h n

“प्रगतिशील” मनुवाद के खिलाफ बहुजन महिलायें

पिछले 10 मार्च को बहुप्रचारित ‘नागपुर चलो’ नारे के साथ आयोजित महिलओं की परिषद् में घटित एक वाकये के हवाले से यह सिद्ध होता है कि जाति महिलाओं की एकता के मार्ग में बाधा है। मनीषा बांगर का आँखों देखा विश्लेषण :

1942 में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के तहत बाबा साहब डा. आंबेडकर के नेतृत्व में नागपुर में हुई तीस हजार महिलाओं की परिषद का 2017 में 75 साल पूरे हो चुके हैं। इसकी याद में नागपुर में सावित्रीबाई फुले के 120वें स्मृति दिन, दिनांक 10 मार्च को, राष्ट्रीय स्तर पर महिला परिषद का आयोजन किया गया था। इस परिषद में विभिन्न राज्यों से चार हजार महिलाओं ने भाग लिया। इस सम्मलेन में मैंने भी भाग लिया।

संबोधित करती दलित अस्मिता पत्रिका की संपादक विमल थोराट

इस अधिवेशन में, अभिनया कांबले, स्मिता कांबले सहित विभिन्न राज्यों से आये कई महिला संगठनों के नेतओं ने अपनी बात रखी। इस परिषद को सफल बनाने के लिए छायाताई खोब्रागडे और उनकी कई कार्यकर्ताओं ने मेहनत की।

ब्राह्मणवादी और पूंजीवादी व्यवस्था इस देश की महिलाओं को जाति, लिंग, भाषा एवं प्रांत के आधार पर विभाजित कर अपनी व्यवस्था कायम रखने का प्रयास कर रही है। जिसके कारण उन्हें कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। संविधान में सभी नागरिकों के साथ समानता का प्रावधान है। किन्तु संविधान आज ब्राह्मणवादी लोगों के हाथ में है। वे संविधान विरोध में और मानवी मूल्यों को नकारने वाले है। यह उनकी परम्परा है। आज महिलाओं पर हो रहे घरेलू अत्याचार, बलात्कार ब्राह्मणवादी मानसिकता का परिणाम है। बहुजन महिला इस अमानवीय गुलामी को सदियों से ढो रही है। अज्ञानता के कारण उन्हें अपने शत्रु और मित्र की पहचान नहीं है। मुझे लगा कि ब्राह्मण/सवर्ण महिलाओं के लिए इस परिषद का आयोजन दलित महिलाओं को गुलामी का एहसास दिलाने के अवसर के रूप में था, जिसमें धार्मिक अल्पसंख्यक, आदिवासी, अछूत, अन्य पिछड़ा वर्ग, किन्नर, सेक्स वर्कर, महिलाओं ने व्यवस्था द्वारा हो रहे शोषण के प्रति अपनी बात रखी।

आखिर इनके हाथ में बैनर देकर क्या हासिल किया जा सकता है? तस्वीर का तमाशा

हालांकि यह परिषद सफलता के साथ सम्पन्न हुआ लेकिन इसमें ब्राह्मण कम्युनिष्ट महिलाओं द्वारा देह बिक्री जैसे पारम्परिक धंधे का उदात्तीकरण का प्रयास हुआ, जिससे मैं हतप्रभ थी। आंबेडकरवादी महिलाओं द्वारा इस उदात्तीकरण का खंडन हुआ। हजारो महिलाओं ने धिक्कार किया।

वहाँ ‘चलो नागपुर’ नारे के अंतर्गत देश के कई सामाजिक संगठनों (एनजीओ) की महिलाओं ने हिस्सा लिया था। किन्तु इस परिषद में ब्राह्मण महिलाओं ने अपने एनजीओ के साथ घुसपैठ की थी, जिन्होंने वेश्या व्यवसाय का समर्थन किया। ये महिलाएं इस धंधे को शोषण नहीं मानती है, बल्कि उदातीकरण में लगी थीं। यह बात जब अभिनया कांबले , स्मिता कांबले और छायाताई खोब्रागडे को और मुझे ध्यान आयी तो हमने ब्राह्मण महिलाओं का कड़ा विरोध किया।

संबोधित करती मनीषा बांगर

अपनी बात रखते हुए अभिनया कांबले ने कहा कि ‘‘बाबा साहब डा. आंबेडकर ने मुंबई के कामाठीपुरा के वेश्याओं से अपना धंधा छोड़ने की अपील की थी। आज अगर इस बात का समर्थन होता है तो मैं इसका धिक्कार करती हूं।

मैंने तब हस्तक्षेप करते हुए कहा कि ‘आज ये ब्राह्मण महिलायें एससी, एसटी, ओबीसी और धार्मिक अल्पसंख्यक महिलाओं को कलंकित कर रही है इसके लिए इन महिलाओं ने एनजीओ बनायी है। यह व्यवसाय असंवैधानिक है। इसे रोकना हमारा कर्तव्य है। कम्युनिस्ट महिलाओं को भी इस धंधे का समर्थन नहीं करना चाहिए। हम ऐसी मानसिकता और विचार रखने वालों को कड़ा विरोध करेंगे जो आंदोलन को क्षति पहुंचाते हैं।’

सेक्सवर्क के समर्थन की कोशिश की गई, जिसका बहुजन महिलाओं ने विरोध किया

वेश्यावृत्ति लैंगिक उत्पीडन तो बाद में है, यह जाति उत्पीड़न पहले है। इसमें लाई गई और मजबूर की गई महिलायें दलित-पिछड़े वर्ग की महिलायें ज्यादा हैं, इनमें मुसलमान महिलायें हैं, सिक्ख भी हैं, तो दलित सिक्ख हैं। इसमें स्वास्थय शिक्षा, भोजन से वंचित लोगों को उनकी मजबूरी के कारण फंसाया जाता है, इन्हें अपहरण कर लाया जाता है। दुखद यह था कि कार्यक्रम में आई सवर्ण महिलायें, जो वामपंथी भी हैं, इस पेशे को काम का दर्जा देने का वकालत कर रही थीं, वे कह रही थीं कि इसमें ब्राह्मण महिलायें भी शामिल हैं- यह उनका गलत दावा है।  संविधान सबको सम्मानित काम मुहैया कराने की जिम्मेवारी स्टेट को देता है। वह उसे करना चाहिए। भारत में इस पेशे से बाहर निकलना मुश्किल है, यदि इतना ही आसान है सबकुछ तो इस पेशे से महिलायें क्यों नहीं निकल पातीं।  पटना में हाल के दिनों में इसका उदाहरण मिला, जब इस पेशे की महिलायें इससे बाहर निकलना चाहती थीं, लेकिन उनके पास विकल्प नहीं था, यह पीढी-दर-पीढी चलता रहता है, निकलने का विकल्प नहीं होता।

कार्यक्रम में शामिल देश भर से आई महिलायें

सवर्ण महिलायें एक बहुत ही घिनौने व्यवस्था के इर्द-गिर्द निर्मित की गई इकोनोमी की वकालत कर रही हैं। यह तो यही हुआ कि आप मैला साफ़ करने या चमडा निकालने के लिए लोगों को लगाये रखें और उनके लिए अच्छी व्यवस्था की वकालत करें। वे करें गंदे काम और उनके लिए अच्छी व्यवस्था हो। गांधी भी वही कहते थे, मोदी भी यही कहते हैं कि उन्हें अच्छा भंगी बनना चाहिए, ये महिलायें भी यही कह रही हैं कि इन्हें भी अच्छे सेक्स वर्कर बनने चाहिए। इन्हें एनजीओ चलाना है, इन्हें पैसा कमाना है, इसलिए वे झूठ बोल रही हैं। अगर यह काम इतना अच्छा है तो ब्राह्मण महिलायें क्यों नहीं जाती हैं? ऐसी कोई ब्राह्मण महिला सामने लाओ, जो इस पेशे में हैं तो मैं उनका भरे चौक में स्वागत करूंगी। जब वे सवर्ण वामपंथी महिलायें बोल रही थीं तो हमने उनका प्रतिवाद किया।  हमने उन्हें बताया कि डा. आंबेडकर ने इन्हें इस काम में बने रहने से मना किया था, उन्होंने स्टेट की जिम्मेवारी बताई थी कि इनके लिए वैकल्पिक व्यवस्था की जाये। मुझे खुशी है कि ये सवर्ण वामपंथी महिलायें यहाँ बेनकाब हुईं। बहुजन महिलायें इनसे सावधान रहेंगी।

यह एक ऐसा प्रकरण था, जिसने नागपुर चलो के नारे के साथ आयोजित इस कार्यक्रम के प्रति मेरे उत्साह को ठंढा कर दिया। हमें लगा कि ये वही तत्व हैं, जिनके कारण महिलाओं की आपसी एकता जाति से ऊपर जाकर नहीं बन सकती हैं।


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

मनीषा बांगर

डॉ. मनीषा बांगर पेशे से चिकित्सक और पीपुल पार्टी ऑफ इंडिया-डी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। वे हैदराबाद के डेक्कन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज में गेस्ट्रोएंटेरोलोजी व हेपेटोलोजी की एसोसिएट प्रोफेसर हैं। पिछले एक दशक में उन्हें भारत और विदेश में अनेक विश्वविद्यालयों व मानवाधिकार और फुले-आंबेडकरवादी संगठनों व संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा लैंगिक समानता, स्वास्थ्य व शिक्षा से लेकर जाति व फुले, पेरियार और आंबेडकर जैसे विषयों पर अपने विचार रखने के लिए आमंत्रित किया जाता रहा है।

संबंधित आलेख

यूपी : दलित जैसे नहीं हैं अति पिछड़े, श्रेणी में शामिल करना न्यायसंगत नहीं
सामाजिक न्याय की दृष्टि से देखा जाय तो भी इन 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने से दलितों के साथ अन्याय होगा।...
बहस-तलब : आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पूर्वार्द्ध में
मूल बात यह है कि यदि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाता है तो ईमानदारी से इस संबंध में भी दलित, आदिवासी और पिछड़ो...
साक्षात्कार : ‘हम विमुक्त, घुमंतू व अर्द्ध घुमंतू जनजातियों को मिले एसटी का दर्जा या दस फीसदी आरक्षण’
“मैंने उन्हें रेनके कमीशन की रिपोर्ट दी और कहा कि देखिए यह रिपोर्ट क्या कहती है। आप उन जातियों के लिए काम कर रहे...
कैसे और क्यों दलित बिठाने लगे हैं गणेश की प्रतिमा?
जाटव समाज में भी कुछ लोग मानसिक रूप से परिपक्व नहीं हैं, कैडराइज नहीं हैं। उनको आरएसएस के वॉलंटियर्स बहुत आसानी से अपनी गिरफ़्त...
महाराष्ट्र में आदिवासी महिलाओं ने कहा– रावण हमारे पुरखा, उनकी प्रतिमाएं जलाना बंद हो
उषाकिरण आत्राम के मुताबिक, रावण जो कि हमारे पुरखा हैं, उन्हें हिंसक बताया जाता है और एक तरह से हमारी संस्कृति को दूषित किया...