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संविधान का असर : दलित महिलाओं की दिल्ली की राजनीति में बढ़ी भागीदारी, सवाल शेष

अध्ययन से पता चलता है कि दिल्ली की सभी दलित महिला निगम पार्षद नियमित रूप से निगम की बैठकों में भाग लेती हैं, जो साबित करता है कि जमीनी स्तर पर ही सही लेकिन पहले की तुलना में महिलाओं की राजनीति में भागीदारी अब धीरे-धीरे बढ़ रही है

सर्वे रिपोर्ट

“मैं एक समुदाय की प्रगति को उस प्रगति से मापता हूं जो महिलाओं ने हासिल की है।”

– डॉ. बी. आर. अम्बेडकर

यह लेख महिलाओं की स्थानीय राजनीति में भागीदारी को लेकर दिल्ली में निर्वाचित 20 दलित महिला निगम पार्षदों की राजनीतिक भागीदारी पर किए गए एक सर्वे[1] के निष्कर्षों पर आधारित है, जिसे दो भागों में विभाजित किया गया है। प्रथम भाग निर्वाचित दलित महिला प्रतिनिधियों (दिल्ली निगम पार्षदों) के वार्ड में होने वाले जातिगत भेदभाव और उनके द्वारा साझा किए गए जातिगत भेदभाव के अनुभवों से संबंधित है। इस लेख का दूसरा भाग निर्वाचित दलित महिला निगम पार्षदों की राजनीतिक भागीदारी और उनके मार्ग में आ रही बाधाओं से संबंधित है।

दिल्ली में जातिगत भेदभाव

दलित महिलाओं की निम्न सामाजिक स्थिति और जातिगत भेदभाव और छुआछूत एक व्यक्ति के रूप में उनकी क्षमताओं का अवमूल्यन करती है। दलित महिलाओं ने इस अध्ययन में उन सामाजिक सन्दर्भों का वर्णन किया है जिसमें जातिगत भेदभाव समाज की वह कड़वी सच्चाई है जिससे बचना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है। जातिगत भेदभाव और छुआछूत भारत के न केवल अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में मौजूद है, बल्कि नए सामाजिक-आर्थिक रूपों में शहरी क्षेत्रों में भी मौजूद है। यह स्कूलों, चाय की दुकानों, कामकाजी स्थानों, सार्वजनिक स्थानों और यहां तक ​​कि राजनीतिक संस्थानों के अंदर उच्च स्तर से लेकर निचले स्तर तक हर जगह प्रचलित है। दिल्ली के अधिकांश क्षेत्रों में जातिगत भेदभाव किसी न किसी रूप में अभी भी जारी है। पेयजल स्रोतों, मंदिरों, सार्वजनिक कार्यालयों, स्वास्थ्य केंद्रों, स्कूलों आदि में भेदभावपूर्ण व्यवहार दलितों के सामान्य अनुभव हैं। अस्पृश्यता कई रूपों में प्रचलित है जो निजी और धार्मिक क्षेत्रों में सबसे व्यापक है, लेकिन यह सार्वजनिक और राजनीतिक क्षेत्र में भी मौजूद है। दलितों को अभी भी नए कपड़े, धूप का चश्मा, पैरों में चप्पल पहनने या छतरी का उपयोग करने और साइकिल की सवारी करने की अनुमति नहीं है।

आवासीय अलगाव

शहरों और कस्बों में दलित, सवर्ण जातियों के साथ ही रहते हैं। हालांकि परिस्थितियां बदली हैं, लेकिन जातिगत अलगाव लगातार अभी भी जारी है। करीब 70 प्रतिशत निगम पार्षदों ने स्वीकार किया कि जाति आधारित आवासीय भेदभाव अभी भी न केवल ग्रामीण क्षेत्रों बल्कि दिल्ली जैसे शहरी क्षेत्रों में भी जारी है। केवल 30 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने शहरों में जातिगत आधार पर आवासीय भेदभाव होने से इनकार किया। आवासीय पृथक्करण के सवाल पर सभी उत्तरदाताओं की प्रतिक्रिया का जवाब ‘हां’ में था। उनका कहना था कि “दिल्ली में सभी दलित बस्तियों को हरिजन बस्ती या झुग्गी के नाम से अलग किया गया है।”

जातिगत भेदभाव

हालांकि आरक्षण के माध्यम से दलित स्थानीय स्तर की राजनीति में प्रवेश कर रहे हैं, लेकिन फिर भी वे जाति आधारित भेदभाव का सामना करते हैं। नतीजतन, जातिगत बहिष्करण के कारण दलित महिलाओं को उनके रोजमर्रा के जीवन में असमानताओं और शोषण का अनुभव होता है। 90 प्रतिशत निर्वाचित दलित महिला निगम पार्षदों ने स्वीकार किया कि उन्हें राजनीतिक जीवन में सामान्य रूप से जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा। केवल 10 प्रतिशत उत्तरदाताओं को जातिगत भेदभाव का अनुभव नहीं है क्योंकि वे अब ‘निगम पार्षद’ हैं।

एक कार्यक्रम के दौरान दिल्ली नगरपालिका की निर्वाचित महिला सदस्यगण

कुछ उत्तरदाताओं ने यह भी साझा किया कि “चूंकि वे सार्वजनिक स्थानों पर नहीं जाती, और उनके अधिकांश राजनीतिक कार्य पुरुष या परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा कर लिए जाते हैं, इसलिए वे ‘सेफ’ हैं।”

अध्ययन से पता चलता है कि जातिगत भेदभाव के कारण दलित महिलाएं हानिकारक स्थितियों में रहती हैं, जिसके परिणामस्वरूप वे उनके रोजमर्रा के जीवन में असमानताओं और शोषण का अनुभव करती रहती हैं। फिर भी यह उम्मीद की जाती है कि दलित सामाजिक परिवर्तन, कानून और उसके सही कार्यान्वयन से अपने बुनियादी अधिकारों को हासिल कर सकते हैं। हालांकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 द्वारा अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया है, लेकिन समाज की यह कठोर सच्चाई है कि जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता अभी भी जारी है। जागरूकता और संसाधनों की कमी, जातिगत भेदभाव के खिलाफ लड़ने के लिए साहस का अभाव उन्हें चुप और यहां तक ​​कि कमजोर बनाता है। यहां तक ​​कि बहुत से लोग उन कानूनों और अधिनियमों के बारे में भी नहीं जानते हैं, जो अस्पृश्यता के साथ-साथ जातिगत भेदभाव को रोकने और दंडित करने के लिए हैं।

निर्वाचित दलित महिला प्रतिनिधिओं की राजनीति में भागीदारी

राजनीतिक भागीदारी से तात्पर्य है “किसी भी स्वैच्छिक कार्रवाई, सफल या असफल, संगठित या असंगठित, प्रासंगिक या निरंतर, वैध या अवैध तरीकों से नियोजित करना जिनका उद्देश्य सार्वजनिक नीतियों या सार्वजनिक मामलों के प्रशासन या राजनीतिक नेताओं की पसंद को प्रभावित करना है।” महिलाएं एक ऐसी बंद सामाजिक व्यवस्था में काम करती हैं जहां वे अपने जीवन के हर क्षेत्र में अपने पुरुष सदस्यों के अधीन रहती हैं लेकिन एक दलित महिला के रूप में उनकी स्थिति और भी खराब है। वास्तव में, राजनीतिक समानता तब तक निरर्थक है जब तक कि कुल जनसंख्या का अधिकतम भाग, लगभग आधी आबादी निरंतर गरीबी, भुखमरी, स्वास्थ्य की कमी और वर्ग, स्थिति और शक्ति की असमानता से ग्रस्त है। इसी संदर्भ में, अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं:

राजनीति में प्रवेश

दलित महिलाओं को राजनीति में लाना सकारात्मक भेदभाव का परिणाम था, विशेष रूप से 73वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1993। जब निर्वाचित दलित महिला निगम पार्षदों से पूछा गया कि उन्होंने राजनीति में कैसे प्रवेश किया, तो उन्होंने अलग-अलग उत्तर दिए। उनमें से अधिकांश, 60 प्रतिशत ने उत्तर दिया कि यह केवल राजनीति में उनकी व्यक्तिगत रुचि के कारण संभव हुआ। व्यक्तिगत रुचि सिर्फ इसलिए पैदा हुई क्योंकि उनके पास अपने परिवारों की राजनीतिक पृष्ठभूमि थी। लगभग 30 प्रतिशत महिलाओं ने अपने परिवार के सदस्यों के प्रभाव या रिश्तेदारों के दबाव के कारण राजनीति में प्रवेश किया। केवल 10 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कई जवाब दिए कि उन्होंने राजनीति में प्रवेश सिर्फ इसलिए किया क्योंकि परिवार, समुदाय और गांव के प्रभाव या सलाह और व्यक्तिगत हित से प्रभावित थीं। इस अध्ययन में सबसे दिलचस्प और आश्चर्यजनक तथ्य सामने आया कि सभी ने कहा कि, “आरक्षण के कारण इनमें से कोई भी राजनीति में नहीं आईं।”

राजनीतिक दल से संबद्धता

जब जब निर्वाचित दलित महिला निगम पार्षदों से उनकी राजनीतिक दलों से संबद्धता के बारे में पूछा गया तो सभी ने किसी न किसी राजनीतिक दल से संबद्ध होने की बात कही। सबसे ज्यादा 45 प्रतिशत उत्तरदाता भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ संबद्ध थे। 25-25 प्रतिशत उत्तरदाताओं के संबंध क्रमशः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (कांग्रेस) और आम आदमी पार्टी (आप) के साथ थे। केवल 5 प्रतिशत उत्तरदाताओं इंडियन नेशनल लोकदल के साथ थे।

राजनीतिक बैठकों में उपस्थिति

100 प्रतिशत निर्वाचित दलित महिला निगम पार्षदों ने कहा कि वे हमेशा पंचायत की बैठक में भाग लेती हैं, लेकिन वे बैठकों और पंचायती राज संस्थानों के बारे में या अन्य किसी संबंधित जानकारी के बारे में जानने के लिए वे पति और परिवार के अन्य सदस्यों की मदद लेती हैं। कभी-कभी उनके परिवार के सदस्य, पति, पुत्र या निकट संबंधी भी उनके साथ बैठकों में जाते हैं। नगर पार्षद सुशीला खेरवाल के अनुसार, “अन्य क्षेत्रों की भांति राजनीति में भी महिलाओं को पुरुषों के समान नहीं माना जाता है। चूँकि हमारे पास कोई विकल्प नहीं है, इसलिए अधिकांश निर्णय पति या अन्य पुरुष सदस्यों द्वारा लिए जाते हैं।” बड़ी संख्या में दलित महिला निर्वाचित प्रतिनिधि हैं जो पंचायत की बैठकों में भाग लेती हैं और पंचायत के कार्यों में भी शामिल होती हैं। यह उल्लेखनीय है कि बाहर निकलने वाली दलित महिला निगम पार्षद उन महिलाओं की बजाय अधिक स्वतंत्र है जो केवल घर में रहती हैं। इस प्रकार, अध्ययन से पता चलता है कि सभी दलित महिला निगम पार्षद नियमित रूप से निगम की बैठकों में भाग लेती हैं, जो यह साबित करता है कि जमीनी स्तर पर ही सही लेकिन पहले की तुलना में महिलाओं की राजनीति में भागीदारी अब धीरे धीरे बढ़ रही है।

निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदारी

यह पूछे जाने पर कि निर्वाचित दलित महिला निगम पार्षद कैसे निर्णय लेती हैं या अपने वार्ड या क्षेत्रों से संबंधित मुद्दों पर कैसे एक राय बनाती हैं, 25 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने बताया कि वे स्वतंत्र रूप से निर्णय लेती हैं। अधिकांश निगम पार्षदों, (75 प्रतिशत) ने बताया कि वे अपने पति या परिवार के अन्य सदस्यों के साथ चर्चा करने के बाद निर्णय लेती हैं। अध्ययन से पता चलता है कि “वे नगर पार्षद तो चुनी गईं हैं लेकिन उनकी राजनीतिक भागीदारी बहुत ही सीमित है और निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी न्यूनतम भागीदारी है।” आधे से अधिक निगम पार्षद एम.सी.डी. के कार्यों और अपनी जिम्मेदारियों के बारे में भी अनभिज्ञ थीं।

कर्तव्य निर्वहन में गैर-दलित पार्षदों का सहयोग

इस सवाल पर कि निर्वाचित दलित महिला निगम पार्षदों को अपने कर्तव्य निर्वहन में गैर-दलित पुरुष/ महिला प्रतिनिधियों का सहयोग मिलता है या नहीं, के जवाब में 75 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि उन्हें दूसरों से सहयोग और समर्थन मिला है। केवल 5 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने स्वीकार किया कि उन्हें एम.सी.डी. के काम, कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का निर्वहन करने के दौरान अन्य गैर-दलित निगम पार्षदों से हमेशा समर्थन और सहयोग मिलता है। केवल 20 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने झिझकते हुए कहा कि उन्हें अपने गैर-दलित सहयोगियों से कभी समर्थन नहीं मिला। और जब उनसे इस असहयोग का कारण पूछा गया उन्होंने बताया कि “गैर दलित नहीं चाहते हैं कि दलित राजनीतिक व्यवस्था में पहुचें या समाज में उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार और उत्थान हो।”

 राजनैतिक भागीदारी से सामाजिक स्थिति में परिवर्तन

इस सवाल के जवाब में, कि राजनीति में भागीदारी के माध्यम से निर्वाचित दलित महिला निगम पार्षदों के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में किस प्रकार के परिवर्तन हुए, 100 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने बताया कि उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ है और निगम पार्षद के रूप में उनकी राजनीतिक स्थिति के कारण उन्हें सम्मान मिलने लगा है। उनके अनुसार, “निगम पार्षद के रूप में चुनाव जीतने के बाद हमें अधिक सम्मान मिल रहा है।” जब निगम पार्षदों से पूछा गया कि पंचायती राज व्यवस्था का हिस्सा होने के नाते वे कैसा महसूस कर रहे हैं, लगभग सभी ने कहा, “अब हम अच्छा महसूस कर रहे हैं, पहले हम कुछ नहीं थे, लेकिन अब विशेष माना जाने लगा है। पहले हम सार्वजनिक स्थानों और सरकारी अधिकारियों के बीच जाने में संकोच करते थे, लेकिन अब हम उनसे स्वतंत्र रूप से बात कर सकते हैं। हमारे क्षेत्रों की समस्याओं पर खुलकर चर्चा कर सकते हैं।” अब राजनीति में प्रवेश करने के बाद महिलाओं की स्थिति निश्चित रूप से बेहतर हो गई है। वे सीखने की स्थिति में हैं और भविष्य में उन्हें समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ेगा। वे महिला सशक्तीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।

पंचायती राज संस्थानों में आने वाली समस्याएं

यह सवाल पूछने पर कि निर्वाचित दलित महिला निगम पार्षदों को अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है उन्होंने अनेक जवाब दिए जैसे कि पंचायती राज संस्थानों में प्रशासन और अधिकारियों का हस्तक्षेप, लैंगिक भेदभाव, जाति आधारित भेदभाव और विकासात्मक कार्यों के लिए अपर्याप्त संसाधन। 70 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने स्वीकार किया कि उन्हें पंचायती राज संस्थानों में अपने कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान जातिगत भेदभाव और 15 प्रतिशत को लिंग आधारित भेदभाव का सामना करना पड़ा। 10 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि उनके पास विकासात्मक कार्यों के लिए पर्याप्त धन नहीं है। केवल 5 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने स्वीकार किया कि वे किसी भी तरह के भेदभाव या खराब व्यवहार का सामना नहीं करते हैं।

इस प्रकार, अधिकांश उत्तरदाताओं को जाति आधारित भेदभाव के साथ-साथ उनके प्रशासनिक कर्तव्यों के निर्वहन में समर्थन की कमी का सामना करना पड़ा। उनमें से कुछ को अछूत माना जा रहा है। जनता के प्रतिनिधि होने के नाते जब निगम पार्षद से पूछा गया कि उनके वार्ड/ क्षेत्रों में क्या विकास कार्य चल रहे हैं, तो उन्होंने जवाब दिया कि सड़क की मरम्मत, आवास, पीने के पानी की सुविधा और स्वच्छता सुविधाएं आदि उनके क्षेत्र की प्रमुख समस्याएं थीं जिन्हें वे हल करने के लिए सर्वश्रेष्ठ कोशिश कर रहे हैं। उनके अनुसार, “लोग सोचते हैं कि हम उस इलाके के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं जिसका हम प्रतिनिधित्व करते हैं। हम बहुत सारी चीजें करना चाहते हैं लेकिन वे यह नहीं समझते कि अधिकारियों के सहयोग और समर्थन के बिना कुछ भी संभव नहीं है।”

महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर निर्वाचित दलित महिला निगम पार्षदों की धारणा

क्या महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देती है, के सवाल पर में  हां में केवल 25 प्रतिशत निर्वाचित दलित महिला निगम पार्षदों ने  सहमति व्यक्त की। उन्होंने बताया कि जब महिलाएं राजनीति में प्रवेश करती हैं तो समाज की मानसिकता किसी न किसी मोड़ पर बदल जाती है। उनके शब्दों में, “हालांकि हमें राजनीति का ज्ञान कम है, समाज में सम्मान मिल रहा है। हम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने के साथ-साथ उनके लिए समान अवसर प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, जिससे अंततः महिला सशक्तीकरण होगा।” 75 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने माना कि “महिलाओं की स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ता चाहे वह राजनीति हो या घर में, उसकी स्थिति इस पितृसत्तात्मक समाज में एक जैसी ही रहती है।” लेकिन उन्होंने यह भी माना कि धीरे-धीरे बदलाव हो रहे हैं क्योंकि महिलाओं ने संसाधनों पर स्वयं का नियंत्रण और पुरुषों की महिलाओं पर वर्चस्ववादी मानसिकता को चुनौती देकर सशक्तिकरण की भावना प्राप्त कर ली है।

[1] माथुर, सीमा, “पालिटिकल पार्टिशिपेशन ऑफ दलित वुमेन इन लोकल गवर्नेंस : अ स्टडी ऑफ म्यूनिसिपल कारपोरेशन इन दिल्ली”, कालिंदी कॉलेज,2018-19

(संपादन : नवल/अनिल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

सीमा माथुर

डॉ. सीमा माथुर दिल्ली विश्वविद्यालय के कालिंदी कॉलेज में राजनीति विज्ञान की असिस्टेंट प्रोफेसर हैं

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