गत 16 जनवरी को, जब बिहार के गरीबों के खिलाफ खड़ी न्याय व्यवस्था को लेकर अरवल में नारे गूँज रहे थे और जोशीले भाषण दिये जा रहे थे, उसी दिन, भैरो राजवंशी अपने गांव शंकर बिगहा में अपनी मजबूरी बता रहे थे, जो दबंगों के डर और सामाजिक दबाव से उपजी थी। वे जहानाबाद सत्र न्यायालय में ‘सच’ कहने की हिम्मत नहीं जुटा सके। वे शंकर बिगहा जनसंहार के उन 49 गवाहों में से एक थे, जिन्होंने यह दावा किया कि वे अपने सामने कटघरे में खड़े अभियुक्तों को नहीं पहचानते। सभी गवाहों के मुकर जाने से इस प्रकरण में अभियुक्त बनाये गये उन 24 लोगों की रिहाई का रास्ता साफ हो गया, जिनमें से अधिकांश शंकर बिगहा के पड़ोस के गांव धोबी बिगहा के रहने वाले थे। पिछले तीन वर्षों में यह पांचवीं बार है, जब रणवीर सेना द्वारा किये गए जनसंहार में एक भी अभियुक्त को सजा नहीं हुई। पांचों जनसंहारों में दो तथ्य समान थे। पहला, मारे गये लोग दलित, पिछड़े या अति पिछड़े थे और दूसरा, अभियुक्त ऊंची जातियों से थे।
शंकर बिगहा जनसंहार में न्यायालय का फैसला, बाकी मामलों से थोड़ा अलग है। जहाँ अन्य जनसंहारों में निचली अदालतों ने सजा सुनायी, जिसे पटना उच्च न्यायालय ने निरस्त किया, वहीं शंकर बिगहा जनसंहार में निचली अदालत ने ही सभी 24 अभियुक्तों को साक्ष्य के अभाव में रिहा कर दिया। न्यायालय का यह फैसला, घटना के करीब 16 साल बाद, 13 जनवरी को आया।
25 जनवरी, 1999 की रात, शंकर बिगहा में रणवीर सेना के लोगों ने 23 लोगों को क्रूरता से मार डाला था, जिनमें सात बच्चे और पांच महिलाएं शामिल थीं। सभी मृतक पासवान, चमार, दुसाध और रजवार जातियों के थे। भैरो राजवंशी ने गवाही से मुकर जाने की असली वजह मीडिया को बतायी – ‘प्रशासन से सुरक्षा नहीं मिलने के कारण हमने डर से ऐसा किया। हमें डर है कि कहीं फिर से वैसी ही घटना न हो जाये।’ भैरो के परिवार के सात लोगों को रणवीर सेना के गुंडों ने मार डाला था। गांव के लोग बताते हैं कि मुकदमे के दौरान उन्हें अकेले ही गांव से जहानाबाद कोर्ट तक आना-जाना पड़ता था। कई बार तो उनके आने-जाने की व्यवस्था अभियुक्त करते थे।
रजामंदी का परिणाम
शंकर बिगहा जनसंहार के अभियुक्तों को बरी कर दिये जाने की लोकतंत्र में आस्था रखने वाले, मानवाधिकार प्रेमी और गैर-बराबरी के खिलाफ लडऩे वालों में तीखी प्रतिक्रिया हुयी। इसे पुलिस-प्रशासन और न्याय व्यवस्था के गरीब-विरोधी रुख का नतीजा बताया गया। इस आरोप में बहुत हद तक सच्चाई भी है, लेकिन यह पूरा सच नहीं है। नरसंहार के आरोपियों की ‘रिहाई’, दरअसल, एक असफल क्रांति के निम्नस्तरीय ‘सुलहवाद’ पर उतर आने की त्रासदी की कहानी कहती है।
भले ही आधिकारिक तौर पर कोई इस बात की तस्दीक न करे लेकिन सच यह है कि भोजपुर और जहानाबाद जिलों में कुछ विवादों और मुकदमों में भाकपा-माले और रणवीर सेना से जुड़े लोगों ने स्थानीय स्तर पर सुलह की है। इसका संकेत भाकपा-माले (लिबरेशन) द्वारा बथानी टोला जनसंहार के बाद जारी पार्टी की केंद्रीय कमेटी के पर्चे से मिलता है। इसमें कहा गया है, ‘हम हमेशा शांति के पक्ष में रहे हैं। अमनपसंद लोगों की आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए, हमने शांति के लिए पहल की। बिहटा में किसान महासभा द्वारा आयोजित स्वामी सहजानंद सरस्वती के जन्मदिन के अवसर पर हमने शांति वार्ता शुरू की। वार्ता काफी सकारात्मक रही। हमें रणवीर सेना की तरफ से सकारात्मक जवाब की आशा थी। इसके बाद हमने एक मित्र के जरिए, जो मध्यस्थता कर रहा था, रणवीर सेना को संदेश भेजा कि वह भी ऐसा ही करे। रणवीर सेना की प्रतिकिया काफी निराशाजनक थी। इस तरह शांति की हमारी कोशिशें विफल हो गयी थीं। जून, 1996 में दर्जनों जन बैठकों के जरिए हमने शांति अभियान की फिर से शुरुआत की। जल्दी ही पांच गांवों में रणवीर सेना और हमारे संगठनों के लोगों के बीच अंतर्विरोधों को सुलझा लिया गया।’
अगर हम बिहार के तत्कालीन अशांत (पुलिस की भाषा में) इलाकों की ताजा राजनीतिक-सामाजिक स्थिति पर नजर डालें, तो शंकर बिगहा के पीडि़तों की मजबूरी और जनसंहार के फैसले के मर्म को समझने में सहूलियत होगी। आज इन इलाकों में कृषि में पूंजी निवेश बढ़ा है, जिसने कृषि उत्पादन संबंध बदल दिए हैं। सरकारी योजनाओं का भारी-भरकम पैसा गांवों में पहुंच रहा है, जिसका बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार व दलाली के रास्ते, बैठे-बिठाये आमदनी का जरिया बन गया है। पैसा हर गांव के जीवन में बोल रहा है। दूसरी तरफ, जमीन, मजदूरी जैसे सवालों पर आक्रामक तेवर, गुजरे ज़माने की बात बन गए हैं। ऐसे मुद्दों पर संसदीय या गैर-संसदीय संघर्ष चलाने वाली ‘क्रांतिकारीÓ ताकतों का भी एजेंडा बदल गया है। अब उनका जोर मनरेगा में भ्रष्टाचार, पीडीएस में धांधली, इंदिरा आवास योजना के तहत मकानों का वितरण जैसे मुद्दों पर है। प्रतिक्रियावादी रणवीर सेना का नामो-निशान नहीं बचा है। रणवीर सेना इतिहास के एक दौर की उपज थी और उसे इतिहास के कूड़ेदान में जाना ही था। उसका सरगना ब्रह्मेश्वर मुखिया, भूमिहारों की गुटबाजी और संगठन के आतंरिक संघर्ष में मारा गया।
लेकिन, इन सबके बीच एक तथ्य यह भी है कि हाल में बिहार के उन इलाकों में भी दलितों पर अत्याचार की घटनाएं बढ़ी हैं, जहां भाकपा-माले (लिबरेशन), पार्टी यूनिटी व एमसीसी (अब भाकपा माओवादी) की लंबी लड़ाइयों के बाद एक हद तक सामाजिक संतुलन कायम हुआ था। आज भोजपुर की हालत क्या है? सहार में पिछले दिनों दंगा हुआ। पिछले साल आठ अक्तूबर को सिकरहटा के कुरमुरी में महादलित जाति की छह लड़कियों के साथ रणवीर सेना से जुड़े एक अपराधी ने गैंग रेप किया। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, बिहार में 2014 में दलित उत्पीडऩ की करीब 11 हजार घटनाएं दर्ज की गयीं। यानी दलित अत्याचार की घटनाएं बढ़ रही हैं, बदलाव की लड़ाई लडऩे वाले चुनावी राजनीति में उलझे हैं और अदालतें गरीबों के पक्ष में खड़ी नहीं दिख रहीं हैं। ये तीनों कारक एक दुष्चक्र की तरह हैं- एक-दूसरे के कारण व परिणाम, और उन्हें एक साथ देखने पर सही तस्वीर सामने आयेगी। तब शंकर बिगहा जनसंहार के गवाहों के बयान से मुकरने, प्रशासन द्वारा उनमें भरोसा पैदा नहीं कर पाने और अंतत: अभियुक्तों की रिहाई का मतलब भी साफ होगा।
गुनाहगार और राजनीति
शंकर बिगहा के गुनाहगार, पुलिस-प्रशासन से कहीं ज्यादा क्या वे लोग क्यों नहीं हैं, जो पीडि़तों को उनके हाल पर छोड़ कर भाग गये? घटना के बाद तो सबने अपनी-अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकीं, लेकिन उसके बाद, शंकर बिगहा की याद किसी को न रही। जनसंहार के समय राबड़ी देवी की सरकार थी। लालू-राबड़ी ने प्रकरण की त्वरित सुनवाई का वायदा किया था। मुकदमा 16 साल चला। तब नीतीश कुमार, समता पार्टी में थे और उन्होंने राष्ट्रपति शासन लागू किये जाने की मांग की थी। सुनवाई के दौरान उनकी सरकार थी। सभी 49 गवाह पक्षद्रोही हो गये। भाजपा ने तो बथानी टोला जनसंहार में अभियुक्तों की रिहाई का स्वागत कर अपना वर्गीय-जातीय चरित्र पहले ही स्पष्ट कर दिया था।
कोर्ट-कचहरी और पुलिस प्रशासन पर सवाल खड़ा करने के पहले लाल झंडे वालों से यह सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि ‘कामरेड, जब शंकर बिगहा के गरीब, दलित और पिछड़े अपने बेटे-बेटियों व अन्य परिजनों के कातिलों को नहीं पहचानने का दावा कर रहे थे, तब आप कहाँ थे? क्या आपकी यह जि़म्मेदारी नहीं थी कि आप उनमें सुरक्षा का भरोसा पैदा करते? 23 लोगों की हत्या के बाद जो नारे उछाले जा रहे थे, उनका क्या हुआ? जब वे अकेले पड़ गये तब उनके सामने इसके सिवा क्या विकल्प था कि वे अपने दर्द सीने में दबा कर आगे की जिंदगी जीयें? न्याय और मुक्ति की लड़ाई के राह से भटक जाने या बीच में छोड़ देने का हश्र क्या होता है, इसका गवाह है शंकर बिगहा जनसंहार के पीडि़तों का अपना मुंह बंद कर लेना। बिहार की जटिल जातीय और सामाजिक संरचना में यह कैसे मान लिया गया कि सरकार और प्रशासन गवाहों को सुरक्षा प्रदान करेगा? यह जि़म्मेदारी तो उन सामाजिक संगठनों को उठानी चाहिये थी, जो बदलाव की लड़ाई लड़ रहे थे। ये सारे सवाल तो इतिहास के किसी दौर में जरूर पूछे जायेंगे।
फिलहाल तो यह सवाल पूछने का समय है कि आखिर 25 जनवरी, 1999 की रात 23 लोगों की हत्या करने वाले कौन थे? वे कहां के रहने वाले थे? क्या वे किसी दूसरे ग्रह के प्राणी थे? यदि वे इसी ग्रह के थे तो फिर पुलिस उन्हें अदालत के सामने क्यों नहीं ला पायी? यदि धोबी बिगहा के निवासी निर्दोष थे और उन्हें राजनीतिक कारणों से फंसाया गया था (जैसा कि उन्होंने अपने बयान में कहा) तो असली हत्यारे कौन हैं? क्या कभी उनका नाम सामने आ पायेंगें? इन सवालों के जवाब के लिए दबाव बनाना इसलिए जरूरी है कि इस फैसले से दोतरफ़ा खतरा है। एक तरफ, न्याय व मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे लोगों में कहीं डर न पैदा हो जाये और दूसरा, सामंती और जातीय अत्याचार के लिए कुख्यात भोजपुर व जहानाबाद फिर से पुरानी पटरी पर न लौटने लगे।
किसके पक्ष में है न्याय व्यवस्था
जनसंहार | मृतकों की संख्या | अदालत का फैसला | तिथि |
---|---|---|---|
बथानी टोला | 20 | हाईकोर्ट से रिहा | अप्रैल 2012 |
मियांपुर | 32 | हाईकोर्ट से रिहा | जनवरी 2013 |
नगरी बाजार | 10 | हाईकोर्ट से रिहा | मार्च 2013 |
लक्ष्मणपुर बाथे | 58 | हाईकोर्ट से रिहा | अक्टूबर 2013 |
शंकर बिगहा | 23 | ट्रायल कोर्ट से रिहा | जनवरी 2015 |
क्या हुआ था शंकर बिगहा में
आइए, जानते हैं कि शंकर बिगहा में 25 जनवरी, 1999 की रात हुआ क्या था। अरवल (पहले जहानाबाद) जिले का यह गांव, लक्षमणपुर बाथे (जहां एक दिसंबर, 1997 की रात रणवीर सेना ने 62 लोगों की नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी थी) से करीब सात-आठ किलोमीटर की दूरी पर है। शंकर बिगहा में ज्यादातर घर दलित और अत्यंत पिछड़ी जातियों के हैं। इसके अगल-बगल के गांव भूमिहार-बहुल हैं। गांव में मजदूरी या जमीन को लेकर बड़े जोतदारों या किसानों से सीधा कोई संघर्ष नहीं था, इसलिए तनाव जैसी कोई बात भी नहीं थी। हां, पार्टी यूनिटी (एक नक्सलवादी संगठन, जिसका बाद में एमसीसी के साथ विलय हो गया और जो अब भाकपा-माओवादी के नाम से सक्रिय है) और थोड़ा-बहुत भाकपा-माले (लिबरेशन) के लोगों का यहाँ आना-जाना जरूर था। वह दौर मध्य बिहार में जमीन, इज्जत और मजदूरी के सवाल पर तीखी लड़ाई का था, जिसमें एक तरफ थे ग्रामीण गरीब, जिनमें बड़ा तबका दलितों, पिछड़ों और अत्यंत पिछड़ों का था, तो दूसरी तरफ थे सवर्ण जातियों के धनी बड़े जोतदार।
भूमिहारों की अपनी रणवीर सेना थी। रणवीर सेना उन गांवों को चुन-चुन कर निशाना बनाती थी, जहां प्रतिरोध की गुंजाईश न्यून थी। उसका एकमात्र मकसद गरीबों और कमजोर जातियों में दहशत पैदा कर यह संदेश देना था कि ‘बनी-बनायी व्यवस्था’ को चुनौती देने की कोई हिमाकत न करे। 25 जनवरी, 1999 की रात, जब पूरा गांव सो रहा था, छोटे-छोटे समूहों में हथियारबंद लोग गांव में घुसे। उन्होंने झोंपडिय़ों के दरवाजे की कुंडी लगा उनमें आग लगी दी। जब शोर सुन कर लोग बाहर निकले तो हत्यारों ने उन पर फायरिंग शुरू कर दी। फिर दरवाजों को तोड़ कर बच्चे-बच्चियां और महिलाओं को भी मारा। कुल 23 लोग मारे गये। करीब एक घंटे के बाद वे रणवीर सेना का नारा लगाते हुए चले गये। प्रकाश राजवंशी के बयान पर इस घटना की प्राथमिकी मेहंदिया थाना में दर्ज करायी गयी। तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने प्रोटोकॉल से हटकर, इस घटना पर प्रेस बयान जारी किया और बिहार सरकार को कड़ी व तत्काल कार्रवाई करने को कहा। तब बिहार के राज्यपाल सुंदरसिंह भंडारी (आरएसएस से जुड़े) थे और उन्होंने तत्कालीन राबड़ी सरकार को भंग करने और राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश केंद्र सरकार से की थी।
(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2015 अंक में प्रकाशित )
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