अन्नाभाऊ साठे की जन्मशताब्दी वर्ष पर विशेष
बाकू अज़रबैजान की राजधानी है। ‘बाकू‘ का अर्थ है, ‘बुरी हवाओं‘ या ‘शैतानी हवाओं का देश’। यहां ठंडी–बर्फीली हवाएं चलती हैं। उसकी जमीन में कच्चा तेल का अथाह स्रोत है, इस कारण लोग उसे ‘तेल के उपर बसा देश’ भी कहते हैं। वही इसकी समृद्धि का असली कारण है। बाकू में ईरान के बाद दुनिया की सबसे बड़ी शिया आबादी रहती है। जिन दिनों साठेजी ने वहां की यात्रा की वह सोवियत सघ का हिस्सा था। उस समय भी उसकी साक्षरता दर लगभग शतप्रतिशत थी। जबकि ईरान में पुरुष लगभाग 40 और स्त्रियां मात्र 20 प्रतिशत साक्षर थीं। इस अनुवाद हेतु अनुवादक ओमप्रकाश कश्यप ने डॉ. अश्विन रंजनीकर के अंग्रेजी अनुवाद, ‘माई जर्नी टू रशिया’(न्यूवोइस पब्लिकेशन, गुलमोहर अपार्टमेंट, औरंगाबाद) की मदद ली है
बाकू की ओर
- अन्नाभाऊ साठे
हम स्टालिनग्राड से अज़रबैजान की राजधानी बाकू शहर की तरफ बढ़ रहे थे। हमारे विमान ने प्रातः सात बजे उड़ान भरी थी। तदनंतर हम पूरे दिन खुले आकाश में यायावरी करते रहे। मैं खिड़की के पास बैठा धरती की ओर निहार रहा था, लेकिन बादलों के उस पार कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था।
शिष्टमंडल के एक सदस्य मिस्टर चटर्जी नींद ले रहे थे। दूसरे पुष्कराज भट सोवियत संघ से खासे प्रभावित थे। वे उसके देशों की चर्चा में तल्लीन थे। डॉ. दयालु आराम फरमा रहे थे। कामरेड बारनिकोव कोई पुस्तक पढ़ रहे थे। मद्रास से पधारे मिस्टर जेकब जीम मेरे पास ही बैठे थे, बोले—
‘साठेजी, जब हमने पालम हवाई अड्डे पर आपको पहली बार देखा था, तब सोचा था कि यह कोई मूर्ख व्यक्ति है। अब सिद्ध हो चुका है कि वह सरासर हमारी गलती थी। आप इस देश में सचमुच बहुत प्रसिद्ध हैं। इसमें जरा-भी संदेह नहीं है कि आप अच्छे लेखक हैं। आपके भाषण भी तेज-तर्रार होते हैं। उन्हें सुनते हुए मन आनंदमग्न हो जाता है। लेकिन आपकी यह भविष्यवाणी सही नहीं है कि मैं अपने गिटार को ही गुमा दूंगा।’
मैंने कहा, ‘यह सोवियत संघ है। यहां कुछ भी असंभव नहीं है। इस देश में तो रामायण भी गायब हो जाती है, फिर आपका गिटार कैसे सुरक्षित रह सकता है?’
यह सुनकर जेकब का चेहरा लटक गया, बोले—‘ठीक है। मगर तब आपको गिटार के संगीत का आनंद नहीं मिल पाएगा।’ इतना कहकर वे अपने गिटार को देखने लगे। उसके बाद उन्होंने अपनी आंखें बंद कर लीं।
उसके बाद बीते दिनों की घटनाएं मेरी आंखों में तरोताजा होने लगीं। मैंने रूस में जो-जो देखा था, वे सभी दृश्य मेरी आंखों के आगे तैरने लगे।

रूस में मुझे नई दुनिया के दर्शन हुए थे। नया समाज वहां देखा था। समाजवाद की छाया में बचपन को फूलों के समान अंकुराते, बढ़ते और महकते हुए देखा था। यदि मैंने सोवियत संघ की यात्रा न की होती तो मेरे जीवन में बड़ा अभाव, गहरा शून्य समाया होता।
वहां मैंने अनेक स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के दर्शन किए थे। अनेकानेक विद्यार्थियों के साथ बातचीत की थी। अनेक अध्यापकों से मिला था। मैं वहां के अस्पतालों में गया। सामुदायिक खेती को लहलहाते हुए देखा। इससे मुझे अनेकानेक अनुभव हुए।
एक विद्यालय के शिक्षक से मुलाकात हुई। देखने में वह बहुत भोला लगता था। मैंने उससे यूं ही पूछ लिया—
‘आपके देश में निरक्षरों की संख्या कितनी होगी?’
सवाल सुनकर वह भला-मानुष एकाएक गंभीर हो गया। फिर सोचते हुए बोला—‘यही कोई सात प्रतिशत….’
‘ये सात प्रतिशत अनपढ़ कैसे रह गए?’ मैंने तत्क्षण दूसरा प्रश्न सवाल दाग दिया। उसके बाद वे महाशय और ज्यादा गंभीर दिखते हुए बोले—‘ये सात प्रतिशत लोग इसलिए अनपढ़ रह गए, क्योंकि इनमें से कुछ ने अभी चलना नहीं सीखा है। कुछ पालने में आराम फरमाते हैं; और कुछ अभी तक अपनी मां के गर्भ में ही छिपे हैं।’
उसका जबरदस्त विश्लेषण सुनकर मैं सन्न रह गया। फिर एकाएक हंस पड़ा। असल में वह मेरी गलती थी। उसका एहसास होते ही हंसना भूलकर मैंने कहा—‘ओह! मैं तो बस मजाक कर रहा था।’
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तब उस सरलमना इंसान ने विनम्रतापूर्वक कहा, ‘मैंने जो कहा, वह भी मजाक ही था।’ फिर तो हम दोनों खुलकर हंसने लगे।
ऐसा लगता था मानो रूस में ज्ञान की गंगा बह रही हो। जनता शिक्षार्जन की दीवानी थी। यही उनकी तरक्की की असली वजह थी। वहां फूल, फल और बच्चे सभी एक समान थे। इस कारण वहां जीवन में विसंगतियों का नामोनिशान न था।
बाकू आजाद, स्वायत्त और मेहनती मानुसों का शहर है। 40 वर्षों के साम्यवादी शासन ने उस देश को अमरपुरी[1] बना दिया है। ऐसा देश लेशमात्र भी गरीबी नहीं है। वह दिन-प्रतिदिन फलती-फूलती नई दुनिया है, जिसका यश-वैभव नित नए आयाम गढ़ रहा है।
उस देश में एक भी आदमी घर का कचरा सड़क पर फेंकने की धृष्टता नहीं करता था। सड़कें मानो उन्हीं की परिसंपत्ति हों, इसलिए वे माचिस की जली हुई तीली भी बाहर नहीं फेंकते थे। लोग मानते थे कि जो देश का वह सब उनका भी है, इसलिए वे हर परिसंपत्ति की सुरक्षा करते थे। मास्को में गोर्की रोड पर गंदगी फैलाना, देश का अपमान करने जैसा पाप समझा जाता था। स्टालिनग्राद के स्मारक के बारे में अपशब्द मुंह से निकालना उनके लिए असहनीय था। कामरेड लेनिन और कामरेड स्टालिन के नामों से उन्हें बेहद लगाव था। ये वे वहां के महानायक हैं। कामरेड लेनिन का नाम वे अत्यंत सम्मान के साथ, सावधानीपूर्वक लेते थे।

यदि मैंने रूस की प्रगति के आंकड़े सहेजे होते तो निश्चित रूप से उनका पहाड़ सरीखा अंबार लग जाता। इसलिए संख्याओं के खेल से मैंने स्वयं को जानबूझकर दूर रखा था। मैं बस पैनी नजर से स्थितियों का अवलोकन भर था। बोलते समय सावधान था। मैं रूसी साम्यवाद की सफलता का साक्षी था। मेरी नजर उसके ऐश्वर्य में छिपे दारिद्रय को खोज रही थीं। लेकिन दरिद्रता, जिसे छिपाना असंभव होता है—की एक भी झलक मुझे वहां कहीं नहीं मिली।
धोखेबाज सत्ताएं पहाड़ जैसी सच्चाई पर भी पर्दा डाल सकती हैं, किंतु तिल-भर दरिद्रता को छिपाना उनके लिए असंभव होता है। यही मुझे लगता है। यह मेरा दावा भी है।
दारिद्रय बहुत क्रूर और नग्न होता है। इसलिए वह मनुष्य के लिए बड़ी चुनौती भी होता है। उसके निशान मनुष्य के दिल, दिमाग और चेहरे साफ नजर आ जाते हैं। उनके माध्यम से उसे आसानी से पहचाना जा सकता है। इसके अलावा व्यक्ति के जीर्ण वस्त्रों, उनपर लगे टांकों और थेगड़ियों के माध्यम से भी देखा जा सकता है। मेरा मानना है कि गरीबी के दाग-धब्बों को छिपाना असंभव होता है।
मैं रूस की समृद्धि के अंधेरे पक्ष, उसके दाग-धब्बों को खोजने का भरसक प्रयत्न कर रहा था। वहां मुझे थेगड़ी युक्त, जीर्ण-शीर्ण वस्त्र पहने एक भी आदमी दिखाई नहीं पड़ा। इसलिए मैं यह कहने का साहस कर सकता हूं कि सोवियत संघ गरीबी को मिटा चुका था। अक्टूबर की महान क्रांति ने रूस में ‘गरीबी’ जैसे क्रूर शब्द को भस्मीभूत कर दिया था। इसलिए वहां प्रगति सफलता के सातवें आसमान पर थी।
मैंने वहां मूर्तियों, स्कूलों और अनेक उपवनों के दर्शन किए थे। वहां हर जगह के खास मायने ने थे। हर स्थान हमें कुछ न कुछ सिखा रहा था। यहां तक कि जगह-जगह स्थापित जीवंत प्रतिमाएं भी हमें एक प्रकार का शिक्षा-संदेश दे रही थीं। मैं मान गया कि रूसी लोग व्यर्थ का प्रदर्शन पसंद नहीं करते। वहां मौजूद प्रत्येक वस्तु करीने से सजी थी। मानो हर वस्तु, उनके लिए मानव जीवन का अलंकार हो।
जिस समय हमारा विमान केस्पियन सागर को पार कर रहा था, तब मैंने खिड़की से झांककर नीचे देखा। वहां खाली पड़ी धरती किसी हरियाले ग्रह जैसी प्रतीत होती थी। जैसे ही हमने केस्पियन सागर पार किया, संदेश पटल पर सूचना तैरने लगी—‘बाकू आ चुका है। अपनी-अपनी सीट बेल्ट बांध लें।’
वह पूरा दिन हमने विमान में, आसमान में उड़ते हुए बिताया था। यात्रा के दबाव से हमारे मस्तक भन्ना रहे थे। थकान से चूर हम सब विमान से बाहर निकलने को आकुल थे। इसलिए जैसे ही विमान ने धरती का स्पर्श किया, हम सभी ने चैन की सांस ली।
विमान के उतरते ही हमने गहरी निश्वास ली। फिर बाहर निकल आए। वहां हमारे अज़रबैजानी मित्र फूल-मालाओं के साथ स्वागत के लिए मौजूद थे। उनके अलावा नगर के गणमान्य लोग, समाचारपत्रों के प्रतिनिधि, रेडियो, टेलीविजन के पत्रकार और फोटोग्राफर भी वहां जमा थे। हर तरफ चहल-पहल थी। हड़बड़ी के बीच मद्रास से आए मिस्टर जैकब अपना गिटार भूलकर कार में जा बैठे। बाकू शहर आने तक किसी को भी पता नहीं चला कि उनका गिटार गुम हो चुका है। पता चला तो वे गिटार से ज्यादा भविष्यवाणी के सच होने से दुखी थे। वे बहुत शांत थे। दिखा रहे थे जैसे कुछ हुआ ही न हो। गिटार के बारे में उन्होंने मुझसे भी सावधानीपूर्वक पूछताछ की थी।
उसके बाद गिटार की खोज का अभियान शुरू हुआ। फोन किए गए। गिटार को लाने के लिए कारें हवाईअड्डे की ओर दौड़ने लगीं। लेकिन जहाज गिटार को लेकर मास्को के लिए रवाना हो चुका था।
दो दिन के बाद गिटार जब वापस मिला तो मिस्टर जैकब की खुशी का ठिकाना न रहा। मैं सोवियत संघ के योजनाबद्ध तरीके से काम करने के ढंग को देखकर हैरान था। इस बीच हम कैमरा, पेन, रामायण, गिटार गुम करके उन सभी चीजों को वापस प्राप्त कर चुके थे। सोवियत नागरिक कितने कुशल और व्यवहार-दक्ष हैं—इससे पहले यह हमारे लिए कल्पनातीत था।
मैंने अज़रबैजान के वातावरण, रीति-रिवाजों, परंपराओं तथा अटपटी भाषा को समझने की कोशिश की। कुछ शब्दों को सुनकर, जिन्हें मैं पहले भी सुन चुका था, लगा कि वे भारतीय भाषाओं के करीब हैं। अज़रबैजान एशिया का मुस्लिम बहुल राष्ट्र है। वह सोवियत संघ का पंद्रहवां घटक देश है। साम्यवाद और अक्टूबर क्रांति के बाद उसमें बदलाव का दौर शुरू हुआ। उसके फलस्वरूप आज वह समृद्धि के शिखर पर खड़ा है।
अज़रबैजान में कामरेड लेनिन को सोवियत संघ और अक्टूबर क्रांति का पितामह माना जाता है। यहां के नागरिक कामरेड किरोव से अत्यधिक प्रेम करते हैं। इसका कारण है कि कामरेड किरोव के प्रयासों से ही अज़रबैजान में पहला ट्रैक्टर आया था। जिससे उस देश के विकास को गति मिली। कामरेड किरोव के प्रति वहां के लोगों में अत्यधिक सम्मान था।
आज वहां सभी आजाद और आत्मनिर्भर हैं। वह गर्व से कहा करते थे, ‘हम आजाद हैं।’ यह बात भरोसे के लायक भी है।
बाकू हवाई अड्डे पर उतरते समय जनाब हामिद साहब से मेरी मुलाकात हुई। उसके बाद हम दोनों अच्छे मित्र बन गए। हामिद साहब मुझे स्नेहानुराग के साथ ‘शाहिरे अजीज’ कहते थे। इसके दो कारण थे। पहला अठारह वर्ष पहले मैंने स्टालिनग्राद संग्राम की प्रशस्ति में एक ‘पोवाडा’ लिखा था। दूसरे मैं एक मजदूर था।
उनके आत्मीय संबोधन को, जिसमें दुनिया-भर की श्रेष्ठतम मंगलकामनाएं समाहित थीं, इस जीवन में भुला पाना मेरे लिए असंभव है।
[1] कदाचित, साठे यहां कबीर के आदर्शलोक ‘अमरपुरी’ के बारे में बात कर रहे हैं। यह कल्पना रैदास के ‘बे-गमपुरा’ से मिलती-जुलती है। कबीर के अनुसार जो अमरपुर में रहता है, वही संत हैं। ‘अमरपुर’ की विशेषताओं के बारे में कबीर ने लिखा है—
‘जहां से आयो अमर वह देसवा
पानी न पौन न धरती अकसवा, चाँद, सूर न रैन दिवसवा
ब्राह्मन, छत्री न सूद्र, वैसवा, मुगलि, पठान न सैयद सेखवा
आदि जोति नहिं गौर-गनेसवा, ब्रह्मा-विस्नु-महेस न सेसवा
जोगी न जंगम, मुनि, दरवेसवा आदि न अंत न काल कलेसवा
दास कबीर ले आये संदेसवा, सार सब्द गहि चलै वहि देसवा
(अनुवाद : ओमप्रकाश कश्यप, संपादन : नवल)
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