अन्नाभाऊ साठे मराठी के शीर्षतम साहित्यकारों में से हैं। उनकी कृति ‘मेरी रूस यात्रा’ को दलित साहित्य का पहला यात्रा-वृतांत कहा जाता है। उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर, आठ अध्यायों में फैले इस यात्रा-वृतांत के तीसरे अध्याय ‘मास्को से लेनिनग्राद’ का हिंदी अनुवाद यहां प्रस्तुत है। इस अध्याय में अन्नाभाऊ साठे बता रहे हैं लेनिनग्राद के अनुभव। अन्नाभाऊ की सहज-सरल भाषा और किस्सागोई शैली पाठक को लगातार अपनी ओर खींचती है। अनुवाद के लिए मूल रचना ‘माझा रशियाचा प्रवास’ के अलावा डॉ. अश्विन रंजनीकर के अंग्रेजी अनुवाद, ‘माई जर्नी टू रशिया’ (न्यूवोइस पब्लिकेशन, औरंगाबाद) से भी मदद ली गई है
मास्को से लेनिनग्राद
- अन्नाभाऊ साठे
लेनिनग्राद में हमारी आगवानी के लिए तड़के सुबह अनेक संगठनों के लोग उपस्थित थे। हम कैमरा, लाइट और फूल-मालाएं लिए अखबार और टेलीविजन संवाददाताओं की भीड़ से घिरे हुए थे। मेरे स्वागत के लिए प्रोफेसर श्रीमती ततियाना अपने मराठी छात्रों के साथ खासतौर पर वहां पधारी थीं। वे किसी चिर-परिचित मित्र की तरह, बिना किसी संकोच के सीधे मेरे पास पहुंचीं। फिर मुझसे मराठी में धाराप्रवाह बातचीत करने लगीं। उस समय मुझे लगा कि मैं लेनिनग्राद में न होकर, मुंबई में ही होऊं। देखा जाय तो यह सही भी था। उनके नेतृत्व में ही मेरा उपन्यास ‘चित्रा’ रूसी भाषा में अनूदित हुआ था। वे मराठी में बात कर रही थीं। उनके छात्र नीना और साश्या भी संभल-संभलकर मराठी बोल रहे थे। जिस प्रकार खुद को बिसराकर चीटियां गुड़ से चिपकी रहती हैं, अपने आसपास के वातावरण का उन्हें होश तक नहीं रहता—वैसे ही मैं भी अपने मराठी भाषी रूसी मित्रों के साथ बातचीत में पूरी तरह तल्लीन था।
प्रोफेसर ततियाना धाराप्रवाह मराठी बोले जा रही थीं। मराठी बोलते समय एकाध शब्द पर वे अटक भी जाती थीं। तब वह यकायक गंभीर हो जातीं। फिर किंचित खिन्न होकर कहतीं—‘इसका क्या अभिप्राय है?’ भाषायी उलझन के समाधान हेतु वह अंग्रेजी या हिंदी की मदद नहीं लेती थीं। ठेठ मराठी की मदद से ही अपने असमंजस से उबर आतीं। उस क्षण उनका मन एकाएक हर्षित हो जाता। चेहरा आनंद से चमकने लगता था।
भारत से रवाना होते समय आचार्य अत्रे (प्रहलाद केशव अत्रे) ने मुझे एक पत्र दिया था। मैंने वह ततियाना को सौंप दिया। पत्र देखते ही प्रोफेसर ततियाना का आनंद दोगुना हो गया। वे तत्क्षण आचार्य के पत्र को पढ़ने लगीं। पत्र के अंत में ‘प्रणिपात’ शब्द को देखते ही उन्होंने आचार्य को सादर प्रणाम किया। फिर बोलीं—‘तुम्हारे आचार्य मेरे गुरु हैं!’ इन महाशया ने मराठी-रूसी शब्दकोश तैयार किया है। उसके फलस्वरूप, बहुत जल्दी रूस में अनेक लोग मराठी बोलने-समझने में सक्षम हो जाएंगे।
उसी दिन मैं लेनिनग्राद विश्वविद्यालय गया था। वहां मैंने मराठी भाषा में अध्ययनरत सभी विद्यार्थियों से चर्चा की। विश्वविद्यालय में मैंने आचार्य अत्रे के ‘चांगुणा’ (अच्छा, आमतौर पर यह शब्द भली स्त्री के लिए प्रयुक्त होता है); तथा ना. सी. फड़के (नारायण सीताराम फड़के) के ‘उद्याची बात’ (आने वाले कल की बात) उपन्यासों को एक ही मेज पर रखे हुए पाया। मराठी साहित्य की दो धुर-विरोधी धाराएं लेनिनग्राद शहर में एक ही मेज पर आ टिकी थीं। यह देखकर मुझे हंसी आ गई। मेरी हंसी के मर्म को वहां कोई नहीं समझ पाया। मैंने भी उसका स्पष्टीकरण देना जरूरी नहीं समझा।
लेनिनग्राद बहुत ही सुखद और शांत शहर है। वहां मास्को जैसी चहल-पहल नहीं थी। मगर नगर-रचना अत्यंत भव्य, चित्ताकर्षक एवं सुरुचिपूर्ण थी। वहां युवा लड़के-लड़कियों को पुस्तक पढ़ते हुए, उद्यान से सटे फुटपाथ पर टहलते देख, मुझे थोड़ी जलन होने लगी। लेनिनग्राद शहर से बहने वाली ‘नेवा’ नदी के किनारे टहलते समय, वहां मौजूद एक जहाज को देखकर मैं भाव-विभोर हो गया। मेरी नजर उसपर बार-बार जा टिकती थी। अक्टूबर क्रांति के बाद पहली बार उसी जहाज पर झंडा फहराया गया था।
तदनंतर हमने ऐतिहासिक विंटर पैलेस के दर्शन किए। मैडम ततियाना कातेनिना बराबर मेरे साथ थीं। वे मुझे वहां मौजूद वस्तुओं के बारे में मराठी में समझा रही थीं। मराठी पढ़ रहे उनके विद्यार्थी भी हमारे साथ चहलकदमी कर रहे थे। उनके सान्निध्य में मैं मराठी के आनंदसागर में गोते लगा रहा था।
विंटर पैलेस में हमने सबसे पहले सोवियत संघ की स्थापना के केंद्र, उस कमरे को देखा जहां गर्वनर अलेक्जेंडर केरेन्सकी को बंदी बनाकर रखा गया था। उसके बाद हमने लेनिन के कक्ष के दर्शन किए। लेकिन सोवियत क्रांति के पितामह लेनिन को वहां न देख, मेरा अवसाद से भर गया। उनका कक्ष अब भी उनकी जीवंत उपस्थिति का प्रमाण देता था। उसे ज्यों का त्यों सहेजकर रखा गया था। उस कक्ष में मौजूद कुर्सीं, मेज, रोशनाई की दवात, पेन तथा लेनिन के फोन को देखकर लगा, मानो कामरेड लेनिन अब भी अपने कक्ष में विश्राम कर रहे हैं। मैं बरबस उनके कक्ष की ओर खिंचता चला गया। अफसोस, लेनिन वहां नहीं थे। उनके बिस्तर को अकेले इंतजार करते देख मन अवसाद में डूब गया। आंखें डबडबा गईं। मैं लेनिन के खाली कक्ष को देखकर ही संतुष्ट होने की कोशिश करने लगा।
रूसी नागरिक सही मायने में इतिहास-अनुरागी हैं। मैंने देखा कि उन्होंने अपने प्राचीन इतिहास को सहेजकर, नए इतिहास का निर्माण किया है। वे आज भी नई चेतना के साथ अपना नूतन इतिहास गढ़ने में लगे हैं।
लेनिनग्राद शहर से कुछ दूरी पर एक उद्यान है। मैं उसके रूसी नाम से अनभिज्ञ था, इसलिए उसे शांति-उद्यान कहता आया था। 1942 में जब नाजी सेना के आत्मघाती दस्तों ने लेनिनग्राद को घेर लिया था, तब भूख और उपवास से जंग में लाखों नागरिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। उस महान ऐतिहासिक घटना की स्मृति आज वहां एक स्मारक खड़ा है। उसके पार्श्व में एक स्त्री, बच्चे को अपनी गोद में उठाए हुए खड़ी है। सामने कामरेड लेनिन हैं। स्मारक के पीछे लेनिनग्राद के वीर शहीदों के नाम पत्थर पर उत्कीर्णित है। फूलों से भरपूर उस उद्यान के मध्य में चार फुट ऊंचा चबूतरा है। उसपर मात्र ‘उन्नीस सौ बयालीस’ टंकित है। स्मारक के प्रथम प्रवेशद्वार पर एक अग्निकुंड धधक रहा था, उन लोगों की स्मृति में जिन्होंने रूस, महान लेनिनग्राद और समाजवाद की खातिर अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे।
उद्यान में प्रतिदिन हजारों लोग पुष्पगुच्छों के साथ पधारते हैं। अग्निकुंड के समक्ष खड़े होकर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। मानो कहते हों, ‘जिन जीवन मूल्यों के लिए आपने प्राणोत्सर्ग किया था, हम उन्हीं के लिए जीवित हैं।’
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वहां मुझे अग्निकुंड के समक्ष खड़े हुए अनेक वयोवृद्ध नागरिक दिखाई पड़े। वे अपनी छाती पर ‘क्रास’ का निशान बनाकर शहीदों के लिए प्रार्थना कर रहे थे। सभी गंभीर थे। किसी को हंसी-ठट्ठा या मसखरी नहीं सूझ रही थी। युद्ध के प्रति नफरत और द्वैष भाव उनकी बातचीत का विषय था। क्योंकि यह उन लाखों बहादुर सैनिकों का स्मारक है, जिन्होंने लेनिनग्राद की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान देकर लेनिन की मान-मर्यादा को सुरक्षित रखा था। यही कारण है कि उस उद्यान के अग्निकुंड की ज्वाला कभी शांत नहीं पड़ती। वह अग्निकुंड दरअसल उस युद्ध-विरोधी चेतना का प्रतीक है जो रूसी नागरिकों के दिलों में प्रतिपल उमगती रहती है।
तदनंतर हम लेनिनग्राद के संग्रहालय में पहुंचे। वहां हजारों वर्ष पुरानी वस्तुओं को यत्नपूर्वक सहेजा गया है। श्रीमती ततियाना कातेनिना मुझे उस संग्रहालय में मौजूद वस्तुओं के बारे में मराठी में समझा रही थीं। वहां सम्राट चंद्रगुप्त के शासनकाल से लेकर आज तक के सिक्के मौजूद थे। मेरे लिए विशेषरूप से चौंकाने वाली बात थी कि वहां मराठी हथियार जैसे कि ‘तलवार’ और ‘पट्टा’ भी मौजूद थे। टीपू सुलतान की एक तलवार भी वहां सुरक्षित थी।
लेनिनग्राद में ही मेरी मुलाकात कामरेड पी. ए. बारनिकोव, जिन्हें मेरा दुभाषिया नियुक्त किया गया था—से हुई। वे तुलसीकृत रामायण का रूसी भाषा में अनुवाद कर चुके थे। वह पुस्तक बहुत जल्द छपने जा रही थी। वे हिंदी के विद्वान थे। उन्हें दुभाषिये के रूप में अपने साथ-साथ छाया की तरह चलते देख मैं अत्यंत आनंदित था। मैं जैसे ही अपने मुंह से हिंदी शब्द का उच्चारण करता, वे तत्क्षण उसको रूसी में अभिव्यक्त कर देते थे। इससे मुझे लगा कि मैं रूसी में ही बोल रहा हूं।
20 तारीख को हम मास्को पहुंचे। वहां से अगले दिन हमें स्तालिनग्राद के लिए रवाना होना था। कामरेड बारनिकोव भी हमारे साथ थे।
जिस समय हम मास्को में ‘सोवियत स्काई’ नामक होटल में प्रवेश कर रहे थे, मेरी भेंट एक परिचित सज्जन से हुई। उन्होंने मुझे रोकते हुए पूछा—
‘क्या तुम्हें रूसी आती है?’
‘नहीं।’ मैंने उत्तर दिया।
‘फिर तो यहां भाषा को लेकर बहुत मुश्किल हो रही होगी?’ उन्होंने सहानुभूति दर्शाते हुए पूछा।
‘नहीं, मुझे भाषा-संबंधी कोई समस्या नहीं है।’ मेरा उत्तर सुनकर वह व्यक्ति आश्चर्य में पड़ गया, बोला— ‘तुम रूसी नहीं जानते और यहां भाषा को लेकर भी कोई समस्या भी नहीं है, यह कैसे संभव है?’
इस पर मैंने उत्तर दिया—
‘मेरे पास दो जुबान हैं। पहली हिंदी; और दूसरी रूसी की। उनमें से हिंदी की जुबान मेरे पास है और रूसी भाषा की जुबान मैंने कामरेड बारनिकोव को सौंप दी है।’
इस अप्रत्याशित उत्तर को सुनकर वह व्यक्ति पहले तो भौंचक्का रह गया, फिर जोर से हंसने लगा। उससे मुझे पता चला कि रूसी लोग भी हास-परिहास पसंद करते हैं।
20 तारीख को मेरा काम केवल मास्को की सैर करना था। शाम का एकमात्र कार्यक्रम था, वहां लेखक संघ द्वारा आयोजित एक जनसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना। मास्को में पैदल घुमक्कड़ी करते हुए मैंने कुछ वस्तुएं खरीदीं। उनमें कुछ खिलौने थे और एक कैमरा। उसके बाद मैं और बारनिकोव साथ-साथ, टैक्सी से लेखक संघ के कार्यालय पहुंचे। टैक्सी को हमने उसके दरवाजे पर ही छोड़ दिया।
आधे घंटे के बाद मुझे पता चला कि मेरा कैमरा और खिलौने टैक्सी में ही छूट गए थे। तब हमने टैक्सी की तलाश शुरू की। सोवियत देशों में टैक्सियों के लिए अलग रेडियो टावर है; तथा प्रत्येक टैक्सी में एक रेडियो और टेलीफोन लगा होता है। हमने तत्काल टैक्सी चालक को फोन किया। हमें उसका उत्तर भी मिल गया, ‘रात्रि नौ बजे ‘सोवियत स्काई’ होटल में मुझे मेरा कैमरा वापस मिल जाएगा।’ ठीक नौ बजे ड्राइवर दौड़ता हुआ मेरे पास पहुंचा और मेरा कैमरा वापस कर लौट गया। हालांकि उस समय तक उसे रेडियो संदेश नहीं मिला था। कैमरे को वापस पाकर मैं बेहद आनंदित था। मेरे लिए वह बहुत ही नाटकीय दृश्य था। इसलिए मेरे दिमाग में हमेशा के लिए टंकित हो गया। रूसी लोग मशीनों के गुलाम नहीं हैं। मशीनें खुद उनकी गुलाम हैं।
जिस समय मैं दूसरी टैक्सी से ‘मैत्री-भवन’ लौट रहा था, उसी समय रेडियो पर एक प्रसारण गूंज रहा था, ‘तवारीश 8083, भारतीय मेहमानों का कैमरा ‘सोवियत स्काई’ होटल में पहुंचा दें।’ उस समय वह कैमरा मेरे गले में लटका हुआ था।
ठीक उसी समय कामरेड बारनिकोव द्वारा किया गया ‘रामचरितमानस’ का अनुवाद गायब हो गया। वे व्यथित होकर बीच रास्ते में ही टैक्सी से छलांग लगाने को आतुर थे। रूस में तुलसीकृत रामायण को गायब होते देख मैं मन ही मन मुस्करा रहा था।
(अनुवाद : ओमप्रकाश कश्यप, संपादन : नवल)
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