कि आप जर्मनी की मेहमानी करें और हिटलर की तारीफ कर दें तो साधारण जर्मन आपको बर्बर समझने लगेंगे। दुनिया में बहुत सारे बदलाव हुए लेकिन भारत में ब्राह्मणवाद खत्म होने की बजाय लगातार मजबूत होता गया है। आखिर उसकी जड़ें कितनी गहरी हैं और कहां तक फैली हुई हैं? क्या वह लोगों के मन तक पहुंची हुई हैं? जो लोग सदियों से उसके शिकार रहे हैं क्या वह उनके भीतर जकड़बंदी किए हुये है? लोग दावा करते हैं कि वे ब्राह्मणवाद से दूर हो चुके हैं लेकिन किसी न किसी क्रियाकलाप में उनके भीतर से ब्राह्मणवाद ऐसे उभर आता है जैसे सड़े हुए पानी में काई उभर आती है। यह जीवन के हर मोड़ पर नजर आता है। स्त्रियों के प्रति दुराग्रही नजरिया भी साफ-साफ देखा जा सकता है। ब्राहमणवाद प्रेत की तरह घूमता है और मौका मिलते ही वह नंगा होकर नाचता है। 

पूरी दुनिया में ब्राह्मण वर्ग के अतिरिक्त ऐसा कोई सामाजिक समूह नहीं है जो अपनी शुद्धता और विशिष्टता का ऐसा दावा करता हो और अपनी सुरक्षा के लिए सारे समाज को पंगु बनाता हो। सारे संसार में ऐसा कोई सामाजिक समूह नहीं है जो सारी भौतिक संपदाओं पर अपने और अपने आकाओं के अधिकार के अलावा सबको अधिकारहीन बनाता हो। वह जिनके श्रम पर पलता है उन्हें सर्वाधिक वंचित, अशिक्षित, असंगठित और बहिष्कृत करता है। वह इतने पर ही नहीं रुकता, बल्कि क्रूरतापूर्वक उनके ऊपर निषेधों का बोझ लाद देता है और प्रतिरोध करने पर उनका अंग-भंग करने पर उतारू हो जाता है। ऐसा क्या है कि वह हमेशा ताकतवर स्थिति में रहा है? भौतिक संपदाओं को छीनने और विजयों की लाखों कहानियों के हिंस्र और हत्यारे नायकों के बारे में हमने बहुत पढ़ा है, लेकिन ब्राह्मणों जैसे शातिर, रक्तपिपासु और धोखेबाज नायक इतिहास में कहीं और नहीं मिलेंगे। मजे की बात तो यह है कि वह हर गांव में बसता है। एक जैसी ही भाषा बोलता है। रंगरूप में भी अधिक भिन्नता नहीं होती फिर भी वह अपनी विशिष्टता को बनाए रखता है। कोई चाहे या न चाहे लेकिन वह इसे जाहिर किए बगैर नहीं मानेगा। यह एक जगह की बात नहीं है लेकिन सारे देश की कहानियां एक साथ जोड़ दीजिये तब समझ में आएगा कि वास्तविक तस्वीर क्या बन रही है? निरीहता और गरीबी का वास्तविक समुच्चय कितने खतरनाक ढंग से एक लोकताँत्रिक देश में भी अपने विशेषाधिकारों को बचाए रखने का षड्यंत्र करता है और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए बेईमानी और शैतानीयत की सारी हदें पार कर देता है।

सबसे पहले हमें यह जान लेना चाहिए कि ब्राह्मण सामाजिक रूप से जातियों का एक समुच्चय है और अपने सामाजिक विभाजन में वह वर्णव्यवस्था का एक हिस्सा है। लेकिन जातियों के इस समुच्चय का कोई भी सदस्य अपनी जाति ब्राह्मण बताता है। वह मिश्रा, तिवारी, शांडिल्य, शर्मा या वाजपेयी आदि जाति नहीं बताता। वह समूचा वर्ण ही बता देता है। इसके पीछे दो कारण प्रतीत होते हैं। वर्ण ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का आधार है और उनकी अटूट एकता का भी, लेकिन जाति उन्हें अकेला और अश्रेष्ठ बनाती है क्योंकि ब्राह्मण वर्ण की छतरी के नीचे सुरक्षित जातियों के बीच ऊंच-नीच की वैसी ही स्थिति है जैसे अन्य वर्णों के लोगों में। 

डॉ. अंबेडकर ने अपने प्रसिद्ध लेख ‘जातिप्रथा का अभिशाप’ में इनकी दो शाखाओं का ज़िक्र किया है – द्रविड़ और गौड़। दोनों में क्रमशः 234 और 997 जातियों का हवाला दिया गया है। इस प्रकार ब्राह्मणों की कुल 1234 जातियां होती हैं, जिनमें गौड़ शाखा की 86 उच्च और शेष 911 जातियां निम्न हैं। दी गई सूची के अनुसार मिश्रा, दुबे, द्विवेदी, त्रिवेदी, पांडे, त्रिपाठी, उपाध्याय, शुक्ल आदि सैकड़ों निम्न ब्राह्मण जातियां हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. रामशरण शर्मा ने ब्राह्मण वर्ण में 2000 जातियों का उल्लेख किया है। (प्रारम्भिक भारत का आर्थिक और सामाजिक इतिहास, रामशरण शर्मा, 1992) 

लेकिन इतनी जातियों के विभाजन के बावजूद उस जाति का व्यक्ति अपनी वास्तविक जाति नहीं बल्कि अपना वर्ण बताता है। यह उसके सामाजिक हितों की एकता को दर्शाता है। वह कभी नहीं कहता कि दुबे को कुछ दान दो। वह कहता है कि ब्राह्मण को दान दो। यही सब उसके साहित्य में भी है जो निरंतर चलता रहता है। गोसाईं जैसी निकृष्ट और बहिष्कृत जाति में पैदा होने और बचपन से ही लोगों द्वारा दुरदुराए जाने के बावजूद तुलसीदास ने अपनी प्रतिबद्धता ब्राह्मण वर्ण में जाहिर किया – पूजिए बिप्र शील गुण हीना । शूद्र न गनि गुण ज्ञान प्रवीना ॥ कहने का मतलब ब्राह्मणों में जितनी भी जातीय रस्साकशी और अंतर्विरोध हो, लेकिन वे अपनी पहचान और एकता जाति नहीं बल्कि वर्ण के रूप में व्यक्त करते हैं। 

उसने सत्ता के साथ अपने अधिकारों और विशेषाधिकारों को सुरक्षित रखने के समझौते किए और अपनी श्रेष्ठता को दैवीय बनाने का उपक्रम किया। मनुस्मृति  का रचयिता जातिवाद का आदि प्रवर्तक मनु को माना जाता है, लेकिन इसका सबसे बड़ा लाभार्थी ब्राह्मण है।मनुस्मृति में वह अपनी श्रेष्ठता इस प्रकार दिखाता है – 

उत्तमांगोद्भवाज्ज्यैष्ठ्याद ब्रह्मणश्चैव धारणात।
सर्वस्यैवास्य सर्गस्य धर्मतों ब्राह्मण: प्रभु: ॥ 1-63॥ 

मतलब यह कि वह उत्तम अंग से उत्पन्न हुआ और वेद को धारण करता है, इसलिए सम्पूर्ण संसार का स्वामी वही है। 

एक अन्य जगह उसकी महत्ता इस प्रकार दी गई है – 

अविद्वान्श्चैव विद्वान्श्च ब्राह्मणो दैवतं महत ।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाग्नि दैवतं महत ॥ 9-317॥ 

अर्थात जिस प्रकार वैदिक और अवैदिक रीति से जलाई गई अग्नि महान देवता है, उसी प्रकार ब्राह्मण चाहे ज्ञानी हो या मूर्ख हो, वह हमेशा महान होता है। 

वह राजा के क्रोध से भी स्वयं को सुरक्षित रखने का उपाय करता है – 

परामप्या प्राप्तो ब्राह्मणान्न प्रकोपयेत ।
ते ह्योनं कुपिता हन्यु: सद्य: सबलवाहनम ॥ 6-313॥ 

आशय यह कि विपत्ति का समय आने पर भी राजा ब्राह्मण पर गुस्सा न हो। वरना ब्राह्मण गुस्से में आ जाएगा। सेना और रथ सहित राजा का नाश कर देगा। ये मंत्र मामूली नहीं हैं, न मर गए हैं। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार से आहत-क्रोधित ब्राह्मणों को मनाने के लिए अखिलेश यादव उनके पीछे-पीछे लगे हुए हैं। मानों उन्हें अमरफल सामने दिख रहा हो और उम्मीद है कि यह कभी तो पककर गिरेगा। 

श्लोकों की कमी नहीं है। सभी को उद्धरित किया जाय तो पोथियां तैयार हो जाएंगी लेकिन कबीर साहब ने कहा है कि लोग पढ़ते-पढ़ते मर जाएंगे, लेकिन समझ नहीं पाएंगे। इसलिए कम लिखे को भी बहुत समझना चाहिए और इस बात पर एकाग्र होना चाहिए कि ब्राह्मणों ने एक वर्ण के रूप में अपनी महत्ता को प्रचारित किया और उत्पादक सामाजिक समूहों को जाति के रूप में अपमानित किया। यानि अपने को उसने कई हज़ार जातियों के समुच्चय के रूप में ताकतवर बनाया और पूरे वर्ण की सामूहिक एकता को मजबूत किया लेकिन अपने शत्रुओं को वर्ण में नहीं जाति में विभाजित करके अत्यधिक कमजोर कर दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने ब्राह्मणों की किसी जाति का इतिहास नहीं लिखा, क्योंकि इससे उसका एजेंडा कमजोर होगा, जबकि खटीक, राजभर, कुर्मी, कोयरी आदि जातियों का इतिहास बाकायदा लिखवाया ताकि इन सबके बीच जातीय अंतर्विरोध, वैमनस्य और आपसी संघर्ष पैदा हो और वे ताकत प्राप्त करने के लिए आरएसएस के खेमे में जायें।

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अगर देखा जाय तो जैसे कहा गया है कि ‘काटे चाटे श्वान ते’ नुकसान ही होता है, ठीक उसी तरह ब्राह्मण निंदा करे तो अपमान होता है लेकिन जब तारीफ करे तो सर्वाधिक नुकसान होता है। ऐसे में जो साहित्य पैदा होगा वह कब तक जीवित रहेगा? निश्चित रूप से वह हमारा सही साहित्य नहीं होगा। 

ब्राह्मणों ने दुनिया की उत्पत्ति का ही गलत सिद्धांत नहीं गढ़ा बल्कि खुद अपनी उत्पत्ति का भी गलत और अप्राकृतिक और अवास्तविक सिद्धान्त गढ़ा। उस सिद्धान्त से उन्होंने स्त्रियों की मर्यादा को नुकसान पहुंचाया। लेकिन उनकी बेइमानियां और भी बड़ी हैं। उन्होंने सिद्धान्त बनाया कि उनके पिता ने मां की भूमिका निभाई और चार बच्चे पैदा किए। इस प्रकार वे चारों सन्तानें आपस में भाई हुईं लेकिन ब्राह्मण ने अपने भाइयों के खिलाफ षड्यंत्र किया। अपने भाइयों के प्रति वे कितने क्रूर रहे हैं उसे इस बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने मनुस्मृति में नियम लिखा कि अगर उनके किसी छोटे भाई के कान में वेद आदि मंत्र पड़ जाएं तो उनके कानों में सीसा पिघलाकर डाल दिया जाय। अपने भाइयों को फटे-पुराने चिथड़े वस्त्र पहने और जूठन खाने को उन्होंने मजबूर किया। यहां तक कि उनकी स्त्रियों पर भी बुरी नज़र डाली। डॉ. धर्मवीर तो कहते हैं कि “ब्राह्मणों ने पूरी की पूरी जारसत्ता ही चला दी। अपने ही भाइयों के प्रति ब्राह्मणों का अपराध अक्षम्य है और वह सदियों से होता आ रहा है। अब समय आ गया है कि वंचित भाई एकजुट होकर अपने शोषक और अपराधी भाइयों की श्रेष्ठता की सारी पोथियों को आग के हवाले करें और एक निर्णायक लड़ाई लड़कर उनसे अपना अधिकार छीन लें। ब्राह्मणों ने अपने बाकी दो भाइयों का भी अपने वंचित भाइयों के खिलाफ इस्तेमाल किया है और ये दोनों भाई भी वंचित भाइयों के अपराधी हैं। अगर वर्णव्यवस्था अस्तित्व में है तो संघर्ष का यही रास्ता है।” 

मेरे बचपन में दिवाली के दिन हमारे घर में हिन्दू देवी-देवताओं की पुरानी तस्वीरें उतारकर नयी तस्वीरें टाँगी जाती थीं। उस दिन हम बच्चों का उत्साह निराला ही होता था। तमाम सारी गतिविधियां होती थीं (पढ़ने की आदत की निरंतरता के लिए दिवाली की रात बोरा बिछाकर सारी किताबों के ज़ोर-ज़ोर से पढ़ने की परंपरा थी)। इसी क्रम में घर के बड़े-बुजुर्ग कई कहानिया सुनाते थे जो टंगी हुई तस्वीरों से संबंधित होती थीं। उन तस्वीरों में एक तस्वीर वैतरणी और नरक की होती थी। वैतरणी नदी जहरीले सांपों और खतरनाक मगरमच्छों से भरी होती। इस गहरी और जानलेवा नदी को पार करना साधारण बात नहीं थी। गाय की पूंछ पकड़कर पार करना होता था। इसी तरह नरक में कोई कोल्हू में पेरा जाता तो किसी को आरे से चीरा जाता। कोई खौलते तेल के कड़ाहे में डाला जाता तो किसी को भाले की नोंक पर टांगा जाता। हमारे बालमन पर इसका डरावना असर होता था। आज मुझे लगता है कि ब्राह्मणों के इतिहास की छानबीन की जाय तो यह समझ में आ जाएगा कि मनुष्यों को यातना देने के ये तौर-तरीके उसके अपने थे। नरक में हिंसा करनेवाले चरित्र का प्रतिबिंब स्वयं ब्राह्मण ही है। वह उन सभी लोगों को पूरी तरह तहस-नहस कर देना चाहता है जो उसे चुनौती देते हैं। नरक के दृश्य दरअसल साधारण जनता को उसकी चेतावनी है। वह लोगों को सांस्कृतिक रूप से भयभीत किए रखना चाहता है ताकि कोई उसकी सत्ता को नकारने की हिम्मत न कर सके। यह काम वह लगातार करता रहता है। 

जिस देश में वंचनाओं को मंत्रों में लिखा गया हो उस देश में ‘प्रीत की रीत’ कैसे हो सकती है? जिस देश में सामाजिक विभाजन के लिए तीन वर्णों की जातियों के समुच्चय रात दिन लगे हों वहाँ इंसानियत सभ्यता की किस सीढ़ी पर मौजूद होगी। वहां का साहित्य कितना गिरा हुआ होगा? इसको किस रूप में देखा जाए? वास्तविकता यह है कि उसके साहित्य ने लगातार लोगों को भरमाया और धोखा दिया है। बक़ौल डॉ. धर्मवीर वह [ब्राह्मण] किराये का लेखक है और पेशेवर तरीके से वह सबका दुखदर्द गाता है। वह किराये की रुदाली है। लेकिन उसका आशय और उद्देश्य स्पष्ट है – वर मरे चाहे कन्या दक्षिणा से काम। और इसमें वह सफल है। अगर पोंगापंथ, पुरोहिती और ज्योतिष उसका पेशा है तो प्रगतिशीलता और जनवाद भी उसका पेशा ही है। जिस पेशे में कोई उत्पादकता नहीं होगी वह वही पेशा चुनता है। उत्पादन और श्रम से उसका दूर-दूर तक नाता नहीं है। लेकिन इस बात पर बहुत शिद्दत से ध्यान देना चाहिए कि वह देश के वृहत्तर हिस्से में फैली हुई जातियों का एक समुच्चय है और एक वर्ण के रूप में अपने हितों की एकता बनाए रखता है। 

अपने गुरू वशिष्ठ के कहने पर तपस्या में लीन शंबूक का सिर तलवार से अलग करते राम की तस्वीर

ब्राह्मण हमेशा दो-तरफा काम करता है। एक ही समय में वह अपनी महत्ता को स्थापित करने की कोशिश करता है और साथ ही अपने शत्रुओं की निकृष्टता और पराजय को प्रचारित करता चलता है। ब्राह्मणवादी साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह प्रतिरोध की नहीं, विजय की लड़ाइयां लड़ता है। क्योंकि उसके खिलाफ कोई लड़ ही नहीं रहा है। उसने तो अपने आपको सांस्कृतिक रूप से सुरक्षित कर लिया है। जब वह यह कहता है कि दस साल का ब्राह्मण सौ साल के क्षत्रिय का पिता है – ब्राह्मणम दशवर्ष तु शत वर्षतु भूमिपम पिता-पुत्रै विजानीयाद ब्राह्मण स्तु तर्यो: पिता ॥2-135॥ तो कौन लड़ेगा? इसलिए ब्राह्मण प्रतिरोध नहीं करता। वह किसी भी प्रकार से जीतता है। उसके फर्जी सिद्धांतों के अनुसार उसकी सहायता ऋषि-मुनि और देवता भी करते हैं और इस सहायता से वह जीत जाता है, लेकिन वह थमता नहीं। निरंतर दोहरे किस्से गढ़ता है। उसका नायक पारलौकिक शक्तियों के बल पर विजय हासिल करता है जबकि उसका शत्रु तमाम बहादुरी और हिकमतों के बावजूद हार जाता है। उसके शत्रु के मरते ही देवता फूल बरसाते हैं। वह अपने नायकों और शत्रुओं की लोमहर्षक कहानियां गढ़ता है। वह डंके की चोट पर अपने मूल्यों को प्रचारित करता है। उसके पास अपने देश के उत्पादकों और उनके नायकों को नेस्तनाबूद करने की हजारों कहानियां हैं, लेकिन हारे हुये बहुजनों के पास वैसी तेज-तर्रार कहानियों का सर्वथा अभाव है। उनके पास तकलीफ और रुलाई बहुत है, लेकिन ऐन अपने सामने मौजूद शत्रुओं के कपटयुद्ध की कहानियां हैं ही नहीं। उनके पास यथार्थ अधिक गझिन हैं, लेकिन उनके पास लेखक नहीं हैं। वैसे लेखक तो कतई नहीं हैं जो दोहरे स्तर पर मार करनेवाली कहानियां लिखें। उनके नायक ज्यादातर इस्तेमाल किए गए और आसानी से मार दिये गए नायक हैं। उनके प्रतिरोध पर कैनन फिक्स करने वाले विज़नरी अभी अपने काम पर नहीं लगे हैं। 

सदियों का इतिहास यह बताता है कि इस देश में इंसानी आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा अत्यंत छोटे हिस्से का आर्थिक उपनिवेश रहा है। और इस अवस्था में कोई भी परिवर्तन उस छोटे से हिस्से को गवारा नहीं रहा है। इसके उदाहरण लगातार मिलते रहे हैं। बीसवीं सदी के तीसरे दशक में बिहार में शुरू हुआ त्रिवेणी संघ आंदोलन पिछड़ों के सवर्ण बनने का संघर्ष थोड़े था। जो लोग यह समझते होंगे वे भारी भ्रम में होंगे। असल में यह आंदोलन बिहार की पिछड़ी जातियों का सवर्णों का और अधिक दिनों तक आर्थिक उपनिवेश बने रहने से इंकार करना था। पिछड़ों ने उस व्यवस्था को नकार दिया जिसमें वे जूठन खाकर उम्र भर सवर्णों की सेवा करते आ रहे थे। जनेऊ तो एक बहाना भर था। मैला आँचल के बालदेव यादव की ओर ध्यान दीजिये। वह त्रिवेणी के गुस्से का कई बार इसलिए शिकार बनता है, क्योंकि वह ग्वाला होकर भी भोलंटियर (वलांटियर) बना फिरता है। बबुआन टोला के लोग उसे घास-भूसा समझते हैं। बलचनमा को देखिये जिसका बाप लालचन्द यादव महज दो आम तोड़ने के अपराध में पेड़ से बांधकर मारा जाता है और उसका प्राण निकल जाते हैं। बालचंद उसी जमींदार के यहां जूठन खाकर भैंस चराता है। ऐसे बालदेव और बालचंद बिहार में कितने रहे होंगे? उन्होंने विद्रोह कर दिया कि अब नहीं। बहुत खटा। बहुत खिलाए। अब नहीं। और इस आंदोलन को ब्राह्मणों ने कैसे कुचला? और फिर आज तक उस आंदोलन को वे क्या कहते आ रहे हैं? वही जो उनकी रणनीति रही है। 

इन तमाम बातों के बीच में यह सवाल उठता है कि दुनिया के सबसे शातिर और खूंखार सामाजिक समूह से कैसे लड़ा जा सकता है। जाहिर है राजनीति में सही साहस के साथ अपने मुद्दे के साथ और साहित्य में अपनी लड़ाइयों के खलनायकों का सही चित्रण के साथ। क्योंकि खलनायक का चेहरा और उसकी ताकत जितनी स्पष्ट होगी नायक उतना ही सार्थक और सफल होगा। हर तरह के भ्रमों को तोड़ने के लिए जरूरी है अपने सौन्दर्यबोध को बेरहमी से बदला जाय। 

अल्लामा इकबाल ने फरमाया है कि ‘यूनान मिस्र ओ रोमा सब मिट गए जहां से / क्या बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।’ वे किसकी हस्ती की बात कर रहे हैं? क्या यूनान इस धरती से मिट गया? क्या रोम का अब पता नहीं है? क्या मिस्र हवा हो गया? जी नहीं। सब इसी धरती पर हैं और उन सबकी एक देश के रूप में हैसियत है? फिर क्या मिटा, जिसके बारे में इकबाल साहब कह रहे हैं? शायद वहां के गुलामों के मालिक मिट गए। रोम के जेसुइट मिट गए जो वहां के नागरिकों को स्वर्ग का पारपत्र बेचते थे। लेकिन वे कह रहे हैं कि हमारी हस्ती फिर भी नहीं मिट पाई। आखिर क्या बात है कि वह बनी हुई है। कार्ल मार्क्स ने इस हस्ती को जड़ करार दिया था। और अल्लामा इकबाल उस जड़ता को महान कह रहे हैं। मुगलिया सल्तनत ढह गई। अवध की नवाबी बस ठुमरी तक सिमट गई फिर वे किस हस्ती की बात कर रहे हैं? उस समय तो सारा देश ही संकट में था। अंग्रेजों के वफादार सिपाही विश्वयुद्ध में उनकी ओर से लड़ रहे थे। देश के किसान जमींदारों से लड़ रहे थे फिर कौन सी हस्ती थी?

मैं सच कहूं। मुझे सौ फीसदी लगता है कि यह ब्राह्मणवाद की हस्ती है। पक्का। आखिर अल्लामा की रगों में भी तो कश्मीरी पंडितों का ही खून था। मुझे इस तराने पर जरा भी गर्व नहीं है!

(संपादन : नवल / अमरीश)


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लेखक के बारे में

रामजी यादव

रामजी यादव एक राजनितिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न संगठनों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कानपुर के मिल मज़दूरों और रेलवे कर्मचारियों को संगठित करने में भी भूमिका निभाई। उन्होंने 100 से अधिक वृत्तचित्रों का निर्माण और निर्देशन भी किया है। उनके प्रमुख वृत्तचित्र हैं 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'एक औरत की अपनी कसम', 'यादें', 'समय की शिला पर', 'कालनदी को पार करते हुए', 'विकल्प की खोज', 'वह समाज जो जनता का है', 'जलसत्ता', 'द कास्ट मैटर्स', और 'इस शहर में एक नदी थी' आदि। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'अम्बेडकर होटल', 'खेलने के दिन', 'भारतीय लोकतंत्र' और 'दलित सवाल', 'भारतेंदु', 'ज्योतिबा फुले', 'गिजुभाई', 'रामचंद्र शुक्ल', 'आंबेडकर संचयन'। इन दिनों वे ‘गांव के लोग’ त्रैमासिक का संपादक कर रहे हैं।

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