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एक अनोखे शादी समारोह में

बिहार के अति पिछड़ा वर्ग से आने वाले खुश्बू और डॉ. दिनेश पाल ने अपनी शादी के लिए निमंत्रण कार्ड को 56 पृष्ठों की पुस्तिका “झब्बा” के रूप में प्रकाशित कराया। भोजपुरी में झब्बा का मतलब होता है चाबियों का गुच्छा। इस पुस्तिका में फुले, आंबेडकर, जगदेव प्रसाद, रामस्वरूप वर्मा, भगत सिंह व रामस्वरूप वर्मा की रचनाएं शामिल हैं। अरुण नारायण बता रहे हैं इस खास बौद्धिक विवाह के बारे में

तुम चुरा लाये एक ही रात में
एक स्त्री की तमाम रातें
उसके निधन के बाद की भी रातें।

(अलोक धन्वा, ‘भागी हुई लड़कियां’ कविता से)

विवाह संस्था के पितृसत्तावादी शिकंजे पर जितनी निर्मम चोट कवि आलोक धन्वा ने इन पंक्तियों में की है, शायद ही किसी दूसरे हिंदी कवि ने की हो। आमतौर पर साहित्य और कला में जो सदिच्छाएं अभिव्यक्त होती हैं– वे शाश्वत मानी जाती हैं, लेकिन विचारणीय सवाल यह है कि क्या वे कामनाएं महज कामनाएं ही रहती हैं या समाज पर भी उसका कोई प्रभाव परिलक्षित होता है? हमारा हिंदी समाज साहित्य के इस प्रभाव को लेकर कितना गंभीर है, इन पर कितने शोध होते हैं, इसकी जानकारी मुझे नहीं है। इतना जरूर जानता हूं कि समाज के एक हिस्से में इन चीजों का गहरा प्रभाव रहा है और वह उसे अपने व्यावहारिक जीवन में भी उसी शिद्दत से अंगीकार करने की दिलेरी भी दिखाता रहा है।

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लेखक के बारे में

अरुण नारायण

हिंदी आलोचक अरुण नारायण ने बिहार की आधुनिक पत्रकारिता पर शोध किया है। इनकी प्रकाशित कृतियों में 'नेपथ्य के नायक' (संपादन, प्रकाशक प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची) है।

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