पिछले दिनों मध्यप्रदेश में तेज हुआ किसान आंदोलन अब धीरे-धीरे पूरे देश में असर दिखाने लगा है। मसलन गुजरात में भी अब किसानों ने अपनी एकजुटता को मजबूत किया है और अपने अधिकारों के लिए राज्य सरकार से सीधी लड़ाई को अपनी

कमर कस ली है। प्रमाण यह कि आगामी 21 जून को जहां देश भर में योग दिवस मनाया जायेगा, गुजरात के किसान पूरे गुजरात में उपवास योग करेंगे।
जामनगर जिले के कलावर ताल्लुका के सिसांग गांव में करीब 40 गांव के किसान अपने पारंपरिक कृषि यंत्रों यथा कुदाल, हल, फ़ावड़ा आदि लेकर एकजुट होंगे और भूखे रहकर योग करेंगे। किसानों के लिए आवाज उठाने भरत सिंह जाला बताते हैं सिसांग गांव में बीते महीने 3 मई को 32 वर्ष के किसान रवि जदेजा ने खुदकुशी कर ली थी। उसके परिजनों को राज्य सरकार द्वारा कोई मुआवजा राशि नहीं दी गयी है। जबकि बैंक वाले उसके परिजनों को अभी भी प्रताड़ित कर रहे हैं।
गुजरात के किसानों के अंदर आया यह बदलाव कोई नया बदलाव नहीं है। इस बदलाव की कहानी भी महाराष्ट्र के विदर्भ, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ आदि के किसानों की बदहाली के कारण की गयी खुदकुशियों के साथ शु्रु होती है। गुजरात के किसानों की लड़ाई को सुप्रीम कोर्ट तक में लाने वाले “क्रांति” संस्था के समन्वयक भरत सिंह जाला के मुताबिक सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी जानकारी के अनुसार पूरे गुजरात में वर्ष 2003 से लेकर दिसंबर 2016 के बीच गुजरात के 2766 किसानों ने खुदकुशी की। इसमें सबसे अधिक वर्ष 2003 से लेकर 2007 के बीच सबसे अधिक 2479 किसानों ने जान देकर अपनी इहलीला समाप्त कर ली। वहीं 2008-12 के बीच 152 और वर्ष 2013-16 के बीच 87 और इस वर्ष 8 किसानों ने खुदकुशी की। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2003-16 के बीच 2 लाख 96 हजार 146 किसानों ने ख़ुदकुशी की है। भरत सिंह जाला बताते हैं कि गुजरात में मुख्य रुप से कोरी(ओबीसी) और राजपूत जाति के लोग खेती करते हैं एवं खेतिहर मजदूर हैं। खुदकुशी करने वालों में मुख्य रुप से इन्हीं जातियों के लोग शामिल हैं।


गुजरात माडल की कथित राजनीति का ही जोर रहा कि वहां के किसानों की समस्याओं के बारे में अधिक पढा लिखा नहीं गया। राजनीति के लिहाज से तब विदर्भ अधिक महत्वपूर्ण था। गुजरात में किसानों द्वारा खु्दकुशी के संख्या के मामले में आंकड़ेबाजी से इन्कार नहीं किया जा सकता है। इस संबंध में प्रसिद्ध पत्रकार पी साईंनाथ बताते हैं कि किसानों की खुदकुशी के बहुत सारे आंकड़े उपलब्ध हैं। लेकिन हमारे लिए केन्द्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के द्वारा जारी आंकड़ों को आधार मानना चाहिए। हालांकि 2014 के बाद इसके आंकड़ों की विश्वसनीयता घटी है और आंकड़ेबाजी शुरु हुई है। खासकर गुजरात से जुड़े आंकड़ों में आंकड़ेबाजी 2014 के पहले से जारी है।

वहीं सबसे बड़ा सवाल यह है कि वे कौन हैं जो खुदकुशी कर रहे हैं।

भरत सिंह जाला कहते हैं कि खुदकुशी करने वाले छोटे किसान हैं। इनमें सबसे अधिक ओबीसी और राजपूत शामिल हैं। वहीं दलित किसानों की भी लंबी सूची है। एक उदाहरण देते हुए जाला बताते हैं कि वर्ष 2014 में राजकोट के एक गांव मेसवरा में एक दलित किसान ने खुदकुशी की थी। उसका नाम गोबर भाई था। पहले वह भूमिहीन था। राज्य सरकार ने वर्ष 2012-13 में दलितों को जमीन देने की अपनी योजना के तहत 10 बीघा जमीन गोबर भाई को भी दी। लेकिन वह बंजर जमीन थी और सिंचाई का कोई साधन मौजूद नहीं था। गोबर भाई ने अपने पैसे से उस जमीन पर कुआं खुदवाया और बैंक से लोन लेकर पहले साल मुंगफ़ली की खेती की। परंतु फ़सल अच्छी नहीं हुई। बाद में उसने बीटी कॉटन यानी कपास की खेती अपने दोस्तों और परिजनों से उधार लेकर की। फ़सल अच्छी हुई परंतु कॉटन कारपोरेशन ऑफ़ इन्डिया द्वारा कम कीमत दिये जाने व खरीद नहीं किये जाने के कारण गोबर भाई की मुश्किलें बढती गयीं। बाद में वर्ष 2014 में गोबर भाई ने खुदकुशी कर ली। भरत सिंह जाला के मुताबिक गोबर भाई के जैसे ही बड़ी संख्या में किसानों ने बैंकों की प्रताड़ना से दुखी और राज्य सरकार के द्वारा मदद नहीं मिलने के कारण अपनी जान दी।
भरत सिंह जाला ने बताया कि गुजरात के किसानों की दुर्दशा, आत्महत्या करने वाले किसानों के परिजनों को समुचित मुआवजा व आश्रितों को सरकारी नौकरी आदि को लेकर उन्होंने वर्ष 2013 में ही एक जनहित याचिका गुजरात हाईकोर्ट में दायर किया था। पहली ही सुनवाई में तब हाईकोर्ट ने इस याचिका को यह कहकर खारिज कर दिया था कि यह नीति से संबंधित मामला है। अदालत राज्य सरकार के मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगी। बाद में श्री जाला ने हाईकोर्ट फ़ैसले के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। करीब 4 वर्षों के बाद इस वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को किसानों की खुदकु्शी, मृतक किसानों के परिजनों को मुआवजा एवं उनके पुनर्वास हेतु एक नीति बनाने के लिए नोटिस जारी किया है।
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