सहारनपुर की घटना को कई पहलुओं से देखा जाना चाहिए। हम इसकी सराहना भले ही न करें लेकिन इस एक घटनाक्रम ने वंचितों में आयी प्रतिरोधक क्षमता को तो साबित किया ही है।

याद कीजिए, बिहार के औरंगाबाद के गोह प्रखंड के मियांपुर नरसंहार और इससे ठीक पहले हुआ सेनारी नरसंहार। सेनारी गांव में भुमिहार जाति के सामंतों की हत्या नक्सलियों ने कर दी थी जो असल में अपेक्षाकृत अधिक संगठित दलितों का प्रतिरोध था। इसके ठीक बाद मियांपुर में रणवीर सेना ने कोहराम मचाया था। 1 अक्टूबर 2007 को खगड़िया के अलौली में हुए 21 धानुकों की हत्या को छोड़ दें तो मियांपुर का नरसंहार आखिरी नरसंहार साबित हुआ। अलौली नरसंहार अलग इस मायने में था कि इसमें भूमिहीन दलित आक्रमणकारी थे।
दरअसल बिहार में दलितों और पिछड़ों का प्रतिरोध प्रारंभ से संगठित रहा। नक्सलवाड़ी आंदोलन ने इसे हिंसक स्वरुप प्रदान किया तो समाजवादियों ने इसे अपना नैतिक समर्थन देकर अहिंसक तरीके से दलितों और पिछड़ों के प्रतिरोध को सशक्त किया। यही वजह रही कि 1990 के बाद बिहार में नरसंहार तो हुए लेकिन वे एकतरफ़ा नहीं थे। हालांकि कई अवसर आये जब समाजवादी भी डोल गये। मसलन बेलछी नरसंहार के बाद कर्पूरी ठाकुर पहले राजनेता थे जिन्होंने दलितों और पिछड़ों को हथियार का लाइसेंस बांटने की बात कही थी। ठीक ऐसा ही बयान तिसखोरा नरसंहार के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने भी विधानसभा में कहा था।

लेकिन बिहार का भूमि और जातीय संघर्ष उत्तरप्रदेश से अलग है। खासकर पश्चिमी उत्तरप्रदेश के उन जनपदों में जो दिल्ली से सटे हैं। मसलन सहारनपुर का राजनीतिक इतिहास इसकी पुष्टि करता है। 1952 से लेकर 1971 तक हुए लोकसभा चु्नावों में कांग्रेस को जीत मिली तो 1977 में राशिद मसूद पहली बार गैर कांग्रेसी एमपी बने। वर्ष 1980 में इन्दिरा गांधी की लहर के बावजूद राशिद मसूद जीतने में कामयाब रहे। लेकिन 1984 की सहानुभूति वाली लहर ने उन्हें परास्त कर दिया। इसके बाद एक बार फ़िर राशिद मसूद विजयी हुए लेकिन तबतक सहारनपुर की राजनीतिक आबोहवा बदल गयी। केवल एक बार वर्ष 2009 के चुनाव में बसपा उम्मीदवार को जीत मिली तो इसकी वजह ठाकुर और दलितों का गंठजोड़ था। लेकिन वर्ष 2014 के चुनाव में परिदृश्य बदला और ठाकुर बिरादरी के राघव लाखनपाल विजयी हुए। अब इस आधार पर सहारनपुर के मौजुदा संघर्ष को देखें तो बात समझ में आती है कि इसकी बुनियाद में क्या है।
एक नजर घटनाक्रम पर भी डालते हैं।
एक माह में हिंसा की दो वारदात
महीने भर के भीतर सहारनपुर में हिंसा की दो बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं। पहले सड़क दूधली गांव में अंबेडकर जयंती पर शोभायात्रा निकाले जाने को लेकर सांप्रदायिक हिंसा और अब 5 मई को महाराणा प्रताप जयंती पर शब्बीरपुर गांव में दलितों और राजपूतों के बीच जातीय हिंसा। इन मामलों में अब तक 9 एफ़आईआर दर्ज हो चुकी हैं। 17 लोग गिरफ्तार हो चुके हैं और लगभग 60 लोग फरार हैं।
दलितों के प्रतिरोध की शुरुआत 5 मई को तब हुई जब शब्बीरपुर गांव के कुछ लड़के पास ही के शिमलाना गांव में महाराणा प्रताप की जयंती में शामिल होने के लिए गाजे बाजे के साथ जाने की तैयारी कर रहे थे। ठाकुरों के लड़कों की टोली के साथ डीजे था। वे महाराणा प्रताप अमर रहें के साथ-साथ आम्बेडकर मुर्दाबाद के नारे लगा रहे थे। गांव के दलित युवाओं ने ठाकुरों के लड़कों को रोका। आरोप है कि इस दौरान दलितों ने पथराव शुरु कर दिया, जिसमें एक की जान चली गयी। इस पथराव की खबर मिलते ही शिमलाना गांव में जमा हुए तमाम राजपूत शबीरपुर गांव की ओर चल पड़े। यहीं से मामला उग्र होता गया, जिसके बाद आगजनी का वह दौर चला, जिसमें कइयों के घर जलकर खाक हो गए।
बहरहाल, हरियाणा के हिसार जिले के भगाना और मिर्चपुर की घटनायें सहारनपुर घटना के पहले की कड़ियां हैं। इसके अलावा, अलग परिस्थतियों के बावजूद इसे बिहार के संघर्षों को भी जोडकर समझा जाना चाहिए।
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