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सरकारी क्षेत्र में नौकरियों के घटने और निजी क्षेत्र में बढ़ने से क्या खो रहे हैं दलित, आदिवासी और ओबीसी?

उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के नाम पर अर्थव्यवस्था को ऐसी शक्ल पिछले 25 वर्षों में दे दी गई है कि सवर्णों को बहुलांश नौकरियों पर फिर से एक तरह का आरक्षण प्राप्त हो गया है। जिन क्षेत्रों में आरक्षण नहीं है, उन क्षेत्रों में एससी, एसटी और ओबीसी लोगों को नौकरी के नाम पर वही काम मिलता है, जो वर्ण-जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था ने उनके लिए निर्धारित कर रखा है। बता रहे हैं डॉ. सिद्धार्थ

सरकारी शिक्षण संस्थानों में दाखिले के अलावा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग को सिर्फ सरकारी नौकरियों (सरकारी विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों में शैक्षणिक पदों सहित) में आरक्षण प्राप्त है। निजी क्षेत्र की नौकरियों में इन समुदायों के लिए किसी तरह का कोई आरक्षण नहीं है। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ द्वारा प्रकाशित एक खबर में शामिल आंकड़े बता रहे हैं कि सरकारी क्षेत्र में नौकरियां सीमित होती जा रही हैं। वहीं निजी क्षेत्र में नौकरियों का दायरा सरकारी क्षेत्र की तुलना में बढ़ता जा रहा है। विशेषकर भारतीय अर्थव्यस्था के 1991 निजीकरण की शुरुआत के बाद। उदाहरण के लिए 31 मार्च, 1991 की तारीख तक सरकारी क्षेत्र में कुल नौकरियां 1 करोड़ 94 लाख 70 हजार थीं। जबकि निजी क्षेत्र में कुल नौकरियां सिर्फ 80 लाख 60 हजार थीं। स्पष्ट है कि निजी क्षेत्र की तुलना में सरकारी क्षेत्र में 1 करोड़ 14 लाख 10 हजार नौकरियां अधिक थीं। लेकिन यह स्थिति 2012 आते-आते पूरी तरह बदल गई। सरकारी क्षेत्र की नौकरियां घटकर 1 करोड़ 76 लाख 10 लाख हो गईं। साफ है कि सरकारी क्षेत्र की नौकरियों में करीब 18 लाख की गिरावट आ गई। जबकि निजी क्षेत्र में नौकरियां बढ़कर 1 करोड़ 19 लाख 70 हजार हो गईं। निजी क्षेत्र की नौकरियों में 40 लाख की वृद्धि हुई।

सनद रहे कि निजी क्षेत्र में कोई आरक्षण नहीं लागू है। यहां यह तथ्य रेखांकित कर लेना जरूरी है कि भारत सरकार ने सरकारी क्षेत्र की समग्र नौकरियों का आंकड़ा 2011-12 के बाद प्रकाशित करना बंद कर दिया है। हां, अलग-अलग संस्थान आंकड़े जारी करते हैं। प्राइवेट क्षेत्र की नौकरियों के आंकड़े सामने आते रहते हैं, क्योंकि कार्पोरेट क्षेत्र की अलग-अलग कंपनियां अपने यहां नौकरियों का आंकड़ा प्रकाशित करती हैं।

रेलवे इस देश में सबसे बड़ा नौकरी देने वाला सरकारी उपक्रम रहा है। रेलवे के आंकड़े 2022-23 तक के उपलब्ध हैं। वर्ष 1990-91 में रेलवे में कुल 16 लाख 50 हजार नौकरियां थीं। लेकिन 2022-23 आते-आते रेलवे में 4.6 लाख नौकरियां खत्म हो गईं या कर दी गईं। इन 4 लाख नौकरियों में कम-से-कम 2 लाख नौकरियां एससी-एसटी और ओबीसी समुदायों के हिस्से आतीं।

भारत सरकार के सार्वजनिक उपक्रमों की नौकरियों में सबसे अधिक गिरावट आई, क्योंकि इनमें से अधिकांश उपक्रमों को निजी क्षेत्रों को बेच दिया गया। वर्ष 1990-1991 में इस क्षेत्र में कुल नौकरियां 22 लाख 20 हजार थीं। वहीं 2022-23 में इस क्षेत्र में सिर्फ 8 लाख 10 हजार नौकरियां रह गईं। करीब 14 लाख नौकरियां खत्म हो गईं। याद रखें कि इस क्षेत्र की नौकरियों में भी आरक्षण लागू था। इस तरह जो 8 लाख नौकरियां खत्म हुई हैं, उसमें भी कम-से-कम 4 लाख नौकरियां एससी, एसटी और ओबीसी समुदायों को मिलतीं।

सरकारी क्षेत्र में घटती और निजी क्षेत्र बढ़ती जा रही हैं नौकरियां

जहां एक ओर सरकारी क्षेत्र की नौकरियां 1990-91 के बाद कम होती गईं, वहीं दूसरी ओर निजी क्षेत्र में नौकरियां तेजी से बढ़ीं। खासकर आईटी सेक्टर में। सितंबर, 2022 के अंत में आईटी क्षेत्र की पांच बड़ी कंपनियों – टीसीएस, इंफोसिस, विप्रो, एचसीएल टेक्नोलॉजी और टेक महिंद्रा – में कुल मिलाकर 16 लाख रोजगार सृजित हुए। इन कंपनियों में किसी तरह का कोई आरक्षण लागू नहीं है। इस क्षेत्र में कितने प्रतिशत एससी, एसटी और ओबीसी हैं, इसका कोई निश्चित आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन विभिन्न सर्वे यह बताते हैं कि मुश्किल से 20 प्रतिशत भी इन नौकरियों में एससी, एसटी और ओबीसी समुदायों के नहीं हैं।

सरकारी बैंक बड़े पैमाने पर नौकरी देने वाले प्रतिष्ठान रहे हैं। रेलवे के बाद इस क्षेत्र में एससी, एसटी और बाद में ओबीसी समुदायों के लोगों को आरक्षण के माध्यम से सबसे अधिक नौकरियां मिलीं। वर्ष 1991-92 में अधिसूचित वाणिज्यिक बैंकों में कुल 9.8 लाख कर्मचारी थे। इसमें 87 प्रतिशत यानी 8.4 लाख कर्मचारी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के थे। बताते चलें कि अधिसूचित वाणिज्यिक बैंकों में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र दोनों तरह के बैंक शामिल होते हैं। वित्तीय कामों और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की मान्यता के आधार पर बैंकों को अधिसूचित और गैर-अधिसूचित बैंकों के रूप में बांटा गया है। वर्ष 2020-21 में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कर्मचारियों की संख्या घटकर 7.7 लाख हो गई, जबकि प्राइवेट बैंकों के कर्मचारियों की संख्या 6 लाख हो गई। वर्ष 1991-92 में निजी क्षेत्र के बैंकों में सिर्फ 1 लाख 40 हजार कर्मचारी थे। हम पाते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कर्मचारियों की संख्या में करीब 1 लाख की कमी हुई, जहां आरक्षण लागू है। दूसरी ओर निजी क्षेत्र के बैंकों के कर्मचारियों की संख्या में करीब 5 लाख की वृद्धि हुई है, जिसमें कोई आरक्षण लागू नहीं है। अब तो स्थिति यह है कि 2022-23 में निजी क्षेत्र के बैंकों के कर्मचारियों की संख्या 6 लाख से बढ़कर 8.74 लाख हो गई, जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कर्मचारियों की संख्या 7.5 लाख से कम हो गई। यहां यह रेखांकित करना जरूरी है कि 1991-1992 के बाद कई सरकारी बैंकों का निजीकरण हुआ, उनकी शाखाएं बंद हुईं, कुछ बैंकों का विलय हुआ। दूसरी तरफ निजी क्षेत्र में नए बैंक खुले और उनकी शाखाओं का तेजी से विस्तार हुआ।

निजी क्षेत्र के पांच बड़े बैंकों – एचडीएफसी, आईसीआईसीआई, एक्सिस, कोटक महिंद्रा और बंधन बैंक – में कुल मिलाकर 2023-24 में 6.1 लाख से अधिक कर्मचारी थे। एचडीएफसी में 2 लाख 13 हजार 527 कर्मचारियों की संख्या भारतीय स्टेट बैंक की 2 लाख 32 हजार 296 से थोड़ी कम थी। ऐसे ही आईसीआईसीआई (1 लाख 41 हजार 9 कर्मचारी) और एक्सिस बैंक (1 लाख 4 हजार 332 कर्मचारी) की संख्या दूसरे सबसे बड़े सार्वजनिक क्षेत्र के ऋणदाता पंजाब नेशनल बैंक के 1 लाख 2 हजार 349 कर्मचारियों की संख्या से अधिक थी। कोटक महिंद्रा (77 हजार 923 कर्मचारी) और बंधन बैंक (75 हजार 748 कर्मचारी) की कर्मचारी संख्या भी केनरा बैंक (82 हजार 643 कर्मचारी), यूनियन बैंक ऑफ इंडिया (75 हजार 880) और बैंक ऑफ बड़ौदा (74 हजार 886) के बराबर हो गई।

ये तो कुछ उदाहरण हैं। लेकिन इन उदाहरणों के हवाले से भी देखें तो कुछ बातें साफ हैं। पहली तो यह कि जिस सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र में एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण लागू है, वहां नौकरियों की संख्या में तेजी से गिरावट आ रही है। इस क्षेत्र में 1991-92 के बाद 18 लाख नौकरियां खत्म हो गई हैं। दूसरी यह कि निजी क्षेत्र की नौकरियों में तेजी से वृद्धि हो रही है। इसी दौर में निजी क्षेत्र की नौकरियों में 40 लाख की वृद्धि हुई है। निजी क्षेत्र भारत में तेजी से सरकारी क्षेत्र को निगल रहा है। कहने की जरूरत नहीं है कि निजी क्षेत्र में कोई आरक्षण लागू नहीं।

इस स्थिति ने धीरे-धीरे संविधान प्रदत्त प्रतिनिधित्व (आरक्षण) की पूरी व्यवस्था को खत्म नहीं तो बहुत ही कमजोर कर दिया है। सवाल सिर्फ सरकारी क्षेत्र की नौकरियों के खात्मे और उसमें उसी अनुपात में एससी, एसटी और ओबीसी के प्रतिनिधित्व (आरक्षण) के खात्मे तक सीमित नहीं। यह स्थिति एससी, एसटी और ओबीसी समुदायों की भौतिक और वैचारिकी-राजनीतिक स्थिति को कमजोर कर रहा है। आरक्षण और उससे प्राप्त नौकरियां सिर्फ इन तबकों के कुछ व्यक्तियों के लिए नौकरी और आर्थिक समृद्धि का आधार भर नहीं रहा है। इन्हीं नौकरियों से इन तबकों, विशेषकर एससी व एसटी के बीच एक मध्य वर्ग पैदा हुआ, जिसने वैचारिक और राजनीतिक स्तर पर इस देश में हजारों वर्षों से चले आर रहे द्विज तबकों के जीवन के हर क्षेत्र में वर्चस्व को चुनौती दी और दे रहा है। 

कहना अतिरेक नहीं कि कम-से-कम एससी, एसटी और ओबीसी के भी एक बड़े हिस्से के पास न खेती है, न कल-कारखाने और न ही कोई बड़ा व्यापार-कारोबार। न ही इन 25 वर्षों में ऐसा कुछ होता दिखाई दिया, बल्कि इनके पास लघु, छोटे और मझोले उद्योगों के नाम पर और व्यापार कारोबार के नाम कुछ था भी, तो नोटबंदी और जीएसटी ने तबाह कर दिया। सरकारी क्षेत्र में नौकरियों के आंकड़े बता रहे हैं कि आरक्षण के आधार पर इन तबकों को मिला प्रतिनिधित्व और हिस्सेदारी भी सीमित होती जा रही है। जिस निजी क्षेत्र का विस्तार हो रहा है, उसमें इन तबकों का नहीं के बराबर हिस्सा है।

बहरहाल, संविधान बरकरार है, आरक्षण की व्यवस्था बरकरार है। इसमें कुछ भी औपचारिक तौर खत्म नहीं किया गया है, लेकिन उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के नाम पर अर्थव्यवस्था को ऐसी शक्ल पिछले 25 वर्षों में दे दी गई है कि सवर्णों को बहुलांश नौकरियों पर फिर से एक तरह का आरक्षण प्राप्त हो गया है। जिन क्षेत्रों में आरक्षण नहीं है, उन क्षेत्रों में एससी, एसटी और ओबीसी लोगों को नौकरी के नाम पर वही काम मिलता है, जो वर्ण-जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था ने उनके लिए निर्धारित कर रखा है।

पिछले एक दशक में सवर्णों में जो आक्रामकता नए सिरे से दिखी जा रही है, हिंदुत्व का जो अभियान इतना जोर पकड़ा है, उसका कारण सिर्फ सामाजिक-सांस्कृतिक या धार्मिक नहीं है। उसकी जड़ में आर्थिक कारण है। इन 25 वर्षों में जो अर्थव्यवस्था में तेजी से विकास हुआ, बिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था ट्रिलियन डॉलर में बदली, उसका सबसे बड़ा लाभार्थी सवर्ण समुदाय था। इस आर्थिक ताकत की जमीन पर उसने हिंदुत्व की आड़ में सवर्ण वर्चस्व का नया अभियान चलाया और काफी हद तक सफल हुआ। दूसरी तरफ दलित, आदिवासी और ओबीसी की घटती आर्थिक ताकत उनकी राजनीतिक कमजोरी का एक बड़ा कारण बनी है, क्योंकि दुनिया हो या राजनीति भावनात्मक बातों से नहीं चलती। उसके पीछे मजबूत भौतिक कारक होते हैं। यह बात 1991-92 के बाद बने भारत और उसमें विभिन्न सामाजिक-आर्थिक और धार्मिक वर्गाें की हिस्सेदारी और उसके लिए होने वाले संघर्ष में हार-जीत पर भी लागू होती है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सिद्धार्थ

डॉ. सिद्धार्थ लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

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