सुबह के सात बज रहे थे। लातेहार से लौटते हुए हमारी टीम गाडी नामक गांव पहुँची, जो रांची के उत्तरपूर्व में झारखंड के लातेहार जिलान्तर्गत बरवाडीह थाना क्षेत्र में स्थित है। हमने देखा कि तीस वर्ष के आसपास की उम्र का एक व्यक्ति सड़क से सटे अपने घर के चबूतरे पर उदास बैठा है। पूछने पर पता चला वह नागेन्द्र सिंह नामक चेरो आदिवासी है, जिसके सिर पर बाईस टांके थे। ये टाँके उसे बेतला अभ्यारण्य के पास स्थित पुलिस पिकेट के हैण्डपंप से पानी पीने की कोशिश करने की सजा के रूप में मिले थे। एक आजाद देश में क्या किसी व्यक्ति को सिर्फ पानी पीने के लिए इतनी बड़ी सजा दी जा सकती है, हमारे लिए यह अकल्पनीय था।
हम स्तब्ध थे और हमें गुस्सा भी आ रहा था। बेशक यह निंदनीय और शर्मनाक घटना थी। हमने नागेन्द्र से पूरी घटना जाननी चाही। शुरू में नागेन्द्र चौक गये कि हम अनजान लोग उनके दु:ख, दर्द और पीड़ा को क्यों जानना चाहते हैं? उनको इसलिए भी हम पर विश्वास नहीं हो रहा था क्योंकि वे जिन्हें वोट देते हैं उनके पास भी उनका दु:ख, दर्द और पीड़ा सुनने के लिए समय नहीं है। एक बार चुनाव जीतने के बाद, जनप्रतिनिधि उनके क्षेत्र में झांकने भी नहीं आते। उन्हें यह डर भी सता रहा था कि उनको अपनी आपबीती बताना कहीं महंगा तो नहीं पड़ेगा? लेकिन उनको पूरा विश्वास दिलाने के बाद उन्होंने अपनी आपबीती सुनाई।
नागेन्द्र बेतला अभ्यारण्य में एक दिहाड़ी मजदूर के रूप में कार्यरत हैं, उन्हें प्रतिदिन 177 रूपये मजदूरी मिलती है, जिससे वे अपना परिवार चलाते हैं। उनके परिवार में उनकी पत्नी 30 वर्षीय गीता के अलावा 9 वर्षीय बेटी दुर्गावती एवं 7 वर्ष का बेटा श्रीशांत है। प्रतिवर्ष 1 नवंबर को ‘पलामू किला’ में मेले का आयोजन होता है, जहां भारी संख्या में लोग जाते हैं। चूंकि नागेन्द्र सिंह काम पर गये थे, इसलिए उनकी पत्नी गीता अपने दोनों बच्चों को लेकर ‘पलामू किला’ मेला देखने गयी। काम खत्म करने के बाद नागेन्द्र सिंह भी पलामू किला पहुंचे और शाम को पूरा परिवार एक साथ घर लौटने लगा। लगभग 6 बजे वे बेतला पुलिस पिकेट के पास पहुंचे।
इसी बीच दुर्गावती को प्यास लगी इसलिए उसने बेतला के पास हैंडपंप देखकर अपने पिता से पानी पिलाने को कहा। वे वहां पर रूककर पानी पीने लगे। इतने में ही पुलिस पिकेट में तैनात जवान उपेन्द्र पासवान ने नागेन्द्र सिंह को यह कहते हुए गाली देना शुरू की कि ”तुम नक्सली होकर यहां पानी क्यों पी रहे हो? नागेन्द्र ने कहा कि ”सर मैं नक्सली नहीं हूं। बेतला अभ्यारण्य में दिहाड़ी मजदूर हूँ।” उपेन्द्र पासवान ने उनकी एक न सुनी और उनके साथ धक्का-मुक्की शुरू कर दी। इसी बीच दो और जवान – रमेश महतो एवं बिन्देश्वरी सिंह भी वहां आ धमके और तीनों ने मिलकर नागेन्द्र को लाठी, लात और घूसे से बुरी तरह से पीटा। ये तीनों नशे में धुत्त थे।
जब गीता बीच बचाव करने गयी, तो उसे भी लाठी से पीटा गया। उसके दाहिने हाथ एवं पीठ पर लाठियां बरसाईं गईं। पुलिस जवानों ने बच्चों को भी नहीं छोड़ा, नागेन्द्र का सिर दो जगहों पर फट गया और वे लहूलुहान होकर बेहोश हो गए। उनकी पत्नी ने तुरंत अपनी साड़ी से नागेन्द्र का सिर बांध दिया। कुछ समय बाद जब नागेन्द्र होश में आये तो वे सब घर की ओर बढऩे लगे लेकिन इन जवानों ने उन्हें मुख्य सड़क से नहीं जाने दिया। अंतत: वे पीछे से निकले और हॉस्पिटल पहुंचे। इलाज हुआ और वे बच गये। उन्हें सिर में बाईस टाँके आये और इलाज कराने में 5000 रूपये भी लगे।
2 नवंबर, 2014 को सुबह 10 बजे नागेन्द्र सिंह तीनों पुलिस जवानों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाने के लिए बरवाडीह थाना पहुंचे। थानेदार ने पुलिस जवानों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने से साफ मना कर दिया। लेकिन नागेन्द्र भी कहां मानने वाले थे? वे वहीं डटे रहे। अंतत: थानेदार ने उनका आवेदन रख लिया एवं हस्ताक्षर कर एक प्रति वापस भी दे दी। पुलिस अधिकारी के हस्ताक्षरयुक्त आवेदन-पत्र वापस मिलना नागेन्द्र के लिए एक हाथियार ही था, जिसके बदौलत वह अपनी लड़ाई आगे बढ़ा सकता था।
उसी दिन शाम को 4 बजे बरवाडीह थाना के दारोगा धनंजय प्रसाद पुलिस बल के साथ नागेन्द्र सिंह के घर पहुंचे और उन्होंने नागेन्द्र से मामला वापस लेने को कहा। पुलिस के वहां पहुंचते ही भीड़ जुट गई और पूरा माहौल नागेन्द्र के खिलाफ हो गया। पुलिस ऑफिसर ने नागेन्द्र को इलाज कराने के लिए 8 हजार रूपये दिये और खून से लथपथ साड़ी धोने की सलाह दी। अंत में उन्होंने एक सुलहनामे पर नागेन्द्र से दस्तखत करवा लिए जिसमें लिखा था कि ‘हम लोगों ने आपस में सुलह कर ली है और आगे लड़ाई नहीं करेंगे।’
नागेन्द्र अभी भी डरे-सहमे दिखते हैं, लेकिन उनकी पत्नी गीता बहुत बहादुर महिला हैं, उन्होंने खून से सनी साड़ी को सम्हाल कर रखा है, क्योंकि वह पुलिसिया जुल्म के खिलाफ लडऩा चाहती हैं। वह पानी पीने की इतनी बड़ी सजा भुगतने को तैयार नहीं दिखती। गीता कहती है, ”हमने क्या अपराध किया था जो हमें बैल-बकरी जैसा पीटा गया? मैं पुलिस अत्याचार के खिलाफ लडऩे के लिए तैयार हूँ।” इधर झारखंड ह्यूमन राईट्स मूवमेंट इस मामले को राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के पास ले गया है पानी पीने की इतनी बड़ी सजा दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए शर्मनाक नहीं तो और क्या है?
(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2015 अंक में प्रकाशित)
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