गत 7 मई, 2021 को हिंदी दैनिक हिन्दुस्तान ने अपने संपादकीय में एक अजीबो-गरीब सलाह भारत सरकार को दी है। अखबार ने लिखा कि भारत में कोरोना से बचाव के लिए टीका बनाने वाली कंपनियों के टीके के असर से लोग बीमार भी पड़ते हैं तो भी उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई न हो। इसी तरह मराठा आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन करते हुए अंग्रेजी-हिंदी के अखबारों ने आरक्षण के औचित्य पर ही सवाल उठाने शुरू कर दिए।
यह कोई नई बात नहीं है। जब भी इस देश के बहुजन-दलितों के हक की बारी आती है, तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया को देश के संसाधनों की चिंता सताने लगती है। इसलिए वह तर्क देता है कि बड़ी तादाद में लोगों का निशुल्क टीकाकरण नहीं किया जा सकता। इससे देश का खजाना खत्म हो जाएगा। सरकारें दिवालिया हो जाएंगीं। फिर वह खजाने की भरपाई के लिए मिडिल क्लास के लोगों पर टैक्स का बोझ बढ़ा देगी। चूंकि मध्य आयवर्गीय उपभोक्ता ही अपनी खपत से अर्थव्यवस्था को रफ्तार देता है, इसलिए सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर (जीडीपी ग्रोथ रेट) का बुरा हाल हो जाएगा तथा देश गरीबी के दुश्चक्र से कभी मुक्त ही नहीं पाएगा।
बहुजनों के हक का सवाल पर मीडिया का अजीबोगरीब तर्क
मुख्यधारा की मीडिया में अब विविधता के सवाल उठने लगे हैं। वे चाहते हैं कि कंपनियों के निदेशक मंडल में महिलाओं की तादाद ज्यादा हो। उन्हें कॉरपोरेट कंपनियों में महिला और पुरुषों के बीच वेतन और लैंगिक खाई की भी चिंता सताती है। वे चाहते हैं कि संसद में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण हो। इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में ज्यादा से ज्यादा महिलाएं हों। बॉलीवुड में महिला डायरेक्टरों की संख्या बढ़े। ऐसा लगता है कि उनके लिए विविधता का सवाल सिर्फ महिलाओं को ज्यादा मौका देने तक सीमित है। जब भी बहुजनों को हक और सुविधा देने की बात आती है वह अलग राग अलापना शुरू कर देते हैं। मसलन, आरक्षण का दायरा बढ़ाने के खिलाफ वे घिसे-पिटे तर्क लेकर हाजिर हो जाते हैं। वे कहते हैं कि आरक्षण से ज्यादा जरूरत अवसर बढ़ाने की जरूरत है। बहुजनों को आरक्षण लेने के बजाय अपनी शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए। उन्हें खुद को सरकारी नौकरियों की ओर देखने के बजाय निजी क्षेत्र के अवसरों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। सरकार को भी आरक्षण बढ़ाने के बजाय निजी क्षेत्र में अवसर बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए। वह बहुजनों को आरक्षण के बजाय लोन दे। उन्हें उद्यमिता के कौशल सिखाएं। उद्योग लगाने की सहूलियत दे। वैज्ञानिक तरीके से खेती करने का प्रशिक्षण दे। जबकि आरक्षण का मुख्य उद्देश्य शासन-प्रशासन और उच्च शिक्षण संस्थानों में सभी समुदायों व जातियों को समुचित प्रतिनिधित्व देना है।
विदेश में चाहिए विविधता व आरक्षण, देश में परहेज
लेकिन यही भारतीय मीडिया अमेरिका में एच-1बी वीजा में कटौती की खबरों से घबरा जाता है। उस वक्त नैसकॉम से लेकर भारतीय विदेश मंत्रालय तक से कूटनीतिक पहल शुरू हो जाती है। प्रधानमंत्री और देश का वित्त मंत्रालय वीजा में कटौती न होने देने के लिए कमर कस लेता हैं। इन वीजा में कटौतियों से भारत-अमेरिका के संबंधों में दरारें पड़ने की चिंता व्यक्त की जाती हैं।
ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया में शैक्षणिक वीजा की कटौती और उनकी कठोर आव्रजन नीति पर बवाल खड़ा हो जाता है। यानी देश में बहुसंख्यक बहुजन-दलित आबादी को बाजार के भरोसे छोड़ने की सलाह देने वाले इन देशों में आरक्षण की मांग करने लगते हैं। उन्हें वहां की आईटी इंडस्ट्री में भारतीयों के लिए ज्यादा से ज्यादा जगह चाहिए। वहां के विश्वविद्यालयों में ज्यादा भारतीय छात्र चाहिए। शोध के क्षेत्र में अधिक से अधिक भारतीयों की भागीदारी चाहिए। लेकिन अपने देश में वे दलित-बहुजनों के लिए सकारात्मक पहल करने से घबराते हैं। वहीं अमेरिका अलग-अलग तरह से सकारात्मक कार्यवाहियों का देश है। अमेरिका के मीडिया संस्थानाें के न्यूज-रूम में अश्वेतों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने की एक प्रणाली मौजूद है। स्कूल-कॉलेजों में अश्वेत छात्र और शिक्षकों के लिए खास विविधता नीति है। शासन-प्रशासन में उनकी भागीदारी के लिए सरकारी नीति है ताकि निचले पायदान पर खड़े लोगों को बराबरी का मौका मिल सके। लेकिन भारत का कुलीन वर्ग अपने देश में विविधता से घबराता है। हक मांगते ही यहां लोग मेधा की बात करने लगते हैं। बहुजन दलित उन्हें आरक्षण की रट लगाने वाले, सब्सिडीखोर और मुफ्तखोर नजर आने लगते हैं। फिर मुख्यधारा की मीडिया इस कुलीन वर्ग के सुर में सुर मिलाने लगता है।
क्या मीडिया भोपाल गैस कांड जैसा एक और मंजर देखना चाहता है?
इसलिए इस बार भी जब देश के बहुजनों को टीका देने का सवाल आया तो अपने-अपने आलीशान वातानुकूलित न्यूज रूम में संपादकीय लिखते अखबारों के कुलीन संपादकों ने बाजार का राग अलापना शुरू कर दिया है। उन्हें बाजार की शक्तियों को खुली छूट देने की सलाह दी। वे यह बताने लगे कि बाजार को खुला छोड़ दीजिये। कोई भी आकर टीका बनाए। उसे जिस कीमत पर बेचना हो बेचे। ऐसे टीके से लोग बीमार हों, अपंग हो जाएं या मर जाएं, उसकी चिंता मत कीजिये।
मुख्यधारा की मीडिया को गरीब दलित-बहुजनों से कोई लेना-देना नहीं है। यह महज वर्ग भेद का मामला नहीं है। जबकि मीडिया संस्थाएं अपने हितों के सवाल पर आकाश-पाताल एक कर देती हैं। उन्हें सस्ती जमीन चाहिए। न्यूजप्रिंट पर अनुदान चाहिए। सरकारी विज्ञापन चाहिए। संपादकों के क्लब और जिमखानों के लिए सरकार से आलीशान जगह पर नाम मात्र की रकम पर प्लॉट चाहिए। प्रादेशिक संपादकों को अपने लिए सरकारों से खास सहूलियत चाहिए। लेकिन देश में जब बड़ी आबादी को सस्ती वैक्सीन की जरूरत हो, बहुजनों को मौके देने की बात हो तो वे प्रतिस्पर्धा, बाजार और मेधा का राग अलापना शुरू कर देते हैं।
वर्ष 1984 में हुए भोपाल गैस त्रासदी में हजारों लोगों की मौत हो गई थी लेकिन कंपनी यूनियन कार्बाइड के सीईओ वारेन एंडरसन को न तो पकड़ा जा सका और न ही उसे सजा मिल सकी। क्या भारत का मीडिया वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों को जिम्मेदारियों से मुक्त करने की सलाह देकर इस बार भी मौत का ऐसा ही खौफनाक मंजर देखना चाहता है?
(संपादन : नवल)
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