h n

सहारनपुर : राजपूती शान के लिए हुआ संघर्ष

मेरठ के पत्रकार अरविंद शुक्ला बताते हैं कि दंगो के पीछे नुक़सान से ज़्यादा डर बैठाने की नीयत होती है। दंगों के बाद कमज़रो लोग ख़ौफ में गांव और घर छोड़कर पलायन करते हैं। इसके बाद उनके घर ज़मीन या तो क़ब्ज़ा लिए जाते हैं या औने पौने दाम पर ख़रीद लिए जाते हैं। सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा की विश्लेषण -

दिल्ली से सहारनपुर की दूरी महज़ चार पांच घंटे की है लेकिन कमज़ोरों की आवाज़े अक्सर इतनी दूर सफर नहीं करतीं। सहारनपुर जातीय हिंसा की चपेट में है लेकिन दिल्ली वाले ग्राऊंड रिपोर्ट से तक़रीबन बेख़बर हैं। 5 मई को हुई हिंसक झड़पों के बाद से ज़िले में दर्जनों लोग बेघर हैं। इनमें कुछ जबरन बेघर कर दिए गए हैं जबकि कई ख़ौफ़ में घर बार छोड़कर भाग गए हैं। उपद्रवियों ने कम से कम 25 घर जला दिए हैं जबकि हिंसा में कई लोगों को शारीरिक हिंसा और माली नुक़सान का सामना करना पड़ा है।

मौजूदा हालात के पीछे महाराणा प्रताप की जयंती पर निकाली गई शोभायात्रा है। प्रशासन के मुताबिक़ महाराणा प्रताप की जयंती पर कुछ लोग शोभायात्रा निकाल रहे थे। जब शोभायात्रा शब्बीरपुर गांव पहुंची तो स्थानीय लोगों ने न सिर्फ विरोध किया बल्कि शोभायात्र पर पथराव भी किया। हालांकि शोभायात्रा को लेकर यह इस साल का पहला विवाद नहीं है। बीती 21 अप्रैल को भी सहारनपुर में एक शोभायात्रा निकाली गई थी। उसका नतीजा भी तक़रीबन यही था। प्रशासन से इजाज़त लिए बिना कुछ लोग दूधली गांव में डा. भीमराव आंबेडकर की शोभायात्रा लेकर दाख़िल हुए। स्थानीय लोगों ने पहले विरोध किया और फिर पथराव।

ये दो घटनाएं अलग-अलग हैं लेकिन इसमें दो बड़ी समानताएं हैं। दोनों घटनाओं से दलितों को जोड़ा गया है और दोनों ही मामलों में संघ से जुड़े लोग शामिल रहे हैं। बस फर्क़ इतना है कि पहली घटना में डा आंबेडकर की शोभायात्रा का कथित विरोध और पथराव करने वाले मुसलमान थे और बार कथित विरोध करने वाले  दलित। प्रशासन ने दोनों बार संघ और संघ के अनुशांगिक संगठनों को पीड़ित माना। हालांकि पहली घटना के बाद संघ ब्रिगेड ने प्रशासन की भी ठीक से ख़बर ली। स्थानीय सांसद राघव लखनपाल के नेतृत्व में भीड़ ने तत्कालीन एसएसपी लव कुमार के आवास पर जमकर तोड़फोड़ की। इससे पहले फसाद के दौरान तमाम प्रशासनिक अधिकारी ग़ुंडागर्दी और मारपीट का शिकार बने।   

मीडिया की एकतरफ़ा रिपोर्टिंग के चलते घटना की वजहें साफ-साफ पता नहीं लग पा रही हैं। मीडिया और प्रशासन हालिया विवाद की वजह भीम आर्मी नाम के स्थानीय दलित संगठन को बता रहा है। जुलाई 2015 में गठिन भीम आर्मी के सर्वेसर्वा एडवोकेट चंद्रशेखर आज़ाद हैं। भीम आर्मी का दावा है कि  वह दलित समुदाय के सम्मान और अधिकार की लड़ाई लड़ रही है। प्रशासन और स्थानीय पत्रकारों का आरोप है कि भीम आर्मी से जुड़े लोगों ने ही महाराणा प्रताप जयंती की शोभा-यात्रा पर पथराव किया और बाद में तोड़ फोड़ में भी इसके सदस्य शामिल रहे।

एसएसपी सहारनपुर सुभाष चंद्रे दुबे ने अभी हाल ही में सहारनपुर की कमान संभाली है। 21 अप्रैल के विवाद के बाद लव कुमार वर्मा की जगह उन्हें सहारनपुर भेजा गया है। वे बताते हैं कि राजपूत युवकों की टोली शब्बीरपुर से गुज़र रही थी। इस टोली में गांव के लड़के भी शामिल हो गए। इस बीच स्थानीय लोगों ने डीजे और म्यूज़िक सिस्टम की ऊंची आवाज़ पर ऐतराज़ जताया तो बात बढ़ गई। इसी बीच टोली पर लोगों ने घरों की छतों से ईंट पत्थर बरसाने शुरू कर दिए। बात बढ़ती ही गई। इस बीच भीड़ ने कुछ घरों में आग लगा दी।

क्षेत्र में इस तरह की घटनाएं नयी नहीं है। अप्रैल 2016 में सहारनपुर ज़िले के ही घटकौली गांव में काफी बवाल हुआ था। तब गांव में भीम आर्मी का बोर्ड लगाने पर उठा विवाद जातीय हिंसा तक पहुंच गया। तब राजपूतों ने पहले गांव के नाम वाले बोर्ड पर काली स्याही पोती और उसके बाद गांव में लगी अंबेडकर की प्रतिमा का भी अपमान किया। तब भी दलित हिंसा का शिकार बने थे। स्थानीय राजपूतों का आरोप है तब से भीम आर्मी के सदस्यों की संख्या में भारी इज़ाफा हुआ है। स्थानीय राजपूतों का मानना है कि दलित उनके बुज़ुर्गों को भी समुचित सम्मान नहीं देते।

यूपी में अक्सर इस तरह के छोटे मोटे जातीय बवाल होते रहते हैं, जो अपने आप ही ख़त्म हो जाते हैं। सहारनपुर अगर सुलग रहा है तो इसकी कई वजहे हैं। सहारनपुर ज़िले में दलितों की ख़ासी आबादी है लेकिन राजपूत भी ठीक-ठाक संख्या में हैं। हालिया चुनाव में उत्तर प्रदेश में बनने योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद से राजपूतों का स्वाभिमान अचानक जाग गया है। राजपूतों को लगता है कि पिछले पंद्रह साल की ग़ैर-बीजेपी सरकारों में उनको झुककर चलना पड़ा है। झुक कर चलना और इज़्ज़त जैसे कथित शब्द जातीय मकड़जाल में उलझे उत्तर प्रदेश में कहीं भी संघर्ष पैदा करने के लिए काफी हैं।

सहारनपुर में संघर्ष के पीछे जो बातें कही जा रही हैं वो काफी सतही हैं। इसके पीछे की राजनीति जानने की कोशिश कम ही लोग कर रहे हैं। देवंबद में रहने वाले रामकुमार कहते हैं कि बीजेपी को पूरे यूपी में बड़ी सफलता मिली है लेकिन सहारनपुर में उसकी उम्मीद के मुताबिक़ नतीजे नहीं आए हैं। इसकी वजह पिछड़ों और दलितों का अपनी अपनी पार्टी से चिपके रहना है। 2019 में यही स्थिति रही तो बीजेपी की राह आसान नहीं होगी। रामकुमार हाल की घटनाओं को संघ औऱ बीजेपी की 2019 की तैयारियों से जोड़ कर देखते हैं।

रामकुमार की बात सही हो सकती है। मुज़फ्फरनगर के बाद सहारनपुर संघ की नई प्रयोगशाला है। तक़रीबन एक जैसी घटनाएं। घटनाओं नें तक़रीबन एक जैसे चेहरों की शिरकत। 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगों की जांच समिति की रिपोर्ट में ज़िम्मेदार माने गए पुलिस अफसर की सहारनपुर में तैनाती महज़ इत्तेफाक़ नहीं हो सकतीं। सहारनपुर नई प्रयोगशाला भी नहीं है। इससे पहले जुलाई 2014 में मुस्लिम और सिखों के बीच सहारनपुर शहर में संघर्ष हुआ था। इसमें तीन लोगों की मौत हुई जबकि सौ से ज़्यादा घायल हुए। इसके बाद दिसंबर में 16वीं विधानसभा के लिए शहर सीट पर उप-चुनाव हुआ। इसमें बीजेपी के उम्मीदवार राजीव गुम्बर ने समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार संजय गर्ग को 26 हजार 667 वोटों से हराया दिया। ज़ाहिर है दंगों के बाद स्थानीय सिख और पंजाबी वोटर गुंबर के साथ लामबंद हुए। मौजूदा संघर्ष के पीछे भी अगर चुनावी गणित है तो संघ काफी आगे तक जाएगा।

मेरठ के पत्रकार अरविंद शुक्ला बताते हैं कि दंगो के पीछे नुक़सान से ज़्यादा डर बैठाने की नीयत होती है। दंगों के बाद कमज़रो लोग ख़ौफ में गांव और घर छोड़कर पलायन करते हैं। इसके बाद उनके घर ज़मीन या तो क़ब्ज़ा लिए जाते हैं या औने पौने दाम पर ख़रीद लिए जाते हैं। इससे भी ज़्यादा असर चुनावी समीकरणों पर पड़ता है। जिन क्षेत्रों में हार जीत का अंतर क़रीबी होता है वहां दंगा संघ परिवार की जीत का सबसे आसान अस्त्र है”, शुक्ला आगे कहते हैं।

बहरहाल सहारनपुर सुलग रहा है। हालिया झड़पें बड़ी रणनीति का छोटा हिस्सा हैं। मुख्यमंत्री और सरकार में जातीय सम्मान की वापसी और अपनी सरकार देखने वाले आसानी से ख़ामोश नहीं बैठेंगे। यूपी में अभी भी दलित चेतना और कमज़ोरों का सामने खड़ा होना सबल के लिए सामाजित गाली है। सहारनपुर निवासी फरहान मसूद के मुताबिक़ “दंगाइयों पर सरकार की नर्मी और कमज़ोरों को सुरक्षा न देने की नीति उपद्रवियों का हौसला ही बढ़ाएगी”।


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

संबंधित आलेख

यूपी : दलित जैसे नहीं हैं अति पिछड़े, श्रेणी में शामिल करना न्यायसंगत नहीं
सामाजिक न्याय की दृष्टि से देखा जाय तो भी इन 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने से दलितों के साथ अन्याय होगा।...
बहस-तलब : आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पूर्वार्द्ध में
मूल बात यह है कि यदि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाता है तो ईमानदारी से इस संबंध में भी दलित, आदिवासी और पिछड़ो...
साक्षात्कार : ‘हम विमुक्त, घुमंतू व अर्द्ध घुमंतू जनजातियों को मिले एसटी का दर्जा या दस फीसदी आरक्षण’
“मैंने उन्हें रेनके कमीशन की रिपोर्ट दी और कहा कि देखिए यह रिपोर्ट क्या कहती है। आप उन जातियों के लिए काम कर रहे...
कैसे और क्यों दलित बिठाने लगे हैं गणेश की प्रतिमा?
जाटव समाज में भी कुछ लोग मानसिक रूप से परिपक्व नहीं हैं, कैडराइज नहीं हैं। उनको आरएसएस के वॉलंटियर्स बहुत आसानी से अपनी गिरफ़्त...
महाराष्ट्र में आदिवासी महिलाओं ने कहा– रावण हमारे पुरखा, उनकी प्रतिमाएं जलाना बंद हो
उषाकिरण आत्राम के मुताबिक, रावण जो कि हमारे पुरखा हैं, उन्हें हिंसक बताया जाता है और एक तरह से हमारी संस्कृति को दूषित किया...