झारखंड आंदोलन व आदिवासी विमर्श के अध्येता, लेखक, समालोचक व सामाजिक कार्यकर्ता प्रो. वीर भारत तलवार द्वारा संपादित पुस्तक ‘झारखंड आंदोलन के दस्तावेज’ के दोनों खंडों में मेमोरेंडमों, दस्तावेजों, रिपोर्टों और लेखों का संग्रह है। इन दोनों खंडों के द्वारा झारखंड की नई पीढ़ी और आनेवाली पीढ़ियां यह जान सकेंगीं कि झारखंड आंदोलन का मुख्य मुद्दा जल, जमीन, जंगल पर मालिकाना हक था, जिसे सवा सौ साल पूर्व बिरसा मुंडा के उलगुलान के इस नारे ने स्पष्ट कर दिया था– ‘अबुआ दिसुम अबुआ राज’। इसके अलावा झारखंड काे संथाल हूल, कोल विद्रोह, सरदारी आंदोलन, कोयलकारो आंदोलन, जंगल आंदोलन, नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज के खिलाफ आंदोलनों के लिए जाना जाता है।
‘झारखंड आंदोलन के दस्तावेज’ के पहले खंड में दुर्लभ ऐतिहासिक दस्तावेज दिये गये हैं। झारखंड अलग राज्य क्यों बनना चाहिए? इसके लिए विभिन्न तर्कों और सिद्धांतों को प्रस्तुत किया गया है। साथ ही, झारखंड के नवनिर्माण से संबंधित प्रश्नों पर भी गहराई से प्रकाश डाला गया है। मसलन, भारत संघ के अंदर झारखंड राज्य के गठन के प्रश्न पर बिहार विधानसभा में झारखंड पार्टी के सदस्यों द्वारा राज्य पुनर्गठन आयोग को 22 अप्रैल, 1954 को एक मेमोरेंडम दिया गया। इस पार्टी के संस्थापक मरङ गोमके जयपाल सिंह मुंडा थे। मेमोरेंडम में वृहत्तर झारखंड की मांग की गई थी। जयपाल सिंह मुंडा आदिवासियों के बीच राजनीतिक, सांस्कृतिक चेतना जगाने वाले प्रमुख अगुवा थे, जिन्हें आदिवासी आज भी मरङ गोमके (बड़ा अगुवा) का सम्मान देते हैं। जयपाल सिंह मुंडा ने संविधान सभा की निरंतर बहसों की शृंखला में संवैधानिक अधिकारों की स्वायत्तता और मौलिक सवालों को उठाकर तत्कालीन झारखंड क्षेत्र को आदिवासी प्रश्नों-मुद्दों को उठाने वाला अगुवा क्षेत्र बना दिया था।
जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में 1954 के मेमोरेंडम में झारखंड की पूर्णतः स्पष्ट रूप से मांग की गई थी– “हमारा दावा है कि आर्थिक और प्रशासनिक दृष्टि से झारखंड का अलग होना आवश्यक है। झारखंड की जनता बिहार के मैदानी इलाकों से अपने मूल उद्भव, इतिहास, सांस्कृतिक तौर-तरीकों और अपनी खेतीबारी तथा जोत में अलग है और इसमें अपनी क्षेत्रीय वैयक्तिता को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करने की एक जबरदस्त अभिलाषा है।”[1] इस मेमोरेंडम में सुदृढ़ सांस्कृतिक, नैतिक आधारों पर और शांति तथा बेहतर शासन के लिए छोटानागपुर डिवीजन व संथाल परगना जिला, अन्य रियासतें जैसे वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य के चंदभाखर, कोरिया, सरगुजा, जशपुर, उदयपुर, ओड़िशा राज्य के गांगपुर, बोनाई, क्योंझर तथा मयूरभंज, पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा, बिहार के भागलपुर जिले का बांका सबडिवीजन, मुंगेर जिले का जमुई सबडिवीजन, गया जिले के कव्वाकोल थाना, गोविंदपुर थाना और शाहाबाद जिले का अघौरा थाना तथा उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के दुद्धी तहसील और राबर्ट्सगंज तहसील को मिलाकर झारखंड राज्य को बनाने के लिए आग्रह किया गया।
वास्तव में झारखंड क्षेत्र कभी भी बिहार का अभिन्न अंग नहीं रहा। ‘छोटानागपुर उन्नति समाज’ ने साइमन कमीशन के समक्ष 1928 में छोटानागपुर अलग राज्य की मांग की थी। ब्रिटिश सरकार ने छोटानागपुर और संथाल परगना को 1930 में आंशिक तौर पर अलग क्षेत्र घोषित कर दिया था। 20 जनवरी, 1939 को जयपाल सिंह मुंडा अखिल भारतीय आदिवासी महासभा में शामिल हुए और इस महासभा के माध्यम से झारखंड की सांस्कृतिक अस्मिता और आदिवासियों की चिरप्रतीक्षित आकांक्षाओं को राजनीतिक अभिव्यक्ति दी गई। इस अवसर पर उनके उद्गार महत्वपूर्ण हैं– “हर जगह यह स्वीकार किया गया है कि बंगाल के साथ जुड़कर छोटानागपुर-संथाल परगना पीड़ित था और अब बिहार के साथ जोड़कर इसे बहुत बुरी तरह पीड़ित किया जा रहा है। एकमात्र अलग राज्य में ही छोटानागपुर का उद्धार निहित है। हम एक अलग प्रांत, एक अलग सरकार, एक अलग प्रशासन के अस्तित्व से कुछ भी कम पर संतुष्ट नहीं होंगे।”[2]
दूसरा मेमोरेंडम 12 मार्च, 1973 को झारखंड पार्टी के अध्यक्ष एन.ई. होरो द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दिया गया था, जिसमें कहा गया कि “तीन करोड़ झारखंड वासियों की ओर से झारखंड पार्टी बिहार के छोटानागपुर डिवीजन और संथाल परगना, बंगाल के पुरुलिया, बांकुड़ा और मिदनापुर, उड़ीसा के मयूरभंज, क्योंझर, सुंदरगढ़ और संबलपुर तथा मध्य प्रदेश के सरगुजा और रायगढ़ जिले को मिलाकर एक नए राज्य झारखंड के गठन की मांग करते हुए यह मेमोरेंडम देती है तथा भारत सरकार और भारत की संसद से यह निवेदन करती है कि वह कानून के जरिए इस नए राज्य की स्थापना करे, ताकि खुद इस क्षेत्र की जनता इस उपेक्षित और पिछड़े क्षेत्र को अच्छा और कुशल प्रशासन दे सके। यहां लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा मिले और उनलोगों के बुनियादी मानव अधिकारों की रक्षा हो सके जो अधिकांशतः आदिवासी हैं और पिछड़े हुए हैं।”[3] इस मेमोरेंडम में इस बात का उद्घोष था कि अलग राज्य की मांग हासिल किये बिना झारखंड के लोग चैन से नहीं बैठेंगे और यह भी कि “अलग राज्य की मांग जनता में अपने आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक शोषण से मुक्ति पाने की दृढ़ आकांक्षा से पैदा हुई मांग है। यह एक मानवीय समस्या है और तीन करोड़ से भी ज्यादा लोग आज समता तथा न्याय के साथ जीना चाहते हैं। यह सम्मान और मानवीय गरिमा से पूर्ण जीवन जीने की अभिलाषा है, यह सामाजिक उन्नति और विकास में अपनी भागीदारी के अधिकार की मान्यता की मांग है, ताकि वे स्वतंत्रतापूर्वक अपना भविष्य खुद तय कर सकें।”[4]

इसी तरह ‘झारखंड आंदोलन के दस्तावेज’ के पहले खंड में झारखंड समन्वय समिति द्वारा 4 जून, 1987 को प्रकाशित घोषणा-पत्र को भी शाामिल किया गया है, जिसमें झारखंड की स्वायत्तता के स्वरूप और इसकी राजनीतिक-भौगोलिक सीमाओं से संबंधित विभिन्न प्रस्तावों की समीक्षा की गई थी। गौरतलब है कि झारखंड समर्थक 49 संगठनों के 429 नामांकित प्रतिनिधियों ने घोषणा-पत्र में विस्तार से चर्चा की। झारखंड समन्वय समिति के संयोजक डॉ. बी.पी. केशरी थे।
झारखंड की मांग करने वाले हमारे पूर्वज आंदोलनकारियों के पास झारखंड के विकास के सपने थे, आकांक्षाएं थीं, उनकी अपनी विचारधारा थी। झारखंड का विकास वे इस तरह से करना चाहते थे कि यहां की जनता को रोजगार के लिए राज्य के बाहर न जाना पड़े और जो बाहर गए हैं, उन्हें भी वापस लाया जा सके।
प्रो. तलवार द्वारा संपादित किताब के पहले खंड में कॉमरेड सीताराम शास्त्री का महत्वपूर्ण आलेख ‘भारत में राष्ट्रीय प्रश्न और आदिवासियों के राष्ट्र की समस्या’ संकलित है। इसके अलावा इसमें प्रो. तलवार द्वारा लिखित व 1978 में प्रकाशित एक आलेख ‘झारखंड: क्या, क्यों और कैसे?’ भी शामिल है। साथ ही इस खंड में मार्क्सवादी लेखक-विचारक, मजदूर नेता रहे ए.के. राय के तीन महत्वपूर्ण आलेख शामिल किए गए हैं– ‘भारत में आंतरिक उपनिवेशवाद और झारखंड की समस्या’, ‘भारत में असमान विकास तथा उत्पीड़ित जातियों का शोषण’ और ‘झारखंड आंदोलन की नई दिशा और झारखंडी चरित्र’।
एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में 1-2 जनवरी, 1983 को सरायढेला, धनबाद में प्रथम केंद्रीय सम्मेलन में स्वीकृत झारखंड मुक्ति मोर्चा का कार्यक्रम इस किताब में संकलित है। वहीं ‘सैद्धांतिक सवालों के संदर्भ में झारखंड आंदोलन’ पुस्तक में शिबू सोरेन जो कि उस समय झारखंड मुक्ति मोर्चा के महामंत्री थे, द्वारा लिखित प्रस्तावना भी प्रो. तलवार द्वारा संपादित पुस्तक के पहले खंड में संकलित है। अपनी प्रस्तावना में शिबू सोरेन ने झारखंड आंदोलन की अस्मिता के लिए संघर्ष करते हुए मारे गये अनगिनत शहीदों को श्रद्धांजलि दी है। वे लिखते हैं– “अपनी मंजिल तक हम तमाम बाधाओं को तोड़ते हुए पहुंच सकें, इसके लिए आवश्यक है झारखंड मुक्ति मोर्चा का एकताबद्ध, अनुशासित और संगठित होना। साफ-सुथरा संगठन, क्रांतिकारी और लड़ाकू संगठन का निर्माण दो बातों पर निर्भर करता है। पहली बात है कि संगठन के पास एक क्रांतिकारी कार्यक्रम हो और दूसरी बात है– संगठन के पास प्रतिबद्ध और अनुशासित कार्यकर्ता हों।”[5] इसका अंतिम भाग अत्यंत मानीखेज है– “हमारा लक्ष्य : झारखंड की मुक्ति! हमारा संगठन : झारखंड मुक्ति मोर्चा, हमारा नारा : उलगुलान, हमारे दुश्मन : सूदखोर, महाजन, पूंजीपति, साम्राज्यवादी, हमारे दोस्त : शोषित-पीड़ित, मेहनतकश इंसान।”[6]
‘झारखंड आंदोलन के दस्तावेज’ के दूसरे खंड में झारखंड आंदोलन से संबंधित नौ राजनीतिक दस्तावेज हैं। साथ हीं कुछ साहित्यिक दस्तावेज भी हैं। राजनीतिक दस्तावेजों में सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है– ‘छोटानागपुर का अलगाव एकमात्र समाधान-1954 (छोटानागपुर संयुक्त संघ)’ एवं ‘झारखंड आंदोलन एक अध्ययन-1980’, जिसे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) ने प्रस्तुत किया था। दूसरे खंड में भाकपा माले का एक दस्तावेज, जो उसके मुख पत्र ‘लिबरेशन’ के अक्टूबर 1980 के अंक में प्रकाशित हुआ था, शामिल है। झारखंड आंदोलन के दूसरे खण्ड की भूमिका में प्रो. तलवार ने स्वीकार किया है कि “यह विडंबना रही है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) ने झारखंड अलग राज्य की मांग का कभी कोई स्पष्ट समर्थन नहीं किया।” उल्लेखनीय है कि सीपीआई के एक नेता अजय घोष ने झारखंड को ‘आदिवासी स्थान’ कहते हुए इसकी राजनीतिक स्वायत्तता का समर्थन किया था।
1970-80 के दशक में उभरी भाकपा माले ने झारखंड की सामाजिक, राजनीतिक वास्तविकताओं को काफी हद तक पहचाना है। इस पार्टी ने झारखंड के अलग राज्य के मांग के प्रति अधिक समझदारी भरा दृष्टिकोण रखा और आदिवासियों की मांग को सही समझते हुए अलग झारखंड की मांग का समर्थन किया– “हम अलग झारखंड राज्य की न्यायपूर्ण मांग का समर्थन करते हैं, जो अपनी पहचान की प्रतिष्ठा करने के लिए, अपनी संस्कृति का विकास करने के लिए तथा आर्थिक एवं अन्य तमाम क्षेत्रों में प्रगति करने के लिए इस क्षेत्र की जनता को आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति है, ताकि वह अन्य राष्ट्रीयताओं के सामने समानता के आधार पर खड़े हो सके।”[7] माले पार्टी से जुड़े नेता महेंद्र सिंह ने नवगठित बने झारखंड राज्य में विधानसभा के अंदर और बाहर महत्वपूर्ण राजनीतिक भूमिका निभाई।
दूसरे खंड के एक दस्तावेज में देवेंद्र मांझी, जो झारखंड मुक्ति मोर्चा के सिंहभूम शाखा के अध्यक्ष थे, ‘उलगुलान चालू बकाना’ में लिखते हैं कि “झारखंड मुक्ति मोर्चा तमाम शोषित वर्गों और जातियों का मोर्चा है। मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में पहली बार झारखंड आंदोलन सिर्फ आदिवासियों का आंदोलन समझा नहीं गया। यह झारखंड की सभी जातियों, सभी धर्मों और सभी वर्गों का, तमाम जनता का आंदोलन बन गया। झारखंड मुक्ति मोर्चा, अर्जी-पत्री करके झारखंड लेने में विश्वास नहीं करता। हमारे पथ प्रदर्शक बिरसा और सिदो-कान्हू हैं, जिन्होंने संघर्ष का रास्ता बताया। मोर्चा के जन्म के साथ तमाम झारखंड में एक नारा लोकप्रिय बना– ‘कैसे लोगे झारखंड – लड़के लेंगे झारखंड’। हम सिर्फ अलग राज्य के लिए नहीं लड़ते हैं बल्कि जनता की तमाम समस्याओं से जूझते हैं।”[8]
दूसरे खंड में इंडियन पीपुल्स फ्रंट (आईपीएफ) का एक दस्तावेज संकलित है, जिसे संगठन की झारखंड कमिटी ने एक सेमिनार में प्रस्तुत किया था, जो रांची के बिहार क्लब में 1986-87 में आयोजित हुआ था।
इसी दूसरे खंड में डॉ. बी.पी. केशरी के दो महत्वपूर्ण आलेख शामिल हैं– ‘झारखंड आंदोलन के आंतरिक अवरोध’ तथा ‘झारखंड आंदोलन और सदान’। दूसरे आलेख “झारखंड आंदोलन और सदान” में झारखंड जातीयता के अंतर्गत वे लिखते हैं– “एक सुस्पष्ट जंगल-झाड़ से भरे गोंडवाना लैंड का पूर्वी पठार वैदिक काल से अब तक कई नामों से अंतर्भुक्त अथवा समाहित रहा है। कीकट प्रदेश, व्रात्य खंड, काल्कावन, पुण्ड्र, पौण्ड्र या पौण्ड्रिक, अर्क खंड, कर्क खंड, मगध, नागपुर, झारखंड, कोकराह या खुखरा, चुटिया नागपुर, हीरा नागपुर, छोटानागपुर आदि ऐसे ही नाम है। राजनीतिक प्रशासनिक प्रभावों के अनुरूप इसकी सीमाओं में परिवर्तन भी हुए हैं। बुकानन के मत में काशी से लेकर बीरभूम तक सारे पहाड़ी प्रदेश को झारखंड कहते थे। दक्षिण में बैतरणी नदी इसकी सीमा थी। अकबरनामा के अनुसार छोटानागपुर खास तथा उड़ीसा के ट्रिब्यूट्री स्टेट झारखंड कहलाते थे।”[9]
‘शाल-पत्र’ त्रैमासिक पत्रिका थी, जो 1970 के दशक में झारखंड के सांस्कृतिक आंदोलन के मुखपत्र जैसी थी। इस पत्रिका ने झारखंड के बुद्धिजीवियों को संगठित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस पत्रिका को झारखंड अलग राज्य आंदोलन के साहित्यिक मोर्चे के रूप में समझा जा सकता है। वर्ष 1978 में झारखंड बुद्धिजीवी सम्मेलन में जो बुद्धिजीवी शामिल थे, वे वास्तविक जन-जीवन, जन-संघर्षों, जन-आंदोलनों से जुड़े हुए थे। ‘शाल-पत्र’ ने ही 1978 में झारखंड क्षेत्रीय बुद्धिजीवी सम्मेलन आयोजित किया था। इसके तहत झारखंड की विचारधारा, झारखंड की चेतना और झारखंड प्रदेश का नवनिर्माण कैसे होगा, आदि इस बुद्धिजीवी सम्मेलन के मूल प्रश्न थे। सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में एन.ई. होरो, दिशोम गुरु शिबू सोरेन और बिनोद बिहारी महतो ने झारखंड के नवनिर्माण के विभिन्न मुद्दों पर अपना विचार व्यक्त किया था। इस बुद्धिजीवी सम्मेलन की अध्यक्षता डॉ. निर्मल मिंज ने की थी। सम्मेलन में कई महत्वपूर्ण आलेख पढ़े गए। मसलन, झारखंड पार्टी के अध्यक्ष एन.ई. होरो के द्वारा “झारखंड के आर्थिक विकास का ढांचा और कार्यक्रम”, झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष बिनोद बिहारी महतो के द्वारा “झारखंड समाज के परंपरागत नियम-कानून और आधुनिक कानून व्यवस्था”, झारखंड मुक्ति मोर्चा के महासचिव शिबू सोरेन के द्वारा “झारखंड के समाज, संस्कृति और शिक्षा के विकास का सवाल”। इस बुद्धिजीवी सम्मेलन में डॉ. रामदयाल मुंडा, डॉ. बी.पी. केशरी, रोज केरकेट्टा, कानूराम देवगम, प्रफुल्ल कुमार राय, शैलेंद्र महतो, पशुपति महतो, डॉ. दुलायचंद मुंडा, बासंती कुमारी, सीता टोप्पो, झमन सिंह, देवेंद्र माझी, बहादुर उरांव, मंजू हांसदा आदि बुद्धिजीवी भी शामिल थे।
‘झारखंड आंदोलन के दस्तावेज’ के पहले खंड की भूमिका में प्रो. वीर भारत तलवार ने सवाल उठाया है कि “झारखंड में आज राजनीतिक पतन का जो घनघोर अंधकार छाया हुआ है, उसमें शायद कोई साहसी झारखंडी इन दस्तावेजों से नई दृष्टि हासिल कर सके और नये आत्मविश्वास भरकर झारखंड की राजनीति में एक नया विकल्प पेश कर सके।”
बहरहाल, यह 2025 है और भारत की आदिवासी राजनीति का नेतृत्व झारखंड कर रहा है तथा सत्ता के पूंजीवादी व ब्राह्मणवादी चरित्र को भी अगर किसी राज्य से चुनौती मिल रही है तो वह झारखंड से ही मिल रही है। झारखंड विधानसभा में सरना धर्म कोड की मान्यता संबंधी प्रस्ताव पारित करके झारखंड ने इसका सबूत भी दे दिया है। झारखंड के सबसे कद्दावर नेता मरङ गोमके जयपाल सिंह मुंडा ने बहुत पहले आदिवासी-मूलनिवासियों के अधिकारों के प्रति चेतना जागृत की थी। वैश्विक स्तर पर भी संसार के मूलनिवासियों के प्रति उदारता और चेतना बढ़ी है। पत्थलगड़ी आंदोलन को भी इसी रूप में देखा जाना चाहिए। पत्थलगड़ी के लड़ाका आंदोलनकारियों ने पूरे साहस के साथ संविधान की पांचवी अनुसूची को यानि संविधान प्रदत अधिकारों को पत्थरों पर दर्ज करके अपने पूर्वजों के संघर्ष-आंदोलन के चरित्र को भुलाया नहीं है। भले ही इसके एवज में उन्हें सत्ता के क्रूर दमन को झेलना पड़ा और जेल जाना पड़ा।
‘झारखंड आंदोलन के दस्तावेज’ के दोनों खंड न सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि इन दस्तावेजों को पढ़ते हुए विभिन्न कालखंडों में झारखंड गठन के लिए सौंपे दस्तावेजों से रू-ब-रू होने का मौका मिलता है, बल्कि इसलिए भी इन दस्तावेजों का महत्व बढ़ जाता है कि इनके प्रत्येक दस्तावेज, लेख, शोध और विमर्श की नवीन दिशाओं का उद्घाटन करते हैं। कुल मिलाकर झारखंड आंदोलन के दस्तावेज के दोनों खंड झारखंड के आदिवासी-मूलवासियों के लिए ऐतिहासिक दस्तावेज हैं। झारखंड के युवा नेता, समर्पित राजनीतिक कार्यकर्ताओं, आदिवासी अध्येताओं को इन दोनों खंडों में संकलित दस्तावेजों से जरूर गुजरना चाहिए। झारखंड आंदोलन के ये दस्तावेज झारखंड के गठन संबंधी तर्कों को सटीकता से न सिर्फ प्रस्तुत करते हैं, बल्कि झारखंड के आदिवासी-मूलवासी के समक्ष मशाल की तरह हैं।
समीक्षित पुस्तक : झारखंड आंदोलन के दस्तावेज (दूसरा खंड)
संपादक : वीर भारत तलवार
प्रकाशक : नवारुण प्रकाशन
मूल्य : 475 रुपए
संदर्भ-
[1] झारखंड आंदोलन के दस्तावेज, खंड 1, संपादक वीर भारत तलवार, नवारुण प्रकाशन, 2017, पृष्ठ 19
[2] झारखंड की समर गाथा, शैलेंद्र महतो, दानिश बुक्स, 2015, पृष्ठ 169
[3] झारखंड आंदोलन के दस्तावेज, पूर्वोक्त, पृष्ठ 53-54
[4] वही, पृष्ठ 63
[5] वही, पृष्ठ 268
[6] वही, पृष्ठ 239
[7] झारखंड आंदोलन के दस्तावेज, खंड 2, संपादक वीर भारत तलवार, नवारूण प्रकाशन, 2024, पृष्ठ 103
[8] वही, पृष्ठ 89-90
[9] वही, पृष्ठ 115
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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